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भारत क्या है?

मेरे लिए भारत न कोई माता है न पिता ,न सुजलाम-सुफलाम् है, न वन्दे मातरम् जैसा; मेरा भारत यहाँ के लोग हैं, फावड़ा चलाते किसान-और हथौड़े चलाते मजदूर हैं, वे बच्चे हैं, जो उल्लास के साथ कूदते-फांदते स्कूल की ओर भाग रहे हैं। धान रोपती, बर्तन मांजती, भेंड़-बकरी चराती, बच्चों को संभालती महिलाओं में मुझे भारत का मातृ रूप दिखा है

अनेक बार, अनेक रूपों में यह प्रश्न मेरे मन में उभरा है कि यह भारत क्या है? मैं समझता हूँ मेरी तरह आप के मन में भी इस तरह के सवाल उभरे होंगे। जब हम माँ की गोद और परिवार की सरहदों से बाहर आते हैं, तब एक समाज में खुद को पाते हैं। यह समाज बढ़ता हुआ देश बन जाता है। उसके भी पार विश्व। और अंततः अनंत अंतरिक्ष में हम धूल के कण या समंदर के बून्द की मानिंद स्वयं को महसूस करते हैं। यही हमारी उपस्थिति और अस्तित्व है, जिस पर हम इतराते होते हैं।

हमारे देश के दार्शनिकों ने देश की चिंता या कल्पना बहुत कम की। वे स्थूल से अधिक सूक्ष्म के आग्रही थे। उपनिषदों के ज़माने में ही उन्होंने न दिखने वाले, कुछ भी नहीं खाने-पीने वाले एक ब्रह्म की कल्पना की और उसे विमर्श का केंद्र बना दिया। उपनिषदों के मुख्य चिंतक जनकादि राजन्य थे, जो पुरोहितों की उपेक्षा करते थे। उन्होंने पूरी सृष्टि की चिंता की, किन्तु कोई देश नहीं बनाया। लेकिन उनके बनाने न बनाने में क्या था, देश बना। पहले जनपदों के रूप में और फिर इनके एक महासंघ के रूप में जिसे साम्राज्य कहा गया। संभवतः मगध भारत का पहला साम्राज्य था। इसे बनाने वाली कई चीजें थीं, कई कारक थे। उम्मीद करता हूँ इससे आप सब परिचित होंगे।

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जनपदों के साम्राज्य में विकसित होने के प्राथमिक कारण उत्पादन व्यवस्था और प्रक्रिया में क्रान्तिकारी परिवर्तन था। धातुओं की खोज और मशीनों (चक्का ही सही) के विकास से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती गयी। इससे अधिशेष अथवा अतिरिक्त उत्पादन पर कब्जे की लड़ाई तेज होने लगी। इसी प्रक्रिया के बीच ऋषि-मुनियों और व्यापारियों ने जनपदों के विनष्ट होने और साम्राज्यों के विकसित होने की बात स्वीकारी। कुछ ने इसका स्वागत किया, कुछ ने रुदन और कुछ ने इन दोनों की सङ्गति बैठाई। बुद्ध के ज़माने में यह संघर्ष तीव्रतर दीखता है, जब मक्खलि गोशाल जनपदों के विनष्ट होने से रुदन करते दीखते हैं और गौतम बुद्ध जनपदों के प्रति करुणा रखते हुए भी साम्राज्य का कोई विरोध नहीं करते। वह नयी विकसित दुनिया के लिए एक सामाजिक सोच विकसित करते हैं। इस में वर्णाश्रम धर्म की आलोचना स्वाभाविक थी। अन्यों की उपस्थिति स्वीकारना और उनसे सम्बन्ध विकसित करना उनकी सोच का हिस्सा बनता चला गया। यह भारत की पृष्ठभूमि बन रही थी। बुद्ध उसके प्रथम पुरोहित थे।

फिर तो जाने कितने संतों, महात्माओं, कवियों और राजनयिकों ने मिलकर भारत को रचा। यह एक लम्बी और सतत प्रक्रिया रही। भारत कोई ऐसी चीज नहीं जो एकबार बन गई और स्वीकार कर ली गई। किसी जुबान की तरह यह आहिस्ता-आहिस्ता बनती गई। यह आज भी बन रही है और आगे भी बनती रहेगी। जाहिर है जो चीज बनती है, बिगड़ती भी है। भारत के साथ भी ऐसा ही है। जीवन की चयापचयता (मेटाबोलिज्म ) की तरह यह भी लगातार बिगड़ती-बनती रही है। यही इसकी जीवंतता है, अमरता है।

मानव, उसका समाज और सब से बढ़ कर उसकी सभ्यता कब से है यह कहना पक्के तौर पर बहुत मुश्किल है। लेकिन भारत में सभ्यता की जो पहली लकीरें या अवशेष मिले हैं, वे हड़प्पा-मुईन-जो दड़ो के हैं। इन्हे सिंधु काठे की सभ्यता कहते हैं। इसके वासियों के शौक, उनकी जीवन शैली और सोच के बारे में हम कुछ-कुछ जानने लगे हैं। वह नगर सभ्यता थी, ग्रामीण सभ्यता नहीं। इसका तात्त्पर्य यह कि उस समाज में श्रेणी-विभाजन हो चुका था। उनके स्नानागार थे, वीथियाँ थीं, उनकी लिपि थी, चित्र और मूर्ति कला थी। जब इतनी चीजें थीं, तब विचार भी होंगे; सामाजिक संगठन तो होगा ही। इन्ही लोगों से आर्यों की टक्कर हुई और स्वाभाविक था वे समाहित कर लिए गए या हो गए।

आर्यों और द्रविड़ों की इस टक्कर में मेरी समझ से जीत-हार जैसी कोई बात नहीं हुई। हाँ, उथल-पुथल हुई। एक अन्य अब यहां उपस्थित था। उसके साथ कैसा सम्बन्ध रखा जाय का विचार आना स्वाभाविक था। आगंतुक भी इस चिंता में थे कि यहां के लोगों के साथ वह किस स्तर तक मेल-जोल रखें। दोनों तरफ अतिवादी और मध्यमार्गी लोग थे। लेकिन अंततः अतिवादी पीछे हटे। समन्वयकारी सोच और लोग ही टिके। यह समन्वयकारी सोच ही भारत है, मुझे ऐसा लगता है। इसलिए मैं इस नतीजे पर आया हूँ कि भारत कोई देश नहीं, एक सोच है, विचार है और शायद कह सकते हैं कि उसने एक विचारधारा या विचार परंपरा का रूप ले लिया है। मैं इस बात से सहमत नही हूँ कि भारत एक भूगोल है जो 15 अगस्त 1947 को या और भी किसी तारीख को अस्तित्व में आया और तबसे रूढ़ है। नहीं, भारत रूढ़ नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए। 15 अगस्त 1947 को कश्मीर भारतीय भूभाग में नहीं था, गोवा नहीं था, सिक्कम नहीं था। ये भारतीय भूगोल से जुड़े। अशोक के ज़माने में दक्षिण के चोल पांड्य राज्य उसके साम्राज्य में नहीं थे, और पश्चिम के हिन्दुकुश तक की सीमायें थीं। मुगलों और अंग्रेजों के ज़माने में भारत का भूगोल अलग-अलग रहा। यहां तक कि 14 अगस्त 1947 का भारत और 15 अगस्त 1947 का भारत अलग-अलग भूगोल का था। तो इन सब के बीच भारत कहाँ है? वह हमारे राजनेताओं द्वारा तय किये हुए चंद लकीरों के बीच कैद है? शायद नहीं।



कुछ लोगों के लिए भारत एक माता है, कुछ लोगों के लिए पितृभूमि भी। बहुत से लोग इसे नदियों-पहाड़ों का एक सम्पुजन भी स्वीकारते हैं, तो कुछ लोगों के लिए यह एक संवैधानिक अवस्थिति है, जिसे 26 दिसम्बर 1949 को हमने आत्मसात किया था। कुछ लोगों के लिए भारत संसद में घिरा हुआ है, तो कुछ लोगों के लिए माता का स्त्री रूप लेकर बाघ पर बैठी हुई है। कुछ लोग इसे राम मंदिर में बैठाना चाहते हैं, तो कुछ अपने बजरंगी हथियारों में। कवि बंकिम के लिए यह सुजलाम-सुफलाम मलयज शीतलाम है, तो पंत के लिए ग्रामवासिनी और तरुतल निवासिनी। लेकिन मेरे लिए भारत न कोई माता है न पिता ,न सुजलाम-सुफलाम् है, न वन्दे मातरम् जैसा; मेरा भारत यहाँ के लोग हैं, फावड़ा चलाते किसान-और हथौड़े चलाते मजदूर हैं, वे बच्चे हैं ,जो उल्लास के साथ कूदते-फांदते स्कूल की ओर भाग रहे हैं। धान रोपती, बर्तन मांजती, भेंड़-बकरी चराती, बच्चों को संभालती महिलाओं में मुझे भारत का मातृ रूप दिखा है, वही मेरे लिए भारत माता हैं। शुभ्र्वसना, बाघ पर बैठी माता मेरी भारतमाता नहीं हो सकती। मैं उसके जयकारे नहीं कर सकता। मेरा भारत मेरी धड़कनों का हिस्सा है, वह हमसे अलग नहीं है, अन्य नहीं है, उसकी वंदना हम कैसे कर सकते हैं। वंदना तो अन्य की होती है, उसकी होती है, जो पृथक है। मेरा भारत मेरे साथ है, इसका ध्यान हम अवश्य कर सकते हैं, पूजा -वंदना कैसे कर सकता हूँ।

बहुजनों की भारत माता की एक परिकल्पना (पेंटिंग : लाल रत्नाकर)

मैं फिर कहना चाहूंगा, हमें अपने भारत को ढूँढना चाहिए। कबीर ने अपने ईश्वर को ढूंढा था। ईश्वर ने कबीर को बतलाया तुम मुझे कहाँ ढूंढते हो, मैं तो तुम्हारे पास हूँ, तुम्हारी हर सांस में हूँ, धड़कनों में हूँ, मंदिर-मस्जिद और छुरे-गंडास में मैं नहीं होता। कोई और होता होगा।

मेरा भारत भी संविधान के पन्नों, संसद के गलियारों, सुप्रीम कोर्ट के फरमानों और तुरही बल्लम फ़ौज-फाटे वाले सरकारी परेड में नहीं, उस विचार परंपरा में है, जिसने सबसे दुर्बल व्यक्ति के पक्ष में खड़ा होने की हमें सीख दी है, मेरा भारत उस पौराणिक कथा से जुड़ा है, जिसमे पति और राज्यसत्ता से परिचय-चिन्ह (या कार्ड ) के अभाव में परित्यक्त शकुंतला का बेटा बालक भरत बढ़ कर भारत बन जाता है। मेरा भारत रामलला का नहीं, भरतलला का है। एक प्रेमकथा से इसका सृजन हुआ है। इसमें करुणा, कवित्व और उदारता के भाव हैं। मेरा भारत ऋषियों, संतों, कवियों और अपनी आध्यात्मिकता से रचा-बुना है। यह एक विचार है, एक धड़कन है, मानवीयता का पाठ है। यह पूरी प्रकृति और दुनिया के तमाम लोगो से प्रेम करने की सीख देता है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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