महान समाज सुधारक, राजनीतिज्ञ और धार्मिक नेता डॉ. भीमराव आंबेडकर को इस धरती पर जितना भी समय मिला, उसमें उन्होंने उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल कीं। आंबेडकर ने अपनी पुस्तक द बुद्धा एंड हिज धम्म में बौद्ध धर्म को एक नए नज़रिए से देखा। 6 दिसंबर, 1956 को उनकी मृत्यु तक यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी थी और यह 1957 में पाठकों को उपलब्ध हो सकी। उनकी एक अन्य पुस्तक, जो इससे भी कहीं अधिक विवादस्पद है, का हाल इससे भी बुरा हुआ। नानक चंद रत्तू के अनुसार, आंबेडकर ने जनवरी, 1954 में इस पुस्तक का लेखन शुरू किया और नवंबर, 1955 में वह प्रकाशन के लिए तैयार थी। इस पुस्तक का शीर्षक था रिडिल्स इन हिंदूइज्म और यह हिन्दू धर्म के प्रिय और सम्मानित ग्रंथों, नायक-नायिकाओं और सिद्धांतों पर तीखा हमला थी। रत्तू कहते हैं कि आंबेडकर ने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि चार प्रतियों में टाइप करवाई थी। आंबेडकर का कहना था कि “मेरी अपनी कोई प्रेस तो है नहीं और इस पुस्तक को मुझे किसी हिन्दू प्रेस से छपवाना पड़ेगा। वहां यह पाण्डुलिपि गुम हो सकती है या जल कर अथवा अन्यथा नष्ट हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो मेरी सालों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसलिए, चाहे जितने भी पैसे खर्च हो जाएं मैं चाहूंगा कि मेरे पास इसकी एक अतिरिक्त प्रति रहे।” आंबेडकर इस पुस्तक को तुरंत प्रकाशित नहीं करवा सके क्योंकि उन्हें दो फोटोग्राफ, जिन्हें वे पुस्तक में शामिल करना चाहते थे, नहीं मिल सके थे। आर्थिक परेशानियां तो थीं हीं। वैसे अर्थ की कमी उनकी हर पुस्तक प्रकाशन परियोजना की हमजोली रही। आंबेडकर के लेखों और भाषणों के संकलन के संपादकों और अन्य अध्येताओं ने इन समस्याओं का विस्तार से विवरण किया है। अंततः पुस्तक की पांडुलिपियों की चारों प्रतियां गायब हो गईं और आंबेडकर वांग्मय के संपादकों को उनकी मृत्यु के बाद उनके कागजातों में मिलीं। अलग-अलग लेखों की पांडुलिपियों को जोड़ कर यह पुस्तक प्रकाशित करनी पड़ी।
लेखक के बारे में

स्कॉट आर. स्ट्राउड
स्कॉट आर. स्ट्राउड ऑस्टिन, अमेरिका, स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में संचार अध्ययन के सह-प्राध्यापक और मीडिया आचार के कार्यक्रम निदेशक हैं। उनकी सबसे ताज़ा पुस्तक ‘द इवोल्यूशन ऑफ़ प्रेगमेटिज्म इन इंडिया: आंबेडकर, डेवी एंड द रेटोरिक ऑफ़ रिकंस्ट्रक्शन’ (यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, 2023) हमें यह बताती है कि डेवी के व्यवहारवाद से भीमराव आंबेडकर कैसे जुड़े और किस प्रकार इस जुड़ाव ने भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना के अभियान में आंबेडकर के भाषणों और लेखन को आकार दिया। ‘वे जॉन डेवी एंड द आर्टफुल लाइफ’ एवं ‘कांट एंड द प्रॉमिस ऑफ़ रेटोरिक’ के लेखक भी हैं। वे सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में देश के पहले जॉन डेवी केंद्र के सहसंस्थापक भी हैं।