‘ओ रे मांझी….चे चल पार, ले चल पार, मेरे साजन हैं उस पार….ले चल पार….’
‘दूर है किनारा, गहरी नदी की धारा, टूटी तेरी नैया, मांझी खेते जाओ रे, दूर है किनारा….’
कलात्मक ढंग से सोचें तो अपने बलिष्ट हाथों से पतवार चलाता मांझी, मोर्चे पर डटा सूरमा दिखाई पड़ता है। जबकि असलियत उससे कोसों दूर है। नाव पर पतवार चलाता मांझी, बेजान मशीन से अलग नहीं रह जाता। मूक, अवाक्, बैल की तरह अपने काम में डूबा हुआ। मांझी को लेकर ऊपर जिन गीतों का संदर्भ आया है, उनमें पृष्ठभूमि असम और बंगाल की है। देखते हैं, इतनी भावाकुल पृष्ठभूमि रचने वाले भद्रजनों के देश में मांझी की क्या हैसियत है? कला उसके यथार्थ को सामने लाती है; अथवा सच पर पर्दा डालने का काम करती है? असम में वहां की कुल जनसंख्या की लगभग 15 प्रतिशत आबादी दलित हैं। उनमें दो-तिहाई से ज्यादा आबादी कैवर्त और नामशूद्रों की है। असम में ब्राह्यण पांचवी शताब्दी में पहुंचे थे। अहोम राजाओं के बुलावे पर। बावजूद इसके बाकी देश की तरह वे वहां भी समाज-व्यवस्था के शिखर पर हैं। उनके बाद कायस्थ का नंबर आता है। पूरे देश की तरह वहां भी छूआछूत की समस्या है। जातिवाद है, और कभी वहां शेष भारत की तरह दास प्रथा भी है। असम में कैवर्त (केवट) को अछूत समझा जाता है। वहां उनके पूर्वजों को पंद्रहवीं शताब्दी और उसके बाद भी, कभी दबाव तो कभी प्रलोभन देकर, चाय-बागान मजदूर के रूप में बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि प्रांतों से लाया गया था। तब उन्हें कुली कहा जाता था। यह छाप आज भी उनके माथे पर चस्पां है। स्थानीय लोगों के लिए वे आज भी ‘कुली’ ही हैं।
नाव खेने के अलावा कैवर्त मछलियां भी पकड़ते हैं। जल से उनका करीबी नाता है। उनका संघर्ष उससे कहीं ज्यादा कठिन है, जितना फिल्मों में दर्शाया जाता है। पर्दे पर तो हम उन्हें चंपू चलाते, नदी-समुद्र की लहरों से टकराते हुए देखते हैं। असल जिंदगी में उन्हें समाज से भी टकराना पड़ता है। अस्पृश्यता के दंश को झेलना पड़ता है, जिसका असर पूरे देश में है; और जो भारतीय समाज के पांचवें हिस्से के साथ जन्म से ही चस्पां हो जाती है। छोटी-सी नाव और चंपू की मदद से बड़ी-बड़ी नदियों, महासागर को पार कर जाने वाला मांझी असल जिंदगी में तथाकथित भद्रजनों के घर की देहरी पार नहीं कर पाता। भूल से भी कर जाए तो घर की पवित्रता संकट में पड़ जाती है। वे उसकी नाव में बैठ सकते हैं। उसे चंपू चलाते देख भावाकुल कर देने वाला गीत गा सकते हैं। उसकी लाई मछली से मछली-भात बना सकते हैं। ऐसे किसी काम से उनकी पवित्रता भंग नहीं होती। कहीं-कहीं तो गौरव झलकता है। परंतु उसे पास नहीं बिठा सकते।
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बंगाली भद्र लोक के जीवन में मछलियों का बड़ा महत्त्व है। बंगाल के दलितों कई प्रकार के धार्मिक त्योहार मनाते हैं। दुर्गा पूजा भी है। दुर्गा पूजा के भोग को केवल ब्राह्मण पका सकता है। यदि कोई दलित, स्वयं कैवर्त भी उसे स्पर्श कर ले तो भोग अपवित्र हो जाता है। जबकि उसी कैवर्त की पकड़ी गई मछलियां बंगाल में पूजा की चीज मानी जाती हैं। विशेषकर विवाह के अवसर पर। भोजन से लेकर दुल्हन के ससुराल-घर में प्रवेश, सजावट करने तक मछली का महत्त्व बना रहता है। वे केवर्त की मेहनत उसके हाथों से ही उन तक पहुंचतीं हैं। वहां पहुंचते-पहुंचते मछलियां पवित्र हो जाती हैं, कैवर्त अपवित्र बना रहता है।
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आदमी को छोड़िए। वह तो गलतियों का पुतला है। मनुष्य द्वारा बनाए गए भगवान की भी यही हालत है। छूत-अछूत का डर उसे भी सताता रहता है। दलितों के मंदिर में जाने से भगवान भी छूत का शिकार हो जाता है। इसलिए कैवर्त और दूसरी अछूत जातियों को वहां के नामघरों(प्रार्थना केंद्र) और मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं थी। ‘वायकाम सत्याग्रह’ की भांति असम के दलितों ने भी 1921 से 1926 के बीच मंदिर प्रवेश के अधिकार हेतु लंबा संघर्ष किया था, जिसे कांग्रेस का समर्थन भी प्राप्त था। 1921 में तेजपुर से 40 किलोमीटर दूर जामगुरी दलितों की मांग का समर्थन करते हुए स्थानीय नेता चंद्रकांत शर्मा ने कहा था कि “छुआछूत और जातिभेद में विश्वास करने वाले ब्राह्मण, गुसाईं और महंत अंग्रेजों से भी बड़े दुश्मन हैं”(सोशल मूवमेंट इन नार्थ-ईस्ट, एम. एन. कर्ण, पृष्ठ -149)। 1926 में संपन्न हजारों दलितों के जमावड़े के बीच मांग की गई थी कि ‘स्वराज मिले न मिले मगर छुआछूत का अंत अवश्य होना चाहिए।’ (सुमित सरकार मॉडर्न इंडिया, पृष्ठ -29)
हमने पेशवाई शासन के बारे में सुना है। उनके राज में दलित को गले में हांडी लटकाकर चलना पड़ता था। कई बार पीछे झाड़ू भी बांध दी जाती थी। ताकि उसके चलने से अपवित्र हुआ मार्ग साफ होता रहे। मध्यकाल में असम में भी कैवर्त और दूसरी दलित जातियों के माथे पर निशान लगा दिया जाता था, ताकि उन्हें दूर से ही पहचाना जा सके। लंबे बाल रखने पर प्रतिबंध था। रहने के लिए उन्हें बस्ती से दूर जगह दी जाती थी (सोशल मूवमेंट इन नार्थ-ईस्ट, एम. एन. कर्ण, पृष्ठ 149-150)। असम के साथ-साथ बंगाल में भी दलित कंधे पर चादर लटकाकर नहीं चल सकते थे। 15—16वीं शताब्दी में असम में संत शंकरदेव तथा उनके शिष्य महादेवदेवा ने इन कुरीतियों के विरुद्ध अलख जगाने का काम किया था। लेकिन समाज ऐसे सत्पुरुषों की अच्छाइयां याद नहीं रखता। उनके नाम पर मठादि बनाकर बुराइयां जरूर पाल लेता है।
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ज्यादातर कैवर्त हिंदू धर्म के मानने वाले हैं। वे सभी कर्मकांड करते हैं, जो हिंदू के लिए बताए जाते हैं। लेकिन कर्मकांड करने के लिए सभी ब्राह्मण उनके घर नहीं जा सकते। केवल निचले पंडित ही उनके यहां कर्मकांड करा सकते हैं। कैवर्त के पुरखे ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा चाय-बागान मजूदर के रूप में बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बंगाल आदि से लाए गए थे। असम में बारिश ज्यादा होती है। नदियों में बाढ़ जाती है। उस अवस्था में नाव खेने के लिए अनुभव-सिद्ध नाविकों की आवश्यकता थी, ताकि चाय-बागान का व्यापार चलता रहे। मेहनतकश कैवर्तों ने असम में चाय व्यापार को जमाने में मदद की। परंतु उनकी हालत ज्यों की त्यों बनी रही। आज भी उसमें बहुत बदलाव नहीं आया है।
आजादी के बाद देश बदला। लेकिन असम के कैवर्त समाज के लोगों की स्थितियां नहीं बदली हैं। यह आज की बात नहीं है। इसी तरह के छूआछूत को लेकर संतराम बीए ने अपनी पुस्तक ‘हमारा समाज’ की शुरुआत अपने एक अनुभव से करते है। उसे उन्हीं के शब्दों में पढ़ना अच्छा रहेगा—
‘‘जिन दिनों में लाहौर में रहता था, मेरे पड़ोस में रविदत्त नाम के गौड़ ब्राह्मण गृहस्थ रहते थे। एक दिन की बात है, मैं उनके निकट बैठा था। संयोग से जांति-पांति पर बात चल पड़ी। मैंने पूछा, ‘जात-पात के संबंध में आपका क्या मत है?’ इसपर वे बोले—‘मेरे मत का एक मनोरंजक इतिहास है। आप सुनना पसंद करें तो सुनाऊं? मैंने उत्तर दिया—‘मेरा तो यह मनभाता विषय है। इसे सुनने में मुझसे बढ़कर प्रसन्नता किसे होगी? इसपर वे बोले—
‘प्रथम यूरोपीय महायुद्ध के समय मैं भी लड़ाई में गया था। मेरी पलटन इटली में थी। मुझे खाना बनाने के लिए भारतीय नौकर मिला हुआ था। वह अपढ़ था। मैं ही उसकी चिट्ठी लिखा और पढ़ा करता था। एक दिन उसके पिता की चिट्ठी आई। चिट्ठी पर भेजने वाले का नाम ‘नत्थु भंगी’ देखकर मैं चौंक पड़ा। मैंने उससे पूछा तुम कौन जाति हो? वह चुप रहा। मैंने बिगड़कर कहा, ‘तुम भंगी होकर मुझे खाना खिलाते रहे हो? तुमने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। मैं तुम्हारी शिकायत मेजर साहब से करता हूँ।’
जिस पलटन के साथ मैं लगा हुआ था, वह संयोग से इंग्लेंड के विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों की थी। उसके सबके सब सिपाही वहां के कालेजों के छात्र ही थे। उनके अफसर भी प्रोफेसर आदि ही थे। मैंने मेजर के पास शिकायत कर दी कि इस नौकर ने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया है।’ उसने पूछा, ‘कैसे?’ मैंने कहा—‘इसने अपनी जाति छिपाए रखी और मुझे भोजन बनाकर खिलाता रहा है।’
मेजर ने आश्चर्य से कहा, ‘खाना खिलाने से आपका धर्म कैसे भ्रष्ट हो गया?’
मैं—‘जी, यह भंगी है और मैं ब्राह्मण। इसके हाथ का भोजन करने से मेरी जाति चली गई है और धर्म डूब गया है।’
मेजर—‘(आश्चर्य से) वह क्यों?
मैं—‘जी, यह टट्टी उठाता है।’
मेजर—‘तब क्या हुआ? इस पलटन में हम सब बारी-बारी से सात-सात दिन टट्टी साफ करने का काम किया करते हैं। टट्टी साफ करने से तुम्हारा धर्म कैसे डूब गया? जाओ तुम्हारी शिकायत व्यर्थ है।’
इसपर मैं बहुत चकराया और मेजर साहब को समझाने का बार-बार यत्न करने लगा। पर मेरे लाख सिर पटकने पर भी उसकी समझ में कुछ आया….तब वे तंग आकर मुझे दूसरे अफसर के पास ले गए। वह अफसर भारत में पादरी रह चुका था। उसने मुझसे पूछा—‘क्या आप भारतीय हिंदू हैं?’ मैंने कहा—‘जी हां?’ वह बोला—‘ठीक है, मैं समझ गया, आप लोग दूसरी जातिवालों का नहीं खाते।’
इसपर मेजर ने मेरे उस रसोइए को हल्का-सा दंड दे दिया। इसके बाद वह भूतपूर्व पादरी मेरे पास आया और एकांत में ले जाकर कहने लगा—‘देखो, तुम उस रसोइये का दंड दिलाने में सफल तो अवश्य हो गए हो, पर याद रक्खो, तुमने मनुष्यता का अपमान किया है। तुम भगवान के दरबार में फटकारे जाओगे!’ उस पादरी के शब्दों ने मेरे मर्मस्थल पर आघात किया। मुझे अपने उस दुष्कर्म पर भारी पश्चाताप हो आया।’’
कहानी में जमादार को ‘हल्की-सी’ सजा मिलती है। क्यों मिलती है? क्या वह सजा का हकदार था? सजा का हकदार तो ‘रविदत्त गौड़’ था, जिसने नत्थू जमादार की अस्मिता को ललकारा था। इसका एक और पहलु भी है। गौड़ ब्राह्मण ने नत्थू जमादार को दंड दिलाने के लिए लंबा प्रयास किया था। जबकि नत्थू जमादार ने, निर्दोष होने के बावजूद, सजा को नियति की स्वीकार लिया था। यह उन दिनों की सामाजिक संरचना है, जिसमें आज भी बहुत बदलाव नहीं हुआ है।
कहानी में एक और चूक है जिसे संतराम बीए जैसे पारखी भी पकड़ नहीं पाए थे। वह है, गौड़ ब्राह्मण को कानूनन दंड दिलवाने के बजाय भगवान के दरबार में फटकारे जाने की चेतावनी देना। एक भूतपूर्व पादरी इससे अच्छी बात कह ही नहीं सकता था। अन्याय के प्रति अनुकूलन की स्थिति ऐसे ही तैयार होती है, जिसकी शिकार देश की आधी से ज्यादा आबादी है।
फिर क्रांति कैसे हो? लोगों को चेताया कैसे जाए? अपनी समझ में इसका एक ही उपाय है—जहां-जहां भाग्य लिखा है, वहां-वहां अन्याय लिख दीजिए। शोषितों तक आपका संदेश पहुंच जाएगा।
( संपादन- नवल/सिद्धार्थ)
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