जन-विकल्प
वैदिक-काल से मेरा तात्पर्य उस काल से है, जिसमें वेदों की रचना हुई। विद्वानों के अनुसार यह समय अनुमानतः ईसापूर्व 1500 वर्ष से लेकर 1000 ईस्वीपूर्व तक का था। कुछ अतीतजीवी लोग समझते हैं कि वैदिक-काल की बोल-चाल की भाषा संस्कृत थी और उन दिनों सम्पूर्ण भारत पर आर्यजन ही रहते थे। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं था। संस्कृत रचना की भाषा थी। कुछ विशिष्ट किस्म के लोग ही इसमें पारंगत थे; और स्वाभाविक है, उन्हें इस बात का थोड़ा गुमान भी रहा होगा। जैसे आर्थिक रूप से संपन्न लोग अपने बनाये दुर्ग में रहते हैं, वैसे ही ये विशिष्ट लोग अपनी भाषा की गुफा में रहते थे।
हाँ, इनकी जीवन-शैली और दृष्टिकोण शेष लोगों से भिन्न थे। मैंने पहले ही बतलाया है, आर्यजन तत्कालीन भारतीय समाज के एक बहुत ही छोटा हिस्सा थे। अनार्य समाजों से इनका धीरे-धीरे मिलना स्वाभाविक था। ये मिले और फिर एक मिश्रित समाज बना। लेकिन आर्यों का प्रभाव भारतीय समाज पर जबरदस्त रूप से पड़ा। इसका कारण यह रहा कि राजसत्ता पर उनका प्रभाव बढ़ गया था।
आर्यों का जीवन-यापन कैसा था, इसकी कुछ सूचना हमें ऋग्वेद से ही मिलती है। घोडा, आरा वाले पहिये का रथ, यज्ञ, अग्निवेदी, सोम-पान और दाहकर्म उनकी ऐसी विशेषता थी, जो उन्हें अनार्य-जातियों से विलग करती थीं। सिन्धु-सभ्यता में घोड़े की उपस्थिति नहीं मिलती। अपवाद में लोथल में मिली घोड़े की मृण्मयी मूर्तियां हैं। लेकिन यह उत्तर सिंधु काल के समय की हैं। सिन्धुवासी व्यापार के लिए बाहर जाते रहते थे और घोड़े से उनका परिचित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसे में उनकी मूर्तियां भी बन सकती हैं, जैसे हम अपने घरों में शेर की मूर्तियां रखते हैं। हाँ, घोड़ा यहां घरेलु पशु नहीं था, जैसे कि गाय। हड़प्पा की मोहरों पर सांढ़ की उपस्थिति गाय को उनके जीवन के लिए जरुरी होना सिद्ध करता है। बैल से हड़प्पावासी वही काम लेते थे, जो घोड़े से आर्य लेते थे। आर्यों का जीवन तो पूरी तरह घोड़ा-केंद्रित था। गाय दूसरे स्थान पर थी। ऋग्वेद में 250 स्थानों पर घोड़े का उल्लेख है, तो 176 स्थानों पर गौ के। बैल की उपस्थिति नगण्य है। हाँ, अनार्य समाज में गाय और बैल दोनों महत्वपूर्ण थे, क्योंकि घोड़े का इस्तेमाल वहां नगण्य था। अनार्य देवता महादेव की सवारी बैल है।
आर्यों की दूसरी खास चीज थी रथ, जिसमें आरावाला पहिया (चक) लगा होता था। आरा लग जाने के कारण पहिये का वजन हल्का हो गया, परिणाम-स्वरुप गति बढ़ गयी। इस रथ ने आर्यों को अपने प्रसार में बहुत मदद की। इसके बूते वे हिन्दुओं पर भारी पड़ने लगे। इसलिए स्वाभाविक था, वह धार्मिक रूप से भी उनके लिए महत्वपूर्ण बन जाय।
यज्ञ भी आर्यों की खास पहचान थी। आर्य-संस्कृति का अर्थ ही था यज्ञ की संस्कृति। इसके नेता या पुरोहित ऋत्विज कहे जाते थे। यज्ञ से जुड़े लोग यज्ञमान (जजमान) होते थे। जैसे-जैसे यज्ञ और यज्ञमान बढ़ते गए आर्यों का विस्तार और वर्चस्व बढ़ता चला गया। इन यज्ञों के साथ पशु-बलि, हवन-होम और सोम-पान आवश्यक रूप से जुड़े थे। अश्व-मेघ यज्ञ अत्यंत महत्वपूर्ण था, जिसे कोई राजा अपने प्रभुत्व के प्रदर्शन के लिए करता था। इस यज्ञ में अनुष्ठान-पूर्वक एक घोड़े को योद्धाओं के साथ छोड़ दिया जाता है। घोडा जहां तक बे-रोक-टोक जाता था, वह सब भूमि राजा की हो जाती थी। यज्ञ से लौटे हुए घोड़े को नग्न रानी (राजा की पत्नी) के साथ सहवास का स्वांग करना पड़ता था। तदन्तर उस घोड़े की बलि दे दी जाती थी।
अग्निवेदी में हवन-कार्य आर्य-जीवन की एक और खास पहचान थी। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि यह हवन-कार्य केवल पुरोहितों और राजन्यों में ही प्रचलित था। आर्यों का बड़ा हिस्सा पशुचारक था। वे कभी-कभार तो हवन कार्य से जुड़ते होंगे, लेकिन उनके जीवन की उलझनों के कारण इस कार्य में नियमित होना उनके लिए सम्भव नहीं था। हाँ, खास अवसरों पर इस अनुष्ठान में वे भाग लेते रहे होंगे। इन्ही अनुष्ठानों के साथ सोमयाग अथवा सोमपान का जश्न भी होता था।
आर्यों का जीवन पुरुष प्रधान था। लेकिन स्त्रियों की स्थिति ऋग्वैदिक-काल में ख़राब नहीं थी। उस समय आर्यों के आर्थिक ढांचे में स्त्रियों की स्थिति ख़राब होने का सवाल भी नहीं था, क्योंकि व्यक्तिगत संपत्ति अस्तित्व में अभी नहीं आयी थी। व्यक्तिगत संपत्ति के उत्तराधिकार मामले से ही स्त्रियों की शुचिता और तदन्तर पराधीनता का प्रसंग आरम्भ होता है। उषा आदि देवियों की पूजा से पता चलता है कि नारी के प्रति आरंभिक दौर में आर्यों का दृष्टिकोण नकारात्मक नहीं था। यम-यमी संवाद और उर्वशी-पुरुरवा संवाद में स्त्री स्वतंत्रता के भाव स्पष्ट होते हैं। स्त्रियों के बिना परिवार की कल्पना नहीं हो सकती थी। बालिका का जन्म लेना अच्छा माना जाता था, क्योंकि वही दुहिता (दूध दुहने वाली ) होती थी। इस रूप में कन्यायें आर्थिक ढाँचे यानी उत्पादन का हिस्सा भी होती थीं। ऐसा लगता है, आर्यों ने कृषि आरम्भ कर दिया था, लेकिन अभी पशुपालन ही उनका मुख्य पेशा था। गायों की रक्षा के लिए वे तत्पर रहते थे। यह ऐसा पशु था, जो आर्यों और हिन्दुओं दोनों समाजों में पाला जाता था। इसलिए घोड़े के लूटने का प्रसंग कम आता है। गौएं लूट या चुरा ली जाती थीं। इसलिए इसे बचाने की कवायद करनी होती थीं। ताकतवर होने पर ये आर्य दूसरों की गायें चुराने का भी मिजाज रखते थे। गोत्र, गोष्ठी, गवेषणा, गोप, गोतिया जैसे शब्द गाय से ही जुड़े हैं। भैस को गवली, गौरी या महिष कहा जाता था। बाद के समय में तो कुछ देवताओं को, महिष की बलि ही पसंद थीं। यह पसंद आज भी जारी है।
आर्यों की एक और विशेषता मृत्यु के बाद शव के दाह कर्म की थीं। दाह-कर्म किसी मृतात्मा की मुक्ति के लिए आवश्यक समझा जाता था। अब तक स्वर्ग की व्यवस्था नहीं बनी थीं, लेकिन जैसे ही बनी यह स्वर्गारोहण के लिए आवश्यक हो गया। विवाह की तरह ही विधि-पूर्वक अंत्येष्टि कर्म अनिवार्य होता चला गया। इन संस्कार कर्मों से आर्यों की एकता को बल मिला।
आर्यों का समाज मुख्यतः पशुचारक था, इनके वंशज मौजूदा भारत में प्रायः उन जातियों में पाए जाते हैं जो केंद्रीकृत ब्राह्मणवादी समाज रचना के हाशिये पर हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार जाट, पाल, अहीर और चरमन (चर्मकार) आदि जातियों में आर्य-रक्त अधिक है। जाटों के बड़े हिस्से ने सिक्ख और इस्लाम धर्म स्वीकार लिया है, लेकिन जितने हैं, वे प्रभावशाली संख्या में हैं। अहीर एक ऐसी जाति है, जो लगातार घुमन्तु बनी रही और पूरब व दक्खिन के इलाकों में पसरती-फैलती चली गयी। इनका सीधा सम्बन्ध वैदिक आभीरों से है, जिसका एक तबका पुरोहित बन गया था। लेकिन यही एक आर्य जाति है, जिनका स्थानीय हिन्दुओं से मेल-जोल सब से अधिक बढ़ा। असुर और दस्यु इनसे इतने अधिक घुल-मिल गए कि बाद में इनके बीच प्रभेद करना मुश्किल हो गया। दरअसल पेशे के हिसाब से आभीर और असुर दोनों पशुचारक थे। इनका मेल-जोल स्वाभाविक था। पशुओं के साथ रहते हुए इन लोगों का उनके साथ रागात्मक संबंध बन जाना सहज था। फिर यह स्वाभाविक था कि ये लोग पशु बलि का तीव्र विरोध करते। कृषि से जुडी अन्य जातियों के लिए भी गाय, बैल, भैंसें आवश्यक पशु धन थे। इनके खात्मे से कृषि का विकास रुक जाता या कम से कम प्रभावित तो जरूर होता। अतएव इन पशुचारक और कृषक समाज ने यज्ञों और बलि का कभी समर्थन नहीं किया। जब ये शक्ति संपन्न हुए तब व्यवस्थित रूप से इसका विरोध किया। यह मान लेना कि यज्ञ और बलि वैदिक जमाने की आम चीज थीं, एक गलत अवधारणा है। न केवल हिन्दुओं, बल्कि आर्यों के बड़े समूह ने भी कभी यज्ञों, हवन और बलि का बहुत समर्थन नहीं किया। यह पुरोहितों और अधिक से अधिक राजन्यों तक सीमित रहा। आर्यों के बीच तो वणिक तबका अभी था ही नहीं, लेकिन हिन्दुओं के पणि-दास तबके ने भी इन संस्कार-अनुष्ठानों का कभी समर्थन नहीं किया। बल्कि इनके विरुद्ध व्यवधान खड़े करते रहे। कालांतर में अहीरों का कुलनायक देवकी कृष्ण इस विरोध का बड़ा नायक हुआ। पुरोहित आर्यों से इन आभीर आर्यों की कभी नहीं बनी। पुरोहितों के मुख्य देवता इंद्र के विरुद्ध कृष्ण ने एक सांस्कृतिक युद्ध की घोषणा कर दी और बलपूर्वक उनकी पूजा बंद करवा दी। हालांकि बाद में इसी कृष्ण ने पुरोहितों के वर्ण-धर्म को स्वीकार लिया। इसी मेल-जोल में इनका संस्कृतिकरण यदु या यादव रूप में हुआ। कृष्ण के समय को लेकर विवाद है। अधिक संभावना इसी की है कि इंद्र की भाँति कृष्ण भी एक पद बन गया था। ऐसे में यह तो कहा ही जायेगा कि कम से कम देवकी कृष्ण को यादवेश विरुद पसंद था . ये पशुचारक अब राजन्य घोषित हो चुके थे।
आर्यों का समाज तत्कालीन भारत के देसी लोगों के साथ तो लड़ ही रहा था, अपने भिन्न कुलों के बीच भी लड़ता-झगड़ता रहता था। ऋग्वैदिक सूचना के अनुसार इनके कोई तीस घराने थे। पुरु और भरत सब से पुराने और दब-दबे वाली जनजाति थीं। इन दोनों में आरम्भ में मित्रता और कालांतर में शत्रुता के संकेत मिलते हैं। एक अन्य घराना पंचजन, पंचमानुष, या पंचकृष्टं है जो वस्तुतः यदु, पुरु, तुर्वश, अनु और हह्यु का एक संघ है। महाभारत कथा में ये नाम ययाति के पुत्रों के भी हैं। इन सब की संरचना इतनी जटिल है कि इन्हें स्पष्ट करने के लिए बहुत समय चाहिए। मूल बात इतनी है कि आर्यों के अपने घराने भी धीरे-धीरे उलझने लगे। इससे आर्यों और हिन्दुओं के बीच का संघर्ष थम गया। संघर्ष शिथिल हो जाने से समन्वय के अवसर विकसित हुए। ऐसा समय भी आया जब आर्यों और अनार्यों के बीच एकता के भी भाव बने।
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ऋग्वेद में एक बड़े युद्ध का वृतांत है, जिसे ‘दाशराज्ञ’ अथवा दस राजाओं का युद्ध कहा गया है। यह वृतांत सातवें मंडल में है। बता चुका हूँ, दूसरा से लेकर सातवां मंडल तक ऋग्वेद के सब से पुराने हिस्से हैं और इन्हें कुल-मंडल कहा जाता है। प्रथम, अष्टम, नवम और दशम मंडल बाद में रचे गए। दाशराज्ञ युद्ध में पैजवन वंश के दिवोदास के पौत्र सुदास ने दस जनों के एक संघ के साथ युद्ध किया। सुदास भरत जन के थे। दाशराज्ञ अर्थात दस जनों में पुरु भी एक थे, जो पहले भरतों के सहयोगी रह चुके थे। परुष्णी, जिसे अब रावी कहा जाता है, के किनारे लड़ा गया यह युद्ध कुछ मामलों में ऐतिहासिक है। इसमें भरतों की जीत हुई। इस लड़ाई में भरतों ने नदी के बांध को तोड़ दिया, जो संभवतः शत्रु पक्ष को नुकसान पहुंचाने वाला था। इस युद्ध का विश्लेषण हमें कई नयी जानकारियां देता है। पहला तो यह कि ऋग्वैदिक काल में ही इंद्र का प्रभुत्व धीरे-धीरे कम होने लगा था। ऐसा लगता है, आर्य कबीलों की संख्या अनेक हो चुकी और उनके मुखियाओं ने इंद्र विरुद धारण करने से अब इंकार कर दिया था। जनों के नए मुखिया या राजा अपने बूते और अपने नाम पर संघर्ष करना बेहतर समझते थे। संभव है ये राजा युद्ध के समय इंद्र की पूजा एक देवता के रूप में करते हों। लेकिन, इंद्र इस युद्ध में सीधे तौर पर अनुपस्थित है। इस युद्ध में एक तरफ सुदास है, तो दूसरी तरफ दस राजाओं का संयुक्त मोर्चा। इसे मिनी महाभारत भी कहा जा सकता है। सुदास ने इस युद्ध में विश्वामित्र को अपने पुरोहित पद से हटा दिया और वशिष्ठ को पुरोहित रख लिया। डॉ आंबेडकर ने अपनी किताब “हु वे’र द शूद्राज” में इस कथा को ही अपने विचार का आधार बनाया है। सुदास में दास जुड़ा है। दास हिन्दू है, आर्य नहीं। ये दस्यु और पणि के बीच का वर्ग प्रतीत होता है। आर्य इन दासों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। ऐसे में सुदास क्या है? आर्य-अनार्य मिश्रण का कोई आर्य राजा या फिर दासों का ही नेता? कहा गया है, वह भरत जनों का राजा है। भरत जन आर्य हैं। इसीलिए यही सम्भव है कि भरत जनों और दासों की इतनी एकता हो गयी थी कि आर्य भी दास विरुद धारण करने में संकोच नहीं करने लगे थे। ऐसे में यह सुदास आर्यों और अनार्यों की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतीक था। उसका पौरोहित्य वशिष्ठ द्वारा स्वीकार लिया जाना और विश्वामित्र की पुरोहित पद से छुट्टी कई नए विकसित सामाजिक समीकरणों के संकेत देती है। विश्वामित्र और वशिष्ठ में एक लम्बा संघर्ष चला है। आर्यों का एक स्वभाव अपनी हर बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहने का होता था। जो बात साल भर में हुई हो, वे उसे सौ साल कहेंगे और जो कुछ सालों में हुई है, उसे हजारों साल का बताएंगे। विश्वामित्र और वशिष्ठ की लड़ाई भी हजारों साल चली, यही पौराणिक ब्यौरा है। लेकिन कुछ समय तक तो यह संघर्ष जरूर चला होगा। वशिष्ठ ने सुदास का पौरोहित्य क्यों स्वीकार किया; या सुदास ने इन्हे अपना पुरोहित क्यों बनाया? यह एक प्रश्न है। कुशिक (उल्लू) गोत्र के विश्वामित्र में वशिष्ठ के मुकाबले आर्यत्व अधिक है। वशिष्ठ की जन्मकथा बताती है कि वह विषम परिस्थितियों की संतान हैं। उनके पिता का नाम स्पष्ट नहीं है। इस से ऐसा प्रतीत होता है वह ऐसे कुल से थे जिनमें मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी। ऐसे कुलों से आये संतानों को आर्यों की पितृसत्तात्मक संस्कृति में शामिल करने के लिए कुम्भज (कुम्भ से उत्पन्न) कथा का प्रयोग होता था। वशिष्ठ की कथा भी ऐसी ही है। उनका जन्म दो वैदिक देवताओं मित्र और वरुण के वीर्य को एक कुम्भ में रख दिए जाने से हुआ। उन्हें ‘उर्वश्या मनसोधिजात’ -अर्थात उर्वशी के मन से जन्मा भी बताया गया है। प्रतीत होता है, उर्वशी की वह कुक्षि थी जहाँ मित्र और वरुण के वीर्य शामिल हुए। यह स्पष्ट करना जब मुश्किल हुआ कि वशिष्ठ किस खास देवता के वीर्य से हुए, तब दोनों देवताओं के नाम पिता रूप में दे दिए गए। एक खास ऋतु-चक्र में उक्त दोनों देवताओं ने उर्वशी से संबंध स्थापित किये होंगे और यह तय करना संभव नहीं हुआ होगा कि वास्तविक पिता कौन है। ऐसा वशिष्ठ जो पितृसत्तात्मक आर्य संस्कृति में शामिल हुआ है, स्वाभाविक है अधिक समावेशी चेतना का होगा। राजा सुदास की स्थिति भी ऐसी ही है। ऐसे में विशुद्ध आर्य विश्वामित्र की जगह संस्कारित आर्य वशिष्ठ का पौरोहित्य तत्कालीन समाज के मनोविज्ञान की एक झलक देता है।
दामोदर धर्मानंद कोसंबी इस मामले को इस प्रकार देखते हैं – “आरम्भ काल में एक आर्य राजा के नाम के साथ ‘दास’ शब्द का जुड़ जाना यह सूचित करता है कि 1500 ईस्वीपूर्व के तुरंत बाद ही आर्यों और अनार्यों में कुछ मेल-मिलाप हो चुका था। पता चलता है कि सुदास भरत जन के या संभवतः भरतों की एक विशिष्ट शाखा त्रित्सु के मुखिया थे। आज हमारे देश का जो भारत नाम है, उसका अर्थ है ‘भरतों का देश’। भरत निश्चय ही आर्य थे। परन्तु प्रारंभिक आर्यों के लिए जातीय शुद्धता कोई अर्थ नहीं रखती थी। यहां के आदिवासी तत्वों को ग्रहण करना उनके लिए सहज संभव था। और उन्होंने इन्हें ग्रहण भी किया।” ( प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता ,पृष्ठ 108 )
इन दस राजाओं में विभिन्न कुलों-कबीलों का वर्णन है। इसमें सब के सब अनार्य ही नहीं थे। भृगु कबीले के लोग भी थे, जो प्रतीत होता है कुछ ही समय पूर्व भारत-भूमि पर आये थे। पक्थ कबीला, जिसे कोसंबी पख्तून या पठान का संस्कृत रूप बतलाते हैं, इसमें से एक था। अलिन, मत्स्य और शिग्रु लोग भी थे। ये सब के सब आर्य थे। फिर कुछ अनार्य राजा भी थे। आर्यों-अनार्यों का इस तरह एक छत्र के नीचे इकठ्ठा होना केवल इस बात का परिचायक है कि आर्यों का तेजी से हिन्दुकरण हो रहा था।
यही वह समय था, जब पौरोहित्य का काम ब्राह्मणों के लिए सिमटने लगा था, अथवा ब्राह्मणों ने इस पर एकाधिकार बढ़ाना शुरू कर दिया था। ब्राह्मण आर्यों का ही कोई कुल था ऐसा प्रतीत नहीं होता। भारतीय आर्यों के मूल स्थान ईरान में उन दिनों पुरोहित होते थे जिन्हे अथ्रवन कहा जाता था। मंत्रोचार के लिए ‘होता’ नामक सहायक पुरोहित होते थे। ये ‘होता’ जेंद-अवेस्ता के पदों के पाठ करते थे। लेकिन ब्राह्मण शब्द वहां नहीं था। आर्य जाति यूरोप और एशिया के दूसरे हिस्सों में भी गयी और उनके साथ कई शब्द गए, जिसके आधार पर भारोपीय भाषा परिवार की अवधारणा बनी। लेकिन ब्राह्मण शब्द कहीं नहीं मिलता। न ही पुरोहितों का ऐसा वर्चस्व दुनिया की किसी आर्य-संस्कृति में देखने को मिलती है। आरंभिक भारतीय आर्यों के समाज में भी ब्राह्मणों की प्रभावशाली उपस्थिति नहीं है। कम से कम ऋग्वेद ब्राह्मण प्रभुत्व से आक्रांत नहीं है। ब्राह्मणों के मूल तक जाने के लिए हम सीधे-सीधे इतिहासकार रामशरण शर्मा को उद्धृत करना चाहेंगे – “ऋग्वेद में ब्राह्मणवाद का जोर नहीं मालूम पड़ता है। इस में सात प्रकार के पुरोहित पाए जाते हैं, जिनमें ब्राह्मण भी एक है। उत्तर वैदिक काल के आरम्भ में सोलह प्रकार के पुरोहित मिलते हैं, जिनमें ब्राह्मण एक प्रकार है। पर उत्तर वैदिक काल का अंत होते-होते सोलह प्रकार के पुरोहितों में ब्राह्मण सर्वे-सर्वा बन जाता है। दान-दक्षिणा में उसका आधा हिस्सा होता है और बाकी आधे में और लोगों के हिस्से बनते हैं। बिना ब्राह्मण की उपस्थिति के कोई भी यज्ञ या अनुष्ठान संपन्न नहीं हो सकता है। यह अद्भुत घटना कैसे हुई? ऐसा क्यों हुआ कि अनेक देशों में हिन्द-यूरोपीय गए, किन्तु भारतवर्ष में ही ब्राह्मणों का प्रभाव प्रबल हुआ? ऐसा लगता है कि भारत में ब्राह्मणवाद का जन्म आर्य और प्राक-आर्य तत्वों के मिश्रण से हुआ। ध्यान देने की बात है कि वैदिक परंपरा और महाकाव्यों में इंद्र को ब्रह्मघाती बताया गया है। इंद्र के प्रमुख शत्रु वृत्र को ब्राह्मण बताया गया है। संभवतः हड़प्पाई समाज के बचे-खुचे पुरोहितों ने वैदिक समाज में ब्राह्मणों का रूप धारण किया। ऋग्वेद में कण्व ऋषि को काला बतलाया गया है और दीर्घतमस नाम से इस ऋषि का काला रंग होने का आभास मिलता है। उन्हें उनकी माता के नाम से मामतेय भी पुकारा गया है। इन उदाहरणों से लगता है कि ब्राह्मणों का संबंध प्राक-वैदिक संस्कृति के लोगों से था। यह भी उल्लेखनीय है कि ब्राहुई भाषा – जो बलूचिस्तान में बोली जाती है- का संबंध ब्राह्मण शब्द से जोड़ा गया है।अतएव आर्यों और अनार्यों के मिश्रण के कारण ब्राह्मण-वर्ण का जन्म हुआ, जिसमें आर्य और अनार्य दोनों सम्मिलित थे। इस प्रकार प्रारंभिक ब्राह्मण-वर्ण या ब्राह्मणवाद को प्राचीनकाल की विशुद्ध आर्य-संस्कृति का अभिन्न अंग नहीं माना जा सकता है।” ( आर्य संस्कृति की खोज ,पृष्ठ 63 -64 )
ब्राहुई-जो सिंध नदी के पश्चिम बलूचिस्तान का एक क्षेत्र है, में आज भी द्रविड़ भाषा का एक रूप ब्राहुई इस्तेमाल होता है। द्रविड़ ब्राह्मणों का संबंध भी इन्हीं से है। बहुत संभव है इन लोगों ने ही संस्कृत भाषा का ठाट तैयार किया, क्योंकि इनका संबंध ईरान के एलम इलाके से कभी रहा था। सिंधु-सभ्यता के समय से ही उसका पुरोहित तबका, पणि (वणिक-व्यापारी), दास और दस्यु समूहों से सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर दूर होता जा रहा था। आर्यों के जम जाने के तुरंत बाद उनके पुरोहित तबके से इनकी एकता हुई। वैवाहिक संबंध भी होने लगे और सामाजिक-राजनैतिक मामलों में भी हस्तक्षेप होने लगे।
धर्मानंद कोसंबी (डी.डी. कोसंबी के पिता ) का कहना है कि आर्यों के पूर्व सप्तसिंधु इलाके में दासों का राज-शासन था, जिनका नेतृत्व ब्राह्मण पुरोहित करते थे। आर्य प्रमुख इंद्र ने दास प्रमुख ब्राह्मण वृत्र को पराजित कर स्थितियों को अपने नियंत्रण में कर लिया। तदन्तर दिवोदास और उसके पुत्र प्रतर्दन से समझौता कर एक नयी सामाजिक-राजनैतिक स्थिति को विकसित किया। संघर्ष और एकता के इस खेल में सप्तसिंधु इलाके में वृत्र ब्राह्मण के नेतृत्व वाले राज-पाट का सफाया हो गया और दिवोदास के नेतृत्व में राजन्यों का राज स्थापित हुआ। धर्मानंद कोसंबी का कहना है ऐसे में दास ब्राह्मण राजपाट से विमुख होकर भाषा और साहित्य की रचना में लग गए। उन्होंने संस्कृत भाषा और उसके साहित्य को समृद्ध किया। आर्यों का पुरोहित तबका भी इन्हीं ब्राह्मणों में शामिल हो गया और इस तरह एक नए ब्राह्मण वर्ग, जो आगे एक वर्ण में तब्दील हो गया, का निर्माण हो गया।
इस पूरी कथा-परिकथा से एक ही बात स्पष्ट होती है, वह यह कि पेशागत तौर पर आर्य-अनार्य सामाजिक समूह धीरे-धीरे नजदीक हुए और अंततः एक हो गए। आर्य पुरोहित और दास ब्राह्मण एक हुए, तो पशुचारक आभीर और असुर भी एक हुए। नाग और कई आदिवासी सामाजिक समूह भी परिधि से केंद्र की तरफ अग्रसर हुए। आर्यों में वणिक समूह विकसित होने की गुंजायश ही नहीं थी, क्योंकि उनकी उत्पादन क्षमता कमजोर थी। इसी आधार पर उनमें शूद्रों के लिए भी कोई गुंजायश नहीं बनती थी। बड़े पैमाने पर मेल-जोल बढ़ने से धीरे-धीरे आर्य लोग हिन्दू समाज में घुल-मिल गए। सामाजिक-सांस्कृतिक मेल-जोल इतना हुआ कि कुछ समय पश्चात् आर्य अपना प्रिय पेय सोम को लगभग भूल ही गए। उसकी जगह हिन्दू-असुरों का पेय सुरा उनके देवताओं को भी पसंद आने लगा। आर्यों और अनार्यों ने संघर्ष और एकता का सिलसिला बनाये रखा। ऐसा नहीं था कि इनके बीच लड़ाई-झगडे नहीं थे। खूब थे। लेकिन मेल-जोल की स्थितियां भी थीं। समन्वय और एकता की स्थितियां निरंतर विकसित होती रहीं। इस समन्वय और एकता के बेहतर नतीजे ये आये कि ज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तेजी से विकास हुआ, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। लेकिन ख़राब चीज यह हुई कि वर्ण-व्यवस्था का जन्म हुआ, जिसने आगे चल कर जातिवाद और छुआछूत के रूप में भारतीय समाज को काफी कमजोर कर दिया। हालांकि जल्दी ही इस वर्णधर्म और जातिवाद के खिलाफ भी संघर्ष का सिलसिला आरम्भ हुआ।
(कॉपी संपादन : नवल)
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