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सवर्णों के आरक्षण पर कब चलेगा सुप्रीम कोर्ट का हथौड़ा?

एससी/एसटी या ओबीसी वर्ग के कुछ लोग आर्थिक रूप से भले ही सबल हो जाएं, उनके लिए सामाजिक हक़ीक़त में बहुत ज़्यादा बदलाव अभी भी नहीं हुआ है। उनकी सामाजिक स्थिति को लेकर सवर्णों के नज़रिए में आज भी बहुत ज़्यादा परिवर्तन नहीं आया है और इस वजह से आरक्षण उनके लिए आज भी उतना ही ज़रूरी है। बता रहे हैं अशोक झा

कोरोना के मद्देनजर लॉकडाउन के बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस मुद्दे को हवा दे दी है कि आरक्षण का लाभ उन लोगों को नहीं मिल रहा है, जिन्हें इसकी वाक़ई ज़रूरत है। साथ में इस बात का भी समर्थन किया कि सरकार को इसकी समय-समय पर समीक्षा करनी चाहिए। 

अभी यह ताज़ा मामला आंध्र प्रदेश का है, जहां सरकार ने वर्ष 2000 में एक आदेश में अनुसूचित क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति को 100 फ़ीसदी आरक्षण देने की बात कही थी। इस मामले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई जिसने आदेश को सही बताया। बाद में हाईकोर्ट के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जिस पर अब पाँच जजों की संविधान पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया।

बीते 22 अप्रैल को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, इंदिरा बनर्जी, विनीत सरन, एम.आर. शाह और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने इस मामले की सुनवाई के बाद कहा, “अब आरक्षित वर्ग के अंदर भी यह माँग उठने लगी है। अब तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में भी आर्थिक रूप से उन्नत वर्ग अस्तित्व में आ गया है। वंचित लोग अनुसूचित जाति/जनजाति के अंदर सामाजिक उन्नति की बात उठा रहे हैं, पर अभी भी उन लोगों तक इसके लाभ को पहुंचने नहीं दिया जा रहा है। इस तरह, इस (वर्ग) के अंदर ही यह बात उठ रही है जिसमें अनुसूचित जाति/जनजाति के वर्ग के जो लोग इसका लाभ उठा रहे हैं उस पर सवाल उठाया जा रहा है”।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

तो क्या एससी और एसटी में भी क्रीमी लेयर की होगी तलाश?

क्रीमी लेयर इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले की उपज है। इस मामले में नौ जजों की संविधान पीठ ने ओबीसी को आरक्षण दिए जाने को सही तो ठहराया पर कहा कि इस वर्ग में जो क्रीमी लेयर है, केंद्र सरकार उसकी आय के उचित निर्धारण, संपत्ति या उसके स्टेटस के आधार पर पहचान करे और उसे आरक्षण के लाभ से दूर रखे। इस मामले के अलावा, अन्य दो मामले एम. नागराज बनाम भारत संघ और जरनैल सिंह के मामले में भी क्रीमी लेयर के मामले पर बात उठी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि नियुक्ति में भले ही आरक्षण दी गई है, पर यह पदोन्नति पर लागू नहीं होगा।  

नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की समीक्षा की माँग की और इसके बाद क्रीमी लेयर को आरक्षण से दूर रखने की बात एक बार फिर जोर पकड़ने लगी। सरकार ने इस मामले को सात जजों की पीठ को सौंपने की माँग की।

इंदिरा साहनी मामले में फ़ैसले के बाद इसमें कई संशोधन किए गए। इन संशोधनों के बाद 2006 में सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय पीठ ने एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले में संसद के इस निर्णय को सही ठहराया कि एससी और एसटी को नौकरियों में पदोन्नति में भी तीन शर्तों के साथ आरक्षण दिया जाए। ये तीन शर्तें थीं कि इनके पिछड़ेपन का सबूत, सेवा में इनको पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होने की बात जिसके लिए इनको सेवा में पदोन्नति दिया जाना है और यह कि यह आरक्षण प्रशासनिक सक्षमता को बढ़ाएगा। इस फ़ैसले में यह भी कहा गया कि एससी/एसटी पर भी क्रीमी लेयर को आरक्षण से दूर रखने का फ़ैसला लागू होगा। हालाँकि बाद में 26 सितम्बर 2018 को न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने इस फ़ैसले को पलट दिया और कहा कि क्रीमी लेयर का मामला एससी/एसटी पर लागू नहीं होगा और उनके पिछड़ेपन का सबूत पेश करने की ज़रूरत नहीं होगी। इस पीठ ने इस मामले को बड़ी पीठ को सौंपने से भी इंकार कर दिया।

आरक्षण प्राप्त करनेवालों और आरक्षण के समर्थक समाज विज्ञानियों का यह कहना है कि क्रीमी लेयर की परिकल्पना का आधार मूल रूप से आर्थिक नहीं होकर सामाजिक है और यह उद्देश्य अभी भी पूरा नहीं हुआ है। एससी/एसटी या ओबीसी वर्ग के कुछ लोग आर्थिक रूप से भले ही सबल हो जाएं, उनके लिए सामाजिक हक़ीक़त में बहुत ज़्यादा बदलाव अभी भी नहीं हुआ है। उनकी सामाजिक स्थिति को लेकर सवर्णों के नज़रिए में आज भी बहुत ज़्यादा परिवर्तन नहीं आया है और इस वजह से आरक्षण उनके लिए आज भी उतना ही ज़रूरी है। पर पाँच जजों की इस पीठ ने आंध्र प्रदेश मामले में जो फ़ैसला दिया है उसने क्रीमी लेयर के मामले को एक बार फिर जेर-ए-बहस में ला दिया है। 

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि इंदिरा साहनी मामले में यह निर्धारित किया गया था कि आरक्षण का प्रतिशत 50 को पार नहीं कर सकता। पर आंध्र प्रदेश के मामले में एक ही समूह को 100 फ़ीसदी आरक्षण दे दिया गया है जो कि इस क़ानून का उल्लंघन है और इसलिए इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। यह मामला 20 साल पुराना है जब आंध्र प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने एक आदेश द्वारा अनुसूचित जनजाति के लोगों को अनुसूचित क्षेत्र में 100 फ़ीसदी आरक्षण दे दिया। अदालत ने कहा कि ऐसा करके आरक्षण का अधिकार रखनेवाले अन्य समूह के साथ भेदभाव किया गया है और यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 16 का उल्लंघन करता है।

बहरहाल, पहले से ही केंद्र सरकार पर आरक्षण को खत्म करने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने फिर से उसे आरक्षित वर्ग के लोगों के कटघरे में खड़ा कर दिया है। हालांकि सरकार का रूख क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल यह सवाल तो मौजूं है कि सुप्रीम कोर्ट का हथैाड़ा केवल दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों को मिलने वाले आरक्षण पर ही क्यों चलता है? क्या सामान्य श्रेणी के तहत सवर्णों के अघोषित एकाधिकार की भी समीक्षा होगी?

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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