स्मृति शेष : मौत को जिसने मारना चाहा, वह अमर हो गया
देश-दुनिया में ऐसे लोगों को सदैव याद किया जाता रहेगा, जो मनुष्यता के मानक पर खरे उतरते हैं। हम सब मनुष्य रूप में जन्म लेते हैं, पर एक सच्चे मनुष्य के रूप में जीवन जीते हुए मानवीय उपलब्धियां हासिल करना सबके वश की बात नहीं है, जो लोग इंसानियत का दामन थामकर चलते हैं, उन्हें सैकड़ों सालों तक याद किया जाता है। महामहिम माता प्रसाद जी, एक ऐसी ही विरल शख्सियत थे जो अब हम सबसे जुदा हो गए। उत्तर प्रदेश के जौनपुर के मछली शहर कस्बे में अपना बचपन गुजारने वाले इस महामानव को कल लखनऊ में पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई। कोरोना महामारी के इस भयावह दौर में भी कड़ाके की सर्दी के बावजूद सभी वर्गों और समुदायों के सैकड़ों लोगों ने नम आंखों से उन्हें अलविदा कहा।
माता प्रसाद, बेहद सरल प्रकृति के साहित्यकार और राजनेता थे। वे अहंकार से कोसों दूर थे। उनके स्वभाव के सभी कायल थे। प्रसाद जी के सिर पर गांधी टोपी रहती थी और दिलो-दिमाग में बाबासाहब डाॅ. आंबेडकर की वैचारिकी। वे अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे। साथ ही, पांचवें विश्व हिन्दी सम्मेलन पोर्ट ऑफ़ स्पेन (त्रिनिदाद और टुबैगो) के संयोजक भी रहे। राजनीति में रहकर भी वे राजनीति के दलदल में फंसने से बच गए, यह एक अजूबा ही है।

वे मूलतः सुकवि-लेखक और संवेदनशील व्यक्ति बने रहे। उन्हें दलित साहित्य के आधारस्तंभों में गिना जाता रहा है। दर्जनों पुस्तकें लिखकर उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। ‘झोपड़ी से राजभवन’ इनकी आत्मकथा लगातार सुर्खियों में रही।
दलित साहित्यकार, जो वामपंथी हों, ऐसे अनेक लेखक मिल जाएंगे। परंतु गांधीवादी विचारधारा वाले वे अकेले ही लेखक थे। उनका गांधीवाद, कांग्रेस के गांधीवाद से अलग था। वे जिस रूप में गांधीवाद को लेकर चले वह आंबेडकरवाद में कभी व्यवधान नहीं बना। गांधी जी वर्णव्यवस्था के समर्थक थे, परंतु छुआछूत के खिलाफ थे, वर्णव्यवस्था के सवाल पर डाॅ. आंबेडकर से उनकी आजीवन ठनी रही।
माता प्रसाद जी दलित परिवार में जन्मे थे। उन्हें अछूतपन के साथ-साथ जाति का दंश भी झेलना पड़ा इसलिए वे जाति और वर्णव्यवस्था दोनों के घोर विरोधी थे। यही कारण है कि उन्हें आंबेडकरवादियों ने कभी अलग नहीं माना। वे संत गुरू रविदास की परंपरा के वाहक थे, उनके स्वभाव में शीतलता थी, उन्होंने धधकते आग के गोले को बर्फ के टुकड़े में बदल लिया था। वे कबीर की उत्तेजक तथा जोशीली परम्परा से बचे रहे, यही कारण है कि उनका व्यक्तित्व रविदासी सांचे में ढलता गया, जो अंत तक रविदासी ही हो गया। जिस तरह संत रविदास की शिष्य परंपरा में राजपूत रानियां शामिल रहीं, ठीक उसी तरह राजपूत और ब्राह्मण दोनों ही समुदाय के लोग, माता प्रसाद जी की ज्ञान परंपरा से जुड़ते चले गए। यही कारण है कि वे सबके हो लिए, कुछ अर्थों में वे संत रविदास से भी अलग होते दिखते हैं। राजनीति में रहकर उन पर विश्व की राजनीतिज्ञों ने भी कीचड़ नहीं फेंका, क्योंकि उनका राजनीतिक जीवन, अन्यों से एकदम अलग था।
उनके व्यक्तित्व पर बुद्ध की करुणा का व्यापक प्रभाव था। वे करुणा और दया से परिपूर्ण एक अनोखे राजनीतिज्ञ तथा साहित्यकार थे। उनकी किसी भी तरह की हिंसा में विश्वास नहीं था। वे अपने लेखन और वक्तव्य में भी अतिरेकता से बचते रहे। मुझे उनके साथ तीस साल के लगभग रहने का अवसर मिला। मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर लखनऊ विश्वविद्यालय में पीएचडी उपाधि कराई है। उनकी किताबों को और उनके स्वभाव को परखा है, इसलिए मैं यह कह सकता हं कि वे पंचशील के अनुसार जीवन जी रहे थे। उनको किसी से बैर नहीं था। वे सबके हो लेते थे। वे जिनके साथ भी खड़े हो जाते, वह उनका हो जाता था। उनकी करुणा का ऐसा असर था कि क्रोधी प्रकृति का व्यक्ति भी उनके सामने नरमदिल हो जाता था।
वे आज की कलुषित राजनीति में खप नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपने आपको दो दशकों से अलग कर दिया था। वे पूरे तरह से साहित्य के हो लिए थे। वे हिन्दी के आधुनिक संत थे। उनकी परंपरा उनसे ही आरंभ और उनके साथ ही समाप्त भी हो गई, क्योंकि संत का जीवन जीना, आसान नहीं है, खासकर आज के विषाक्त महंतों में तो एकदम असंभव ही लगता है, पर उन्होंने पंचानबे (95) साल का यशस्वी जीवन एक साहित्यिक संत के रूप में ही व्यतीत किया।
मैं तो आंबेडकरवादी हूं, गांधीवाद से मेरा लगाव नहीं के बराबर है, परंतु जिस गांधीवाद को प्रसाद जी लेकर चले, उससे लोगों को कभी कोई परेशानी हुई। वे मेरी भाषा शैली के प्रशंसक थे, जबकि मैं कबीर की परंपरा का राही रहा हूं, पर उन्होंने मुझे अपने स्नेह से कभी वंचित नहीं किया। डाॅ. एन. सिंह और डाॅ. लाल सिंह तथा डाॅ. एस. पी. सुमनाक्षर से उसका बेहतर तालमेल था। कंवल भारती और डाॅ. जयप्रकाश कर्दम से भी उनका अत्यधिक स्नेह रहा है, इन सबने माता प्रसाद जी की गांधी टोपी को सहज भाव से स्वीकार किया क्योंकि उनकी दृष्टि में गांधी जी, डाॅ. आंबेडकर के पूरक थे। वे उन्हें पृथक नहीं माने थे। इसीलिए धुर आंबेडकरवादियों से उनकी कभी अनबन नहीं रही। डाॅ. आंबेडकर ने भी गांधी जी से तमाम असहमतियों के बाद भी कभी संवाद बंद नहीं किया। गांधी जी की प्राण रक्षा के लिए बाबासाहेब ने पूना पैक्ट जैसा दलितों के लिए नुकमानदेह समझौता स्वीकार किया था। गांधी जी बाद में डाॅ. आंबेडकर के अनेक सिद्धांतों को स्वीकार कर आगे बढ़े।
कल मैं उनकी अन्त्येष्टि में शरीक हुआ। तमाम लोगों का कहना था कि माता प्रसाद जी जैसा नेकदिल इंसान भारतीय राजनीति और भारतीय भाषाओं के साहित्य में दूसरा नहीं मिलेगा। वे मनुष्य की गरिमा से वाकिफ थे। उनके प्रोत्साहन और सहयोग से अनेक लेखक दलित साहित्य में आगे बढ़े। उनका मुक्त हृदय बहुत ही विशाल था।
वे श्रेष्ठ साहित्यकार या बड़े राजनेता रहे, इस पर विचार का विषय हो सकता है, परंतु वे एक भरा पूरा मनुष्य का किरदार लिए थे, जिसे उन्होंने कभी नहीं गिरने दिया। वे चाहते थे तो राजनीति में भी और आगे का सफर तय कर सकते थे, अपने परिवारजनों को राजनीति में मुकाम दिला सकते थे। परंतु उन्होंने कुछ भी नहीं किया। वे किसी के बुलाने पर रिक्शे से या इसी तरह से चल देते थे। उनको कतई गुमान नहीं था कि वे पूर्व राज्यपाल हैं। अरुणाचल प्रदेश मुझे जाने का मौका मिला है। वहां के लोगों का कहना है कि जब माता प्रसाद जी वहां राज्यपाल थे, तब राजभवन, साहित्यकारों के लिए घर जैसा बन गया था। वे प्रोटोकाॅल को तोड़कर अपने मिलने वालों से खुलकर मिलते थे। उन्होंने किसी का दिल नहीं तोड़ा। यही कारण है कि उनसे सबकी मैत्री थी। वे सच्चे अर्थों में बोधिसत्व बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के नक्शे कदम पर चलने वाले सृजनकार व्यक्ति थे।
वे संत थे, वे राजनेता थे, वे साहित्यकार थे, वे बहुजनों के अभिभावक और संरक्षक थे, परंतु सबसे पहले वे एक बेहतर मनुष्य और बुद्धिष्ट ज्ञानी मनुष्य थे, जिसे आज उनके परिनिर्वाण पर सब नम आंखों से कह रहे हैं कि यह तो हमारे परिवार का हिस्सा थे। किसी मनुष्य की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। यही उसकी सबसे बड़ी कमाई है कि जब वह दुनिया से अलविदा हो तो सबको लगे कि हमारे सिर से छायादार दरख्त साया अलग हो गया।
माता प्रसाद जी को रात में मौत ने धर दबोचा, और मारना चाहा, पर वे शरीर से भले ही मृत हो गए लेकिन उसी वक्त वे अपने चाहने वालों में प्रवेशकर कालजयी हो गए। मौत उन्हें मारकर शर्मिंदा है क्योंकि मरने के बाद वे और अधिक लोकप्रिय और अधिक यशस्वी बनकर अमर हो गए। साहित्यकार अपने साहित्य में जिन्दा रहता है, वे अपनी लिखी दर्जनों किताबों में फिर से जी उठे हैं। उनका गांधी टोपी से सजा चेहरा और दिमाग में बसा आंबेडकरवाद उन्हें कभी नहीं मरने देगा। कबीर ने इसीलिए तो कहा था कि-
हम न मरहिं, मरहि संसारा-
और यह भी काबिलेगौर है-
जेहि मरने से जग डरे सो मेरे आनंद
कब मरिहौं, कब देखिहों, पूरन परमानंद।।
(संपादन : नवल)
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