झारखंड में 32 जनजातियों में 8 आदिम जनजातियां हैं, जो विलुप्ति के कगार हैं, इनमें एक बिरहोर आदिम जनजाति भी है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक अब इस आदिम जनजाति की आबादी 10, 726 रह गई है। इस जनजाति के लोग केवल जंगल और उसके इर्द-गिर्द ही रहना पसंद करते हैं। इनकी अपनी भाषा है जिसे बिरहोर कहा जाता है। इस भाषा को संरक्षित करने का बीड़ा एक गैर-बिरहाेर आदिवासी देव कुमार ने उठाया है। इस क्रम में उसने इस भाषा का एक शब्दकोश तैयार किया है।
बीते 27 नवंबर, 2021 को संस्कृति संग्रहालय एवं आर्ट गैलरी, हजारीबाग में पद्मश्री बुलु इमाम के द्वारा बिरहोर-हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश का विमोचन किया गया।
देव झारखंड सरकार के ग्रामीण विकास विभाग द्वारा संचालित संस्थान झारखंड स्टेट लाईवलीहुड प्रोमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस) से संबद्ध हैं। वे कुरमी समाज से आते हैं जो कि झारखंड में जनजाति में शामिल है। देव ने गोस्सनर कॉलेज, राँची से भौतिकी आनर्स विषय के साथ स्नातक किया है। बाद में देव ने राँची विश्वविद्यालय से एमबीए की उपाधि प्राप्त की।
एमबीए के बाद देव ने शहर में रहकर काम करने के बजाय सुविधा विहीन गांवों में रहना पसंद किया और इसी क्रम में जेएसएलपीएस से जुड़े।
वे पिछले छः वर्षों से बिरहोर समुदाय के बीच कार्य कर रहे हैं। लेकिन पिछले दो वर्षों में इन्हें उनकी जिंदगी को करीब से देखने और समझने मौका मिला। हजारीबाग जिला मुख्यालय से सैकड़ों किलोमीटर दूर अवस्थित चलकुशा प्रखंड में बिरहोर समुदाय की दयनीय स्थिति देखकर उनके लिए कुछ करने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन बिरहोर भाषा का ज्ञान न होने के कारण उनसे संवाद स्थापित करना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। इसलिए, अवकाश के दिन वे अपना समय बिरहोर समुदाय के बीच बिताने लगे और उनकी भाषा को सीखने लगे।

देव कुमार ने बताया कि मेरे मन में बार-बार विचार मंडरा रहे थे कि किस तरह उनका सहयोग कर सकता हूं। मैंने देखा कि घर में बच्चे बिरहोर भाषा समझते हैं। लेकिन, भाषा संबंधी पाठ्य सामग्री नहीं होने के कारण पढ़ाई में रुचि नहीं लेते है। स्कूल या आंगनबाड़ी केंद्र में अगर नामांकन भी होता तो मातृभाषा में पढ़ाई न होने के कारण स्कूल बीच में ही छोड़ देते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि बच्चों की मनोवृत्ति का ख्याल रखते हुए सुंदर चित्रों के माध्यम से भाषा शब्दकोश तैयार करूंगा। बिरहोर समुदाय के ही थोड़े बहुत पढ़े लिखे लोगों से चित्रों के माध्यम से एक-एक शब्द संग्रहण करना शुरू किया। ऐसा करते देख आसपास के लोग खूब हँसते। लेकिन, जैसे जैसे उनके बीच मेरा मेलजोल बढ़ने लगा, मेरे कार्य में उनकी भी रुचि बढ़ने लगी। फिर बिरहोर शब्दों का संकलन हेतु मैंने विभिन्न टोलों का भ्रमण किया और शब्दावलियों का सत्यापन किया। चूँकि आज भी बिरहोर जनजाति जंगलों पर पूरी तरह आश्रित हैं और वे अधिकांश समय अपने घरों मे ंनहीं मिलते,इसलिए, कभी कभी दिन भर भटकने पर भी बिना शब्दों का संकलन किए वापस आना पड़ता था। लेकिन यह काम बिरहोर समुदाय के विभिन्न लोगों यथा शांति बिरहोर, नागो बिरहोर, विनोद बिरहोर और शनिचर बिरहोर के अलावा प्रो. दिनेश कुमार दिनमणि (खोरठा भाषा के प्राध्यापक), डॉ. वीरेंद्र कुमार महतो (प्राध्यापक, जनजातीय विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची), दीपक सवाल (पत्रकार, बोकारो), पद्मश्री बुलु इमाम (सामाजिक कार्यकर्ता, हजारीबाग), डॉ. नेत्रा पी. पौडयाल (शोधार्थी, कील विश्वविद्यालय, जर्मनी), डॉ. मोहन के. गौतम (कुलपति, यूरोपियन यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट एंड ईस्ट, नीदरलैंड), अरुण महतो (अध्यक्ष, करम फाउंडेशन, रांची) और जलेश्वर कुमार महतो (शिक्षक सह समाजसेवी, ओरमांझी, रांची) की मदद से संपन्न हुआ।
देव आगे की योजना बताते हुए कहते हैं कि अभी तक मैंने सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होने वाली शब्दावलियों को शामिल किया है। अब विभिन्न क्रियाओं को शामिल कर वाक्यों में इसे परिवर्तित करने का कार्य कर रहा हूं। इसके साथ ही, बिरहोर जनजाति द्वारा चिकित्सा हेतु उपयोग में लाये जाने वाले जड़ी-बूटियों का विस्तृत रूप से विवरण तैयार कर पुस्तक प्रकाशित करने की भी योजना है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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