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कुलीनतंत्र को ध्वस्त करने का संवैधानिक हथियार है आरक्षण, फिर जातिगत जनगणना का विरोध क्यों?

जातिगत जनगणना की मांग के प्रति अपराधबोध पालने की कतई ज़रूरत नहीं है। यह तो हमारे देश की अपार संभावनाओं के द्वार खोलने की कुंजी है। बता रहे हैं प्रो. जी. माेहन गोपाल 

समाज के पिछड़े वर्गों को नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने की नीति, सामाजिक परिवर्तन की उस परिकल्पना का हिस्सा है, जिसका आविर्भाव ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन से हुआ। अतः यह अपेक्षित ही था कि आरक्षण का विरोध ब्राह्मणवाद से ही उपजेगा। मूलतः आरक्षण एक ब्राह्मणवाद-विरोधी नीति है. और आरक्षण का विरोध, ब्राह्मणवाद का हिस्सा है। यहां ब्राह्मणवाद से आशय है सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में कुलीनों का एकाधिकार। कोल्हापुर राज्य के प्रगतिशील शासक शाहूजी महाराज, जो गैर-ब्राह्मण समुदायों के अधिकारों के जबरदस्त हिमायती थे, ने सबसे पहले सन् 1902 में शासन के स्तर पर आरक्षण नीति लागू की थी। उनका यह कदम जोतीराव फुले के समाजसुधार आंदोलनलन से प्रेरित था। जहां तक ब्रिटिश-शासित भारत का प्रश्न है, उसमें सबसे पहले आरक्षण की व्यवस्था सन् 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणवाद-विरोधी जस्टिस पार्टी द्वारा लागू की गई थी। उसके पहले, सन् 1891 में त्रावणकोर राज्य में सार्वजनिक सेवाओं में ब्राह्मणों के वर्चस्व के विरोध और मलयालियों को प्रशासन तंत्र में आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की मांग के समर्थन में मलयाली मेमोरियल आंदोलन चलाया गया था।

 

हम जिस ब्राह्मणवाद की बात कर रहे हैं, वह कोई धार्मिक, सामाजिक या दार्शनिक संकल्पना नहीं है। इस शब्द का प्रयोग हम उस राजनैतिक विचारधारा के लिए कर रहे जो कुलीनतंत्र (चुनिंदा व्यक्तियों या समूहों का शासन) की हामी है और सभी अधिकार सवर्णों को देना चाहती है। ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन का लक्ष्य इस कुलीनतंत्र को ध्वस्त करना है। जैसा कि इस आंदोलन के शीर्ष नेताओं में से एक पेरियार ने कई बार स्पष्ट किया था कि यह आंदोलन किन्हीं व्यक्तियों अथवा सामाजिक समूहों या किसी धर्म के विरोध में नहीं है। इतिहास हमें सिखाता है कि कुलीनतंत्र हमेशा अस्थिर होता है और अनिवार्यतः कमज़ोर समाजों को जन्म देता है। कुलीनतंत्र अधिकांश समूहों को सत्ता से बाहर रखता है। इससे सामाजिक वैमनस्य उपजना स्वाभाविक है। सामाजिक स्थिरता, एकता और शांति के हित में कुलीनतंत्र को ध्वस्त करना जरूरी है। यह इसलिए भी ज़रूरी है ताकि बहिष्कृत समुदायों की संभावनाओं और योग्यताओं का पूरा उपयोग किया जा सके। कहने की ज़रुरत नहीं कि इससे संपूर्ण देश लाभान्वित होगा। कुलीनतंत्र के अंतर्गत न तो शांति हो सकती है, ना बंधुत्व और न ही उन्नति।

यह दुखद है कि हमारे देश में अनेक शक्तिशाली समाज सुधार आंदोलनों के उभार के सौ बाद, आज भी, ब्राह्मणवादी कुलीनतंत्र के प्रभाव में कोई कमी नहीं आयी है। सन् 2012 में इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक रपट ‘ब्लॉक्ड बाय कास्ट?’ के अनुसार, सन् 2011 में भारत के कॉर्पोरेट निदेशक मंडलों के 93 प्रतिशत सदस्य ब्राह्मण या बनिया जातियों के थे। आईआईएम, बैंगलोर द्वारा प्रकाशित एक शोधपत्र ‘फर्म्स ऑफ़ ए फेदर मर्ज टूगेदर: कल्चरल प्रोक्सीमिटी एंड फर्म्स आउटकम’ के अनुसार भारत के उद्योग जगत में अधिकांश विलय और अधिग्रहण (मर्जर्स एंड एक्वीजीशन्स – एमएंडए) ऐसे उद्योगों के मध्य होते हैं, जिनकी संचालकों की जाति एक ही होती है। इसका परिणाम नकारात्मक होता है। शोधपत्र के अनुसार “समान जातियों के बीच एमएंडए सौदों में क्रेता और विक्रेता दोनों के लिए उतना मूल्य सृजन नहीं होता, जितना कि भिन्न जातियों के बीच इस तरह के सौदों में होता है।” सन् 2018 में नितिन कुमार भारती का एक शोधप्रबंध ‘वेल्थ इनइक्वलिटी, क्लास एंड कास्ट इन इंडिया, 1961-2012’ वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब के वर्ल्ड इनइक्वलिटी डाटाबेस एवं पेरिस स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स द्वारा प्रकाशित किया गया था। इस शोधप्रबंध के अनुसार, “भारतीय समाज में आज भी जाति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है … आर्थिक हालात में एकरूपता नहीं आ पा रही है। (पिछड़ी) जातियों की आर्थिक स्थिति में सापेक्ष बेहतरी या तो स्थिर है या घट रही है … आर्थिक या शैक्षणिक मानकों पर विभिन्न जातियों की स्थिति जातिगत पदक्रम के अनुरूप है … मोटे तौर पर सकारात्मक भेदभाव से अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा है।”

आरक्षण, सामाजिक भेदभाव से निपटने के लिए सकारात्मक कार्यवाही भर नहीं है। और न ही इसे गरीबी के उन्मूलन की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए। यह एक राजनैतिक औजार है, जिसका लक्ष्य बहिष्कृत समुदायों और वर्गों को राज्य के शीर्ष स्तर पर स्थान देकर कुलीनतंत्र को समाप्त करना है। आरक्षण सामाजिक क्रांति का सूत्रपात करने के लिए संवैधानिक औजार है। इसका उद्देश्य है वर्ण-आधारित कुलीन तंत्र को समाप्त कर उसके स्थान पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता पर आधारित लोकतांत्रिक और संवैधानिक सामाजिक व्यवस्था लागू करना। शुरू से ही आरक्षण की यही भूमिका रही है। यह लक्ष्य सकारात्मक भेदभाव या निर्धनता-उन्मूलन रणनीति से हासिल नहीं किया जा सकता।

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में जातिगत जनगणना के लिए प्रदर्शन करते लोग

ब्राह्मणवादी कुलीन तंत्र को यह अच्छी तरह से मालूम था कि आरक्षण उसके लिए कितना बड़ा राजनैतिक खतरा है। चूंकि यह कुलीन तंत्र नए भारतीय गणराज्य पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहता था, इसलिए स्वतंत्रता के तुरन बाद से ही इसने आरक्षण की व्यवस्था का घोर विरोध करना शुरू कर दिया। तत्कालीन नेहरु सरकार ने सन् 1955 में प्रस्तुत काका कालेलकर आयोग की रपट को लागू करने से इंकार कर दिया। यह आयोग सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों के तहत नियुक्त पहला आयोग था। सरकार ने न सिर्फ पिछड़े वर्गों को केंद्र सरकार में आरक्षण न प्रदान करने का निर्णय लिया वरन् उसके पिछड़े वर्गों की अखिल भारतीय सूची तैयार करने से भी इंकार कर दिया। अगस्त 1961 में केंद्र ने राज्यों को लिखा कि वे पिछड़ेपन को परिभाषित करने, पिछड़े समुदायों का पहचान करने और राज्य स्तर पर उन्हें आरक्षण प्रदान करने के लिए स्वतंत्र हैं। यह महत्वपूर्ण है कि सरकार ने यह राय भी व्यक्त की कि पिछड़ेपन को जाति की बजाय आर्थिक मानकों के आधार पर परिभाषित करना बेहतर होगा।

यह स्वतंत्रता के बाद आरक्षण के विरुद्ध पहली चाल थी और इसकी पीछे की कुटिलता जगजाहिर है। भारत के सामाजिक चरित्र में जल्द से जल्द क्रन्तिकारी परिवर्तन लाने और देश के लिए घातक कुलीनतंत्र को ढहाने के लिए आरक्षण को एक राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयुक्त करने की बजाय हमें यह बताया गया कि दरअसल आरक्षण आर्थिक पिछड़ेपन और गरीबी से निपटने का उपाय है और इसका उपयोग राज्य के जातिवादी चरित्र बदलने या सवर्ण कुलीन तंत्र को तोड़ने के लिए नहीं किया जा सकता। ‘प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता’ को आरक्षण का सैद्धान्तिक आधार बनाने की बजाय – जो कि संविधान-सम्मत होता – सरकार ने ‘पिछड़ेपन’ को इसका आधार बनाया ताकि राज्य-सत्ता की जातीय संरचना को बदलने के प्रयासों को रोका जा सके। ब्राह्मणवाद के उन्मूलन की बजाय पिछड़ेपन के उन्मूलन को आरक्षण प्रदान करने का सैद्धान्तिक आधार बनाने – जिसकी शुरुआत काका कालेलकर आयोग के समय ही हो गई थी – के कारण ही कुलीनतंत्र के लिए जाति की बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करना संभव हो सका।

सन् 1980 की मंडल आयोग रपट को लागू करने से छोटे पैमाने पर ही सही, परंतु वांछित राजनैतिक परिणाम आकार लेने लगे। राज्य का सामाजिक चरित्र राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक मुद्दा बन गया। यह मांग उठने लगी कि विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधित्व का आकलन किया जाए ताकि कुलीनतंत्र के असली इरादों का पर्दाफाश हो सके। इसकी प्रतिक्रिया में आरक्षण पर हर कोने से हमले शुरू हो गए, जो अब भी जारी है। आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा लगा दी गई। ओबीसी की क्रीमी लेयर को आरक्षण से वंचित कर दिया गया और ओबीसी को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान नहीं किया गया। कुछ न्यायिक निर्णयों द्वारा आरक्षण का दर्जा मूल अधिकार से घटाकर विवेकाधिकार पर आधारित व्यवस्था घोषित कर दिया गया है, जो कि संविधान की गलत व्याख्या है। आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को आरक्षण का पात्र घोषित कर दिया गया। यह आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाने की दिशा में कदम है। सन् 2018 में, अज्ञात कारणों से, भारत सरकार ने राज्य स्तर पर पिछड़े वर्गों की पहचान करने का अधिकार राज्यों से छीन लिया। तीन साल बाद राज्यों को यह अधिकार पुनः दे दिया गया। शायद भारत सरकार को यह भय था कि कहीं आरक्षण सूची में जातियों का नाम शामिल करने या ना करने से जुड़े विवाद दिल्ली न पहुंच जाय।

कुलीनतंत्र ने सार्वजनिक नियोजन में योग्यता की भूमिका को नगण्य कर दिया है। विभिन्न पदों पर नियुक्ति का आधार एक बार ली जाने वाले मानकीकृत परीक्षाएं हैं। यह योग्यता को जांचने का घिसा-पिटा, पूर्व-आधुनिक और औपनिवेशिक तरीका है। इसने इस ब्राह्मणवादी अन्धविश्वास को जिंदा बनाये रखा है कि ईश्वर, प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के आधार तीन गुण भिन्न-भिन्न अनुपातों में प्रदत्त करते हैं। और यही अनुपात यह निश्चित करता कि वे किस परिवार में जन्म लेंगे। योग्यता का यह ब्राह्मणवादी मानक, दरअसल, एक सामंती व्यवस्था का निर्माण करता है, जिसमें सत्ता और संपत्ति कुलीन वर्ग की संतानों के लिए आरक्षित कर दी जाती है। इससे भारत के बहुसंख्यक लोगों की योग्यताएं सामने ही नहीं आ पातीं हैं।

जाति जनगणना का विरोध इसलिए किया जा रहा है क्योंकि यदि विभिन्न जातियों के हमारी कुल आबादी में अनुपात और सार्वजनिक नियोजन और शैक्षणिक संस्थानों में उनके प्रतिनिधित्व से संबंधित तथ्य और आंकड़े सामने आ जाएंगें तो इससे कुलीनतंत्र की व्यापकता का अंदाज़ा लगेगा और इस तंत्र को नष्ट करने की आवश्यकता प्रतिपादित होगी। इससे उच्चतम न्यायालय द्वारा 1991 में आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा को पुनर्निर्धारित करना ज़रूरी हो जाएगा। इससे अदालतों की इस मांग की पूर्ति हो सकेगी कि उनके समक्ष ठोस आंकड़े और तथ्य प्रस्तुत किये जाएं। इस बात की बहुत कम सम्भावना है कि हमारे देश में जाति जनगणना होगी। अगर केंद्र सरकार इसके लिए औपचारिक अनुमति दे भी देती है, तब भी कुलीनतंत्र उसका ‘जयराम’ कर देंगें– मतलब वे वही करेंगे, जो तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने किया था। उनके मंत्रालय ने 2011 में जातिगत जनगणना की, परंतु मंत्री महोदय ने उसके परिणामों को सार्वजनिक करने से इंकार कर दिया। एक बात हमें साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिए। भारत का मुख्य लक्ष्य है जाति-आधारित कुलीन तंत्र से मुक्ति पाना। यही हमारी विशाल सामाजिक और आर्थिक संभावनाओं और क्षमताओं को सामने लाने की कुंजी है। आरक्षण इस लक्ष्य को हासिल करने का संवैधानिक औज़ार है. उसे कमज़ोर करने से केवल कुलीनतंत्र का भला होगा।

(6 सितंबर, 2021 को प्रकाशित आउटलुक पत्रिका में संकलित इस लेख का हिंदी अनुवाद, लेखक की अनुमति से प्रकाशित किया जा रहा है)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

जी. मोहन गोपाल

लेखक उच्चतम न्यायालय की नेशनल जुडिशल अकादमी और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी, बैंगलोर के पूर्व निदेशक है।

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