विश्लेषण
माना जाता है कि दलित राजनीति का पर्याय ही सामाजिक मुद्दे हैं। यही धारणा मार्क्सवादी विचारधारा से पनपी राजनीति में भी देखी जाती रही थी। इन अर्थों में देखा जाये तो दलित राजनीति की सबसे बड़ी त्रासदी भी यही रही है कि वह जिन सामाजिक सरोकारों के पीठ पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचती रही है, उन्हीं सामाजिक सरोकारों को अनदेखा किये जाने से ही, सत्ताच्युत भी होती रही है।
दलित राजनीति के इतिहास की बात करें तो वह इतना पुराना तो नहीं, लेकिन आज तक उसने इतना उतराव-चढ़ाव देखे हैं कि उसे बिल्कुल भी नया-नवेला भी नहीं कहा जा सकता। डॉ. आंबेडकर से लेकर कांशीराम-मायावती तक के इस सफर ने बहुत से झंझावातों को अपनी पीठ पर झेला है। यह एक कटु-सत्य भी है कि लगभग सात दशकों तक की इस पुरानी राजनीति ने दलितों को जो दिया है, वह सिर्फ यही है कि आंबेडकर को छोड़ कर दलित नेताओं ने दलितों के नाम पर सिर्फ राजनीति ही की है, या राजनीति में खुद की पहचान बनाकर गैर-दलित राजनीति में अपना स्थान बनाने की कवायद को ही निबाहा है।
हमने देखा है कि डॉ. आंबेडकर जब राजनीति करते थे, तो वे इस राजनीति को सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये ही प्रयोग में लाने की इच्छा से प्रेरित देखे जाते थे। लेकिन आज के दलित नेताओं ने जिस चालाकी से राजनीति को एक ऐसी चाबी प्रचारित कर दिया है, जो कि दलितों की तमाम समस्याओं के बंद ताले खोल सकती है, देश के लगभग सभी दलित राजनेता की सत्तालोलुपता ने दलित बुद्धिजीवी को हतप्रभ कर दिया है, जो कि दलित समाज में आमूलचूल परिवर्तन की इच्छा पाले हुये हैं।

हमने देखा है कि डॉ. आंबेडकर द्वारा गठित राजनैतिक दल रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) ने अनेकानेक नामी गिरामी नेताओं को जन्म दिया, जो कि उस समय के प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस की दीवारें हिला दिया करते थे। लेकिन दलितों को भारी सदमा तब पहुंचता था जब यही भारी-भरकम नेता कांग्रेस में ही समाधि ले लिया करते थे। सामाजिक परिवर्तन की उम्मीदों को ग्रहण लगते हमने अपनी आंखों से देखा है।
आज की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को जन्म देने वाले बाबू कांशीराम, जिन्हें बाद में साहेब कांशीराम और मान्यवर कांशीराम के संबोधन से पुकारने की परंपरा को अपनाया गया, से उनके वैचारिक परिवर्तन का भी अंदाजा लगाया जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन का नारा बामसेफ के मंचों पर तो दिखाई दिया करता था, लेकिन डीएस-फोर (दलित शोषित संघर्ष समिति) तक आते-आते उन बुद्धिजीवियों को अलविदा कह दिया गया, जो सामाजिक सरोकारों के कारण ही बाबू कांशीराम के नेतृत्व में काम करने को जुड़े थे। बामसेफ जैसी संस्था का मुख्य उद्देश्य तो दलित, पिछड़े कर्मचारियों को एक मंच पर लाना था। लेकिन वास्तविकता यह थी कि दलितों की ही रेलमपेल इस संगठन में बनी रही जो कि बसपा के अस्तित्व के साथ ही आगे बढ़ी। डीएस-फोर द्वारा सृजित किये गये नारे हमें बताते रहे कि तमाम अन्य सामाजिक सरोकार, जिनके जन्मदाता डॉ. आंबेडकर थे, को धत्ता बता दिया जायेगा।
कांशीराम अपनी मुहिम के दौरान जब हमारे शहर में थे, उनसे पूछा गया कि आप क्या बौद्ध धर्म स्वीकार करेंगे, तो उन्होंने कहा कि जब मेरे लाखों अनुयायी हो जायेंगे तो ही बौद्ध धर्म ग्रहण करूंगा। लेकिन उनका यह वक्तव्य अंत तक अधूरा ही रहा। उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता तो मिली, लेकिन तमाम सामाजिक सरोकार सिर्फ कुछ आंबेडकर पार्कों तथा उनकी मूर्तियों तक ही सिमटते चले गये। सत्ता की भूलभुलैया में इन सामाजिक सरोकारों पर समय की धूल लगातार पसरती रही। सत्ता के गर्म लहू में यह सामाजिक सरोकार कभी गर्म न हो सके।
बाबू कांशीराम के बाद मायावती के दौर में भी इन सामाजिक सरोकारों की कोई सुध नहीं ली गई। दलित-वर्ग के पांवों के नीचे की जमीन को हरियाली की वो खूशबू कभी नसीब नहीं हुई, जिसके वादे लगातार किये जाते रहे। राजनीति में लेन-देन का दौर ऐसा चरम पर पहुंचा कि दलितों की तमाम कठिनाइयों पर सत्ता की धूल पड़ती चली गई। जो दलित आशावादी दृष्टिकोण से इन नेताओं को निहारा करता था, वह निराशा का कंबल ओढ़ कर पुनः कांग्रेस की ओर देखने पर बाध्य हुआ, जिसे आंबेडकर एक जलता हुआ महल कहा करते थे।
कहना न होगा कि सत्ता की अपनी धरती होती है, उस पर नेता अपनी फसल बोता है। इसके लिए आम जनता भी समाज की तमाम बुराइयों को नेस्तानाबूद करने के हलफ़ उठाते हुये चलती रहती है। फिर वह समय आता जब उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब नेता अपना दामन छुड़ा लेता है।
मैं आंबेडकर के इस लिखित कथन को उद्धृत करना चाहता हूं कि सामाजिक अत्याचार के मुकाबले राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं और वह सुधारक जो सामाजिक अत्याचार का विरोध करता है, उस राजनीतिज्ञ से अधिक साहसी होता है, जो सरकार का विरोध करता है।
(संपादन : समीक्षा सहनी/नवल/अनिल)