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वंचितों के साहित्य का बंटवारा न हो : सुधा अरोड़ा

‘यह ओबीसी और बहुजन साहित्य भला क्या है? एक प्रभुताशाली सुविधाभोगी वर्ग है और एक वंचित और शोषित समुदाय है, उसमें दलित हो, ओबीसी या बहुजन समुदाय हो, सबको एक ही जगह रखना चाहिए। साहित्य हमेशा वंचितों व शोषितों के पक्ष की बात करता है और उनके साथ खड़ा होता है।’ पढ़ें, प्रसिद्ध साहित्यकार सुधा अरोड़ा से यह बातचीत

[4 अक्टूबर, 1946 को लाहौर (पाकिस्तान) में जन्मी सुधा अरोड़ा हिंदी साहित्य के प्रमुख कथाकारों में एक हैं। इनका पहला कहानी संग्रह ‘बगैर तराशे हुए’ वर्ष 1967 में लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया। करीब डेढ़ दर्जन कहानी संग्रहों के अलावा सुधा अरोड़ा ने स्त्री विमर्श पर आलेखों की तीन पुस्तकें, कविताएं, उपन्यास, नाटक आदि भी लिखे हैं। इनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ वर्ष 2010 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 

हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श की पैरोकार रहीं सुधा अरोड़ा को वर्ष 2010 में मानव प्रकाशन, कोलकाता द्वारा प्रकाशित ‘एक औरत की नोटबुक’ के लिए भी जाना जाता है। 

हाल ही में उनकी कहानी ‘भीमटोला की छोकरी’ साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में प्रकाशित हुई है। 

पिछले दिनों वे दिल्ली में थीं। अतीत से लेकर मौजूदा साहित्य तक किस तरह के बदलाव हुए हैं और इन बदलावों का समाज पर किस तरह का असर हुआ है, आदि सवालों को लेकर नवल किशोर कुमार ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश]

महिलाओं को भी वंचित समुदाय के रूप में पृथक करके देखा जाता है। आज उनका साहित्य है, जिसे स्त्रीवादी साहित्य भी कहा जाता है। यदि हम इस दृष्टिकोण से देखें तो अब तक, आजादी के बाद जो साहित्य आया है, उनका महिलाओं के नजरिये से आप कैसे मूल्यांकन करती हैं?

सिर्फ महिलाओं के नजरिये से क्यों, एक मानवीय नजरिये से मूल्यांकन किया जा सकता है। महिला समस्याओं पर महिलाओं द्वारा रचा गया वह साहित्य तो जरूरी था। दिक्कत यह है कि जब मैं, या अन्य कोई रचनाकार महिलाओं के बारे में लिखना शुरू करते हैं तो महिलाएं भी कहती हैं कि यह सीमित दायरे में लिखा गया साहित्य है या आप लेखन को संकुचित, सीमित कर रही हैं। महिलाओं की समस्याओं को महिलाएं भी समझ नहीं पातीं, आकलन तो दूर की बात है। पुरुषों को तो छोड़ ही दीजिए, क्योंकि महिलाओं को भी समझ नहीं आता कि पुरुषों द्वारा उनके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है। हर वर्ग में – यहां सिर्फ़ निचले, मध्य वर्ग या उच्च वर्ग की ही बात नहीं है, दलित वर्ग से लेकर ऊपरी वर्ग तक, यानी आप सुशीला टांकभौरे की आत्मकथा से लेकर लीना नायडू तक देख लीजिए। लीना नायडू बहुत ऊपर के ओबेराय खानदान की बहू थी। उसके साथ कैसा सुलूक किया गया। प्रताड़ित महिला खुद लिखे, तो समाज उसके उपर चारों तरफ से आक्रमण करता है। लीना नायडू ने जब लिखा तो उसे कितना बुरा-भला कहा गया। हमारे यहां के प्रबुद्ध पत्रकारों ने कहा कि 27 साल रहने के बाद आप क्यों बोल पड़ीं। तो चारों तरफ से ऐसा माहौल है ही नहीं। सिवाय जागरूक महिलाओं के एक छोटे से हिस्से को छोड़ दें, कुछ महिला संगठन, कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ आप जैसे पत्रकार, उनको छोड़ दें, और समग्रता में देखें तो बहुत अच्छा माहौल आज भी नहीं है महिलाओं के प्रति। सहानुभूति का माहौल भी नहीं है।

जो उच्च-मध्य वर्ग की महिलाएं हैं, वो तो पता नहीं क्यों छोटे से दरबे में रहती हैं, उनको पता ही नहीं कि बाहर क्या हो रहा है। जब तक उनके साथ कुछ न हो, उनको समझ में नहीं आता है। इसलिए लिखना तो बहुत जरूरी है, इन समस्याओं का आना बहुत जरूरी है। आज जो माहौल है महिलाओं के प्रति। अब हमें ज्यादा दिखाई दे रहा है कि आज अल्पसंख्यक महिलाओं के प्रति कैसे और कुछ भी बोला जा रहा है। करीब-करीब हर वर्ग के साथ ऐसा है।

कृष्णा सोबती की एक रचना है– ‘मित्रो मरजानी’। उसमें वे दलित वर्ग की महिलाओं के लिए जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करती हैं, उसे आप किस रूप में देखती हैं? 

‘मित्रो मरजानी’ तो एक अलग कैरेक्टर की कहानी है। अपनी इस रचना में उन्होंने एक तरह का दबंग चरित्र दिखाया है। समाज में ऐसे चरित्र होते हैं। कृष्णा सोबती ने उस किरदार को दमित आकांक्षाओं का प्रतीक माना। 

मैं शब्दों की बात कर रहा था, जिस तरीके से …

शब्द भी ठीक हैं। कृष्णा सोबती ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, वह अशोभनीय तो नहीं है। ऐसे तो उन्होंने ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में भी लिखा है, लेकिन वह उनकी अपनी एक शैली है। उन्होंने बेबाक लेखन किया और जो लिखा, मुखरता से लिखा है। मैं उसको गलत नहीं मानती। वे जिन समाजों और तबकों की बात करती हैं, वह भी एक तबका है। तो उनको उसी भाषा में …, जब आप ‘मित्रो मरजानी’ के चरित्र को रेखांकित करेंगे तो कौन सी भाषा लाएंगे। जो भाषा वह बोलती है, वही भाषा होगी न? इसमें गलत क्या है? आप शायद उसको स्वीकार नहीं कर पाते। 

मैं देखता हूं कि तुलनात्मक रूप से उन शब्दों के बदले कुछ और शब्दों का प्रयोग किया जा सकता था?

वह कहानी प्रबुद्ध वर्ग के लिए लिखी गयी है। अब उन्होंने [कृष्णा सोबती ने] ‘यारों के यार’ में भी वही लिखा है। जिस तरह से ऑफिस में लोग आपस में गाली-गलौज करते हैं। इससे पहले किसी महिला रचनाकार ने वैसा नहीं लिखा। कृष्णा सोबती का बेबाक लेखन अपनी तरह का अलग लेखन है। हम आलोचना नहीं कर सकते। मैं उन्हें सराहना की निगाह से देखती हूं। 

आपने आकाशवाणी केंद्र, कोलकाता के लिए मन्नू भंडारी जी का साक्षात्कार लिया था। उसमें आपने उनसे पूछा कि उनकी रचनाओं में महिलाएं संघर्ष तो करती दिखती हैं, लेकिन जीतती क्यों नहीं हैं। आपकी भी कुछ कहानियों में मैने ऐसा ही पाया है। 

हां, उन्होंने [मन्नू भंडारी ने] इसका जवाब दिया था कि असली जीवन में कौन सी नायिकायें झंडा लेकर निकल पड़ती हैं? उनकी बात उस समय के कालखंड के लिए बिल्कुल सही थी। जिस समय वह लिख रही थीं, उस समय बगावत करने वाली नायिकायें तो बहुत कम ही थीं। उनका यह कथन याद दिलाता है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा है कि गुलाम को उसकी गुलामी का अहसास करा दो, बगावत करना तो वह अपने आप सीख जाएगा। मूल यही है कि कम से कम आप उस स्थिति से महिलाओं को अवगत तो करवाइये कि वे इस स्थिति से गुजर रही हैं, बगावत अगर नहीं भी कर रही हैं, तो धीरे धीरे सीख जाएंगी । कम-से-कम मेरी कहानी एहसास तो दिला रही है। मेरी कहानी ‘अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी’ की कुछ लोगों ने आलोचना भी की। उनका कहना था कि इसमें आप क्या कहना चाह रही हैं? आत्महत्या करने जा रही लड़की है, जो अपने माता-पिता को आखिरी खत लिखती है, उसे ग्लोरिफाई किया गया है। और उसमें समाधान क्या दिया गया है! कुछ भी नहीं ! 

दरअसल ऐसा नहीं है। यह कहानी जब रुलाती है किसी को, तो उसे अहसास भी दिलाती है कि तुम इस स्थिति से मत गुजरना और अंत में यह पंक्ति भी है कि बाबा, मैं अपनी दोनों बेटियों को तुम्हारे जिम्मे छोड़कर जा रही हूं। ये अगर आसमान भी छूना चाहें, तो यह जानते हुए भी कि वे आसमान को कभी छू नहीं पाएंगीं, इनको रोकना मत। यह बहुत बड़ा संदेश है। जैसे अन्नपूर्णा को पढ़ते-पढ़ते एक सुदर्शन युवक का शादी का प्रस्ताव आ गया, तो बीए की पढ़ाई रोक कर उसकी शादी कर दी गयी और वह ससुराल आ गई। बाकुड़ा जैसे छोटे कस्बे से उठकर वह मुंबई महानगर में आ गई तो उसे लगा जैसे वह अमेरिका जा रही है या जैसे जन्नत में आ गई हो, लेकिन हकीकत क्या है? तो वो हकीकत, तो हर महिला की है, चाहे वह किसी भी वर्ग की हो। 

समय बदल रहा है। आज के समाज में बगावत बिल्कुल दिख रही है। अब देखिए कि हमारी पीढ़ी में जिस तरह की सहनशीलता एवं जिस तरह की स्वीकार करने की ताकत दिखाई नकारात्मक एवं विपरीत पस्थितियों में भी, आज वैसा नहीं है। बगावत उसको नाम दे या ना दें, लेकिन आज की जो पीढ़ी है, बीस से चालीस साल के बीच की जो लड़कियां हैं, उन्हें बातें ठीक से समझ में आती हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि अब वह आंखों पर पट्टी बांधकर शादी नहीं करती हैं। पहले हमारे समय में दो परिवार आपस में मिल कर शादी तय कर देते थे। शादी के वक्त आप देख रहे हैं कि मेरा पति कौन है, या लड़का देख रहा है कि मेरी पत्नी कौन है। यह जमाना तो अतीत की बात हुई। अब लड़की ने अपने आप यह सुविधा, यह अधिकार ले लिया है और जबर्दस्ती छीना है कि अगर मैं किसी के साथ जा रही हूं और एक हफ्ता रहकर आ रही हूं, तो जरूरी नहीं कि मैं शादी कर ही लूं। यह बगावत नहीं तो और क्या है?

यह खास वर्ग तक ही सीमित है।

हां, खास वर्ग तक जरूर है, लेकिन जब कस्बे की लड़कियां भी शहर में आती हैं तो वह भी यही करती हैं। गांव-कस्बे की लड़कियां बाहर निकलती हैं, पढ़ाई के लिए, नौकरी करने के लिए, तो वह भी यही करती हैं। जिनसे उनका पहला अफेयर हुआ, वह उनसे शादी ही करेंगीं, जरूरी नहीं है। जबकि हमारे समय में यह था कि किसी से अफेयर हुआ, बस, और अगर यह बात दस लोगों को पता चल गयी, तो आप बंध जाते हैं कि उसी से शादी करनी है, क्योंकि तुम तो इसके साथ घूमती हुई पकड़ी गई। बहुत बड़ा फर्क आया है ! कल मैं शादी में गयी थी। वे दोनों तीन साल से लिव-इन में थे। जब उन्हें यह लगा कि हम जिंदगी एक साथ काट सकते हैं और अब आगे परिवार बढ़ाने की जरूरत हो सकती है तो अब शादी करना मजबूरी, सुविधा – जो भी कहें, अपने आप बन जाती हैं। लड़कियां तो यह कदम उठा रही हैं। आप यह मत समझिए कि जो गांव की लड़कियां हैं, वे अभी भी पुराने संस्कारों की हैं। अगर आप उन्हें पढ़ने के लिए या नौकरी करने के लिए शहर भेजेंगे तो वे भी आपसे बगावत करके यह सब करेंगी। फिर आपको पसंद आये या न आये। यह फर्क तो आया है।

साहित्य और राजनीति के बीच एक अंतर्संबंध रहा है। इसे नामवर सिंह सहित अन्य आलोचकों ने रेखांकित किया है कि साहित्य का राजनीति पर और राजनीति का साहित्य पर प्रभाव पड़ता ही है। क्या आपको लगता है कि 1990 के बाद जो मंडल कमीशन और वैश्वीकरण दो चीजें हुईं, उसने साहित्य को प्रभावित किया है? यदि हां तो किस रूप में प्रभावित किया?

साहित्य अपने आसपास और विश्व में घटित त्रासदियों से प्रभावित होता ही है चाहे वह जातिगत राजनीति हो या भूमंडलीकरण, बाजारवाद या उदारीकरण हो, साहित्य में चाहे वह कहानी हो उपन्यास हो, नाटक हो, उसके उपर उसका प्रभाव पड़ता ही है। 

वैश्वीकरण पर मो यान की एक बेमिसाल चीनी कहानी है– “मज़ाक की भी कोई हद होती है शिफु !” जितेंद्र भाटिया की दिहाड़ी मजदूर पर एक कहानी है, जिसका शीर्षक ही है “ग्लोबलाइजेशन”! मेरी भी एक कहानी है– “कामगार”। और एक कहानी जयनंदन की “विश्व बाजार का ऊंट”, शिवमूर्ति की “बनाना रिपब्लिक” … और भी कई कहानियां हैं। ममता कालिया का उपन्यास “दौड़” है।

लेकिन साहित्य में भी साहित्यकारों का एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे किसी चीज से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे साहित्य को सिर्फ एक कला समझते हैं और जैसे रोम के जलने पर नीरो बांसुरी बजाता है, उस तरह वे साहित्य रचते चले जाते हैं। कुछ भी होता रहे, वे अपनी बांसुरी बजाते चले जाते हैं। ऐसे भी लोग हमारे लेखन की दुनिया में हैं जिस पर कोई असर नहीं होता, जो सत्ता के सामने झुका रहता है, उनको अपने लेखन में कोई भी ऐसी विवादास्पद चीज नहीं लेनी है, जिसका सत्ता से टकराव हो। वे सत्ता से टकराते ही नहीं हैं। हम तो उन्हें साहित्यकार ही नहीं मानते। इस तरह के बहुत से लोग हैं, जो नामी-गिरामी हैं। आजकल सम्मान एवं पुरस्कार उन्हीं को मिलता है, जो आज तक सत्ता से टकराये नहीं और चुप रहें। लेकिन पुरस्कार और सम्मान से कोई भी लेखक बड़ा नहीं होता। लेखक बड़ा तभी होता है जब वह सवालों से टकराये, जूझे, और मुठभेड़ करे। 

कुछ महिला रचनाकार कहती हैं कि वे स्त्रीवादी नहीं, मानवतावादी हैं। आप अपने को क्या मानती हैं?

हां, कुछ लेखिकाए कहती हैं कि हम फेमिनिस्ट नहीं हैं, ह्यूमेनिस्ट हैं। मानवतावादी हैं, नारीवादी नहीं हैं। उन्हें लगता है कि नारीवादी कहना उनके लेखन को सीमित, संकुचित करना होगा। सवाल यह है कि नारीवादी हुए बिना आप मानवतावादी कैसे हो सकते हैं? अगर आप स्त्री हैं, तो आपके लिए फेमिनिस्ट होना पहली जरूरत है, मानवतावादी होना बाद में आता है। 

पिछले तीन-चार दशकों से दो तरह का साहित्य सामने आया है– एक दलित साहित्य और दूसरा है ओबीसी साहित्य। एक और बहुजन साहित्य की बात भी कही जा रही है। आप इन्हें किस रूप में रूप में देखती हैं?

यह ओबीसी और बहुजन साहित्य भला क्या है? एक प्रभुताशाली सुविधाभोगी वर्ग है और एक वंचित और शोषित समुदाय है, उसमें दलित हो, ओबीसी या बहुजन समुदाय हो, सबको एक ही जगह रखना चाहिए। साहित्य हमेशा वंचितों व शोषितों के पक्ष की बात करता है और उनके साथ खड़ा होता है ।

तो आप बहुजन साहित्य के पक्ष में हैं?

जो साहित्य लिखा जा रहा है वह तमाम वंचितों का साहित्य है। उसमें आप कैसे बंटवारा करेंगे, यह दलितों का है और ओबीसी का है। यह गलत होगा न।

लेकिन ऐसी नौबत क्यों आई? क्या आपको लगता है कि जो हिन्दी के साहित्यकार रहे, उन्होंने एक तरह से वंचित तबकों को नजरअंदाज किया? 

नजरअंदाज कोई रचनाकार नहीं करता। प्रेमचंद ने भी नहीं किया था। होता यह है कि जो बाहर से देखने वाला है और जो भोगता है, उसके अनुभव अलग-अलग होते हैं। अगर मैं किसी दलित के बारे में लिखती हूं तो जाहिर है कि मैं बाहर से देख रही हूं और लिख रही हूं। और दलित जो झेल रहा है, भोग रहा है, अगर वह खुद लिखता है, तो वह अपनी भाषा एवं अपनी कलम से लिखेगा। मेरे लिखने और उसके लिखने में, मेरे देखने और उसके देखने में, जो फर्क आएगा, वह फर्क तो होगा ही न। प्रेमचंद ने दलितों पर लिखा, ‘कफन’ कहानी लिखी, ‘पूस की रात’ लिखी। आज जब उन कहानियों की विवेचना समीक्षा की जाती है, आप उन समीक्षाओं को पढ़ें तो आप उनसे बिल्कुल आश्वस्त हो जाते हैं कि सही कह रहे हैं। हम प्रेमचंद जी को पूरी तरह से इस आरोप से बरी नहीं कर सकते कि उन्होंने सही नहीं लिखा, उनको जानकारी नहीं थी, एक रचनाकार जो अपनी मंजी हुई कलम से थोक में लिखे चले जा रहे हैं, हर रोज एक कहानी, करीब सात सौ कहानियां प्रेमचंद ने लिखीं। लेखन एक नशा भी होता है, तो उसमें वे बहुत कुछ ऐसा भी लिख गये जो उस वर्ग की सच्चाई नहीं थी। खासतौर से ‘कफन’ कहानी, जिस पर फिल्में बनीं। गुलजार साहब ने भी बनाई, लेकिन कहानी के चरित्रों में बहुत बड़े दोष हैं। उस जाति में वैसा नहीं होता जैसा प्रेमचंद ने दिखाया । यह साफ-साफ कई दलित रचनाकारों ने खंगाल कर बताया। तो हमेशा बाहर से देखने वाला जब लिखता है, लेखक चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, साहित्यकार कितना भी बड़ा हो, वह बाहर से देखकर लिखेगा, तो उसका लिखना अलग होगा, जो खुद भोग कर लिखेगा, जैसे कौशल्या बैसंत्री जब लिखेंगी, सुशीला टाकभौरे, जेसिता केरकेट्टा जब लिखेंगी, तो वह जमीन से जुड़ा हुआ होगा। उसमें जो आग होगी, उसमें जो तेवर होगा, वह हममें नहीं आ सकता। मैं जब अपने वर्ग की बात करूंगी, मैं जो देख रही हूँ, जो खुद झेल रही हूं, उसमें मेरा तेवर होगा, मेरी आग वहां दिखाई देगी। पर जिसको मैंने देखा नहीं है, उसके बारे में सहानुभूति से लिख सकती हूं पर वो आग मुझमें नहीं आएंगीं। या हो भी सकता है कि कभी आ भी जाए। कइयों ने लिखा भी है, जो उस वर्ग के नहीं थे, लिखा है, और वह असरकारक भी है। 

आम तौर पर सच्चाई यह है, चाहे उस लेखन में भाषा न हो, चाहे अच्छा शब्द-सौष्ठव न हो, चाहे वह शैली न हो, कहने का बहुत प्रखर अंदाज़ न हो, पर उसके बावजूद, उनकी सीधी-सादी भाषा में भी वह चीज ज्यादा असरकारक होगी क्योंकि वह सच लिख रहा है। 

आपकी हाल की कहानी है ‘भीमटोला की छोकरी’। वह आपने देख कर लिखी, जी कर नहीं । उसके बारे में बताएं। 

‘भीम टोला की छोकरी’ फिर वही … एक तरह से उस कहानी की अगर मैं बात करूं तो मैं उस कहानी की द्रष्टा हूं, भोक्ता नहीं हूं। लेकिन उस वर्ग के बीच में बैठकर, बातें सुनकर, थोड़ा सा उनकी अंदरूनी परतों की झलक देखकर, वही लेखक का जो आब्जर्वेशन होता है, देखने की ताकत होती है, अन्दर की चीज को पकड़ने की, तो उसने मुझे बहुत विचलित किया और इस कहानी को लिखने के दौरान मुझे बहुत परेशानी हुई, क्योंकि कहानी मुझे लिखकर देनी ही थी। मुझे वहां बुलाया ही इसलिए गया था कि आप कुछ लिखें और मैं लिख नहीं पा रही थी। इसलिए उसको मैंने संस्मरण की तरह ही लिखा। हालांकि उसमें जो घटनाएं है, वो काल्पनिक भी हैं। लेकिन वह जो, सतह से नीचे झलक रहा था, उनको थाम कर लिखा है। पढ़ने में लगता है कि सचमुच ऐसा ही हुआ होगा और वह सच है भी।

आप लेखन के अलावा सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी रहती हैं। आपने अपने स्तर पर किस तरह के बदलाव देखे हैं? आप क्या महसूस करती हैं जब आप खासकर वंचित समुदायों के लोगों से मिलती हैं, जो हाशिए के बाशिन्दे हैं? 

बदलाव तो इस तबके में भी आया ही है। मैंने पहले भी कहा कि आज झोपड़पट्टी की लड़कियों में भी इतना बदलाव आया है कि वो कहती हैं कि अगर बेटी होने के जुर्म में मुझे घर से निकाल दिया गया तो यह किस तरह का सुसराल है और कैसा मेरा पति है। तो बेहतर है – उसको छोड़ देना। कौन उस पर मुकदमा करे, लड़े और उसमें उलझे। ठीक है एक बेटी या बेटा है न, हम पाल लेंगे। और एक पति ऐसा है तो दूसरा कौन सा बेहतर होगा! हमारे इलाके में फुले नगर में एक कतार में इतने घर हैं जहां अकेली लड़कियां बच्चों को पालती हुई मिल जाएंगीं। उनके साथ उनके पति नहीं हैं। तीन तलाक-तीन तलाक का इतना शोर होता है, लेकिन हिन्दू पति तो बिना तलाक लिए चुपचाप चला जाता है, दूसरा घर बसा लेता है और औरत कुछ कर नहीं पाती। यह हालत है। वह तो बोलता भी नहीं कि मैं तलाक देकर जा रहा हूं। बिना तलाक लिये दूसरी औरत लेकर बैठ जाता है। कौन उससे लड़े और मरे। तो वे सब जिंदगी चला रही हैं, काम करती हैं। पवई (मुंबई) में मेरी मित्र की एक संस्था है। वह ऐसी महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई, सीने पिरोने, पेंटिंग आदि का प्रशिक्षण देती है। धीरे-धीरे उनको अपने काम में ही आनंद आने लगता है। अपने बच्चों को बड़ा करने का भी एक सुख होता है। उन महिलाओं का मानना है कि हम संघर्षों से निकल कर आये, लेकिन हम बच्चों को इंसान बना रहे हैं। पढ़ा-लिखा रहे हैं। हम लोग नहीं पढ़े, पर अपने बच्चों को तो हम पढ़ा रहे हैं, वे अच्छे इंसान बनेंगे। उनकी अपनी पूरी जिंदगी का एक ही मकसद रह गया है कि एक या दो , जो बच्चे हैं, वो आगे जाकर हमारी नियति को प्राप्त न हों। छोटी-छोटी लड़कियां, मतलब 25-27 साल की लड़कियां हैं, उनमें पहले इतनी हिम्मत नहीं थी। ससुराल में दुत्कारी जाती थीं, और मां के यहां से भी दुत्कारी जाती थीं कि जाओ वहां, वहीं रहो। आज वह स्थिति नहीं है। यह बहुत सकारात्मक बदलाव है ।

अभी भारत सरकार के स्तर पर ‘एक भाषा एक देश’ की बात कही जा रही है। आप इस विषय को कैसे देखती हैं? 

पहली बात यह कि ये लोग हिंदी के लिए ही स्पष्ट नहीं हैं कि हिंदी कैसी भाषा हो। अभी हिंदी में आपको पता होगा, हल्दीराम के पैकेट का विरोध हुआ कि उसमें उर्दू लिखा हुआ है, जबकि हम जो भाषा बोलते हैं, जो हिंदी हम बोलते हैं, उसमें आधे से ज्यादा शब्द उर्दू के होते हैं। अगर हम संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते हैं तो वह पुराने जमाने की भाषा लगती है। वह आज की भाषा नहीं लगती। तो हिंदी ही तय नहीं कर पा रहे हैं ये लोग और बाकी तमाम भाषाओं में देखिए समानता तो है। उर्दू के जो शब्द हैं, वो तेलगु में हैं, मराठी में तमिल में हैं, कन्नड़ में हैं। लगभग हर भाषा में भरे पड़े हैं उर्दू के शब्द। मेरे ख्याल से हिंदी भी लाते हैं, तो आप देखेंगे कि कम्यूनिकेशन की भाषा ज्यादातर तो अंग्रेजी है। हिंदी है ही कहां? सब जगह, सरकारी दफ्तरों में भी अंग्रेजी ही चलती है। आजकल के झोपड़पट्टी के बच्चे भी अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं। 

क्या आपको लगता है कि यह सब भारत सरकार की वर्चस्ववादी नीति का हिस्सा है?

केंद्रीय सरकार की बात मत करिए। बहुत लम्बी सूची है, सभी कुछ वहां गड़बड़ ही हो रहा है। खास तौर पर शिक्षा संस्थानों में उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। लम्बी बहस का मुद्दा है। हम लोग उनको कटघरे में खड़ा करते रहें, उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। वो अपनी मनमानी करते रहे हैं और करते रहेंगे। 

आज की पीढ़ी के लेखकों लिए क्या कहना चाहेंगीं?

आज के लोग, आज के युवा रचनाकारों की पीढ़ी, हमारी पीढ़ी से ज्यादा सचेत है, जागरूक है और लिख रही है। उनसे मैं यही कहूंगी कि वह साहित्य को लेकर कभी भी महत्वाकांक्षा ना पालें। यह न सोचें कि वे कुछ ऐसा रचेंगे कि उनको यश मिलेगा। इससे ज्यादा वे यह सोचें कि जो हम रच रहे हैं, वह कितनी दूर तक पाठकों तक पहुंच रहा है और उससे क्या बदलाव आ रहा है। बदलाव आना जरूरी है। जो भी पढ़े, उससे दिमाग में एक तरेड़, एक दरार तो पड़े कि क्या हो रहा है। आजकल के ज्यादातर लेखक मेरे ख्याल से इसका ध्यान रख रहे हैं। हमारी पीढ़ी से ज्यादा जागरूक आज की नई युवा पीढ़ी है।

(संपादन : इमानुद्दीन/अनिल)


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चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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