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कांग्रेस दलितों के साथ भावनात्मक रिश्ता क्यों नहीं बना पा रही है?

राहुल गांधी अपने पूरे भाषण में समाज के संकट को दर्शाने के लिए आंबेडकर को उद्धृत नहीं कर सके। वह इस अवसर का उपयोग आंबेडकर के विचारों को नेहरू की विचारधारा के साथ लाने के लिए कर सकते थे, जो भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बना देगा और जैसा कि वे दोनों चाहते थे। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

‘द दलित ट्रूथ: द बैटल्स फॉर रियलाइजिंग आंबेडकर्स विजन’ के विमोचन के अवसर पर राहुल गांधी का दिया हुआ भाषण वायरल हो गया है और मीडिया ने उनके खिलाफ फिर से आक्रामक शुरुआत की है। भाजपा के ट्रोल्स ने उनके भाषणों के चुनिंदा अंशों को लेकर उसमें छेद करना शुरू कर दिया है। जवाहर भवन सम्मेलन हॉल, जहां पुस्तक का विमोचन किया गया था, पूरी तरह से खचाखच भरा हुआ था। कांग्रेस पार्टी की ओर से जो निमंत्रण आया था उसमे बताया गया था कि पुस्तक विमोचन के पहले एक पैनल चर्चा होगी। कुछ दोस्त थे, जिन्हें मैं जानता था और महसूस करता था कि मुझे सिर्फ उनसे मिलने के वास्ते वहां जाना चाहिए और इस बहाने कुछ अन्य दोस्तों से भी मुलाकात हो जाएगी। मुझे लगा कि यह समझने का अवसर है कि कांग्रेस डॉ आंबेडकर के बारे में क्या सोचती है और दलितों से संबंधित उसकी भविष्य की योजना क्या है?

सभागार के अंदर दर्शकों में विभिन्न राज्यों के कांग्रेस कार्यकर्ताओं का बहुमत था, लेकिन मुख्य रूप से ये दिल्ली और हरियाणा और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों से थे। समृद्ध भारत फाउंडेशन के बोर्ड सदस्य थे, जो आगे की पंक्ति में बैठे थे। भीड़ को मैनेज करते हुए सेवा दल की गतिविधियां भी दिखाई दे रही थीं। साढ़े दस बजे तक हॉल खचाखच भरा हुआ था और इसके बाद आयोजकों ने पैनल चर्चा शुरू कर दी। लेकिन जैसा कि आम तौर पर होता है कि राजनैतिक कार्यक्रमों मे ‘बुद्धिजीवियों’ को फजीहत के अलावा कुछ हासिल नहीं होता। एक तो लोग बुद्धिजीवियों को सुनना नहीं चाहते हैं, क्योंकि श्रोता लोग नहीं थे, बल्कि पार्टी के कार्यकर्ता थे, जिन्हे अपने ‘नेता’ को सुनने के लिए लाया गया था। इसलिए इन्हें बौद्धिकता से कोई विशेष मतलब नहीं होता। और दूसरे यह कि जोर-जोर से नारे लगाना उनकी मजबूरी हो जाती है। समस्या यहीं खत्म नहीं होती। पैनल मे आपको दो-तीन मिनट में बातें खत्म करनी होती है। फिर जब नेता पहुंच जाते हैं, तो पैनल पर जल्दी खत्म करने का दबाब पड़ता है और उन्हे ‘नए’ वीआईपी के लिए जगह छोड़ पीछे की सीटों पर बैठने के लिए कह दिया जाता है। राजनीति में यह वीआईपी कल्चर अभी भी बहुत हावी है और कांग्रेस तो इसकी जननी रही है। 

‘हिंदुत्व का मुकाबला करने के लिए एक नई दलित राजनीति का निर्माण’ विषय महत्वपूर्ण था, लेकिन सभा संचालक ने इसे कांग्रेस और दलित मुद्दे में बदल दिया और फिर यह बताया गया कि कांग्रेस ने उनके लिए ‘इतना’ करने के बावजूद दलितों को कांग्रेस में कैसे वापस लाया जा सकता है। इसे कांग्रेस नेता राजेश लिलोठिया द्वारा संचालित किया जा रहा था और इसमें भंवर मेघवंशी, अनुराग भास्कर, जिग्नेश मेवानी, पूनम पासवान, प्रणति शिंदे आदि शामिल थे। 

चर्चा सुनकर मुझे लगा कि कांग्रेस ने आंबेडकरवादी बुद्धिजीवियों को सामने लाने का एक बड़ा अवसर खो दिया है। कोशिश थी कि ‘दलितों’ को जगह दी जाए, लेकिन बहस को बीजेपी बनाम कांग्रेस में ऐसे तब्दील करते रहे, मानो असली विषय यही है। संचालक द्वारा पूछा गया एक सवाल था– “दलित कांग्रेस से दूर क्यों चले गए?” एक पैनलिस्ट ने इसका उत्तर यह दिया कि हम अपने काम की ‘मार्केटिंग’ नहीं करते हैं और इसे और अधिक आक्रामक तरीके से करने की जरूरत है। एक और ‘योग्य व्यक्ति’ का कहना था कि दलितों के बीच इतने सारे समुदाय हैं और हमें एक या दो समुदायों पर ध्यान केंद्रित नही करना चाहिए, बल्कि दूसरों पर जाना चाहिए। दलित समुदाय के मध्य वर्गों की बढ़ती आकांक्षाओं की भी चर्चा हुई, जिन्हें राजनैतिक प्रतिनिधित्व के साथ-साथ भूमि सुधार की आवश्यकता की बात भी सामने आई। संचालक की कोशिश थी कि पूरे मुद्दे को इस रूप में बदल दिया जाए कि दलित ‘हिंदुत्व’ के खिलाफ क्यों नहीं लड़ रहे हैं और उन्हें कांग्रेस में लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। फिलहाल एक अच्छे विषय को ईमानदारी से बहस करने की बजाए उसे पार्टी का मुखौटा बनाकर प्रस्तुत करने की कोशिश की गई, जो सही नहीं थी। दूसरी बात यह कि यह बड़ा विषय है और इस पर अधिक समय और वक्ताओं को लेकर बात करने की जरूरत थी। 

पुस्तक विमोचन के दौरान डॉ. आंबेडकर की तस्वीर को नमन करते व संबोधन के दौरान राहुल गांधी

पैनल डिस्कशन के तुरंत बाद राहुल गांधी आए और किताब के विमोचन के बाद के. राजू लगभग पांच मिनट तक बोले और फिर राहुल गांधी बोलने के लिए उठे। यह दुखद था कि राहुल गांधी का जो भाषण वायरल हो गया, वह हकीकत में असली विषय से बिल्कुल अलग था। उनके इरादे अच्छे हो सकते हैं और वह निश्चित रूप से एक सभ्य और सोचने समझने वाले व्यक्ति हैं, फिर भी उन्होंने कल जो बयान दिया, वह एक परिपक्व नेता का संकेत नहीं था। एक ऐसे व्यक्ति के बारे में अधिक था जो यह साबित करना चाहता है कि वह लोगों की कितनी परवाह करता है, लेकिन उसका संदेश नकारात्मक था। उन्होंने ऊना की घटना और वे वहां कैसे गए, का वर्णन किया। लेकिन ऊना के बारे में कहानी अधूरी रह गई और वह जो संदेश देना चाहते थे वह अचानक अधूरा रह गया। उनका कहना है कि जब वह ऊना पीड़िता के परिवार से मिलने गए तो उन्होंने देखा कि कई युवकों ने आत्महत्या करने का प्रयास किया था और फिर वह उनसे मिलने अस्पताल गए। उनमें से कुछ ने बोलने की कोशिश की। और जब एक से कहा कि तुमने आत्महत्या क्यों की, तुमने अपराधी को क्यों नहीं मारा, तो एक लड़के ने उनसे कहा कि उसे डर है कि अगर उसने उसे मार डाला, तो वह अगले जन्म में दलित के रूप में ही पैदा होगा ।

राहुल गांधी ने एक और बात के बारे में भी बताया कि वह भाजपा के एक सांसद से मिले और उनसे पूछा कि क्या वह पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। सांसद ने उनसे कहा कि वह नहीं करते हैं। राहुल ने फिर उनसे पूछा कि जब वह पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते हैं तो भगवान राम में कैसे विश्वास करते हैं। उनका कहना है कि सांसद ने उनसे इस बारे में सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं बोलने को कहा। 

राहुल गांधी इससे क्या संवाद करना चाहते थे, यह कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि संघ परिवार के ट्रोलर्स को उनके और उनके संवाद के खिलाफ ढेर सारे गोला-बारूद मिले हैं। पुनर्जन्म और भगवान राम में आस्था के बीच क्या संबंध है? और अगर कोई रिश्ता भी हो तो वह दलितों के मुद्दों से कैसे जुड़ा है? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सबसे कांग्रेस पार्टी को क्या सियासी लाभ होने वाला है?

क्या यह संचार की समस्या है या इतिहास का बोझ?

राहुल गांधी ने ‘द दलित ट्रूथ : द बैटल्स फॉर रियलाइजिंग आंबेडकर्स विजन’ पर एक लंबा भाषण दिया, लेकिन उसमें सारतत्व का अभाव था। उनकी दो कहानियां कोई जवाब नहीं देतीं, बल्कि भ्रम और अस्पष्टता को दर्शाती हैं। ऊना कथा का वास्तव में कोई मतलब नहीं था। उन्होंने दिल से बात की, लेकिन दलितों का मुद्दा केवल उनके ‘संरक्षक’ होने का नहीं है, बल्कि उन्हें अपनी बात और अपने निर्णय स्वयं रखने की अनुमति है। सच कहूं तो, यह अकेले राहुल गांधी नहीं थे, बल्कि कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे को संभालने में बहुत ही संरक्षणवादी रुख दिखाया। वह जिग्नेश मेवानी से पूछ सकते थे कि कांग्रेस कार्यकर्ता कितनी बार ऊना गए हैं। ऊना में दलितों ने विरोध किया और यह बड़ा विरोध था। उन्होंने अपना पारंपरिक पेशा छोड़ दिया और नए काम को चुना। मई 2018 में उन सात और उनके परिवारों सहित कई लोगों ने विरोध स्वरूप बौद्ध धर्म को अपनाया, जिन्हें ऊना में दरबार समुदाय के गुंडों ने पीटा था।

यह भी पढ़ें : राहुल-मायावती विवाद में आख़िर नुक़सान किसका है?

क्या राहुल गांधी यह समझते हैं कि दलित न केवल ब्राह्मणवाद के प्रति गुस्सा दिखा रहा है, बल्कि सत्ता में भागीदारी भी मांग रहा है? जबकि पूरे कार्यक्रम मे कांग्रेस की तरफ से डॉ. आंबेडकर का नाम केवल औपचारिकता के लिए लिया गया। दिल से जो बात आनी चाहिए थी, वह राहुल की जुबान पर नहीं आयी। 

पूरे कार्यक्रम की प्रकृति और इसकी रूपरेखा को देखते हुए, यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से आंबेडकरवाद या आंबेडकरवादी विचारधारा को अपनाने में सक्षम नहीं है। दो महिला पैनलिस्टों की ओर से ‘प्रतिरोध’ था, जो कांग्रेस पार्टी से प्रतीत होती हैं, तब भी जब पैनलिस्टों में से एक ने स्पष्ट रूप से डॉ. आंबेडकर की तस्वीरें कांग्रेस मुख्यालय में लगाने के साथ-साथ उनके योगदान का सम्मान करने की बात कही थी।

जिग्नेश मेवानी ने यह जरूर कहा कि मध्यम वर्ग के दलितों की आकांक्षाओं का सम्मान करने की जरूरत है, लेकिन ज्यादातर कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि इसे “दलितों के लिए लड़ने” और उन्हें यह दिखाने की जरूरत है कि इसने उनकी कितनी “देखभाल” की है। 

जिस तरह से कांग्रेस नेताओं ने दलित मुद्दों और उनके प्रतिनिधित्व के बारे में बात की, वह जमीनी हकीकत में समझ की कमी या इनकार को दर्शाता है। अगर कांग्रेस या राहुल गांधी दलित और उसकी विरासत के मुद्दे को समझने के बारे में कुछ सीख सकते हैं, तो उन्हें उनके समुचित प्रतिनिधित्व की आवश्यकता को न केवल समझना होगा बल्कि क्रियान्वित भी करना होगा। आज सभी ओबीसी, आदिवासी और अल्पसंख्यक समेत इस प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि वर्तमान का भारत मंडल के बाद का भारत है जो पूर्व से अलग है। अब, भारत में दलितों के मुद्दे को डॉ.आंबेडकर के साथ अपने संबंधों को समझे बिना नहीं निपटा जा सकता है। वे दिन गए जब कांग्रेस को बाबू जगजीवन राम के नाम पर वोट मिलते थे। आज, उस विचार के बहुत से लोग नहीं हैं और बाबूजी के नाम से दलितों का वोट तो कतई नहीं मिल सकता। नरेंद्र मोदी ने डॉ. अंबेडकर से अपना जुड़ाव स्थापित करने के लिए कितना कर्मकांड किया है, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। लेकिन कांग्रेस पार्टी में तो इसका भी घोर अभाव है। 

डॉ. आंबेडकर को समझने के लिए कांग्रेस ने खोया अवसर

राहुल गांधी अपने पूरे भाषण में वर्ण समाज के संकट को दर्शाने के लिए आंबेडकर को उद्धृत नहीं कर सके। दलितों को ‘जैसे को तैसा’ करने के लिए कहने का उनका प्रयास थोड़ा सनकी था, जो डॉ. आंबेडकर ने अपने किसी अनुयायी से कभी नहीं कहा। आंबेडकरवाद केवल ब्राह्मणवादी ‘शोषण’ या उत्पीड़न का जवाब देने का दर्शन नहीं है बल्कि उससे भी बड़ा है। प्रबुद्ध भारत का विचार एक समावेशी दर्शन है, जो भारत को वर्ण व्यवस्था के कारण हुए विखंडन से और भी दूर ले जा सकता है। अगर राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी वास्तव में दलितों और उनके मुद्दों के बारे में बोलना चाहते हैं तो कांग्रेस पार्टी के लिए महत्वपूर्ण है कि वह संरक्षणवादी दृष्टिकोण से दूर हो और यह स्पष्ट रूप से समझें कि आंबेडकर और उनके विचारों के बिना आप दलितों तक नहीं पहुंच सकते। फुले, आंबेडकर और पेरियार एक वैकल्पिक सामाजिक सांस्कृतिक दर्शन दिए और कहीं पर भी उन्होंने हिंसा की वकालत नहीं की। 

राहुल गांधी इस अवसर का उपयोग आंबेडकर के विचारों को नेहरू की विचारधारा के साथ लाने के लिए कर सकते थे, जो भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बना देगा और जैसा कि वे दोनों चाहते थे। आंबेडकर और नेहरू दोनों ही आधुनिक भारत के निर्माता और प्रतीक बने हुए हैं। उनमें यद्यपि मतभेद भी हैं, लेकिन निश्चित रूप से उनके बीच समानताएं अधिक थीं। दुर्भाग्य से, राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी ने इस संबंध में बहुत कम काम किया है और ऐसा लगता है कि कांग्रेस अभी तक डॉ. आंबेडकर को स्वाभाविक रूप से गले नहीं लगा पाई है।

बार बार दलितों से यह सवाल करना कि वे भाजपा मे क्यों गए या हिन्दुत्व के साथ क्यों गए, दलितों की राजनीतिक सोच को काम आंकने जैसा है। कांग्रेस जो अभी भी ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग के लिए अपने प्यार से दूर नहीं हुई है और जिसने खुद को ब्राह्मणों के अनुकूल दिखाने के लिए सब कुछ पेश किया है, वह दलितों से जवाब कैसे मांग सकती है। जबकि कोई यह नहीं पूछ रहा है कि ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ, बनिया भाजपा को वोट क्यों दे रहे है? 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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