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जोतीराव फुले का ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष

यहां विशेष रूप से ऐसी दो घटनाओं का जिक्र जरूरी है, जो साबित करती हैं कि जोतीराव के विचार इन मुद्दों पर कितने दृढ थे। एक बार जब महादेव गोविन्द रानाडे, जो उन दिनों पुणे में जज थे, जोतीराव फुले को बताया कि उनकी भी एक बाल विधवा बहन है, तो उन्होंने दुखी हो कर पूछा कि उसका विवाह क्यों नहीं किया गया। जब रानाडे से जबाब देते नहीं बना और वे टाल-मटोल करने लगे तो पास बैठे जोतीराव भड़क गये( पढ़ें, सुजाता पारमिता का यह आलेख

जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890) पर विशेष

ब्रिटिश काल में सामाजिक न्याय की सबसे बड़ी लडाई लड़ने वाले महान योद्धा जोतीराव फुले का स्थान भारतीय सामाजिक क्रांतिकारियों में सबसे महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों से भारत में शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों के विरूद्ध उनके संघर्षों के कारण ही ब्रिटिशराज में परिवर्तन आने शुरू हुये और अंग्रेज शासकों द्वारा नये कानून बनाये गये। जोतीराव फुले ने भारतीय समाज की सबसे बडी बीमारी जाति व्यवस्था और उसकी जड़ ब्राह्मणवाद को न केवल समझा, बल्कि उस पर जबरदस्त प्रहार भी किये, जो परिवर्तनवादी जन आंदोलन के इतिहास मे स्वर्ण अक्षरो में दर्ज हैं। इसी कारण डॉ. आंबेडकर ने उन्हें अपना गुरू माना और उनके सामाजिक दर्शन को अपने आंदोलन का मुख्य आधार बनाया। 

ब्राह्मणवाद और पुरोहित वर्ग दोनों के खिलाफ ही जोतीराव फुले का संघर्ष तब तक चलता रहा जब तक वे जीवित रहे। उनके आंदोलन का केंद्र हिंदू धर्म की वे तमाम कुरीतियां और परम्पराएं थीं, जो ब्राह्मणवाद की सदियों से पोषक रही हैं और जिनके कारण ही देश के बहुसंख्यक वर्ग को शिक्षा समेत सभी मानवाधिकारों से सदियों तक वंचित रहना पड़ा।

ब्राह्मणवर्ग ने अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिये ही वर्ण व्यवस्था की स्थापना की थी। पीडित बहुसंख्यक जनता, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका विरोध करती रही। वर्ण व्यवस्था से लाभ उठाने वाला दूसरा वर्ग शासकों का था, जिन्होंने पुरोहितों के हितों को अगर बढाया नहीं, तो घटाया भी नहीं। अंग्रेज शासकों ने भी उसी नीति का अनुसरण किया। उनके द्वारा ब्राह्मणों के बीच शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये जो कुछ किया गया, उसका लिखित प्रमाण उपलब्ध है। ब्रितानिया सरकार भी ब्राह्मणों को तुष्ट करने और उनका सहयोग प्राप्त करने में अपने पूर्ववर्ती शासकों से पीछे नहीं रही। उनकी मान्यता थी कि साम्राज्य के स्थायित्व के लिये यह जरूरी है। अतः सन् 1813 के चार्टर एक्ट में शिक्षा पर खर्च करने के लिये जो एक लाख रुपए का प्रावधान किया गया था, उसका बड़ा हिस्सा ब्राह्मणों की शिक्षा पर खर्च किया जाने लगा। बनारस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना (1791) से लेकर 1820-21 तक उसमें तथा दिल्ली, आगरा और पुणे स्थित सभी महाविद्यालयों में भरती केवल छात्रवृत्ति प्राप्त विद्यार्थियों तक ही सीमित थी, जो सभी ब्राह्मण थे। 1820-21 के बाद, मांग को देखते हुये, यद्यापि इन महाविद्यालयों में गैर-ब्राह्मण विद्यार्थियों की भी भरती होने लगी, परंतु छात्रवृत्ति केवल ब्राह्मण विद्यार्थियो को ही दी जाती रही। सन् 1836 मे इस योजना को समाप्त करने का निर्णय लिया गया, जो 1838 से लागू हुआ, इसके परिणामस्वरूप जहां सन् 1833 मे दिल्ली महाविद्यालय में 431 छात्र थे, जिनमें से 377 छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती थी। वहां 1840-41 मे छात्रों की संख्या घटकर मात्र 155 रह गयी। सन् 1838 के बाद अंग्रेजी शासन ने ‘इनफिल्ट्रेशन’ के नाम से एक नई योजना की शुरूआत की, जिसका उद्देश्य था कि पहले ऊपर के वर्ग यानी ब्राह्मणों को शिक्षित किया जाय, ऐसा करने से शिक्षा स्वतः ही निचले स्तर तक पहुंच जाएगी। अंग्रेजी सरकार का जमीनी सच्चाइयों से कोई सरोकार नहीं था। अगर वे इस ओर जरा सा भी ध्यान देते तो उन्हें यह समझते देर नहीं लगती कि, जिस वर्ग ने सदियों से निम्नवर्ग को पढ़ने के अधिकार और अवसरों से बराबर वंचित रखा, भला वे क्योंकर उन्हें पढाते। अंततः वह योजना बुरी तरह असफल रही। 

उसके बाद सन् 1854 में ‘वूडस डीस्पैच’ आया, जिसके अंतर्गत सरकार ने जनता को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने हाथ में लिया। यह जिम्मेदारी किस प्रकार निभायी गयी, इसके साक्षी हंटर कमीशन (1881) में जोतीराव फुले के दिये गये वे प्रतिवेदन हैं, जिनमें कई जगहों पर यह बताया गया है कि किस प्रकार ब्राह्मण शिक्षकों और विद्यार्थियों ने निम्न वर्ग के गरीब विद्यार्थियों की शिक्षा के मार्ग में रोड़े अटकाये।

जोतीराव फुले अशिक्षा, अज्ञानता और अंधविश्वास को दलित और स्त्रियों की मुक्ति में सबसे बड़ी बाधाएं मानते थे। इसीलिए उनके सामाजिक संघर्षो में शिक्षा का स्थान र्स्वोपरि था, वे सभी जाति व धर्मों के गरीब, दलित और स्त्रियों की शिक्षा के सबसे बडे़ं हिमायती थे। और इसके लिए उन्होने विशेषरूप से पहला स्कूल स्त्रियों के लिए 1 जनवरी, 1848 में पुणे के भिड़ेवाड़ी में खोला। इसी स्कूल में अध्यापन का काम शुरू कर सावित्रीबाई देश की पहली स्त्री शिक्षिका बनीं। इस दंपत्ति ने 15 मई, 1848 को पुणे की एक दलित बस्ती में दूसरा स्कूल खोला, जहां गरीब, दलित बच्चों को बढ़ाया जाता था। जोतराीव फुले ने 1855 में एक रात्रि पाठशाला आरंभ किया, जहां दिन में काम करने वाले स्त्री-पुरूषों को शिक्षित किया जा सके। इसी पाठशाला में फातिमा शेख ने भी शिक्षा पाई, जिन्होंने आगे चलकर फुले दम्पत्ति द्वारा चलाये जाने वाले एक स्कूल में अध्यापन का काम कर मुसलमान समाज की पहली स्त्री शिक्षिका होने का गौरव हासिल किया। दलितों में शिक्षा के विस्तार को ध्यान में रखकर जोतीराव फुले ने पहला पुस्तकालय भी खोला। 

जोतीराव फुले का ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष

जोतीराव धार्मिक कार्यों में ब्राह्मण पुराहितों की सहायता लेने के विरूद्ध थे। इसलिये जनमानस में चेतना के प्रसार के लिये उन्होंने दो पुस्तकें लिखी– ‘पुरोहितों का पर्दाफाश’ (1867) और ‘ब्रिटिश साम्राज्य में ब्राह्मणी वेश में गुलामगिरी’ (1873)। पहली पुस्तक मे जोतीराव फुले ने बताया कि किस प्रकार जन्म से मरण तक विभिन्न कर्मकाडों द्वारा पुरोहित यजमानों का आर्थिक शोषण करते हैं। वहीं, दूसरी पुस्तक में उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोगों की अशिक्षा, अज्ञानता तथा अंधविश्वास का लाभ उठाकर ब्राह्मणों ने शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम बनाकर रखा है। उन्होंने 1872 में इसी आशय का एक घोषणापत्र भी प्रकाशित किया।

महत्वपूर्ण यह कि जोतीराव सिर्फ पुस्तक लिखकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे। इसीलिये 24 सितंबर, 1873 को उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की एक सभा आयोजित की, जिसमें मार्गदर्शन के लिये सत्यशोधक समाज नाम से एक केंद्रीय सगंठन बनाया गया। बाद में कई स्थानों पर उसकी अन्य शाखाएं स्थापित की गयीं।

जोतीराव फुले ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही दो विधवा विवाह सम्पन्न कराये। पहला विवाह दिसंबर, 1873 में और दूसरा उसके पांच महीने बाद मई, 1874 में। ब्राह्मणों ने विवाह रोकने के लिये क्या कुछ नहीं किया, पर सफल नहीं हो सके। इसके बाद जोतीराव के एक साथी कार्यकर्ता ने भी अपने बेटे का विवाह ब्राह्मण पुरोहित के बिना सम्पन्न कराया। इस पर पुरोहित मामले को न्यायालय में ले गया। अवर जज ने, जो स्वयं ब्राह्मण थे, उस पुरोहित के पक्ष में ही निर्णय दिया। इस निर्णय से नाराज जोतीराव ने जिला न्यायाधीश के यहां अपील की। जिला न्यायधीश ने निचले न्यायालय के फैसले के विरूद्ध निर्णय दिया। लेकिन पुरोहित कहां हार मानने वाला था। उसने उस निर्णय के बाद मुम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर किया, परन्तु वहां भी वह हार गया। इस प्रकरण के बाद से पुणे का ब्राह्मण वर्ग पूरी तरह से जोतीराव के खिलाफ हो गया।

यहां इसीसे मिलते-जुलते एक अन्य मुकदमे का जिक्र करना जरूरी है। सन् 1878 में पुणे में एक व्यक्ति ने अपने पुश्तैनी पुरोहित की बजाय अन्य पुरोहित से अपने बेटे की शादी करवायी। प्रभावित पुरोहित ने महादेव गोविन्द रानाडे के न्यायालय में, जो उन दिनों पुणे में ही प्रथम श्रेणी के अवर जज थे, मुकदमा दायर किया, जिसमें दक्षिणा के अलावा हरजाने की भी मांग की। रानाडे ने पुरोहित के पक्ष में निर्णय दिया और कहा कि वादी को बुलाना या ना बुलाना प्रतिवादी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता। लेकिन बाद में जिला और उच्च दोनों ही न्यायालयों ने न्यायमूर्ती रानाडे के इस फैसले को रद्द कर दिया। यदि ऐसा ना होता तो इसके दूरगामी परिणाम घातक हो सकते थे। ब्राह्मण पुरोहितों के बिना वैध विवाह सम्पन्न नहीं हो सकते, इस परम्परावादी दलील को अमान्य करने वाला मुंम्बई न्यायालय तीसरा न्यायालय था। बंगाल तथा तत्कालीन पश्चिमोत्तर उच्च न्यायालाय इसे पहले ही अस्वीकार कर चुके थे, बाद में मद्रास उच्चतर न्यायालय ने भी इसे नामंजुर कर दिया था, जिसके बाद तो यह विवाद का विषय ही नहीं रहा। जोतीराव के लिये यह बड़ी जीत साबित हुई।

विभिन्न भारतीय प्रांतों में पहले से ही प्रचलित दक्षिणा प्रथा को अंग्रेज शासकों ने अपने शासनकाल में भी जारी रखा। हालांकि कुछ लगाम लगाने की भी कोशिशें की। मसलन, उन्होंने दक्षिणा कोष की अधिकतम सीमा 50,000 रुपए तक वार्षिक निर्धारित कर दी। कई अन्य उपाय भी किये गये, जिनसे दक्षिणा पाने वाले ब्राह्मणों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गयी। एक बार तय किया गया कि बची हुई राशि में से प्रतिवर्ष 20,000 रुपए पुणे महाविद्यालय को दिये जाएंगे, क्योंकि वहां अधिकतर ब्राह्मण ही पढते-पढाते थे। एक बार जब कोष मे 3,000 रुपए अतिरिक्त बच गये तो पुणे के कुछ सुधारवादी ब्राह्मणों ने गवर्नर को आवेदन दिया कि इस बची हुई राशि को आधे-आधे भाग मे बांटकर संस्कृत और मराठी में मौलिक साहित्य तैयार करने वाले साहित्यकारों को परितोषिक के रूप में दे दिया जाय। लेकिन पुणे के परम्परावादी ब्राह्मणों ने इसे जाति विरोधी मानकर इसके लिये पहल करनेवालों को दंडित करने के लिए एक समिति गठित की और सभा के लिए एक दिन भी निश्चित किया। जब समझाने से काम नहीं बना तब सुधारवादियों ने जोतीराव फुले से भेंट कर मदद मांगी। जोतीराव फुले ने तब कुछ दलित बस्तियों में से 200 हट्टे-कट्टे जवान लड़कों को जमा किया और जुलूस बनाकर निर्धारित स्थान पर पहुंचे। जोतीराव फुले के साथ उन लोगों को देखकर, वहां जमा हुये ब्राह्मणों के होश उड गए।  जोतीराव के सुझावों पर उन्होंने अपनी सहमति दे दी और वे समझौते के लिए राजी हो गये। बाद मे गवर्नर ने भी बची हुई राशि को साहित्य सृजन के कार्य पर खर्च किये जाने की अनुमति दे दी।

इसी तरह बड़ौदा राज मे बहुत वर्षो से ब्राह्मणों को रोज मुफ्त खिचड़ी बांटने की प्रथा चली आ रही थी। राजकोष से इस प्रथा पर प्रतिवर्ष एक मोटी रकम खर्च की जाती थी। जोतीराव फुले ने सन् 1884 मे बडौदा महाराज को इसके संबध में लिखा और उनसे जाकर मिले। उन्होंने महाराज को समझाया कि जब कठोर परिश्रम कर राजकोष भरने वाले किसान भूखे-नंगे जीवन जी रहे हैं, तब ब्राह्मणों पर इतना खर्च करना कहां तक उचित है?उसके बाद बडौदा राज में खिचडी बांटने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया।

जोतीराव फुले के जीवनकाल में पुणे जिले में जमींदार और साहूकार प्रायः सभी ब्राह्मण वर्ग के थे। सरकारी कार्यालयों में भी निम्न और मध्यम स्तर पर काम करने वाले सभी कर्मचारी ब्राह्मण ही थे। अतः गरीब, दलित और पिछडे वर्ग के लोगों को कहीं से भी न्याय नहीं मिलता था। इसी संदर्भ में उन्होंने ‘किसान का कोड़ा’ (1881) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी, जिसमें गरीब किसानों की समस्याएं, उनके कारण और निदान पर प्रकाश डाला गया। 

सरकारी कर्मचारियों के शोषण से गरीब जनता की रक्षा के लिये जोतीराव फुले ने अपनी पुस्तक में यह मांग रखी कि सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों की नियुक्ति उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक ना की जाय। उनके स्थान पर शूद्रों-अतिशूद्रों के होनहार युवकों को प्रशिक्षित कर नियुक्त किया जाय। पुरोहितों के चंगुल से शूद्रों की रक्षा करने के लिये उन्होंने प्राइमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाने की मांग की। 

जोतीराव फुले ने शूद्रों, अतिशूद्रों और किसानों के कल्याण के लिये जो सुझाव उस वक्त बताये थे, इतने वर्षों के बाद आज कार्यान्वित किये जा रहे है। मसलन, नदियों पर बांध बांधना, कुएं खोदने के लिये सरकार द्वारा गरीबों को वित्तीय सहायता प्रदान करना, समय-समय पर प्रदर्शनी लगाकर स्वरोजगार के साधन उपलब्ध कराना, अच्छी नस्ल के मवेशियों का आयात करना तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती की शिक्षा जनमानस तक पहुंचाना, शामिल हैं। 

पुणे जिले की जुनार तहसील में सन् 1884 में जोतीराव फुले ने गरीब किसानों पर होने वाले जुल्मों के विरोध में देश का पहला किसान सत्याग्रह किया, जो सालभर तक चला और तब समाप्त हुआ जब जमींदार, साहूकार और सरकार के प्रतिनिधियों ने स्वयं आकर जोतीराव से समझौता किया।

पानी का सवाल दलितों के जीवन का सबसे बड़ा सवाल रहा है। अपनी जमीन न होने के कारण उनका जल-संसाधनों पर कोई अधिकार नहीं था। इसीलिए पानी हमेशा से ही उनकी पहुंच के बाहर रहा। जोतीराव फुले ने 1860-1868 में दलितों के लिए अपने घर के पानी का हौज खोल दिया, जहां से सभी को पानी लेने की अनुमति थी।

दलितों के बीच चेतना जगाने और दलित नेतृत्व तैयार करने के लिये फुले निरंतर दलित बस्तियों में आया-जाया करते थे। वे भारतीय मजदूर आंदोलन के जन्मदाताओं में प्रमुख थे। वे जब भी मुंबई जाते, अपने प्रवास के दौरान मजदूर बस्तियों में भी जरूर जाते। नारायणराव लोखंडे, जिन्होंने सन 1880 में देश का प्रथम मजदूर संगठन ‘बम्बई मीलहैड’ की स्थापना की थी, उनके अनुयायी और सत्यशोधक समाज के प्रमुख सदस्य थे। सन् 1889 मे बम्बई नगरपालिका और अलीबाग नगरपालिका के दलित मजदूरों ने जो सफल हडताल की थी, वह भी जोतीराव के प्रयासों का ही प्रतिफल था। 

आज शिवाजी महाराज पर अपना दावा ठोंकने वालों को यह शायद ही याद हो कि जोतीराव फुले ने ही रायगढ जाकर पत्थर और पत्तियों के ढेर तले दबी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पडी शिवाजी महाराज की समाधि को खोज निकाला और उसकी मरम्मती करवाई। बाद में उन्होंने शिवाजी महाराज पर एक छंदबद्ध जीवनी भी लिखी, जिसे पोवाड़ा भी कहा जाता है।

स्मृतियां और पुराण शूद्रों और स्त्रियों के खिलाफ वह अध्यादेश है, जो उनके जीवन को पूरी तरह से नियंत्रित करता है, उन्हें गुलामी में जीने के लिये बाध्य करता है। आज भी इसका असर भारत के सभी धर्मो पर समान रूप से दिखायी देता है। अस्पृश्यता, देवदासी प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, बेगारी और विधवा विवाह पर पाबंदी जैसी अनेक अमानवीय धार्मिक प्रथाएं हैं, जो देश के लगभग सभी राज्यों में अगर आज जिंदा है, तो इसके पीछे भी पुरोहित वर्ग का ही हाथ है। हालांकि जोतीराव के समय में कानूनन सती प्रथा को बन्द किया जा चुका था और कहीं-कहीं विधवा विवाह होने लगे थे, परंतु महिलाओं की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। जोतीराव फुले ने विष्णु शास्त्री पंडित द्वारा चलाये जा रहे विधवा विवाह आंदोलन में पूरा सहयोग दिया। उन्होंने बाल-विवाह और बहुविवाह का भी खुलकर विरोध किया। उनके द्वारा लिखी गयी ‘सतसार’ नामक एक पुस्तिका में भी स्त्रियों की स्थिति पर रोशनी डाली गयी है। 

यहां विशेष रूप से ऐसी दो घटनाओं का जिक्र जरूरी है, जो साबित करती हैं कि जोतीराव के विचार इन मुद्दों पर कितने दृढ थे। एक बार जब महादेव गोविन्द रानाडे, जो उन दिनों पुणे में जज थे, जोतीराव फुले को बताया कि उनकी भी एक बाल विधवा बहन है, तो उन्होंने दुखी हो कर पूछा कि उसका विवाह क्यों नहीं किया गया। जब रानाडे से जबाब देते नहीं बना और वे टाल-मटोल करने लगे तो पास बैठे जोतीराव भड़क गये और गुस्से में बोले– “राव साहब, आप अपने आप को आगे से समाज सुधारक ना ही कहें तो अच्छा होगा”। बाद में जोतीराव ने रानाडे को दूसरी बार तब फटकारा जब उन्हें पता चला कि अपनी पहली पत्नी के मरने के बाद उन्होने 32 वर्ष की उम्र में एक 11 वर्ष की बच्ची से दूसरा विवाह किया।

ब्राह्मणवाद से शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों के सम्मान और अधिकार के लिये शायद ही किसी ने इतना संघर्ष किया, जितना जोतीराव फुले ने किया। आज भी उनके विचार सभी भारतीय दलित और स्त्रीवादी आंदोलन के लिये मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं, जब पूंजीवाद और भूमंडलीकरण की बदौलत उपजी भयानक असमानता की चपेट में आया गरीब, दलित और आदिवासी वर्ग लगातार मारा जा रहा है।

(यह आलेख सुजाता पारमिता के अप्रकाशित संकलन ‘मनसे की जात’ में संकलित है। यहां लेखिका के परिजनों की अनुमति से प्रकाशित)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुजाता पारमिता

सुजाता पारमिता (20 मार्च, 1955 – 6 जून, 2021) चर्चित दलित और स्त्रीवादी चिंतक व भारतीय फिल्म संस्थान, पुणे से स्नातक रहीं। वे अंबेडकरवादी आलोचना के लिए जानी जाती हैं

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