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ब्राह्मणवाद व पूंजीवाद के रथ पर सवार आयुर्वेद

बुद्धकालीन चिकित्सा प्रणाली की बात करें तो यह युग जिस प्रकार वर्णव्यवस्था के प्रतिकूल दिखाई देता है, चिकित्सा प्रणाली के एकदम अनुकूल दिखाई पड़ता है। बुद्ध की यह उद्घोषणा कि “जो मेरी सेवा करना चाहे, वह रोगी की सेवा करे”, स्पष्ट करती है कि इस काल में भारतीय चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद न होकर आयुर्विज्ञान की तरह फूली-फली होगी। पढ़ें, द्वारका भारती का यह आलेख

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि रामदेव के आने के बाद भारतीय पुरातन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का चेहरा-मोहरा इतना बदल गया है कि आम भारतीय के भीतर यह धारणा एकदम बैठ गई है कि आयुर्वेद भारत है और भारत का दूसरा नाम आयुर्वेद ही होना चाहिए। लगभग यही स्थिति योगा के बारे में भी कही जा सकती है। साथ में यह भी कहा जा रहा है कि योगा या आयुर्वेद पर अपने विश्लेषणात्मक विचार देने वाला कोई भी विद्वान् आलोचक राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। इस प्रकार की कई घोषणाएं हमने पिछले 6-7 वर्षों में देखी-पढ़ी हैं। इस प्रकार की स्थिति को अति सुदृढ़ बनाने में भारत के प्रधानमंत्री का भी पूरा योगदान रहा है।

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लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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