दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत हिन्दू कॉलेज में इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रतन लाल को दिल्ली पुलिस ने 20 मई 2022 की रात गिरफ्तार कर लिया। हालांकि आज 22 मई, 2022 को ही तीसहजारी कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी और उन्हें रिहा कर दिया गया। अपने न्यायादेश में अदालत ने जो टिप्पणी की है, वह एक नजीर ही है। अदालत के अनुसार देश में 130 करोड़ लोग रहते हैं और सभी के विचार अलग हो सकते हैं। सबकी अहमियत है।
हालांकि रतनलाल की गिरफ्तारी तय थी। मैंने 19 मई को ही किसी से ये कहा कि डॉ. रतन लाल के खिलाफ अगला कदम गिरफ्तारी का हो सकता है। फिर इसके बाद नौकरी से निलंबन और फिर बना बनाया एक सिलसिला चलेगा। इसे अनुभव आधारित आशंकाएं कह सकते हैं। थाने में सोशल मीडिया पर रतन लाल के पोस्ट के बाद एफआईआर के दर्ज करने का फैसला होने का मतलब ही है कि एक सिलसिला शुरू होने वाला है।
याद करने के लिए जोर देने का जरूरत भी नहीं है कि गुजरात में विधायक जिग्नेश मेवाणी को असम की पुलिस गिरफ्तार करके ले गई क्योंकि उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री की एक प्रतिक्रिया पर दे दी थी। रतन लाल ने भी सोशल मीडिया पर बनारस के ज्ञानव्यापी मस्जिद में मिली एक चीज पर अपनी प्रतिक्रिया लिख दी थी जिसे पुलिस ने समाज में अशांति फैलाने और हिन्दू धर्म में पत्थर के देवी देवताओं पर अपनी आस्था जाहिर करने वालों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की जान बुझकर की गई कोशिश माना और उन्हें पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया।
सोशल मीडिया में रतन लाल वर्षों से सक्रिय है। वे देश में लोकतंत्र को मजबूत करने और संविधान की बहाली को सुनिश्चित कराने के अभियान को अपने दिनचर्या का हिस्सा मानते हैं।
इस देश में रोजाना सैकड़ों की तादाद में ऐसी शिकायतें होती है कि अपराध करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं होती है। बहुजन तो अपने खिलाफ बढ़ते और लंबे समय से बरकरार अत्याचारों की ठोस वजह यह बताते है कि उनके खिलाफ अपराध करने वालों के विरुद्ध कानून सम्मत कार्रवाईयां नहीं की जाती है। लेकिन शायद एक भी ऐसा उदाहरण नहीं होगा कि जिसमें कि समाज में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले लोगों ने चाहा हो और बहुजन समाज के बीच सक्रिय किसी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं हुआ है । खासतौर से समाज में शोषित पीड़ितों के पक्षधर और जातिवाद सह सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार सक्रिय बहुजन बौद्धिक वर्ग को शांत कराने के ढेरों साजिशों में सबसे आसान जेल में डलवाना है। सोशल मीडिया में अशांति पैदा करने और धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की वास्तविक नीयत से सैकड़ों पोस्ट देखने को मिलती हैं।
सवाल यह है कि ज्ञानवापी मस्जिद में जो भी चीज मिली है, उसे एक धर्म से जोड़ा जाना भी किसी की धार्मिक भावना को आहत पहुंचाने व समाज में अशांति पैदा करने की नीयत मानी जा सकती है।
दरअसल सोशल मीडिया पर पोस्ट के जो मसले होते हैं, उनका समाधान क्या पुलिस व्यवस्था में ही है? अगर यह है तो फिर इसमें जातिवादी और सांप्रदायिक भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। सोशल मीडिया पर पोस्ट एक प्रतिक्रिया होती है और प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रियाएं होती हैं। इस तरह के मंच का निर्माण इसीलिए संभव हुआ क्योंकि संविधान अभिव्यक्ति की आजादी या स्वतंत्रता की हर नागरिक को समान रुप से इजाजत देता है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही होता है कि प्रत्येक नागरिक समाज में होने वाली किसी भी घटना व प्रतिक्रिया पर अपनी भावनाओं, अपने अनुभवों, अपने ख्यालों, अपनी राय को जाहिर करने के लिए स्वतंत्र हैं। सवाल इसमें नीयत खोजने का है तो नियत खोजने के लिए पुलिस व्यवस्था कब सक्रिय होती है? उसके पैमाने कैसे व्यक्ति, विचार और समूह के साथ बदल जाते हैं? रतन लाल को सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने के बाद लगातार धमकियां मिलती रहीं। लेकिन उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के नियत के रुप में दर्ज नहीं किया गया। न ही उन्हें व उनके परिवार को शारीरिक व सामाजिक-आर्थिक हानि पहुंचाने की धमकियों को आपराधिक नियत के रुप में दर्ज नहीं किया गया।
जिग्नेश की भी जब गुजरात में असम की पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की गई तो यह सवाल उठा था कि क्या वे भूमिहीन और हिन्दू वर्ण व्यवस्था के तहत अछूत मानी जाने वाली जाति के परिवार के सदस्य नहीं होते तो असम की पुलिस उन्हें लंबे समय के लिए जेल में डालने के इरादे से गुजरात आने की जुर्रत कर सकती थी? रतन लाल की गिरफ्तारी एक पोस्ट से आहत मन और भावना को दुरुस्त करने की नीयत पर संदेह पैदा करता है। वैसे व्यक्ति के खिलाफ जब एफआईआर होती है जिसमें कि सामाजिक आवाज बनने के एक प्रतीक की संभावना दिखती हो तो वह एक बड़े राजनीतिक फैसले का ही हिस्सा हो सकता है।
डॉ. रतन लाल की ‘राजनीतिक गिरफ्तारी’ को देश में बहुजनों की राजनीति को भयभीत करने के एक औजार के रुप में देखा जाना चाहिए। इस ‘राजनीतिक गिरफ्तारी’ के विरुद्ध लोकतंत्र व संविधान में भरोसा करने वाले लोग व समूह खड़े दिख रहे हैं। यह सुखद है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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