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हैदराबाद में नागराजु हत्या प्रकरण : मजहब नहीं, जातिगत घृणा का नग्न प्रदर्शन

जो लोग नागराजु की हत्या के प्रश्न को लेकर मुसलमानों को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, वे स्वयं ही विश्लेषण करें कि यदि दलित समाज के नागराजु ने यदि किसी रेड्डी, कम्मा, शर्मा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, सिंह, यादव, कुर्मी, कुशवाहा से विवाह किया होता तो क्या वह स्वीकार कर लिया जाता? विद्या भूषण रावत का विश्लेषण

बहस-तलब

हैदराबाद के नवयुवक बिल्लीपुरम नागराजु की नृशंस हत्या के बाद देशभर की मीडिया में बेहद ‘अफसोस’ का इजहार किया जा रहा है। इस प्रकार से इसकी समीक्षा हो रही है गोया मुसलमान ही केवल ‘ऐसा’ करते है और वे ‘प्रेम’ के विरोधी हैं। यह सभी जानते हैं कि नागराजु ने अपनी बचपन की मित्र अशरीन सुल्ताना के साथ आर्य समाज मंदिर मे प्रेम विवाह किया था। खबर चलाई गई के नागराजु अपनी प्रेमिका के परिवार वालों की सहमति के वास्ते इस्लाम भी कबूल करने के लिए तैयार था, लेकिन प्रेमिका के परिजन सहमत नहीं थे। फिर 31 जनवरी, 2022 को उन्होंने आर्य समाज मंदिर मे विवाह कर लिया। एक प्रमुख ऑनलाइन पत्रिका खबर प्रकाशित किया कि आर्य समाज मंदिर अंतर-धार्मिक विवाह करवाते हैं, इसलिए यह विवाह बिना किसी परेशानी के हो गया। लेकिन हकीकत यह है कि अपने विवाह से पूर्व आर्य समाज मंदिर में लड़की का धर्म परिवर्तन करवाया गया और उसका नाम पल्लवी रखा गया क्योंकि बिना हिन्दू धर्म स्वीकार किए आर्य समाज संगठन विवाह नहीं करवा सकता। 

खबर है कि नागराजु की हत्या उसकी पत्नी अशरीन के भाई और उसके कुछ अन्य साथियों ने मिलकर की। यह हत्या दिनदहाड़े हुई, लेकिन अशरीन की लाख मिन्नतों के बावजूद कोई भी सड़क चलता व्यक्ति उसके बचाव मे नहीं आया, जो बेहद शर्मनाक है। अशरीन ने अकेले ही अपने भाई और उसके दोस्तों से मुकाबला किया। लेकिन वह अकेले क्या कर पाती। इस घटना के इस पक्ष पर कि क्यों लोग मदद के लिए नहीं आते, इस बात पर चर्चा न कर पूरा प्रयास इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि किसी तरह से इस खबर से मुसलमानों को कटघरे मे खड़ा किया जाय। 

इसके बाद देशभर की मीडिया में खबरें चलने लगीं कि यह विवाह अंतरधार्मिक था, इसलिए हत्या दी गई। यह घटना बेहद निंदनीय है। लेकिन क्या यह एकमात्र घटना है? क्या यह अंतरधार्मिक होने का मामला है? भारत में तो हिंदू-मुसलमान या हिंदू-ईसाइयों मे बहुत विवाह हुए हैं, उनमे बहुत कम ही ऐसे हुए जो हत्या तक पहुंचे हुए हों। लेकिन ऐसे मामलो में जाति और वर्ग के सवाल बहुत मायने रखते हैं और कुछ शुरुआती खटपट के बाद अक्सर मां-बाप स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन भारत मे एक मामला ऐसा है जिसमें अभी भी सामाजिक स्वीकार्यता नहीं है और वह है जाति का प्रश्न। विशेषकर जब लड़का दलित हो तो फिर मामला नृशंस हत्याओ तक जा पहुंचता है।  

बहुत समय नहीं गुजरा जब हैदराबाद में ही 14 सितंबर, 2018 को प्रणय नामक एक नवयुवक की हत्या इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि उसने अमृथा नामक लड़की से प्यार किया और विवाह किया। प्रणय दलित ईसाई था और इंजीनियर था। जबकि अमृथा वैश्य समुदाय की थी। उसके पिता मारुति राव बहुत बड़े बिल्डर थे और अपनी बेटी की पसंद से नाराज थे। उन्होंने भाड़े के गुंडों के जरिए प्रणय की हत्या कारवाई क्योंकि सवाल यह नहीं था कि उन्हें अपनी बेटी की पसंद नहीं अच्छी लगी। हकीकत यह है कि उनका दामाद दलित समुदाय से आता था। यह उन्हें हजम नहीं हो पा रहा था। वही मारुति राव ने 8 मार्च, 2020 को आत्महत्या कर ली। मुमकिन है कि उन्हें इसका अपराधबोध हुआ हो कि उन्होंने अपनी ही बेटी का हंसता-खेलता संसार उजाड़ दिया। खैर, इस मामले में अमृथा ने बेहद साहस दिखाया और आज भी वह न्याय के लिए संघर्षरत है। 

इससे पूर्व तमिलनाडु मे कौसल्या और शंकर के प्रेम की कहानी का भी ऐसे ही अंत हुआ। शंकर दलित समाज से था और कौसल्या तमिलनाडु की दबंग थेवर जाति से आती है। यह जाति पिछड़ी जातियों मे सबसे बड़ी जातियों में मानी जाती है। दोनों की प्रेम कहानी उनके कालेज के दिनों से थी जब दोनों इंजीनियरिंग कर रहे थे। कौसल्या के परिवार के लोगों को उनका विवाह पसंद नहीं आया और एक दिन उसके पिता और परिवार के अन्य सदस्यों ने बाजार में दिनदहाड़े दोनों पर हमला बोल दिया। शंकर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। शंकर की मृत्यु के बाद कौसल्या ने अपने पिता और परिवार के सदस्यों के विरुद्ध न्याय की लड़ाई लड़ी। वह शंकर के परिवार के साथ ही रहने लगी। 

मैंने भारतीय मीडिया मे इस संदर्भ मे ऐसी बहसें नहीं देखी है, जो आज नागराजु के विषय में की जा रही है। चालाकी यह है कि इस बहस को हिंदू-मुस्लिम के खांचे में डालकर तेलंगाना में आसन्न चुनावों मे सांप्रदायिक राजनीति की फसल तैयार की जा रही है। इसमे हिंदू और मुसलमान दोनों के कुलीन लोगों की अहम भूमिका है, जो राजनीतिक और सामाजिक रूप से खास दखल रखते हैं। 

जाति भारत की एक कटु सच्चाई है, जिसमें हर कोई जकड़ा है। लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि मामला केवल यह नहीं है कि हिंदू- मुस्लिम या दलित या गैर-दलित का है। जो सबसे बड़ी धूर्तता की जा रही है, वह है हमारे युवाओं को स्वयं निर्णय लेने की क्षमता का सवाल और उसमें भी महिलाओ का प्रश्न तो और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। 

लगभग दो दशक पूर्व लंदन से एक पत्रकार मेरे साथ उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के एक गाँव मे गयीं, जहां एक प्रेमी युगल की सार्वजनिक हत्या कर दी गई थी, क्योंकि उन्होंने प्यार किया था। लड़की शायद गुजर जाति की थी और लड़का नाई था। अब राजनैतिक हिसाब से देखें तो दोनों ‘पिछड़ी’ जातियों मे आते हैं, लेकिन सामाजिक तौर पर तो दोनों ही जातिया अपने को श्रेष्ठ समझती हैं। दोनों शादी के बाद दिल्ली मे अपने किसी रिश्तेदार के पास थे, लेकिन उन्हें इस बहानेगांव वापस बुलाया गया था कि सबने उनके विवाह को स्वीकार कर लिया है। फिर जब वे वापस आए तो लोगों ने बस अड्डे पर ही मजमा लगाकर उन्हें मारा और उनके शवों को जला दिया। जब हम गांव गए तो किसी ने भी हमें सच्चाई बताने से इनकार कर दिया, क्योंकि गांवों मे लोग अपनी जातियों के अनुसार ही ‘सच्चाई’ बताते हैं। हम लड़की के घर गए तो उसके छोटी बहन, जो मृतका से लगभग एक या दो वर्ष छोटी थी, ने अपनी बहन को याद किया, लेकिन जब हमने उससे पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो उसके जवाब ने रोंगटे खड़े कर दिए। उसने कहा कि जो समाज की लक्ष्मण रेखा को पार करेगा तो उसके साथ ऐसे होगा ही। मैंने कहा कि क्या उसे अपनी बहन को ऐसी क्रूरता से मारे जाने का दर्द नहीं है, तो उस लड़की ने कहा कि नहीं और वह अपने घर के अंदर चली गई। मेरे साथ विदेशी पत्रकार इस जवाब से इतनी उत्तेजित हो गईं कि के उन्होंने कहा कि आप कैसे समाज मे रहते हैं, जहां एक बहन अपनी ही बहन की हत्या को जायज ठहरा रही है?

नागराजु व अशरीन की शादी की तस्वीर

जाति सच्चाई है और सभी जातियां अंततः पुरुषवादी सत्ता का प्रतीक है और यह एक क्रूर हकीकत है कि तथाकथित अन्तर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाहों मे लड़की पक्ष के लोग स्वयं को ‘ठगा’ महसूस करते हैं तथा लड़के वाले लोग यदि उस विवाह को स्वीकार लें तो भी प्रगतिशीलता का बहुत ढोंग करते हैं। बहुत से सेक्यूलर तो इसी बात से परेशान हैं कि नागराजु के हत्यारे मुसलमान हैं तो ज्यादा कुछ नहीं कह सकते। द्विजवादी मीडिया इसलिए खुश है कि उसे मुसलमानों को गलियाने का और तेलंगाना में हिंदू-मुसलमान की सियासी अखाड़ेबाजी कराने का बहाना मिल गया है। बहुत कह रहे है कि मुसलमानों में भी जाति है, जो सही भी है, लेकिन निश्चित रूप से अन्तर्जातीय विवाहों या अंतरधार्मिक विवाहों को हम क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं?

सबसे पहले तो इस हकीकत को स्वीकारना होगा कि सवाल इस बात का नहीं है कि हमारा विरोध हिंदू-मुसलमान, सवर्ण-दलित या पिछड़े-दलित के मेल-मिलाप या विवाह को लेकर है। यह तो निःसंदेह है ही, लेकिन जैसे डॉ. आंबेडकर कहते थे कि हम एक श्रेणीगत असमानता के शिकार हैं और हर एक जाति अपने को दूसरे से ऊंचा मानती है। इससे भी अधिक है वीर्य की पवित्रता का सिद्धांत, जिसके कारण ही जाति जिंदा रही है और यह अब हर जगह मौजूद है। लड़की या महिला परिवार की ‘इज्जत’ है और उसकी पूरी पवित्रता और इज्जत योनि मे छिपी हुई है। इसीलिए हमारे समाज में बलात्कार और महिलाओं पर अत्याचारों के बावजूद बलात्कारी और अत्याचारी सड़कों पर घूमते हैं और महिला को मुंह छुपा कर रहने को कहा जाता है। महिलाओं पर यौनिक हिंसा को यह ‘उनकी अस्मिता’ से जोड़कर देखता है। ऐसे कानूनों पर बहस होनी चाहिए। कानून सख्त हो, लेकिन महिलाओ पर यौनिक हमले से उनकी अस्मिता क्यों खत्म हो? यही सिद्धांत विवाह पर भी लागू है, जहा महिला पक्ष इस बात को आसानी से हजम नहीं कर पाता कि उनकी बेटी या बहन अपने जीवन का निर्णय स्वयं नहीं ले सकती। यही कारण है कि जहां भी ‘धर्म’ का शासन है, वहां ऐसी घटनाए होंगी। ऑनर किलिंग्स केवल भारत की ही हकीकत नहीं है। यह पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, और अन्य उन बहुत से देशों में है, जहां कानून अभी भी धर्म का सहारा लेता है। कई स्थानों पर ऐसे मामलों में अपराधी आराम से बच जाते हैं, क्योंकि धर्म और इज्जत के मामले में सब जायज है। 

भारत मे जातिगत भेदभाव जगजाहिर है और इसके विरुद्ध आंदोलन करने को कोई राजनैतिक कार्यकर्ता तैयार नहीं। जातिगत हत्याओं और प्रताड़नाओं को हम अपनी अपनी सुविधाओं के अनुसार इस्तेमाल कर रहे हैं। जाति की इज्जत के नाम पर प्रेम विवाहों के विरुद्ध तो हम सब एक हैं। जो लोग नागराजु की हत्या के प्रश्न को लेकर मुसलमानों को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, वे स्वयं ही विश्लेषण करें कि यदि दलित समाज के नागराजु ने यदि किसी रेड्डी, कम्मा, शर्मा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, सिंह, यादव, कुर्मी, कुशवाहा से विवाह किया होता तो क्या वह स्वीकार कर लिया जाता? हम इन कहानियों को हर जगह देख रहे हैं। आखिर खाप पंचायतें किस लिए बनाई गई हैं, ताकि आपकी लड़कियों पर नियंत्रण रख सके। यदि नागराजु नसीर होता और अशरीन आशा तो क्या हुआ होता? लड़की का भाई या पिता पहले ही उस पर अपहरण और बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा देता और श्रीराम सेना या बजरंग दल के लोग मुस्लिम बस्तियों मे जाकर लोगों को धमका रहे होते। उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में इसे लव जेहाद करार दे दिया जाता और मीडिया वाले इसे दो व्यक्तियों के आपस का मामला न बताकर कोई अन्तराष्ट्रीय साजिश पर चर्चा कर रहे होते। 

भारतीय समाज से अधिक पाखंडी कोई समाज नहीं। डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय समाज तो व्यक्तियों की वैयक्तिकता कोई सम्मान नहीं ही करता है, उनकी खुशियों की परवाह भी नहीं करता तो यह समाज कैसे बनेगा। व्यक्तियों को समाज की खुशी के लिए अपनी खुशियां कुर्बान करनी होती हैं। हम कहते हैं कि व्यक्ति खुश रहेगा तभी एक खुशहाल समाज का निर्माण होगा और ‘वे’ कहते है कि समाज खुश रहेगा तभी व्यक्ति खुश रहेगा। अब जब सोच में इतना अंतर हो तो शादियां दो व्यक्तियों की खुशी से ज्यादा उनके परिवार और समाज की इज्जत का मामला बन जाता है और इनसब में भी गुस्सा और क्रोध तब झलकता है जब लड़की हमारे समाज की हो। मतलब यह कि लड़का हमारी ‘इज्जत’ की ट्रॉफी ले गया हो, जिसकी रखवाली करना हमारा सामाजिक कर्तव्य है। 

बहरहाल, डॉ. आंबेडकर का ‘जाति का विनाश’ का सबसे बड़ा हथियार प्रेम विवाह ही हो सकते हैं, लेकिन यह तब संभव है जब आप वैचारिकता में जीते हैं और एक दूसरे की वैयक्तिकता का सम्मान करते है तथा उनकी मूल पहचान को बदलने की कोशिश नहीं करते। अन्तर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाहों की सफलता केवल इसी बात में है कि आप भारत के संविधान और उसकी मानववादी सोच को ही अपना वैचारिक आधार बनाएं क्योंकि वही आपकी सबसे बड़ी सुरक्षा है। धर्माधारित विचार और समाज आपकी चाहत और स्वतंत्र निर्णय को अपने लिए चुनौती मानता है और फिर वही होता है, जो नागराजु और अन्य बहुत से लोगों के साथ हुआ है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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