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आदिवासी जीवन पद्धति : अतीत का अवशेष या भविष्य की राह?

यदि हम आदिवासी जीवन पद्धति को उसके मूल्यों, विशेषकर उसके लोकतांत्रिक मूल्यों, के परिप्रेक्ष्य से देखें तो हमें यह स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि यह अतीत का अवशेष न होकर भविष्य की राह दिखाने वाली है। आदिवासी समाजों में लोकतांत्रिक जीवन की समृद्ध परंपरा हमारे लिए आशा और प्रेरणा का स्रोत हो सकती है। बता रहे हैं ज्यां द्रेज

पिछले दिनों मुझे लब्धप्रतिष्ठ लेखक और अध्येता गोपीनाथ मोहंती के घर जाने का सुखद अवसर प्राप्त हुआ। लगभग तीस वर्ष पहले मैंने उनके उपन्यास ‘परजा’ के अंग्रेजी अनुवाद को उसके प्रकाशन के कुछ ही समय बाद पढ़ा था और उसने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा था। उस समय आदिवासी जीवन पद्धति के बारे में मेरा ज्ञान न के बराबर था। आगे चलकर झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की मेरी लंबी यात्राओं के दौरान मुझे अक्सर ‘परजा’ और उसकी गहरी अंतर्दृष्टि की याद आती रही। 

गोपीनाथ मोहंती को याद करते हुए 

गोपीनाथ मोहंती को याद करते हुए हम केवल एक व्यक्ति विशेष को याद नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम उस तरह के हर व्यक्ति का भी स्मरण कर रहे हैं, जिनका प्रतिनिधित्व वे करते थे। एक महान लेखक और मेधावी चिंतक के अलावा वे आमजनों की भलाई में रूचि रखने वाले सरकारी अधिकारी भी थे। उड़ीसा राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में अपने सेवाकाल के शुरूआती दौर में कोरापुट और रायगड़ा में पदस्थापना के दौरान उन्होंने दक्षिणी उड़ीसा के आदिवासियों को समझने, उनसे रिश्ते कायम करने और उनकी मदद करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। उन्होंने आदिवासियों के जीने के तरीके का अध्ययन किया, उनकी भाषाएं सीखीं और उनके सुख-दुःख में भागीदार बने। वे आदिवासियों के उत्सवों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेते थे। जब वे देखते कि कोई आदिवासी उनके नज़दीक आने में हिचकिचा रहा है तो वे बांसुरी बजाकर उसकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाते थे। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आदिवासियों से उनकी नज़दीकी को स्थानीय नेता, शासकीय कर्मचारी और बनिए पसंद नहीं करते। यहां तक कि उनमें से कुछ ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को पत्र लिखकर इन शब्दों में अपनी व्यथा का वर्णन किया था : 

श्री गोपीनाथ मोहंती की यहां रायगड़ा में स्पेशल असिस्टेंट एजेंट के रूप में पदस्थापना हमारे लिए बहुत बड़ी आपदा और विपत्ति है। वे पहाड़ी आदिवासियों के दीवाने हैं और उन्हीं की तरह व्यवहार करते हैं। उनके मुकाबले वे किसी अन्य समुदाय का सम्मान नहीं करते। उनके व्यवहार से ऐसा लगता है मानो वे केवल आदिवासियों के लिए जन्मे हों।” 

दूसरी ओर कोंध आदिवासियों ने गोपीनाथ मोहंती को अपना मान लिया। उन्होंने अपना एक कुलचिन्ह उनके लिए और एक उनकी पत्नी अदारमानी के लिए निर्दिष्ट किया। यह बहुत कम होता है कि कोई प्रशासनिक अधिकारी, वंचित वर्गों से इतनी गहराई तक जुड़े।

आगे चलकर, उनकी प्रशासनिक और अकादमिक पदस्थापनाएं ऐसे स्थानों पर हुईं, जहां आदिवासी नहीं रहते थे, परंतु उनके मूल्य और प्रतिबद्धताएं जीवनपर्यंत वही बनीं रहीं। उन्होंने लिखा, “मेरी सभी कहानियों और उपन्यासों के केंद्र में मानवीय सरोकार हैं।” यद्यपि उनका सरोकार सभी मनुष्यों से था, परंतु आदिवासी उनके दिल के सबसे नज़दीक थे। एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में वे हमेशा उनके हितों की रक्षा के लिए खड़े हुए। एक चिंतक के रूप में उन्होंने हमें आदिवासी जीवन पद्धति और उसकी कीमत को समझना सिखाया। एक लेखक के रूप में उन्होंने आदिवासी जीवन के सौंदर्य और उसकी त्रासदियों के बारे में हमें जो बताया, वह अच्छे से अच्छा सर्वेक्षण या अध्ययन नहीं बता सकता है। आज गोपीनाथ मोहंती का लेखन हमारे लिए और महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि आदिवासी जीवन पद्धति के इतिहास के अंधेरे में गुम हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। 

यहां मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आदिवासी जीवन पद्धति किसी निश्चित खांचे में फिट नहीं बैठती। अगर हम केवल पूर्वी भारत तक अपने को सीमित कर लें, जो कि मैं यहां करने जा रहा हूं, तब भी अलग-अलग इलाकों और जनजातियों की जीवन पद्धति अलग-अलग है। इसके अलावा, आदिवासी जीवन पद्धति समय के साथ बदलती रहती है। उत्पादन के साधनों में बदलाव के साथ भी इसमें परिवर्तन आता है। भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाले जनजातीय जत्थों की जीवन पद्धति, झूम कृषि या एक स्थान पर खेती करने वाले कबीलों से भिन्न होगी ही। इसी तरह कोयले की खदानों में काम करने वाली जनजातियों के जीने का तरीका अलग होना अवश्यंभावी है। बाहरी प्रभाव (चाहे वे अच्छे हों या बुरे) और उनकी स्वयं की रचनाशीलता भी आदिवासियों की जीवन पद्धत्ति में बदलाव लाती हैं। इस विविधता के बीच, हम केवल कुछ मूलभूत समानताएं खोजने का प्रयास कर सकते हैं। यह करने के लिए कोई विशेष योग्यता मुझमें नहीं है, परंतु फिर भी मैं अपने कुछ विचार आपसे साझा करूंगा। आप उन्हें कितना सही मानते हैं, यह आपका निर्णय है। 

आदिवासी अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलू

मैं शुरुआत ‘परजा’ से करना चाहूंगा, जिसके जरिए 30 वर्ष पहले गोपीनाथ मोहंती से मेरा परिचय हुआ था। अगर आपको याद हो तो उपन्यास की शुरुआत एक दिवा स्वप्न से होती है। मुख्य किरदार सुकरू जानी, कोरापुट में अपनी कुटिया के छोटे-से बरामदे में खड़ा होकर बाहर की तरफ देख रहा है। जहां तक निगाह जाती है, जंगल ही जंगल हैं। एक पहाड़ी की चोटी पर ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा है, जो अब सुकरू का खेत है, क्योंकि उसने वहां का जंगल साफ़ किया है। उस ज़मीन को देखते हुए वह सपनों में खो जाता है। सपने में वह देखता है कि आसपास की सारी पहाड़ियों से जंगल साफ़ कर दिए गए हैं और वे हरे-भरे खेतों में बदल गईं हैं। इन खेतों के बीच उसके लड़कों और लड़कों के लड़कों के घर हैं। 

बतौर सरकारी अधिकारी गोपीनाथ मोहंती अक्सर गांवों के दौरे के दौरान आदिवासियों के साथ संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से बांसुरी बजाते थे।

निश्चित रूप से यह सपना पर्यावरणविदों को नहीं सुहाएगा। परंतु याद रखिए, यह केवल एक सपना था। इसके अलावा, उन दिनों जंगल बहुत विशाल क्षेत्र में फैले हुए थे और जनसंख्या का घनत्व बहुत कम था। अपने पुरातन औजारों से सुकरू जानी और उसके लड़के जंगल का बहुत छोटा सा हिस्सा ही साफ़ कर सकते थे। इसलिए, इस सपने में कुछ भी अजीब नहीं था। मैं इस सपने की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह पूर्वी भारत की आदिवासी अर्थव्यवस्था के एक दिलचस्प पहलू की ओर संकेत करता है। यह अर्थव्यवस्था कम से कम कुछ वर्षों पहले तक बनी हुई थी। 

इस पारंपरिक अर्थव्यवस्था में खुली ज़मीन सभी की थी, परंतु खेती करने योग्य ज़मीन नहीं। ज़मीन को खेती करने योग्य बनाने में मेहनत लगती थी क्योंकि इसके लिए जंगल साफ़ करने होते थे। जो जितनी जगह का जंगल साफ़ करता, उतनी ज़मीन उसकी हो जाती थी। उस पर उसका अधिकार वैध माना जाता था। इस मालिकाना हक की प्रकृति विभिन्न समुदायों और इलाकों में अलग-अलग थी। जैसे झारखंड के मुंडा आदिवासियों की पारंपरिक पट्टेदारी प्रणाली, जिसे खुंटकट्टी कहा जाता है, में जो व्यक्ति जंगल साफ़ करता है, ज़मीन उसकी और उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों की हो जाती है। उस ज़मीन पर संबंधित परिवार खेती करते हैं, परंतु उस पर किसी व्यक्ति विशेष का मालिकाना हक़ नहीं होता और उसे बेचने या पट्टे पर देने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। दूसरी ओर झारखंड की ही उरांव जनजाति में भूमि व्यक्ति विशेष की होती है, परंतु कुछ प्रतिबंधों के साथ, जिनमें ज़मीन को बेचने पर प्रतिबंध शामिल है। 

खेती करने के लिए जंगल साफ़ करना, श्रम द्वारा वन भूमि को उत्पादक बनाने का एकमात्र तरीका नहीं है। अन्य तरीकों में शिकार, वन उत्पाद इकट्ठा करना, मछली पकड़ना, मवेशियों को चराना और लघु वनोपजों का प्रसंस्करण शामिल हैं। इसके अलावा, जंगल, मनुष्यों के लिए उपयोगी चीज़ों का बड़ा स्रोत हैं। इनमें शामिल हैं– गृह निर्माण सामग्री, जलावन के लिए लकड़ी, टोकरियां, रस्सी, झाड़ू और हर्बल दवाएं। इन इलाकों में अन्य आर्थिक गतिविधियों की बहुत गुंजाइश नहीं होती। इस तरह, वन क्षेत्र पर सभी का अधिकार और पहुंच, पूर्वी भारत की पारंपरिक आदिवासी अर्थव्यवस्था को परिभाषित करता है।

अति-सरलीकरण का जोखिम उठाते हुए हम यह कह सकते हैं कि आदिवासी अर्थव्यवस्था का यह ऐसा स्वरुप हैं, जिसमें उन्हें फायदा ही फायदा है। एक ओर, वन भूमि पर सभी की सामान पहुंच और अधिकार से सामाजिक समानता बनी रहती है तो दूसरी ओर परिवारों का खेती करने लायक भूमि पर अधिकार होने से कुछ हद तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी हासिल हो जाती है। परन्तु यह अर्थव्यवस्था तभी फल-फूल सकती है जब वन प्रचुर मात्रा में हों।

इस मामले में पूर्वी भारत के आदिवासियों की स्थिति, गंगा के मैदान में रहने वाले गरीब वर्ग से बहुत अलग है। गंगा के मैदान में न ज़मीन है और ना ही जंगल। खेती करने योग्य ज़मीन का पूरी तरह से निजीकरण हो चुका है। साझा उपयोग के तालाब और चरागाह भूमि न के बराबर हैं। इस इलाके में भूमि पर निजी स्वामित्व, असमानता और टकराव को जन्म देते हैं। इससे ज़मींदार अपनी मनमानी कर पाते हैं। भूमिहीनों की हालत बहुत ख़राब होती है। वे गुलामों की तरह काम करने को मजबूर होते हैं। उन्हें यौन शोषण भी झेलना पड़ता है और जाति प्रथा जैसी घृणित व्यवस्था से भी समझौता करना पड़ता है। साझा संसाधनों के अभाव में महिलाओं के लिए काम के अवसर सीमित हो जाते हैं। वे दिहाड़ी मजदूर या घरेलू कामगार के रूप में काम करने के अलावा और कुछ नहीं कर पातीं। कृषि भूमि पर निजी स्वामित्व और जाति प्रथा के कारण भारत में महिलाओं को नियंत्रण में रखना अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया है। महिलाओं को यौन स्वतंत्रता देने से परिवार की ज़मीन के बंटने और जाति की शुचिता समाप्त होने का खतरा रहता है। कुल मिलाकार, भारतीय समाज, वर्गीय, जातिगत और लैंगिक असमानता के जिस दलदल में फंसा हुआ है, वह एक तरह से ज़मीन की कमी और उस पर निजी स्वामित्व का परिणाम है। आदिवासी समाज यदि इस दलदल में नहीं फंसा तो इसका कारण यही था कि उसमें वन भूमि सभी की थी। निश्चित रूप से मैं चीज़ों का सरलीकरण कर रहा हूं, परंतु फिर भी इस मूलभूत अंतर से कोई इंकार नहीं कर सकता। 

धरती के सबसे लोकतांत्रिक रहवासी 

अगर कोई मुझसे पूछे कि आदिवासी जीवन पद्धति को परिभाषित करने वाला एक शब्द कौन सा है या यह कि पूर्वी भारत में आदिवासी जीवन का सबसे पारिभाषिक तत्व क्या है, तो मैं कहूंगा ‘लोकतंत्र’। जयपाल सिंह मुंडा ने संविधानसभा में दिनांक 19 दिसंबर, 1946 को अपनी पहले भाषण में कहा था, “आप आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते। आपको लोकतांत्रिक तरीके उनसे सीखने पड़ेंगे। वे दुनिया में सबसे लोकतांत्रिक लोग हैं।” 

जयपाल सिंह के बारे में जिन लोगों को याद नहीं है, उनके लिए मैं बता दूं कि उनका जन्म रांची के नज़दीक मुंडा नामक एक गांव में हुआ था। एक अंग्रेज़ पादरी ने उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया और उसकी मदद से उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ाई की। वे देश के पहले आदिवासी इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) अधिकारी थे। सन् 1928 में उन्होंने आईसीएस में अपने करियर को दांव पर लगाते हुए, काम से छुट्टी लेकर ऐम्स्टर्डैम ओलिंपिक में भारतीय हॉकी टीम का नेतृत्व किया। भारत ने सोने का पदक तो जीत लिया, परंतु जयपाल सिंह अपनी नौकरी गंवा बैठे। कुछ दिन यहां-वहां घूमने के बाद, वे झारखंड पहुंचे और वहां उन्होंने आदिवासी महासभा और उसके बाद झारखंड पार्टी का नेतृत्व किया। दोनों को जबरदस्त जनसमर्थन हासिल था। वे संविधानसभा के सदस्य बने, जहां उन्होंने आदिवासी महिलाओं सहित आदिवासियों के पक्ष में मजबूती से आवाज़ उठाई। सन् 1952 से लेकर सन् 1970 में अपनी मृत्यु तक वे लोकसभा के सदस्य रहे। मैं यह इसलिए बता रहा हूं क्योंकि अतीत के घटनाक्रम में से हम कुछ भुला देते हैं और कुछ याद रखते हैं। कुछ लोगों का दर्जा ऊंचा कर दिया जाता है और कुछ अंधेरे में खो जाते हैं। जयपाल सिंह मुंडा भी इस ‘कुछ भूलो, कुछ याद रखो’ प्रवृत्ति के शिकार हैं। 

जयपाल सिंह का यह कथन कि “आदिवासी दुनिया में सबसे लोकतांत्रिक लोग हैं”, दरअसल, आदिवासी समुदायों की अनूठी स्व-शासन संस्थाएं की ओर इशारा करता है। ये सभी संस्थाएं सर्वसम्मति के निर्माण पर आधारित हैं और इनमें सभी को अपनी बात रखने का मौका दिया जाता है। जब मैं ‘सभी को’ कहता हूं तो मेरा आशय वयस्क पुरुषों या परिवारों के मुखिया से है। पुरुषों में भी कुछ का दर्जा ऊंचा होता है, जैसे स्थानीय मुखिया या पुरोहित का। परंतु पूर्वी भारत का आदिवासियों का मुखिया, उत्तर भारत के ठाकुर, जो बाहुबल से गांव में दबदबा बनाए रखता है, से बहुत अलग होता है। एक औसत आदिवासी मुखिया सेनापति नहीं, बल्कि समन्वयक होता है। इसे समझने के लिए संथाल आदिवासियों की ग्राम सभा के जॉर्ज सोमर्स के इस विवरण को देखिये– 

ग्राम सभा को हर परिवार के मुखिया के विचार को बराबर महत्व देना होता है और गांव के हर रहवासी को बड़े-बूढों के बीच चर्चा को सुनने का अधिकार होता है। गांव का मुखिया भी फर्स्ट अमंग इक्वल्स (समान स्तर के लोगों का नेता) होता है। न तो उसका घर और ना ही उसके खेत अन्य लोगों से कुछ अलग होते हैं। उसकी वेशभूषा और व्यवहार भी एकदम आम संथालों की तरह होता है। यद्यपि परंपरा के अनुसार, मुखिया का पद उसके सबसे बड़े पुत्र को उत्तराधिकार में प्राप्त होता है तथापि उत्तराधिकारी को परिवारों के मुखिया, जो ग्रामसभा के सदस्य होते हैं, की सहमति प्राप्त करनी होती है।” 

मुझे स्वयं मुंडा आदिवासियों के ह्रदयस्थल खूंटी में ग्रामसभा के कार्यवाही देखने का मौका मिला है। यह एक आंखें खोलने वाला अवसर था। बिरसा मुंडा की स्मृति में ग्रामसभा का आयोजन हर गुरूवार की सुबह होता है। बिरसा मुंडा, जैसा कि उनके नाम से जाहिर है, गुरूवार को जन्में थे। जैसा कि सोमर्स ने संथालों के बारे में लिखा है, मुंडा आदिवासियों की ग्रामसभा में भी सभी परिवार हिस्सा ले सकते हैं और अपनी बात रखने के सभी के अधिकार का बहुत सम्मान किया जाता है। 

यहां मैं यह बताता चहूं कि इन्हीं लोकतांत्रिक ग्रामसभाओं में खूंटी के कई मुंडा समुदायों ने हाल में स्व-शासन के अपने संवैधानिक अधिकार की उद्घोषणा के लिए अपने गांव के बाहर बड़े पत्थर लगाने का निर्णय लिया। इसे ही पत्थलगड़ी कहा जाता है। दुर्भाग्यवश, सरकार ने इस आंदोलन को गलत समझ लिया और उसे कुचलना शुरू कर दिया। कई निर्दोष आदिवासियों पर देशद्रोह का हास्यास्पद आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया गया। कहने की ज़रुरत नहीं कि इस दमन से स्थानीय मुंडा लोगों में भारतीय राज्य के प्रति अविश्वास के भाव में और बढोत्तरी हुई और स्व-शासन की उनकी आकांक्षा और गहरी हुई।

जीने का लोकतांत्रिक तरीका 

जैसे कि मैं पहले बता चुका हूं, जयपाल सिंह मुंडा ने संविधानसभा में कहा था कि “आदिवासी, धरती के सबसे लोकतांत्रिक लोग हैं।” मुझे पक्का भरोसा है कि उन्होंने जब यह कहा होगा तब उनके दिमाग में केवल आदिवासियों की स्व-शासन संस्थाएं नहीं रहीं होंगी। उनके कथन का संपूर्ण निहितार्थ समझने के लिए यह याद रखना ज़रूरी है कि लोकतंत्र केवल एक शासन पद्धति नहीं है। वह जीवन जीने का एक एक तरीका भी है। डॉ. आंबेडकर, लोकतंत्र को “एकसाथ मिलकर जीने का तरीका” कहते हैं। “स्वतंत्रता, समानता और बंधुता” का पुराना नारा लोकतांत्रिक जीवन के मूलभूत सिद्धांतों को अभिव्यक्त करता है। आंबेडकर ने संविधानसभा में 25 नवंबर, 1949 को अपने ऐतिहासिक भाषण में इन तीनों के बीच परस्पर संबंध की अत्यंत सुन्दर व्याख्या की थी– 

“सामाजिक स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जीवन जीने का वह तरीका, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को जीवन के मूलभूत सिद्धांत को मानता हो। स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के इन तीन सिद्धांतों को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए … समानता के बिना, स्वतंत्रता से कुछ लोगों की अनेक लोगों पर प्रभुता स्थापित हो जाएगी। स्वतंत्रता के बिना समानता, व्यक्तिगत उपक्रम को कुचल देगी। और बंधुता के बिना, स्वतंत्रता और समानता जीवन का स्वाभाविक हिस्सा नहीं बन सकतीं।” 

ये लोकतांत्रिक सिद्धांत, पूर्वी भारत के आदिवासी समुदायों को अत्यंत प्रिय हैं। गोपीनाथ मोहंती का लेखन भी इस ओर हमारा ध्यान खींचता है। उदाहरण के लिए, ‘परजा’ को आज़ादियों के खो जाने की त्रासद कहानी के रूप में भी पढ़ा जा सकता है और उन आज़ादियों के प्रशंसात्मक विवरण के रूप में भी, जो आदिवासियों को पारंपरिक रूप से प्राप्त रहीं हैं और जिन्हें वे महत्वपूर्ण मानते रहे हैं। आदिवासी आज़ादी से प्रेम करते हैं और आसानी ने किसी कि दादागीरी को स्वीकार नहीं करते – फिर चाहे दादागिरी करने वाला औपनिवेशिक शासन हो, जमींदार, वन विभाग, साहूकार या उनके नियोक्ता। उन्हें ‘दिकु’ शब्द से ही एलर्जी है। पूर्वी भारत में यह शब्द आदिवासी इलाकों में बाहर से आकर बसने वाले शोषक तत्वों को दिया गया नाम है। आज़ादी के प्रति उनके प्रेम के चलते ही छोटानागपुर इलाके के आदिवासी 19वीं सदी में अलग-अलग समय पर बिहार और अन्य इलाकों के दिकुओं द्वारा औपनिवेशिक सरकार की मिलीभगत से उनकी ज़मीनों पर कब्ज़े के विरोध में एकजुट हुए। आज़ादी के प्रति उनके प्रेम के चलते ही आदिवासियों ने आदिवासी महासभा, झारखंड पार्टी और आगे चलकर झारखंड आन्दोलन को भारी समर्थन दिया। और आज़ादी के प्रति इसी प्रेम के चलते पूर्वी भारत में हजारों आदिवासी उनकी ज़मीनों से उनकी बेदखली का विरोध कर रहे हैं। वह भी तब जब सरकार उन्हें खदानों, बांधों, सड़कों या वन्यजीव अभयारण्यों के लिए उनकी ज़मीन खाली करने के बदले मोटी रकम देने को तैयार है। 

डॉ. बी. आर. आंबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा

एक कदम और आगे बढ़कर मैं तो यह कहना चाहूंगा कि आज के आदिवासी वहीं हैं जो अपनी आज़ादी को, चाहे लड़ कर ही सही, बचाए रखने में सफल रहे। जो आदिवासी समुदाय ऐसा नहीं कर सके उन्हें उनकी ज़मीन और अधिकारों से वंचित कर दिया गया और उन्हें कुचल कर उन्हें जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रख दिया गया। इसका उदाहरण झारखंड के भुइयां और बिहार के मुसहर हैं। झारखंड के भुइयां भले ही आज अनुसूचित जातियों में गिने जाते हैं, परंतु 19वीं सदी के अंत तक उन्हें आम तौर पर एक जनजाति ही माना जाता था। बल्कि एक अध्येता के अनुसार, “भुइयां एक समय में एक शक्तिशाली जनजाति मानी जाती थी।” भुइयां, जैसा कि उनके नाम से ही जाहिर है, का निश्चित रूप से कुछ काल पहले तक अवश्य ही ज़मीन पर नियंत्रण रहा होगा (भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण के अनुसार, भुइयां का अर्थ है– “मिट्टी का स्वामी”)। जंगलों और ज़मीन से बेदखली और दमन ने उन्हें भूमिहीन दिहाड़ी मजदूर बना दिया है और वे जातिगत पदक्रम में सबसे नीचे हैं। यही बात मुसहरों पर भी लागू है जो खुद को पहले भुइयां ही मानते थे। बाद में ऊंची जातियों के उनके उत्पीड़कों ने उन्हें ‘चूहा खाने वाले’ का अपमानजनक नाम दे दिया। 

दूसरी ओर मुंडाओं और संथालों ने अपनी ज़मीन की प्राण-पण से रक्षा की। हमें यह याद रखना चाहिए कि दिकुओं और उनके औपनिवेशिक प्रायोजकों के खिलाफ आदिवासी विद्रोहों के नतीजे में ही छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम और संथाल परगना किरायेदारी अधिनियम बनाए गए। कम से कम झारखंड में इन कानूनों ने आदिवासियों की अपनी ज़मीन से बेदखली की प्रक्रिया को रोकने और आदिवासियों की पहचान को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अपने दमन का प्रतिरोध कर और अपने अधिकारों की हिफ़ाजत कर आज के आदिवासी, आदिवासी बने रह सके हैं। 

आदिवासियों में समतावाद

जहां तक समानता के सिद्धांत का प्रश्न है, पूर्वी भारत के आदिवासी समाज अपने अपेक्षाकृत समतावादी मूल्यों और आचरण के लिए जाने जाते हैं। मैं ‘अपेक्षाकृत’ शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं ताकि लोग कुछ ज्यादा ही न सोचने लगें और इसलिए भी क्योंकि आदिवासी समाजों की समतावादी प्रकृति पर इन दिनों कुछ दबाव हैं। परंतु इसके बाद भी आदिवासी समाज की पुरानी समतावादी नींव अब भी नष्ट नहीं हुई है। जैसा कि मैंने पहले बताया है, यह नींव इस तथ्य पर आधारित है कि पूर्वी भारत की पारंपरिक आदिवासी अर्थव्यवस्था में जंगलों, चारागाह की भूमि और नदियों पर सबका अधिकार होता है। दूसरा इसी से जुड़ा हुआ एक अन्य तथ्य यह है कि आदिवासी अब तक जाति व्यवस्था के चंगुल से बचे हुए हैं। जैसा कि जयपाल सिंह मुंडा ने संविधानसभा में अपने उसी भाषण में कहा था, “मेरे समाज में जाति है ही नहीं। हम सब बराबर हैं।” यह दावा, निश्चित रूप से, सरलीकरण है, परंतु इससे यह तो पता चलता ही है कि पूर्वी भारत की आदिवासी परंपरा के लिए जाति प्रथा अजनबी है। जैसा कि गेल ऑमवेट ने चालीस साल पहले कहा था, “ब्राह्मण का विलोम, जातिगत पदक्रम में सबसे नीचे का दमित अछूत नहीं, बल्कि आदिवासी है, जो जातिगत पदक्रम से बाहर है, परंतु भारतीय संस्कृति और समाज से नहीं।” 

इसी तरह, आदिवासी समाज लैंगिक असमानता से भी काफी हद तक मुक्त है। वेरियर एल्विन का तो यहां तक कहना है कि “आदिवासी महिलाएं आज उतनी ही स्वतंत्र हैं जितनी पूरे भारत की महिलाएं अतीत में स्वतंत्र थीं या भविष्य में होंगीं।” यह भी अतिशयोक्तिपूर्ण है। आदिवासी समुदायों में भी पितृसत्तात्मकता है, जिनमें अत्यंत विचलित करने वाली ‘डायनों को मारने’ जैसे कुप्रथाएं सम्मलित हैं। परंतु यह एक तथ्य है कि भारतीय समाज के अधिकांश तबकों की तुलना में आदिवासियों में महिलाओं पर अपेक्षाकृत कम प्रतिबंध हैं। उदाहरण के लिए महिलाओं और पुरुषों के बीच श्रम विभाजन उतना कड़ा नहीं है, महिलाओं को अलग-थलग नहीं रखा जाता, प्रेम विवाह आम हैं और विधवा पुनर्विवाह को स्वीकार्यता प्राप्त है। आदिवासी समुदाय, महिलाओं और लड़कियों की कीमत समझता है यह इन समुदायों के लिंगानुपात से जाहिर है। जिस देश में और विशेषकर बच्चों में लिंगानुपात बहुत कम है, वहां आदिवासियों में लड़कियों और लड़कों के बीच भेदभाव और कन्या भ्रूण हत्या का नामोनिशान तक नहीं है। सन 2011 में, जहां भारत की संपूर्ण आबादी में लिंगानुपात 918 प्रति एक हज़ार था, वहीं आदिवासियों में यह बहुत बेहतर, 957 था। 

निस्संदेह यह सब बदल रहा है। वन से मिलने होने वाले संसाधनों में कमी आ रही है और एक स्थान पर बस कर खेती करना या दिहाड़ी पर काम करना आम होता जा रहा है। इसके चलते आदिवासी समाजों में समतावाद का आर्थिक आधार कमज़ोर हुआ है। अपने हिंदू पड़ोसियों के प्रभाव में, कुछ आदिवासी समुदायों ने जाति व्यवस्था के कुछ तत्वों को अपना लिया है। सन् 1930 के दशक में ही वेरियर एल्विन ने मंडला के गोंड रहवासियों में यह प्रवृत्ति देखी थी। मुझे भी यह देख कर बहुत धक्का लगा कि झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी, ‘विशिष्टतः कमजोर जनजातीय समूहों’ जैसेपहाड़ी कोरवा के साथ छुआछूत का व्यवहार करते हैं। आदिवासी समाजों में लैंगिक रिश्ते भी बदल रहे हैं। बीसवीं सदी में वधु मूल्य का स्थान दहेज़ प्रथा ने लेना शुरू कर दिया। परन्तु इसके बाद भी, आज के भारत में देश के पूर्वी हिस्से के आदिवासी समुदाय समतावादी प्रति-संस्कृति के सबसे मज़बूत गढ़ बने हुए हैं। 

एकजुटता और सहयोग

बंधुत्व का क्या? सबसे पहले तो मैं इसके लिए एकजुटता शब्द का प्रयोग करना चाहूंगा। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि ‘बंधुत्व’ शब्द से पुरुषवाद की बू आती है। दूसरे, एकजुटता की तुलना में बंधुत्व का पालन करना कहीं अधिक कठिन है। बंधुत्व मुख्यतः दूसरों के प्रति हमारे भाव से संबंधित है। यह एक प्रकार का प्रेम है, जिसे डॉ. आंबेडकर एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखना बताते हैं। उनके अनुसार बंधुत्व “वह भावना है जिसके चलते कोई व्यक्ति दूसरों के कल्याण से अपने आपको जोड़ता है …”। दूसरी ओर एकजुटता का संबंध हमारी सोच से अधिक हमारे कार्यों पर है। हम प्रेम या बंधुत्व के भाव के साथ या उसके बगैर भी एकजुट हो सकते हैं। जैसे, जब आप सड़क दुर्घटना के शिकार किसी व्यक्ति की मदद के लिए कुछ करते हैं तो वह एकजुटता का प्रदर्शन है। परंतु इसका आवश्यक रूप से यह अर्थ नहीं है कि आपके मन में उस व्यक्ति के प्रति कोई विशेष प्रेम भाव है। इस बात की संभावना ज्यादा है कि आपको लगता है कि ऐसी स्थिति में यही करना आपके लिए ठीक है, फिर दुर्घटना का शिकार व्यक्ति चाहे जो कोई हो। 

(अगर आपने ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ फिल्म देखी हो तो शायद आपको वह दृश्य याद होगा जिसमें बिहार के एक गांव में गुस्से से तमतमाए मजदूर स्थानीय जमींदार के घर पर हल्ला बोल देते हैं। उनका इरादा उसकी जान लेने का है, परंतु जब वे देखते हैं कि जमींदार को डर के मारे हार्ट अटैक आ गया है तो वे एक डाक्टर को बुलाते हैं। यह एकजुटता का उदाहरण है, जिसमें बंधुत्व की कोई भूमिका नहीं है।)

मैं नहीं कह सकता कि अन्यों की अपेक्षा आदिवासियों में ज्यादा एकजुटता है। आदिवासियों में खूब दोस्तियां होतीं हैं और कभी-कभी ऐसा लगता ज़रूर है कि वे अत्यंत सौम्य और शांतिपूर्ण समुदाय हैं। परंतु यह धोखा भी हो सकता है। कुछ आदिवासी समुदायों में हिंसा और हत्याओं का लंबा इतिहास है। मुझे ऐसा लगता है कि यह पूछना कि क्या अन्यों के मुकाबले आदिवासियों में अधिक बंधुत्व है, उतना ही व्यर्थ है, जितना यह पूछना कि क्या भारत में चीन की तुलना में अधिक बंधुत्व है। 

परंतु हम यह तो पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि पूर्वी भारत के आदिवासियों में एकजुटता और सहयोग की विलक्षण परंपरा और संस्थाएं हैं। इसलिए, मैं बंधुत्व को परे रख कर, एकजुटता की इन अभिव्यक्तियों के बारे में बात करना चाहूंगा। 

सौ से भी ज्यादा साल पहले, महान रुसी अराजकतावादी पीटर क्रोपोत्किन ने एक शानदार पुस्तक लिखी थी, जिसका शीर्षक था– ‘म्यूच्यूअल ऐड’। इसमें सभी मानवीय समाजों और यहां तक कि जानवरों की दुनिया में भी परस्पर सहायता और समर्थन के विस्तृत प्रमाण और उदाहरण दिए गए थे। परंतु कुछ समाजों में परस्पर सहायता की संस्कृति अन्यों के मुकाबले अधिक मजबूत होती है। उदाहरण के लिए ऐसे लोगों के लिए एक-दूसरे की सहायता करना अपेक्षाकृत आसान होता है, जिनका दर्जा एक बराबर हो। इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है, क्योंकि परस्पर सहायता में एक तरह का लेन-देन शामिल होता है। एक रईस जमींदार और भूमिहीन श्रमिक के बीच परस्पर सहायता की संभावना कम ही हो सकती है। “आज तुम मेरी गाय चराओ और कल मैं तुम्हारी गाय चरा दूंगा” का कोई अर्थ नहीं होगा यदि सारी गायों का मालिक एक ही व्यक्ति हो। यह तभी संभव हो सकता है जब दो व्यक्तियों के पास एक-एक या दस-दस गाएं हों। अतः आश्चर्य नहीं कि परस्पर सहायता की संस्कृति उन समाजों में अधिक फलती-फूलती है जो अपेक्षाकृत समतावादी होते हैं।

पूर्वी भारत के आदिवासियों में एक-दूसरे की मदद करने और एक-दूसरे का साथ देने के अनेक तरीके और स्वरूप हैं। इसका एक साधारण उदाहरण है लोगों द्वारा अपने घर का निर्माण अथवा छत को बदलना। सामान्यतः यह काम मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के समूह द्वारा किया जाता है, जो अपने श्रम का कोई भुगतान नहीं लेते। मकान मालिक को केवल उन्हें भोजन कराना होता है और शायद काम खत्म होने के बाद शाम को प्रचुर मात्रा में दारू उपलब्ध करवानी होती है।

इस तरह के अनेक उदारहण हैं। शिकार आदिवासियों के लिए परस्पर सहयोग का एक बड़ा मौका होता था। अब ऐसा नहीं है क्योंकि शिकार करने के लिए बहुत कम जानवर बचे हैं। मछली पकड़ना एक और उदाहरण है। एक या दो बार मैंने आदिवासी टोलों के सभी युवा पुरूषों और महिलाओं को एक ही तालाब में एक साथ हाथों से मछलियां पकड़ते देखा है। केवल हाथों से अकेले मछलियां पकड़ना लगभग अंसभव है, परंतु जब सभी लोग पानी में हों, तब मछलियों को भागने के लिए कोई रास्ता नहीं मिलता। कहने की जरूरत नहीं कि यह एक मजेदार काम होता है और पकड़ी गई सभी मछलियों को आपस में बराबर-बराबर बांट लिया जाता है।

परस्पर सहायता धान की रोपाई के समय बहुत उपयोगी होती है। धान की रोपाई कड़ी मेहनत का काम है। इसे करने के लिए पूरे दिन पानी में खड़े रहकर अपनी कमर झुकाकर काम करना होता है। धान की रोपाई मानसून के ठीक बीच में होती है जब थोड़ी-थोड़ी देर में बारिश होती रहती है। इस काम को आसान बनाने के लिए लोग एक-एक करके एक-दूसरे के खेतों में एक साथ मिलकर काम करते हैं। काम के दौरान वे गाने भी गाते हैं। परस्पर सहायता के कारण यह कठिन कार्य “एक दूसरे से जुड़ने और आनंद का मौका बन जाता है” जैसा कि अल्पा शाह इस गतिविधि के अपने विवरण में कहती हैं। 

परस्पर सहायता अनेक दूसरे विविध मौकों पर भी की जाती है। इनमें शामिल हैं जंगल साफ करना, उत्सव मनाना, विवाहों का आयोजन, विवादों का निपटारा और स्थानीय स्वशासन। हाथियों द्वारा लोगों के घरों को रौंदने का खतरा होने पर सब लोग मिलकर हाथियों को भगाते हैं। अगर किसी आदिवासी को बिना किसी कारण के पुलिस द्वारा पकड़ लिया जाता है तो पूरा गांव थाने पहुंचकर उसे रिहा करने की मांग करता है। अगर आदिवासी जीवन पद्धति जैसी कोई चीज है तो एकजुटता और परस्पर सहायता निश्चित रूप से उसके अभिन्न तत्व हैं।

उरांव समुदाय के आदिवासियों में आपसी सहयोग : पुरुष घर बनाते हुए और धान रोपती महिलाएं (दोनों तस्वीरें : अल्पा शाह)

जो उदाहरण मैंने यहां दिए हैं उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। परस्पर सहायता, जिसे झारखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी समुदायों में ‘मदैत’ कहा जाता है, हर तरह के काम करने में उपयोगी होती है। मदैत के जरिए मकान बनाया जा सकता है, खेत की रखवाली की जा सकती है, फसल की कटाई की जा सकती है, मवेशियों को चराया जा सकता है, उत्सव का आयोजन किया जा सकता है और वे सभी काम किए जा सकते हैं, जो अकेले करने की बजाए परस्पर सहयोग से करना अधिक आसान होता है। समुदाय के हर सदस्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह मदैत में अपनी भूमिका निभाए।

जो उदाहरण मैंने ऊपर दिए हैं वे मुख्यतः गांव के स्तर की रोजाना की गतिविधियों से संबंधित हैं, परंतु वृहत पैमाने पर सहयोग के अनेक अन्य उदाहरण भी उपलब्ध हैं। संथालों का वार्षिक शिकार महोत्सव, जिसे ‘लो बिर सेन्द्रा’ कहा जाता है, एक विशाल आयोजन होता है, जिसमें कई गांवों के लोग हिस्सा लेते हैं। इसके बाद एक लोकतांत्रिक सभा होती है, जिसे कुछ प्रेक्षक ‘संथालों का हाईकोर्ट’ कहते हैं। इसमें गांवों के बीच के विवाद सुलझाए जाते हैं। यह अदालत गांवों के मुखियाओं द्वारा सुनाए गए फैसलों पर अपील भी सुनती है। यह दिलचस्प है कि मुंडा और हो, जो संथालों के चचेरे-ममेरे भाई हैं, में भी इसी तरह की परंपरा है, जिसे भी ‘लो बिर सेन्द्रा’ कहा जाता है। जयपाल सिंह के अनुसार मुंडाओं में हर सातवें साल महिलाएं शिकार करने जाती हैं और पुरूष घर पर रूककर खाना पकाते हैं। 

जैसा कि इन उदाहरणों से स्पष्ट है, आदिवासी समुदायों में परस्पर सहायता केवल गांव तक सीमित न होकर अनेक गांवों और कभी-कभी पूरे कबीले में की जाती है। अलग-अलग कबीलों के आदिवासियों के बीच सहयोग भी आम है। मैंने आदिवासियों की अनेक ऐसी सभाओं को देखा है, जिनमें हजारों लोग एक ही लक्ष्य को पाने के लिए बिना किसी नेता के एक-दूसरे का साथ देने का निर्णय लेते हैं। रांची में होने वाला सरहुल उत्सव और नेतरहाट में जनसंघर्ष मोर्चा की सभा, इसके दो उदाहरण हैं। दोनों में अलग-अलग इलाकों के और विभिन्न कबीलों के पुरूष, महिला और बच्चे हिस्सेदारी करते हैं।

सहयोग की इस संस्कृति से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि भारतीय समाज के अन्य तबकों में एकजुटता और सहयोग के उदाहरण नहीं होते हैं। परन्तु यह दुखद है कि भारत में सहयोग अधिकांश मामले में अपने सजातीय भाई-बंदों तक सीमित रहता है। जैसे कि डॉ आंबेडकर ने ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट में लिखा है, “जाति ने लोकहित के भाव को मार दिया है … एक हिन्दू के लिए ‘लोक’ केवल उसकी जाति होती है। वह केवल अपनी जाति के प्रति ज़िम्मेदार होता है। उसकी वफ़ादारी केवल अपनी जाति तक सीमित रहती है।” इसका एक जीवंत उदाहरण सुजाता गिडला की पुस्तक ‘एंट्स अमंग एलीफेंट्समें दिया गया है। जब वे बच्ची थीं, तब एक प्रचंड तूफ़ान के कारण उनके गांव में बाढ़ आ गई। फिर क्या हुआ, उसका विवरण देते हुए वे लिखतीं हैं, “पूरे गांव में हर जाति के लोगों ने केवल अपने जात भाईयों की मदद की।” उनके दलित समुदाय के तीन परिवार तीन दिन तक स्थानीय स्कूल में फंसे रहे। वे ठंड से ठिठुर रहे थे और भूखे भी थे, परंतु उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। यह तब हुआ जबकि उस गांव में ऊंची जाति के कुछ परिवार कम्युनिस्ट थे।”

आदिवासियों में परस्पर सहयोग की भावना का एक और उदाहरण देने से मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूं। सन् 1952 में पहली लोकसभा के गठन के कुछ ही समय बाद, जयपाल सिंह मुंडा ने सभी पार्टियों के सांसदों के बीच एक क्रिकेट मैच का आयोजन किया। यह मैच तो दिलचस्प था ही, उसकी पीछे की सोच और भी दिलचस्प थी। सभी लोगों ने अपने-अपने तरीके से मैच के आयोजन में सहयोग किया। जाहिर तौर पर, स्त्रियों की सहभागिता कम थी, परंतु अन्य सभी पैमानों पर यह पूर्णतः समतावादी आयोजन था। प्रधानमंत्री सहित सभी ने अपने-अपने टिकट खरीदे। यह एक चैरिटी मैच था, परंतु सबको बहुत मज़ा आया। जयपाल सिंह ने स्वयं एक जानी-मानी शराब कंपनी की मदद से सभी के लिए मुफ्त बियर का इंतजाम किया। इस आयोजन के अपने जीवंत वर्णन का अंत वे इन शब्दों में करते हैं कि “मैच, नेशनल स्टेडियम में लंच, और डिनर का एक महत्वपूर्ण हासिल यह था कि इसमें सभी राजनैतिक दलों ने हिस्सा लिया और इससे संसद के दोनों सदनों में एक मैत्रीपूर्ण वातावरण निर्मित हुआ।” 

इस आयोजन का एक महती सबक है। हम सामाजिक अंतर्व्यव्हार में प्रतियोगिता और प्रतिद्वंद्विता के इतने आदी हो जाते हैं कि हम यह भूल ही जाते हैं कि परस्पर सहयोग से भी कई आनंददायक गतिविधियां की जा सकतीं हैं। बल्कि सच तो यह है कि मानव जीवन में जो सबसे अच्छा है, वह अक्सर प्रतिद्वंद्विता पर नहीं, बल्कि सहयोग पर आधारित होता है। 

प्रतियोगिता का आधार भी सहयोग ही है क्योंकि सभी प्रतियोगियों को खेल के नियमों का पालन करना होता है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो प्रतियोगिता, युद्ध में बदल जाती है। प्रसंगवश, भारत की संसद में इन दिनों यही हो रहा है। जयपाल सिंह सहयोग के जिस भाव को बढ़ावा देना चाहते थे, वह गायब हो गई है, नियमों की किसी को परवाह ही नहीं है और राजनैतिक प्रतियोगिता, युद्ध में बदल गई है। जयपाल सिंह की यह सलाह कि हम लोकतांत्रिक ढंग से जीने का तरीका आदिवासियों से सीखें, इस समय हमारे लिए बहुत उपयुक्त है। 

अतीत का अवशेष या भविष्य की राह?

अपनी बात समाप्त करने से पहले मैं उस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करना चाहूंगा, जो मैंने अपने भाषण के शीर्षक में पूछा था– क्या आदिवासी जीवन पद्धति अतीत का अवशेष है या भविष्य की राह? इस प्रश्न का उत्तर इस पर निर्भर है कि हम किसे आदिवासी जीवन पद्धति मानते हैं। अगर हम भौतिक जीवन या सांस्कृतिक कलाकृतियों की दृष्टि से सोचें, तो यह भविष्य की राह नहीं हो सकती। उन आर्थिक नीतियों, जो पूर्वी भारत के पर्यावरण को नष्ट कर देंगीं और आदिवासियों को दिहाड़ी मजदूर बना देंगीं, का प्रतिरोध करना निश्चित तौर पर संभव है। परंतु आदिवासियों के हितों और अधिकारों का सम्मान करने वाला वैकल्पिक दृष्टिकोण भी उनके भौतिक और सांस्कृतिक जीवन में व्यापक परिवर्तन लाने वाले होगा। हो सकता है कि उनकी कुछ परम्पराएं बनीं रहीं और कुछ समाप्त हो जाएं। इन सभी परंपराओं को किसी भी कीमत पर बचाना, अगर वह संभव हो तब भी, आदिवासियों को ही अतीत का अवशेष बनाना होगा। 

दूसरी ओर, यदि हम आदिवासी जीवन पद्धति को उसके मूल्यों, विशेषकर उसके लोकतांत्रिक मूल्यों, के परिप्रेक्ष्य से देखें तो हमें यह स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि यह अतीत का अवशेष न होकर भविष्य की राह दिखाने वाली है। वर्तमान में, भारत में लोकतंत्र – चाहे बात शासन पद्धति की हो या मिलकर साथ रहने के भाव की – के भविष्य के बारे में बहुत आशावादी होना संभव नहीं है। ऐसे में आदिवासी समाजों में लोकतांत्रिक जीवन की समृद्ध परंपरा हमारे लिए आशा और प्रेरणा का स्रोत हो सकती है।

मैं तो यहां तक कहना चाहूंगा कि आदिवासी जीवन पद्धति के कुछ तत्वों में हमारे समाज में समाहित करना, हमारा अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए ज़रूरी है। शायद इतिहास में पहली बार, हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं जब इस बात का खतरा है कि मानव जाति अपने आप को नष्ट कर लेगी या मध्य युग में वप्पस चली जाएगी। परमाणु युद्ध, जलवायु परिवर्तन, जेनेटिक इंजीनियरिंग, महामारियां और विश्वव्यापी आर्थिक संकट, ऐसी पांच चीज़ें हैं, जिनसे ऐसा हो सकता है। 

इन खतरों से बचने के लिए यह ज़रूरी है कि हम वैश्विक स्तर पर एक-दूसरे से सहयोग करें। इसके लिए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण भी ज़रूरी है, जिनसे यह सहयोग संभव हो सके। अगर हम परस्पर सहयोग और एकजुटता की संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं तो हम आदिवासियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। यह कहना कि आदिवासी जीवन पद्धति ही भविष्य की राह है, दूर की कौड़ी लग सकती है। परंतु अगर हम ऐसा नहीं करते तो शायद हमारा कोई भविष्य ही नहीं होगा। 

(यह लेखक द्वारा 20 अप्रैल, 2022 को भुवनेश्वर में दिए गए गोपीनाथ मोहंती स्मृति व्याख्यान का पाठ है। इसमें कुछ मामूली परिवर्तन किये गए हैं) 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ज्यां द्रेज

ज्यां द्रेज बेल्जियन मूल के भारतीय नागरिक हैं और सम्मानित विकास अर्थशास्त्री हैं। वे रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अतिथि प्राध्यापक हैं और दिल्ली स्कूल आॅफ इकानामिक्स में आनरेरी प्रोफेसर हैं। वे लंदन स्कूल आॅफ इकानामिक्स और इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य कर चुके हैं। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति के दस्तावेजीकरण में उनकी महती भूमिका रही है। वे (महात्मा गांधी) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के प्रमुख निर्माताओं में से एक हैं। उन्हाेंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्मत्य सेन के साथ कई पुस्तकों का सहलेखन किया है जिनमें ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन‘ व ‘एन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इटस कोन्ट्राडिक्शंस‘ शामिल हैं। सामाजिक असमानता, प्राथमिक शिक्षा, बाल पोषण, स्वास्थ्य सुविधाओं व खाद्य सुरक्षा जैसे विषयों पर शोध में उनकी विशेष रूचि है

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