h n

बहस-तलब : ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ क्या वेद वाक्य है?

‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसी तमाम उक्तियों को ढाल बनाकर अक्सर ब्राह्मणवादी वाङ्मय में व्याप्त उन तमाम सामाजिक असमानताओं को ढंकने का फूहड़ प्रयास किया जाता रहा है, जो कि भारतीय सामाजिक ढांचे को बिगाड़ती रही हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ नामक यह उक्ति पौराणिक वेदों का हिस्सा रही है या इसे कहीं और से उतारा गया है, इसका आकलन कर रहे हैं द्वारका भारती

अधिकतर भारतीय जनमानस में वेदों के प्रति इतनी गहरी श्रद्धा व निष्ठा देखी जाती है कि वेदों के नाम पर कुछ भी परोसा जाता है, उसे ईश्वर-वाक्य मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। जैसे एक श्लोक है– ‘वसुधैव कुटुंबकम्’अर्थात ‘धरती पर रहनवाले सभी एक परिवार के सदस्य हैं’। इसके स्रोत के बारे में तमाम तरह भी भ्रांतियां देखने को मिलती हैं। लेकिन आम जन इसमें विश्वास करते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आज भी भारतीय जनमानस में यह धारणा घर किये बैठी है कि यह वेद अपौरूषेय अर्थात् ईश्वर द्वारा रचे गये हैं और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु उस प्रसाद के समान है, जिसे ग्रहण कर लेना ही चाहिए। यही सबसे बड़ा कारण है देश के हिंदू जनमानस में इन वेदों की स्थिति वही है जो कि एक ईसाई की बाइबिल में तथा एक मुस्लिम में कुरान में हो सकती है। यहां यदि कोई अंतर है तो यही है कि इन दोनों संप्रदायों – ईसाई व इस्लाम – में मात्र एक-एक धार्मिक ग्रंथ है, तो हिंदुओं के चार वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद) तथा ग्यारह उपनिषद हैं, जिनको वे एक-ही दृष्टि से देखते हैं अर्थात् दिव्य ज्ञान। हिंदुओं की धारणा है कि इस ईश्वरीय ज्ञान के प्रतीक वेदों के अतिरिक्त विश्व में और कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है। सदियों से हिंदुओं का आचार-व्यवहार इन वेदों द्वारा ही संचालित होता आ रहा है।

पूरा आर्टिकल यहां पढें : बहस-तलब : ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ क्या वेद वाक्य है?

लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

संबंधित आलेख

कुठांव : सवर्ण केंद्रित नारीवाद बनाम बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श का सवाल उठाता उपन्यास
अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘कुठांव’ हमें यही बताता है कि बहुजन और पसमांदा महिलाओं का संघर्ष सिर्फ पुरुषों से नहीं है, बल्कि वह उस...
यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)
चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे।...
जब मैं एक उदारवादी सवर्ण के कवितापाठ में शरीक हुआ
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और वे जिस दुनिया में रहते थे मैं उससे वाकिफ था। एक दिन जब...
When I attended a liberal Savarna’s poetry reading
Having read Om Prakash Valmiki and Suraj Pal Chauhan’s works and identified with the worlds they inhabited, and then one day listening to Ashok...
मिट्टी से बुद्धत्व तक : कुम्हरिपा की साधना और प्रेरणा
चौरासी सिद्धों में कुम्हरिपा, लुइपा (मछुआरा) और दारिकपा (धोबी) जैसे अनेक सिद्ध भी हाशिये के समुदायों से थे। ऐसे अनेक सिद्धों ने अपने निम्न...