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कबीर का इतिहासपरक निरपेक्ष मूल्यांकन करती किताब

आमतौर पर हिंदी में कबीर के संबंध में उनके पदों का पाठ उनकी व्याख्या और कबीर के काव्य में सामाजिकता जैसे शीर्षक पर साहित्य मिलते हैं। पहली बार इस पुस्तक में कबीर, कबीर का साहित्य, कबीरपंथ पर शोधपरक जानकारी है। यह जानकारियों को इतिहास के साथ रखकर उसे कालखंड की कसौटी पर कसती है और आकलन करती है। बता रही हैं डॉ. संयुक्ता भारती

समीक्षा

कबीर को पढ़ना हमेशा से रोचक रहा है। शायद इसलिए भी कि उनका जीवन, उनके विचार, उनकी बानी रहस्यों के बरक्स यथार्थ बताते हैं। उनकी देशज भाषा जितनी रोचक है, उतने ही उनके विचार सत्यशोधन के लिए उत्प्रेरक। यही वजह रही है कि कबीर के तेवर और उनके साहित्य से उपजे सवालों ने जनमानस को उद्वेलित किया है। यही वह कारण है जो कबीर को उनके समकालीन अन्य संतों और विचारकों से उन्हें अलग कर देता है। इतिहासकारों ने उनके जरिए भारत का बदलता हुआ इतिहास देखा तो साहित्यकारों ने एक जड़ता को चुनौती देनेवाला साहित्य। कबीर जितना वह जनसामान्य के लिए महत्वपूर्ण रहे, उतने ही महत्वपूर्ण समाजशास्त्रियों व साहित्य समालोचकों के लिए भी। उनके प्रति दिलचस्पी केवल भारतीयों तक सीमित नहीं थी। विदेशी शोधकर्ताओं और लेखकों के लिए भी वह आकर्षण का केंद्र रहे।

‘कबीर और कबीरपंथ’ ऐसा ही एक शोध ग्रंथ है, जिसके रचयिता फ्रैंक अर्नेस्ट केइ ब्रिटिश शोधार्थी और पादरी थे। वर्ष 1931 में उनकी यह किताब ‘कबीर एंड हिज फॉलोअर्स’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। हिंदी में इसका प्रथम अनुवाद बहुजन लेखक चिंतक कंवल भारती के द्वारा तथा इसका प्रकाशन फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली द्वारा किया गया है। इस पुस्तक को पढ़ते समय जो सबसे पहली अनुभूति होती है, वह इसकी भाषा है। वैसे तो यह मूल रूप से केइ की भाषा है, जिन्होंने विषयों को समग्रता में रखते हुए कबीर के संबंध में उठनेवाले तमाम सवालों को अत्यंत ही सहज तरीके से प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी में इसका अनुवाद करते समय कंवल भारती ने इसके प्रवाह को बनाए रखा है। इससे अनूदित स्वरूप में भी इस किताब की रोचकता बनी रहती है। इस संबंध में किताब की भूमिका के लेखक द्वारका भारती की इस टिप्पणी से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि “यह पुस्तक भले ही एक ज़मीनी शोधपत्र है, लेकिन लेखक ने इसे एक शोधपत्र की भांति बोझिल नहीं होने दिया। इस पुस्तक के प्रकाशन के करीब नब्बे वर्ष बाद इसका प्रथम हिंदी अनुवाद कंवल भारती ने किया है। उनका अनुवाद भी मूल लेखक की शैली के अनुरूप है। अनुवाद कर्म के दौरान उन्होंने अविरल प्रवाह को ऐसे बनाए रखा है, जिससे यह कृति कहीं से भी अनूदित नहीं लगती।” 

यह पुस्तक कुल ग्यारह अध्यायों में बंटी है। ये अध्याय हैं– ‘कबीर का समय और परिवेश’, ‘किंवदंतियों में कबीर का जीवन’, ‘इतिहास के कबीर’, ‘कबीर का साहित्य’,  ‘कबीर के सिद्धांत’, ‘कबीरपंथ का इतिहास और संगठन’, ‘कबीरपंथ का साहित्य’, ‘कबीरपंथ के धर्म-सिद्धांत’, ‘कबीरपंथ के संस्कार और कर्मकांड’, ‘कबीर से प्रेरित अन्य संप्रदाय’, ‘कबीर और ईसाइयत’। लेकिन इन अध्यायों के अलावा द्वारका भारती द्वारा लिखित भूमिका और कंवल भारती द्वारा लिखित अनुवादकीय भी पृथक अध्यायों के रूप में कबीर को लेकर जिज्ञासा रखनेवालों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। कंवल भारती अनुवाद कर्म को नये तरीके से व्याख्यायित करते हैं। वे लिखते हैं– “लेखक ने कबीर के सिद्धांतों के विश्लेषण में उनके मूल पदों को उद्धृत नहीं किया है, बल्कि गद्य में उनके अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किए हैं। मैंने भी लेखक द्वारा दिए गए अंग्रेजी अनुवाद का हिंदी में शाब्दिक अनुवाद कर दिया। पर बाद में मुझे लगा कि इससे कबीर को मूल रूप में समझना मुश्किल होगा। पाठकों के लिए उनकी प्रामाणिकता कुछ नहीं थी; और उन्हें शायद पसंद भी नहीं किया जाता। फिर मैंने अनुवाद की जगह कबीर के मूल पदों को रखने का निश्चय किया। लेखक ने सभी संदर्भ बीजक और आदिग्रंथ से दिए हैं, जो कबीर ग्रंथावली में संकलित पदों और साखियों से मेल नहीं खाते। तब मैंने बनारस और छत्तीसगढ़ शाखाओं के बीजक मंगवाए। फिर बीजक में लेखक द्वारा दिए गए मूल पदों को खोजकर अनुवाद के स्थान पर उनको रखा।”

चूंकि कबीर की स्वीकार्यता मजहबी और जातिगत बंधनों के परे आज भी है, इसलिए भी उनके दोहे अलग-अलग तरीके से मिलते हैं। कंवल भारती जिस चुनौती के बारे में बता रहे हैं, वह स्वाभाविक ही है। हालांकि यही अनुवादकीय कर्म की खूबसूरती है कि अनुवादक अनुवाद करते समय पाठकों का ध्यान रखता है। कवंल भारती ने आदिग्रंथ में संकलित दोहों के लिए गुरुग्रंथ साहिब अपने एक स्थानीय मित्र से हासिल की। 

समीक्षित पुस्तक ‘कबीर और कबीरपंथ’ का आवरण पृष्ठ

कबीर का विस्तार बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, पंजाब में भी मिल जाते हैं। यह किताब कबीरपंथ के इतिहास का मूल्यांकन व सूक्ष्म तरीके से विश्लेषण तथ्य आधारित शैली में करती है। यह किताब कबीर के संबंध में समग्रता से जानकारी देती ही है, कबीरपंथ पर भी निरपेक्ष भाव से विवेचना करती है। इनमें जो तथ्य बताए गए हैं, उनके आधार पर यह समझना बेहद आसान हो जाता है कि जो कबीर बुतपरस्ती के विरोधी रहे, पाखंडों के विरोधी रहे, वहीं उनके अनुयायी किस तरह पाखंड और अंधविश्वास की दलदल में फंसते जाते हैं।

किताब का पहला अध्याय ‘कबीर का समय और परिवेश’ है। लेखक केइ ने इस सटीक टिप्पणी से पुस्तक का प्रारंभ किया है कि “कमोबेश, प्रत्येक व्यक्ति अपने समय की उपज होता है। इसलिए, कबीर के जीवन को समझने के लिए भी उनके समय पर एक नज़र डालना उपयोगी होगा।” (कबीर और कबीरपंथ, एफ. ई. केइ, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 31)  

इस अध्याय में वह कबीर के जन्म के समय के पहले और उनके जीवनकाल के राजनीतिक घटनाक्रमों पर विस्तार से जानकारी देते हैं कि “कबीर का समय ईसा पश्चात पंद्रहवीं सदी का है, तब उत्तर भारत में ज़बरदस्त राजनैतिक अव्यवस्था का दौर था। एक समय मज़बूत और शक्तिशाली रही दिल्ली सल्तनत पतन की ओर अग्रसर थी। आम तौर पर दिल्ली सल्तनत के पतन की शुरुआत मुहम्मद बिन तुगलक के विनाशकारी शासन से मानी जाती है, जो 1325 ई. से लेकर 1351 ई. तक गद्दी पर आसीन था। उसका शासनकाल विद्रोहों, अकाल, बर्बरता और विपदाओं का दौर था।” (वही) 

वास्तव में केइ इस अध्याय के जरिए यह बताना चाहते हैं कि वह कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने कबीर का निर्माण किया। उनके वर्णन से यह समझा जा सकता है कि कबीर यदि हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों को खारिज करने का साहस कर सके तो उसकी वजह क्या रही। निश्चित तौर पर यदि राजनीतिक अस्थिरता का दौर नहीं होता तो जिस निष्कर्ष पर कबीर पहुंच सके, नहीं पहुंच पाते। केइ लिखते हैं कि “यह संभवतः मुस्लिम प्रभाव ही था, जिसने रामानंद को उनके पूर्व के हिंदू गुरुओं की तुलना में सामाजिक रिवाज़ों के पालन में कम कठोर बनाया। निश्चित रूप से कबीर की शिक्षाओं में यह मुस्लिम प्रभाव और अधिक स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। भारत में सदियों से हिंदू और मुसलमान आसपास रहते आए थे, और तबतक मुस्लिम आबादी काफ़ी बढ़ गई थी। हालांकि शुरुआत में मुसलमान, हिंदुओं के बुतपरस्त होने के कारण उनका तिरस्कार करते थे और उनसे अलग रहते थे, पर, चूंकि दोनों धर्मों के लोगों का हमेशा अलग रहना असंभव था, इसलिए वे पास आए और परस्पर संपर्क के कारण एक-दूसरे से प्रभावित हुए।” (वही, पृष्ठ 35)

दूसरे अध्याय ‘किंवदंतियों में कबीर का जीवन’ में केइ ने उन किस्से-कहानियों के बारे में जानकारी दी है, देश के अलग-अलग हिस्सों में सुनी-सुनायी जाती रही हैं। महत्वपूर्ण यह है कि केइ ने इन किंवदंतियों को अपने उस शोध का हिस्सा क्यों बनाया? इस सवाल का जवाब वह इस तरह देते हैं कि “यह देखते हुए कि किंवदंतियां इतनी अविश्वसनीय हैं, कोई भी उनकी पूरी तरह उपेक्षा कर सकता है। किंतु इसके बावज़ूद कि कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी उनमें मौज़ूद हो सकते हैं, कबीरपंथ की सही जानकारी के लिए यह जानना ज़रूरी है कि कबीर के अनुयायी उनके बारे में क्या मानते हैं।” (वही, पृष्ठ 38) 

केइ की उपरोक्त टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इतिहास का अध्ययन केवल उन घटनाओं का अध्ययन नहीं है, जो कि पूर्व में लिखित हैं। भारतीय समाज में अब भी बहुत कुछ है जो अलिखित है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। यदि कोई भारतीय समाज को जानना-समझना का आकांक्षी है तो उसे अलिखित साहित्य को खारिज नहीं करना चाहिए। वैसे यह भी महत्वपूर्ण है कि समाज में कबीर की कोई एक छवि नहीं थी। वह जितना संत थे, जितना विचारक थे, उतने ही वे साहित्यकार भी थे। इसके अलावा यह भी देखा जाना चाहिए कि अपने समय में कबीर जिन सिद्धांतों को खारिज कर रहे थे, वे राजनीतिक कारणों से कुछ कमजोर अवश्य थे, लेकिन उनके प्रभाव में कोई कमी नहीं आयी थी। हालांकि धर्म के रूप में इस्लाम का प्रभाव बढ़ रहा था और हिंदुओं में इस बात को लेकर खलबली मची थी। इसलिए ऐसे हालात में कबीर पर दावे को लेकर विवाद तो होना ही था। यह कबीर के बनारस से मगहर जाने के प्रसंग में और उनकी मृत्यु के प्रसंग में साफ-साफ दिखाई देता है। 

इतिहास के लिहाज से किताब का तीसरा अध्याय ‘इतिहास के कबीर’ भी खासा दिलचस्प है। अध्याय के प्रारंभ में ही लेखक केइ कहते हैं कि “कबीर के वृतांत, किंवदंतियों के साथ इतने मिश्रित हो गए हैं कि उनके जीवन की वास्तविक कहानी को उनसे अलग करना किसी भी तरह आसान नहीं है। फिर भी यदि हमें उस व्यक्ति को और उसके महत्व को समझना है, तो प्रयास करने ही होंगे।” (वही, पृष्ठ 57)

केइ जब कबीर से संबंधित इतिहास बताते हैं तो वे किंवदंतियों और पूर्व से उपलब्ध तथ्यों पर समग्रता से विचार करते हैं। वे तार्किक ढंग से इतिहास बताते हैं। जैसे वे कहते हैं कि “कबीर के जन्म का पारंपरिक वर्ष 1398 ई. है, और कहा जाता है कि वे 1518 ई. तक जीवित रहे। उनकी मृत्यु की तारीख़ संभवत: सही है और उसका तथ्यों के साथ मेल भी सही बैठता है; परंतु उनके जन्म की तारीख़ बहुत पहले की प्रतीत होती है। इसके पीछे कबीर का संबंध रामानंद से जोड़ने की इच्छा हो सकती है; क्योंकि कहा जाता है कि रामानंद की मृत्यु लगभग 1410 ई. में हुई थी, तब कबीर की उम्र बारह वर्ष की रही होगी। हालांकि, यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि रामानंद का जन्म लगभग 1400 ई. में हुआ था और वह धार्मिक नेता के रूप में, लगभग 1430 ई. से ई. तक सक्रिय रहे। इसलिए, यदि कबीर लगभग 1440 ई. में पैदा हुए, जैसा कि कहा जाता है, और लगभग 1455 ई. में, जब उनकी आयु पंद्रह वर्ष की थी, रामानन्द के शिष्य हुए, तो अपनी मृत्यु के समय यानी 1518 ई. में वे 78 वर्ष के वृद्ध व्यक्ति रहे होंगे। नानक 1469 ई. से 1538 ई. तक जीवित रहे थे, इस तरह वह कबीर से 29 वर्ष छोटे होंगे, जो सही लगता है। सुल्तान सिकंदर लोदी ने 1488 ई. से लेकर 1512 ई. तक शासन किया और 1495 ई. में वह जौनपुर गया था। ये तारीख़ें भी कबीर के जीवन से मेल खाती हैं।” (वही, पृष्ठ 59)

इसलिए यह पुस्तक कबीर को पढ़ने वालों के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण सामग्रियां उपलब्ध कराती है। हिंदी मेंआमतौर पर कबीर के संबंध उनके पदों का पाठ उनकी व्याख्या और कबीर के काव्य में सामाजिकता जैसे शीर्षक पर साहित्य मिलते हैं। पहली बार इस पुस्तक में कबीर, कबीर का साहित्य, कबीरपंथ पर शोधपरक जानकारी है। यह जानकारियों को इतिहास के साथ रखकर उसे कालखंड की कसौटी पर कसती है और आकलन करती है। इस क्रम में केइ द्वारा कबीर के साहित्य का विश्लेषण भी महत्वपूर्ण है। ‘कबीर का साहित्य’ अध्याय में एक जगह वह कहते हैं कि “कबीर के पदों में प्रयुक्त भाषा अस्पष्ट और लगभग हमेशा कठिन है। बोलियों, मुहावरों और वाक्यों की गूढ़ संरचना में श्लेष की पुनरावृत्ति से कठिनाई और भी बढ़ जाती है। कबीर द्वारा प्रयोग किए गए अनेक शब्द अब विलुप्त हो चुके हैं; और उनका व्याकरण भी ठीक नहीं है।” (वही, पृष्ठ 83) 

केइ ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि वास्तव में कबीर के पदों में इस तरह की तकनीकी समस्याएं सामने आती हैं। हालांकि कबीर स्वयं अपनी बोली के बारे में कहते हैं– 

“मेरी बोली पूरबी, ताइ न चीन्है कोई।

मेरी बोली सो लखै, जो पूरब का होई।” (वही)

फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित इस अनूदित पुस्तक को पढ़ते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि जिस दौर में लिखी गई और जब हिंदी में इसका अनुवाद प्रकाशित किया गया है, दोनों के बीच करीब नब्बे साल का अंतर है और इस दौरान कबीर पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। यदि हम समालोचनाओं की ही बात करें तो उन्हें अलग-अलग खांचों में बांटकर देखने की कोशिश भी गई है। इस लिहाज से भी यह पुस्तक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कबीर को निरपेक्ष तरीके से मूल्यांकन करने में मदद करती है। इस क्रम में ‘कबीरपंथ का इतिहास और संगठन’ अध्याय एक उदाहरण है। इसे लिखने के लिए लेखक ने विस्तृत यात्राएं की है और क्षेत्रीय आधार पर संगठन और उसके व्यवहार की जानकारी भी दी है। ऐसी जानकारी हिंदी में पूर्व के पुस्तकों में इस विस्तार के साथ शायद ही आया हो। इस अध्याय में बनारस शाखा और छत्तीसगढ़ के शाखा की गुरु के गद्दीनशीन होने का क्रम कालखंड के साथ दिया गया है। विभिन्न गुरुओं से कालखंड को जोड़ने का भी प्रयास किया गया है। मूल रूप से कबीरपंथ में कबीर के उपदेश से अलग व्यवहार भी मिलता है। अगले अध्याय ‘कबीरपंथ का साहित्य’ कबीरपंथ और उसके इतिहास को और भी विस्तृत रूप में व्याख्यायित करती है। दोनों ही अध्याय एक-दूसरे के पूरक हैं। 

इसमें संकलित अन्य अध्याय भी जमीनी जानकारियों से समृद्ध हैं। यह किताब वर्तमान में कबीर के उपर समग्र अध्ययन की एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति करती है। इसके लिए कंवल भारती और फारवर्ड प्रेस बधाई के पात्र हैं।

समीक्षित पुस्तक : कबीर और कबीरपंथ

लेखक : एफ. ई. केइ

अनुवादक : कंवल भारती

प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली

मूल्य : 200 रुपए (अजिल्द)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

संयुक्ता भारती

तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, बिहार से पीएचडी डॉ. संयुक्ता भारती इतिहास की अध्येता रही हैं। इनकी कविताएं व सम-सामयिक आलेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

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