हिंदी जनक्षेत्र के अप्रतिम कवि दिनेश कुशवाह की कविताओं के परिसर में प्रवेश करना भारतीय समाज के विभिन्न समुदाय की ऐतिहासिक सभ्यताओं और उसके सघन प्रेम की वास्तविक अनुभूतियों की एक विशद यात्रा करने जैसा है। उनका काव्य सृजन एक तरफ जहां हिंदी कविता को उच्चता के आसन पर ले जाता है, वहीं दूसरी तरफ उसकी चौहद्दी का विस्तार करता है। वह अपनी कविताओं में जीवन को संपूर्णता में पेश करते हैं। इस संपूर्णता का घोषित लक्ष्य मनुष्य की गरिमा और प्रेम को स्थापित करना है। अक्सर उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि जैसे मानवीय प्रेम का कोई सोता फूट निकला हो। इस प्रेम के सोते में मनुष्य की न सिर्फ गरिमा निखरती है, बल्कि उसे अपनी अस्मिता का इतिहास बोध भी होता है।
वास्तव में दिनेश कुशवाह की चार दशकीय रचना-यात्रा के उत्पाद ‘इसी काया में मोक्ष’ और ‘इतिहास में अभागे’ उनके दो महत्वपूर्ण कविता संग्रह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। गौर से देखा जाए तो उनकी कविताएं वंचित समुदाय की आंतरिक और धार्मिक असमानताओं की संरचना के कारणों और त्रासदियों की शिनाख़्त कर वंचना के प्रतिकार को विमर्श देती हैं। इन कविताओं की भूमि पर उतरा प्रतिरोध इतना मारक और तीक्ष्ण है कि हमारी समूहिक चेतना को झनझना कर रख देता है।
देखा जाए तो अस्मितावादी साहित्य के उभार ने हिंदी जनक्षेत्र की दिशा और दशा बदल कर रख दी है। सबाल्टर्न दलित, ओबीसी या आदिवासी साहित्य के उभार से साहित्यिक विधाओं के ढांचे में एक नयापन आया। इस साहित्यिक धारा ने जन-समस्याओं को शब्दों के घटाटोप से ढंकने के बजाय यथार्थवादी रुख अपना कर सीधे और सरल शब्दों में भारतीय समाज की आंतरिक संरचना की गुत्थियों को सामने रखने का प्रयास किया। दिनेश कुशवाह अपने समकाल पर बड़ी सघन और पैनी दृष्टि रखने वाले कवि हैं। उनकी अनेक कविताओं में राष्ट्र और देश निर्माण की प्रक्रिया से दरकिनार कर दिए गए नागरिक समूह को नायकतत्व प्रदान करने की बात की गई है। ‘इतिहास में अभागे’ कविता इसका अप्रतिम उदाहरण है।
दरअसल, वंचित समुदाय की ज्ञान संपदा और उसकी बौद्धिकता के विविध संदर्भों को इतिहास और संग्रहलयों का हिस्सा तथाकथित सवर्ण नियंताओं द्वारा बनने ही नहीं दिया गया। यह कविता बताती है कि इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों और समाज विज्ञानियों की बौद्धिक चालाकियों ने किस तरह दलित-पिछड़े समुदाय को साहित्य और इतिहास से बेदखल कर दिया। दिनेश कुशवाह अपनी इस कविता में सवर्ण अग्रदूतों से बड़ा मारक सवाल करते हैं कि “वे अभागे कहीं नहीं है इतिहास में/ जिनके पसीने से जोड़ी गई/भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट..।” शायद ही कवि के इस मारक सवाल का जवाब भारत के बौद्धिकों के पास होगा।
दिनेश कुशवाह अपनी कविताओं में इतिहास और राजनीतिक बिडंबनाओं को बड़े ही सलीके से उद्घाटित करते हैं। साथ ही, इतिहास की भूलों और चूकों को सार्वजनिक करने में एक कवि के तौर पर वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी का निर्वाहन भी करते हैं। यह कविता केवल भारतीय बौद्धिकों के काइयांपन को ही रेखांकित नहीं करती हैं, बल्कि स्त्रियों और वंचित समाज पर किए गए सामंती अत्याचार का भी पर्दाफाश करती है। वास्तव में देखा जाए तो दिनेश कुशवाह सच्चे अर्थों में इस कविता के हवाले से इतिहास की दुखती नब्ज पकड़कर भारतीय समाज का पुर्जा-पुर्जा खोल देते हैं। सामंती क्रूरताओं और उसके इतिहास का चित्रण जिस तरह इस कविता में हुआ है, उसे देखकर कोई भी संवेदनशील नागरिक अपने अतीत पर गर्व करने से बचेगा।
मेरी समझ में इतिहास बोध और सामाजिक अनुभव किसी भी रचनाकर की अमूल्य निधि होती है। दिनेश कुशवाह के रचना संसार से गुजरते हुए लगता है कि वह इतिहास और अनुभव बोध के सजग कवि हैं। मेरा विनम्र दावा है कि सजग कविताएं बिना अनुभव और इतिहास बोध के संभव नहीं है। इतिहास बोध केवल अतीत का स्मरण नहीं हो सकता है। वह भविष्य को इतिहास के प्रति सजग भी करता है। दिनेश कुशवाह की एक खूबी यह भी है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य की तहों में जाकर भारतीय समाज की त्रासदियों और पाखंड को उजागर करते हैं। उनकी कविताओं में ऐसी कई भारतीय समाज की दृश्यावलियां उभर कर आती हैं, जो साहित्य और इतिहास के पन्नों में गायब हैं। मसलन, उनकी कविता ‘बहेलियों को नायक बना दिया’ का पाठ करेंगे तो इतिहास और साहित्य का एक दुर्लभ सच उद्घाटित हो जाएगा। इतिहास को अब तक देखने का जो नज़रिया विकसित हुआ, इसके विपरीत यह कविता इतिहास को पढ़ने और देखने की अपील अपने पाठकों से करती है। वंचित समुदाय के इतिहास और साहित्य के भीतरी पन्नों पर उपस्थिति का दायरा कितना संकुचित और एक पक्षीय है, इसका अंदाज़ा इस कविता से भलीभांति लग जाता है। यह कविता भारत के बौद्धिकों से तर्क करती है–
क्षमा करें आदि कवि!
आजतक एक भी बहेलिया
नहीं हुआ अप्रतिष्ठित।
शिकारी राजा को अक्सर ऋषि
शाप नहीं देते
राजा हैं, जंगल हैं
राजा और जंगल दोनों हैं
इसलिए अजगर हैं।
कभी भूख के विरुद्ध
लुटेरे की भूमिका निभा चुके
आपसे अधिक कौन जानता है
उन कवियों के बारे में
जिन्होंने बहेलियों को नायक बना दिया।
जाल में चिड़िया फंसाने वाले
या जाल में मछ्ली मारने वालों को
व्याध कहना भुखमरों पर ज्यादती होगी
महाराज!
क्षमा करें आदिकवि!
आप से अच्छा कौन जानेगा
उन लोगों के बारे में
जो शिकार को खेलना कहते हैं।

ऐसा नहीं है कि दिनेश कुशवाह केवल सामाजिक रूढ़ियों की आलोचना प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताओं में अलौकिक सत्ता के प्रति विद्रोह भी है। वह अपनी एक चर्चित कविता में ईश्वर को सबसे बड़ा बहेलिया होने का दावा भी करते हैं। इसके पीछे कवि का तर्क है कि दीन-हीनों को सताकर/ मारने वाले उसके कृपापात्र। कविता का सीधा सवाल है कि ईश्वर वंचित और उत्पीड़ित लोगों के साथ न्याय क्यों नहीं करता है? इसी क्रम में उनकी एक मारक कविता ‘ईश्वर के पीछे’ का जिक्र करना उचित रहेगा। यह दिनेश कुशवाह की एक लंबी कविता है। यह कविता न सिर्फ ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देती है बल्कि उसकी आड़ में फैले आडंबर के कारोबार से दुनिया जहान को सचेत भी करती है। कवि का दावा है कि ईश्वर के अदृश्य होने का सबसे ज़्यादा लाभ पोथाधारी वर्ग उठाता है। वह इस बात को प्रचारित करते रहते हैं कि ईश्वर कण-कण में मौजूद है। इस बात पर यकीन करने वाले लोग सबसे ज़्यादा पोथीधारियों की ठगी का शिकार बन जाते हैं। कविता के अंतिम हिस्से में इस बात की ओर इशारा किया गया है कि ईश्वर सिर्फ पुजारियों और पोथीधारियों के लिए एक व्यवसाय और आमजन के शोषण का औज़ार है। यह कविता तर्क करती है कि ईश्वर शक्तिशाली लोगों पर क्यों कभी प्रहार नहीं करता। यथा–
ईश्वर की सबसे बड़ी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता
समान रूप से सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान
प्रभु प्रेम से प्रकट होता है
पर घिनौने बलात्कारियों के आड़े नहीं आता
अपनी झूठी कसमें खाने वालों को
लूला-लंगड़ा-अंधा नहीं बनाता
आदिकाल से अपने नाम पर
ऊंच-नीच बनाकर रखने वालों को
सन्मति नहीं देता
नेताओं की तरह
उसके आस-पास धूर्त, छली और पाखंडी लोगों की भीड़ जमा है।
दिनेश कुशवाह की कविताओं में स्त्री-संघर्ष की बहुविध दृश्यावलियां उभरकर सामने आती हैं। वह अपनी कविताओं के हवाले से समाज में स्त्रियों की स्थिति और उपस्थिति को बड़ी शिद्दत से पेश करते हैं। उनकी कविताएं इस बात की तसदीक करती हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी यह सभ्य समाज स्त्रियों की बौद्धिकता के प्रति सहज नहीं हो पा रहा। ऐसे लोग अब भी स्त्रियों को पितृसत्ता की दिवारों के बीच कैद देखना चाहते हैं। इस विषय पर दिनेश कुशवाह ने ‘महिला सरपंच के निर्वासन घुमाए जाने पर’ शीर्षक एक बड़ी मार्मिक कविता लिखी है। यदि गौर से देखा जाए तो यह कविता जहां एक तरफ स्त्रियों पर मढ़ी गई पुरुषतंत्र की तोहमतों और अफवाहों के विरुद्ध तीक्ष्ण आलोचनात्मक रुख अख्तियार करती हैं, वहीं दूसरी तरफ सामंती और मर्दवादियों के ज़ुल्मों की तहों का पर्दाफाश बड़ी बेबाकी से करती हैं। दिनेश कुशवाह स्त्रियों के चरित्र को लंक्षित करने वाले पितृसत्तावादी मर्दतंत्र को अपनी कविता में ‘निर्लज्ज लोगों’ की संज्ञा देते हैं। उनकी यह कविता स्त्री के श्रम को न सिर्फ गरिमा से देखती है बल्कि उनके श्रम के सौंदर्य को मानव सभ्यता के विकास में सबसे बड़ा योगदान मानती है। वे इस कविता की अंतिम पक्तियों में कहते हैं– कि “स्त्री की आंखों से ही बचा है धरती का पानी।” पितृसत्ता भारतीय समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है। इसकी त्रासदी ने स्त्रियों की अस्मिता और गरिमा दोनों को खंडित किया है। पितृसत्ता की संरचना स्त्रियों के प्रति कितनी घातक और विनाशकारी है, इसका सटीक चित्रण ‘हर औरत का एक मर्द है’ कविता में देखने को मिलता है। यह मर्दवादी तंत्र अपनी छवि स्त्री के सामने ज्ञानी, पंडित, महात्मा, सदाचारी और दयालु के तौर पर गढ़ता आया है। दिनेश कुशवाह की यह कविता मर्दवादियों की सदाचारी और दयालु छवि और उनकी फितरत को उघाड़ कर रख देती है। यह कविता जैसे ही स्त्री परिसर में प्रवेश करती है, वैसे ही स्त्री विरोधियों की मानसिकता का विकृत चेहरा उघड़ कर सामने आने लगता है।
दिनेश कुशवाह की कविताओं का ज़्यादातर सरोकार हाशियकृत समुदाय के साथ है। उच्च श्रेणी के हिंदू समाज का आचरण दलितों के प्रति उदार नहीं रहा है। हिंदुओं की उच्च श्रेणी वाली मानसिकता का आलम यह है कि अब भी वह दलित नागरिक समूह और उसकी बौद्धिकता को सम्मान की दृष्टि से देखने का आदी नहीं है। साहित्य और इतिहास के आईने में देखा जाए तो ऐसे विरले ही क्षण होंगे जब किसी दलित की ज्ञान, संपदा और उसके योगदान के विविध संदर्भों को सम्मान की दृष्टि से देखा गया होगा। उच्च श्रेणी हिंदुओं की मनोवृति अपने आचरण में दलितों के प्रति कितनी दुराग्राही है, इसका बेबाक चित्रण ‘हरिजन देखि प्रीत अति बाढ़ी’ कविता में किया गया है। यह कविता हिंदू मनोवृति का रेशा-रेशा उघाड़ कर रख देती है। कविता तर्क करती है कि राम नाम का जप करने वाला यह उच्च श्रेणी का समाज जैसे ही किसी दलित व्यक्ति के नाम के आगे-पीछे लगा राम का नाम सुन लेता है, वैसे ही वह ‘छी! छी! राम’ का उचारण करने लगता है। यथा–
पर जब सुना किसी का नाम
आगे पीछे लगा है राम
जैसे राम सजीवन राम या बाबू जगजीवन राम
राम नाम की माला फेंकी
मुंह से निकला छी! छी! राम।
बात इस कविता में आए उस शब्द पर की जाए जिसका विरोध दलित चिंतक अस्मितावादी लेखक औपनिवेशिक दौर से करते आए हैं। औपनिवेशिक भारत के विलक्षण दलित चिंतक और कवि स्वामी अछूतानंद हरिहर ने गांधी द्वारा प्रदत्त इस शब्द का प्रयोग दलित समाज के लिए अपमानजनक बताया था। यहां तककि आज़ादी के दलित साहित्यकारों ने अपने शब्दकोश में गांधी द्वारा दिए गए इस शब्द को स्वीकार नहीं किया। कविता के शीर्षक में आया गांधी का यह शब्द एक अच्छी कविता के ताप को काम कर देता है।
दिनेश कुशवाह की कवि दृष्टि का फलक बहुत विस्तृत है। उनकी कविताएं एक मानवीय दर्शन और समरूप दुनिया के निर्माण के लिए संकल्पित प्रतीत होती हैं। भारतीय दर्शन को चुनौती देने का उनमें एक बौद्धिक साहस भी है। ‘इसी काया में मोक्ष’ एक व्याकुलित मन की नहीं बल्कि सजग व्यक्ति के प्रेम-दर्शन की कविता है। कविता में मोक्ष की कामना किसी अलौकिक सत्ता या शास्त्र की कसौटी पर नहीं, बल्कि लौकिक प्रेम के सम्मिलन में देखी गई है। प्रेम की संमपूर्णता में ही मनुष्य का दर्शन निखरता है। यह अकारण नहीं है कि इस कविता का नायक प्रेम की निश्छलता में अपनी काया की मुक्ति की तलाश करता है–
बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूं
कैसा होता है मन की सुंदरता का मानसरोवर
छूना चाहता हूं तन की सुंदरता का शिखर
मैं चाहता हूं मिले कोई ऐसा
जिससे मन हज़ार बहानों से मिलना चाहे।
‘खुजराहो में मूर्तियों के पयोधर’ कविता दिनेश कुशवाह की वर्षों की अनुभूतियों का नतीजा है। खुजराहों की मूर्तियों पर इतनी दुर्लभ दृष्टि से लिखी गई शायद ही कोई दूसरी कविता हिंदी साहित्य में होगी। अपने अनूठे और विलक्षण शिल्प, बिंब, कथ्य और शब्दों की रवानगी से दिनेश कुशवाह ने मानो फिर से खुजराहों की मूर्तियों को सजीव बना दिया है। वास्तव में यह कविता अपने अद्भुत शिल्प से खुजराहों की मूर्तियों को देखने की हमारी पारंपरिक अवधारणाओं को तोड़कर, एक नया सलीका और नज़रिया प्रदान करती है। यथा–
मनुष्य का सबसे मुलायम अनुभव
छेनी और हथौड़ियों से तराशा गया है
जैसे बलखाती नदी का जल
हौले-हौले गढ़ता है शालिग्राम
कलेजे से लगाकर शिलाखंड।
कलाकार हाथों ने पत्थरों में जड़ दिये हैं
नवनीत के बड़े-बड़े लोने
कि वे सदा वैसे ही बने रहें
न ढलें, न गलें
प्रगाढ़ आलिंगनों से अक्षत
इतने उदग्र ऐसे उद्धत
जैसे संसार भर में बननेवाली रंग-बिरंगी चोलियां
पांव पोंछने के लिए हों।
दिनेश कुशवाह की कविताएं भारतीय समाज के ताना-बाना को समझने में हमारी मदद करती हैं। उनकी कविताओं के कैनवस में दलित, स्त्री और हाशियकृत समुदाय के विमर्शों की विभिन आहटें और पदचापें सुनाई देती हैं। उनके यहां सामुदायिक विमर्श की ये आहटें समकालीन प्रतिक्रियाओं और फ़ौरी घटनाओं के दबाव में नहीं, बल्कि उनकी चिंतन अनुभूतियों का सहज नतीजा हैं। गहन अनुभूतियों और दुर्लभ सामाजिक यथार्थ से निर्मित कविताओं का विमर्श समय के अनुकूल मानी ग्रहण कर लेता है। विभिन साहित्यकारों, लेखकों और मित्रों को संबोधित कर लिखी गई कविताओं में एक खास तरह का सौंदर्य झलकता है। इन कविताओं में उभरा विमर्श इतना मारक और मार्मिक है कि जड़ तत्व और उसके पाखंड को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। इस समय में जब कविता को नारों और मुहावरों में तब्दील कर उसके अर्थ और कथ्य के ताप को कमजोर कर सतहीपन की ओर ठेल दिया गया हो, ऐसे समय में दिनेश कुशवाह की कविताएं और अधिक प्रासंगिक लगने लगती हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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