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बहस-तलब : जबरन विवाह, नस्लभेद और जातिभेद आधुनिक गुलामी के मुख्य हथियार

आज के दौर में पेरियार की बातें इसलिए भी सही साबित हो रही हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिसे जबरन विवाह कहा जाता है, वह हमारी संस्कृति का हिस्सा है और यहां सिविल मैरिज करनेवाले तो बहुत कम लोग होते हैं। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा दासता के संबंध में हाल ही में एक रपट जारी की गई है। इसमें बताया गया है कि दुनिया भर में ‘आधुनिक गुलामी’ से लगभग पांच करोड़ पचास लोग प्रभावित हैं। गुलामी या दासता के प्रमुख कारणों मे बताया गया है– जबरन मजदूरी या बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, यौन शोषण और जबरिया विवाह या बिना सहमति के विवाह।

बताते चलें कि संयुक्त राष्ट्र के ‘मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स’ कार्यक्रम के तहत विकास संबंधी लक्ष्य की प्राप्ति की समयसीमा 2015 में पूरा होने के बाद ‘सस्टेनेबुल डेवलपमेंट गोल्स’ कार्यक्रम की समयसीमा को पंद्रह सालों यानी 2030 तक के लिए निर्धारित किया गया है। इसमेें आधुनिक दासता से संपूर्ण मुक्ति का लक्ष्य भी शामिल है। महत्वपूर्ण यह कि बालश्रम और बच्चों की दासता से मुक्ति के लिए 2025 की समयसीमा निर्धारित है। 

इस बीच आईएलओ की रिपोर्ट यह कहती है कि कुल गुलामी का 27.6 प्रतिशत बंधुआ मजदूरी या बेगारी है। पिछले साल पूरे विश्व में 2 करोड़ 20 लाख लोगों का विवाह जबरन उनकी इच्छा के विरुद्ध करवाए गए। इनमें करीब डेढ़ करोड़ लोग एशिया और पेसिफिक में रहने वाले हैं। 

यह रिपोर्ट बताती है कि 86 फीसदी शोषित लोग निजी या असंगठित क्षेत्र में हैं। तेइस प्रतिशत लोग यौन हिंसा का शिकार होते हैं। रिपोर्ट के अनुसार विनिर्माण, निर्माण कार्य, कृषि क्षेत्र और घरेलू काम इत्यादि क्षेत्रों मेंसबसे ज्यादा गुलामी है, क्योंकि इन असंगठित मजदूरों से संबंधित कोई भी काम कोई लिखित कानूनों के तहत नहीं है। 

इस रिपोर्ट का एक पहलू यह है कि इसमें ‘जबरन विवाह’ के सवाल को बेहद महत्वपूर्ण तरीके से उठाया गया है और 2021 में 2 करोड़ 20 लाख लोगों के विवाह जबरन कराए जाने की बात आई जो 2016 के मुकाबले मे करीब 66 लाख अधिक थी। सबसे अधिक शिकार महिलाएं हुईं, जिनकी संख्या 1 करोड़ 42 लाख है। इनमें 14.5 प्रतिशत अफ्रीकी महिलाएं, 10.4 प्रतिशत यूरोप और मध्य एशिया की महिलाएं शामिल हैं। अरब देशों में प्रति एक हजार की आबादी के लिहाज से 4.8 महिलाएं जबरन विवाह का शिकार हैं, जो कि सबसे अधिक है। 

आईएलओ की रिपोर्ट के अलावा एक और रिपोर्ट अभी प्रकाश में आई है, जो संयुक्त राष्ट्र के विशेष रेपोर्टियार द्वारा ह्यूमन राइट्स काउंसिल के विशेष अधिवेशन में जेनेवा में प्रस्तुत की गई। इसमें बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी, जबरन विवाह आदि के प्रश्नों को महत्वपूर्ण बताया गया है। आईएलओ की रिपोर्ट ज्यादा तकनीकी है, लेकिन स्पेशल रेपोर्टियार की रिपोर्ट में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा गया है, जो बेहद महत्वपूर्ण है। जैसे भारत और दक्षिण एशिया मे जातिभेद का प्रश्न, अमेरिका, यूरोप आदि देशों मे नस्लभेद का सवाल और ये सभी प्रश्न दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ ऐतिहासिक अन्याय से जुड़े हुए हैं। 

आत्मसम्मान आंदोलन की परंपरा के अनुसार एक शादी के मौके पर पेरियार

हालांकि जातिभेद और नस्लभेद के प्रश्न सीधे-सीधे गुलामी से जुड़े हुए हैं, लेकिन जबरन विवाह का प्रश्न बार-बार इन वैश्विक मंचों पर सामने आ रहा है। दरअसल इंग्लैंड और अन्य विकसित देशों में तो जबरन विवाह पर रोकथाम के लिए कानून भी बने हैं, लेकिन एशिया की अधिकांश देशों और समाजों मे महिलाओ की स्थिति बेहद खतरनाक और चिंताजनक है और उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने की भी कोई आजादी नहीं है। 

भारत के संदर्भ में देखे तो विवाह नामक संस्था जाति की सर्वोच्चता को बचाए और बनाए रखने का सबसे बड़ा साधन है और इसीलिए लोग अपनी अपनी जातियों मे ही विवाह करना चाहते है। इधर प्रेम विवाहों का प्रचलन बढ़ा भी है, लेकिन उनकी स्वीकार्यता बहुत कम है। अधिकतर वे लोग, जो अब आर्थिक तौर पर सफल माने जाते हैं, वे ऐसे विवाह कर रहे हैं। ऐसे माहौल में जातियों का मतभेद अधिक नहीं है। ऐसे लोगों के विवाह बनते और बिगड़ते भी रहते हैं। इस श्रेणी में सेलिब्रटीज और कुलीन सेवा के अधिकारी भी आते हैं। 

मतलब यह कि जब आपकी अर्थव्यवस्था बदलती है तो वहां फिर आपका स्टैटस देख कर ही विवाह हो जाता है। लेकिन इन सबके बावजूद भी महिलाओं को आजादी से निर्णय लेने का अधिकार आसानी से हासिल नहीं होता। 

भारत मे आजादी के बाद महिलाओं को सबसे बड़ी ताकत संसद मे हिंदू कोड बिल के पारित होने से मिली। हालांकि इसे भी टुकड़े-टुकड़े में पारित किया गया था, क्योंकि सभी पार्टियों के हिंदू और मुसलमान सांसद इस विषय पर एकमत हो गए थे। उन्होंने इसका विरोध करना शुरू किया था। कांग्रेस के बड़े नेताओं, जिनमें सर्वप्रथम तो राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे, पूरी तौर पर इस बिल के विरोध मे थे। उन्होंने इस बिल को यह कहकर खारिज कर दिया था कि यह हमारी संस्कृति और परिवार व्यवस्था को खत्म कर देगा। डॉ. आंबेडकर पूरे घटनाक्रम से बेहद दुखी हुए थे और उनके नेहरू की कैबिनेट से त्यागपत्र देने का यह भी एक प्रमुख कारण था। हालांकि अन्य कारण भी थे। 

हकीकत यह भी है कि विवाह संस्था जातिवाद और पितृसत्ता को बचाए रखने का एक बहुत बड़ा कारण भी थी और आज तक भारत में महिलाओं द्वारा अपने निर्णय स्वयं से लिए जाने के प्रश्न आसानी से स्वीकार नहीं होते, जिस कारण नए युवक-युवतियों को अक्सर हिंसा का सामना करना पड़ता है। 

अभी कुछ दिनों पूर्व ही उत्तराखंड के अलमोड़ा जिले से ऐसे खबर आई थी, जिसमे एक ऊंची जाति की लड़की ने निम्न जाति के एक लड़के से विवाह कर लिया। उनकी इस शादी को लड़की की मां की सहमति प्राप्त थी, क्योंकि उसने भी दूसरी शादी की थी और जानती थी कि उसके सौतेले पिता और भी उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेंगे। लेकिन इसके बावजूद सभी ने मिलकर उस लड़के की हत्या कर दी, जो उस क्षेत्र से दो बार विधान सभा का चुनाव लड़ चुका था। 

ऐसी घटनाएं केवल किसी एक राज्य विशेष में हों या किसी एक जाति विशेष में हो, ऐसा नहीं है। शादी के मामले में हमारे यहां महिलाओं व पुरुषों द्वारा स्वयं निर्णय लेना उनके परिवारों और समाजों को आज भी एक चुनौती ही लगती है। यानि विवाह को संविधान या कानून का नहीं, एक व्यक्तिगत मामला बनाकर जातिगत श्रेष्ठता और पितृसत्ता का केंद्र बना दिया गया। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार देश भर मे 25 मामले ‘ऑनर किलिंग’ के हुए है, जो असल में बहुत कम बताए गए हैं। ‘आउट्लुक’ पत्रिका की एक रपट में एक स्वैच्छिक संगठन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए तमिलनाडु राज्य में 2014-2019 तक 195 मामले सामने आने की बात कही गई। बाकी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, आदि राज्यों से खाप और जातीय पंचायतों के फरमान और उसके बाद प्रेमियों की हत्याओ की अनेक घटनाए सामने आई हैं। इधर ‘इंडिया टूडै’ पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद मे जानकारी देते हुए बताया कि 2017 से 2019 तक देश में ऑनर किलिंग की 145 घटनाएं हुई हैं, जिसमें झारखंड राज्य में ही 50 मामले आए। 

दरअसल सरकारों के पास कोई ठोस जानकारी नहीं है। वैसे भी ‘लव जेहाद’ का पूरा मामला केवल और केवल युवाओ को एक-दूसरे से दोस्ती करने से बचने के लिए था, ताकि कोई भी अंतर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाह न हो। दरअसल विवाह भारत में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का खेल है, जो केवल सवर्णों में ही हो, जरूरी नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि अपितु पिछड़ों और दलितों मे भी बहुत अधिक है। इसका एक कारण यह भी है कि अधिकांश सामाजिक क्रांतिकारी’ दूसरे समाजों से ‘लड़ने’ के लिए हमें तैयार कर रहे हैं और समाज के अंदर की विषमताओ पर कोई चर्चा नहीं होती। ऐसी विषमताओं को घर के अंदर का प्रश्न कहकर नजरअंदाज कर दिया जाता है। आज इस प्रकार की घटनाए तमिलनाडु जैसे राज्य में ज्यादा होती है तो यह उस राज्य के द्रविड आंदोलन की एक हकीकत को भी बयान करती है कि ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर इकट्ठा होना आसान है, लेकिन समुदायों के अंदर एक-दूसरे को बराबरी की भावना से देखना बहुत मुश्किल है। शायद हम अभी तक लोगों को केवल और केवल एक ‘दुश्मन’ से लड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं और इस बात को भूलते जा रहे हैं कि बहुत बार ये दुश्मन परंपराओं और संस्कृति के रूप में हमारे अंदर ही मौजूद हैं। 

इसीलिए यह समझना भी जरूरी है कि पेरियार ने तमिलनाडु में आत्मसम्मान का जो आंदोलन चलाया, वह सांस्कृतिक भी था और उसने आत्मसम्मानी शादी के रूप मे लोगों को एक सार्थक विकल्प दिया। 

महिलाओ के प्रश्न पर अपने दौर मे पेरियार सबसे अधिक क्रांतिकारी थे। विवाह को लेकर पेरियार के विचार आज भी बहुत सार्थक और क्रांतिकारी हैं। पहले तो उन्हें विवाह शब्द से आपत्ति रही, जिसे वह पितृसत्ता का प्रतीक मानते थे, क्योंकि महिला का ‘कन्या दान’ बराबरी का प्रतीक नहीं। आखिर कोई व्यक्ति अपनी बेटी का ‘दान’ कैसे कर सकता है? 

पेरियार ने वृंदावन, बनारस और कोलकाता केआश्रमों में रह रहीं विधवाओ की स्थिति को देखा था। इन विधवाओं में वे लड़कियां भी होती थीं, जिनके विवाह को एक साल भी नहीं होता था, क्योंकि उनकी जबरन शादिया होती थीं। कई बार ताे तब जब उनकी उम्र 10 वर्ष के आसपास होती थी और उनकी शादीतीन-चार गुना अधिक उम्र वाले पुरुष से कर दी जाती िाी। ऐसे लोगों से जबरन शादी के बाद जब वह विधवा होतीं तो उन्हें तिरस्कार के अलावा कुछ नहीं मिलता था। 

पेरियार ने कहा कि ऐसे में जब किसी को ‘शादी’ का मतलब ही नहीं पता, उनकी जबरन शादी करवाकर हमें क्या प्राप्त हुआ? बाल विवाह के विरुद्ध जितनी ताकत और वैचारिकता के साथ पेरियार ने जो कहा, वैसा किसी और विचारक ने नहीं कहा। 

पेरियार चाहते थे कि विवाह एक अच्छी दोस्ती के बाद हो जब दो लोग एक-दूसरे के विचारों को अच्छे से समझ सकें और उनके अंदर एक-दूसरे के प्रति न केवल प्रेम हो, बल्कि वे एक-दूसरे के अच्छे दोस्त भी हों। 

पेरियार ‘पहली नजर में प्यार’ को नहीं मानते थे, क्योंकि उनका कहना था कि ऐसा किसी विचारधारा में नहीं होता, अपितु पूरी तरह से शारीरिक आकर्षण या सेक्सुअल आकर्षण के कारण होता है और पेरियार विवाह को मात्र सेक्स तक ही सीमित नहीं रख देना चाहते थे। 1939 मे पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुदी आरसू’ में कहा कि “यदि एक पुरुष वाकई में अपनी पत्नी से प्रेम करता है तो अपनी पत्नी की खुशी और अच्छे स्वास्थ्य के लिए उसे परिवार ‘नियोजन’ के नए तरीके अपनाने होंगे।” पेरियार ने विवाह के उस ‘विचार’ को नकार दिया जो महिला को बच्चे पैदा करने और परिवार की सेवा करने तक सीमित करते हैं। 

पेरियार कहते हैं कि महिलाओ को संपति मे बराबरी की हिस्सेदारी मिलनी चाहिए और जब तक ऐसा नहीं होगा ‘पुरुषार्थ’ नामक विचार खत्म नहीं होगा, महिलाओं को आजादी नहीं मिल सकती। उनके मुताबिक ये सभी शब्द पुरुष सत्ता के प्रतीक हैं, जिन्होंने महिलाओं को गुलाम बनाया है। 

आज के दौर में पेरियार की बातें इसलिए भी सही साबित हो रही हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिसे जबरन विवाह कहा जाता है, वह हमारी संस्कृति का हिस्सा है और यहां सिविल मैरिज करनेवाले तो बहुत कम लोग होते हैं। जो थोड़े बहुत लोग ऐसा करने की हिम्मत करते हैं, वे पृथक हो जाते हैं या कर दिये जाते हैं। 

आखिर हमारे यहा ऐसी व्यवस्था क्यों है, इसे समझने के लिए हमें डॉ. आंबेडकर के उस विचार को समझना पड़ेगा कि भारत मे अभी भी हम ‘व्यक्ति’ नहीं बन पाए हैं। जिस दिन हम व्यक्ति के अधिकारों और उसका सम्मान करना शुरू कर देंगे, तो उसकी चाहत को भी स्वीकार करेंगे। विवाह हमारे यहा एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति की चाहत से अधिक उसके माता-पिता और अन्य रिश्तेदारों की ‘इज्जत’ जुड़ी हुई है। ‘महिला’ इज्जत का प्रतीक है और उसकी चाहत का सवाल अंत में आता है। 

जब विवाह दो व्यक्तियों की चाहत से अधिक एक सामाजिक सवाल बन गया तो हमें अपनी हैसियत की चिंता ज्यादा होती है। ऐसे में विरोध करने के नतीजे खतरनाक होते हैं। विवाह पुरुषवादी जातीय सत्ता का प्रतीक है, इसलिए तथाकथित अन्तर्जातीय विवाहों मे स्त्री पक्ष हमेशा अपने को ‘लुटा’ हुआ मानता है, क्योंकि हमारे देश में व्यक्ति के वैयक्तिक्ता का प्रश्न अभी भी हाशिए पर है और व्यक्तिगत रूप से ‘सफल’ लोग ही अपने निर्णय स्वयं ले पाते हैं तथा अधिकांश लोगों को अपने कार्यों के लिए ‘समाज’ की मुहर लगानी पड़ती है। 

यही कारण है कि जिंदगी भर क्रांतिकारिता का ढोल पीटते हुए भी विवाह के समय हम उन रस्मों पर चलने मे कोई गुरेज नहीं करते, जिनका विरोध करते आए हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि ‘समाज’ और ‘जाति’ हमारी सबसे बड़ी पूंजी है और इनसे विरोध कर वही जी सकता है, जिसे इनकी जरूरत नहीं है। यह स्थिति तब भी नहीं आती जब आप व्यक्तिगत तौर पर आर्थिक रूप से बहुत सबल हों और अलग रहकर ‘वैयक्तिक’ जीवन व्यतीत कर सकते हैं। ऐसी संभावनाएं न के बराबर हैं और हम उसी जाल में फंसे रहते हैं, जिसका विरोध राजनैतिक तौर पर करते हैं। इस अंतर्विरोध से लड़ने के लिए तो फुले जैसा सत्यशोधक बनना पड़ेगा या डॉ. आंबेडकर के धम्म के मार्ग को अपनाना होगा या फिर पेरियार के स्वाभिमानी विवाह के मॉडल का पालन करना होगा। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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