अभी हाल में देश के सबसे अग्रणी कहे जाने वाले चिकित्सा संस्थान अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान (एम्स, दिल्ली) के बारे में एक संसदीय कमेटी की रपट सामने आई। सांसद डा. किरीत प्रेमजी भाई सोलंकी के नेतृत्व वाली संसदीय कमेटी ने विशिष्ट संस्थानों में जातिगत भेदभाव के आरोपों की जांच की है। इस कमेटी की रपट में एम्स की कार्यप्रणाली और पिछड़े वर्गों (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के प्रोफेसरों व इन वर्गों के छात्र-छात्रओं के साथ भेदभाव की तीखी आलोचना की गई है।
कमेटी के मुताबिक, उसने पाया है कि इन वर्गों के विद्यार्थियों को परीक्षाओं में बार-बार फेल किया जाता है। इतना ही नहीं, जब अध्यापकों की भर्ती का सवाल आता है तो आरक्षित सीटें इस तर्क के आधार पर छोड़ दी जाती हैं कि उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिले। जबकि कई बार यह भी पाया जाता है कि इन स्थानों पर पहले ही तदर्थ श्रेणी में इन वंचित तबकों के डॉक्टर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। कमेटी ने अपनी जांच में पाया कि एम्स, दिल्ली में मौजूद 1,111 पदों में से असिस्टेंट प्रोफेसरों के 275 पद और प्रोफेसर श्रेणी के 92 पद खाली हैं।
रपट में यह भी कहा गया है कि अगर एम्स, दिल्ली की तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में बने एम्स को देखें, तो हमें यह पता लगता है कि वहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए आरक्षित 15 फीसदी तथा 7.5 फीसदी सीटें पूरी तरह कभी भर नहीं पातीं। वास्तविकता यह है कि इनमें प्रवेश लेने वाले छात्र-छात्राओं को किसी न किसी बहाने छांट दिया जाता है। रपट के मुताबिक सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के छात्रों को सुपर स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों में प्रवेश नहीं मिल पाता, क्योंकि उनमें आरक्षण का प्रावधान नहीं रखा गया है। इसका नतीज़ा यह है कि ऐसे पाठ्यक्रमों में ऊंची जातियों का दबदबा बना रहता है।
सामान्यतया माना जाता है कि डाक्टर जाति-धर्म से ऊपर होते हैं। लेकिन यह कहना सही नहीं है। जाति प्रथा के आधार पर ऊंच-नीच की भावना की मौजूदगी आज भी है। यह भी सत्य है कि अन्य सभी क्षेत्रों की तरह ही चिकित्सा क्षेत्र भी जातिगत भेदभाव की समस्या से ग्रस्त है।

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के छात्रों के लिए सामाजिक संघर्ष के दौरान यह मैंने करीब से देखा था। उन दिनों मेडिकल कॉलेज में जूनियर डॉक्टरों के संगठन में ज्यादातर पिछड़े और दलित वर्ग के ही थे। कई बार धरना-प्रदर्शन करते हुए अन्य सामान्य छात्र उन्हें घृणा से “आरक्षण वाले चमारों का संगठन” कहते थे। उन्हीं दिनों एक दलित छात्र ने आत्महत्या भी कर ली थी। लेकिन इस मामले को मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने यह कह कर दबा दिया कि वह छात्र नशा करने का आदी थी और अधिक डोज लेने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। जो इस मामले का सच जानते थे, उन छात्रों को यह धमकी देकर चुप करा दिया गया कि उन्हें परीक्षा में फेल कर दिया जाएगा। ऐसी घटनाएं आजकल देश भर के मेडिकल कॉलेजों में आम हैं, लेकिन इनमें से कुछ ही सामने आती हैं।
दरअसल, संसदीय कमेटी की रपट में एम्स की कार्यप्रणाली को लेकर एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही गई है कि आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के छात्र-छात्राओं ने लिखित परीक्षा में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। लेकिन प्रायोगिक परीक्षाओं में उन्हें बहुत कम नंबर दिये गये। इसकी वजह यह कि लिखित परीक्षा में उन्हें स्वयं अर्जित किये गये ज्ञान के आधार पर लिखना होता है जबकि प्रायोगिक परीक्षा में उनका साबका ऊंची जाति के प्रोफेसरों के साथ पड़ता है। संसदीय कमेटी के मुताबिक यह अनुसूचित जाति / जनजाति छात्रों के साथ सीधे-सीधे पूर्वाग्रह का मामला है।
आरक्षित तबकों के छात्र-छात्राओं के साथ ज़ारी भेदभाव को रेखांकित करते हुए कमेटी ने यह सिफारिश भी की है कि छात्रों का मूल्यांकन उनके नाम को गुप्त रखकर किया जाए। इतना ही नहीं फैकल्टी के पदों पर एससी, एसटी और ओबीसी के उम्मीदवारों की नियुक्ति को समय सीमा में तय कर लिया जाए तथा संस्थान की जनरल बॉडी में भी इन वर्गों के सदस्यों को शामिल किया जाए। साथ ही यह भी कि सफाई कर्मचारी, ड्राइवर आदि कामों को आउटसोर्स न किया जाए।
संसद के तीस सदस्यीय कमेटी द्वारा तैयार की गई यह रपट उच्च शिक्षा संस्थानों में आज भी कायम संस्थागत भेदभाव की एक और निशानी है। यह रिपोर्ट एम्स के संचालकों या वे सभी जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का काम संभाल रहे हैं, उन्हें इसकी कार्यप्रणाली में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव लाने के लिए प्रेरित करेगी या नहीं, यह अभी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। यद्यपि इस संबंध में अतीत के अनुभव बहुत निराशाजनक रहे हैं।
अगर हम कमेटी के अवलोकनों और सिफारिशों पर गौर करें तो हमें करीब डेढ़ दशक से पहले संस्थान की कार्यप्रणाली को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर हुए हंगामों को याद करना होगा। तब वर्ष 2006 में जब एम्स, दिल्ली के अंदर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के छात्रों के साथ हो रही भेदभाव की घटनाओं पर अनुसूचित जाति राष्ट्रीय आयोग को दखल देना पड़ा था और इस मामले की जांच की जिम्मेदारी प्रोफेसर सुखदेव थोराट के नेतृत्व में एक कमेटी को दी गई थी।
उन दिनों संस्थान के अंदर की स्थितियों के बारे में अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ में 5 जुलाई, 2006 को प्रकाशित रपट में हम देख सकते हैं। किस तरह एम्स, दिल्ली के छात्रावास के कुछ क्षेत्र अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए अभिशाप बन गए थे। इन छात्रों ने बताया था कि ऊंची जाति के छात्रों द्वारा उन्हें बाकी बचे कमरों से खदेड़ा जा रहा है और उन्हें दोमंजिलों तक ही सीमित किया जा रहा है। अख़बार के संवाददाता ने एक अनुसूचित जाति के छात्र के कमरे के दरवाज़े पर कुछ लिखा देखा, जिसमें उसे चेतावनी दी गई थी कि छात्रावास के इस विंग से भाग जाओ। अनुसूचित तबकों के इन छात्रों ने संवाददाता को यह भी बताया कि अगर उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ़ शिकायत की, तो उन्हें फेल कर दिया जाएगा। प्रोफेसर थोराट की अगुवाई में बनी इस कमेटी ने छात्रों की बात बिलकुल सही पाया तथा सुधार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें भी कीं। हालांकि एम्स, दिल्ली के प्रशासन ने उनके सुझावों को अमल करने योग्य नहीं माना।
लेकिन सवाल उठता ही है कि क्या एम्स, दिल्ली की ये घटनाएं अपवाद मानी जा सकती हैं? वर्ष 2006 में जब एम्स, दिल्ली की घटनाएं सुर्ख़ियों में थीं, तब उससे कुछ समय पहले दिल्ली के ही गुरु तेग बहादुर अस्पताल में अनुसूचित जाति तथा गैर-अनुसूचित जाति के छात्रों के बीच चले तीखे विवाद का मसला अख़बारों की सुर्ख़ियों में बना था। तब यह देखा गया था कि इन वंचित तबकों के छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव तो होता ही है, साथ ही साझा मेस में इन तबकों के लिए अलग मेज-कुर्सियां भी रखी जाती हैं। इस संबंध में शहर के अन्य जनतांत्रिक संगठनों के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के छात्र को लंबा संघर्ष करना पड़ा था।
विडंबना यह है कि संस्थान प्रशासन के एक हिस्से से भी इन उच्च जाति के छात्रों को संरक्षण मिल रहा था। जिन दिनों प्रोफेसर सुखदेव थोराट कमेटी की रपट को एम्स प्रशासन द्वारा स्वीकार न करने की बात आ रही थी, उससे कुछ समय पहले ही केन्द्र सरकार के अधीन संचालित एवं दिल्ली में स्थित वर्धमान मेडिकल कॉलेज में पिछड़े वर्गों तथा अनुसूचित तबकों के छात्रों के साथ जारी भेदभाव पर संयुक्त समिति की रपट में इसकी पुष्टि हुई थी (भास्कर 14 फरवरी, 2011, ‘बीएमएमसी में पिछड़े वर्ग…’)। इसमें बताया गया था कि किस तरह फिजियोलॉजी विभाग में पिछड़े वर्ग के छात्रों को जानबूझकर कम अंक प्रदान किए गए। छात्रों की शिकायत पर एम्स, दिल्ली और लोकनायक जयप्रकाश नारायण मेडिकल कॉलेज (एलएनजेपी) के विशेषज्ञों की कमेटी डॉ. एल. आर. मुर्मू की अध्यक्षता में बनाई गई थी। इस कमेटी ने पाया कि पिछले पांच साल में उस विभाग में फेल होने वाले सभी छात्र एससी, एसटी और पिछड़े वर्ग से हैं। कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार एक छात्रा को एक अंक से एक-दो बार नहीं बल्कि तीन-तीन बार फेल किया गया है। इन पिछड़े और अनुसूचित तबके के जिन छात्रों को फेल किया गया, उन्होंने अन्य विभागों की परीक्षा में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था तथा मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी उन्हें उच्च स्थान मिला था। इस रिपोर्ट के एक साल बाद मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर भालचंद मुंगेकर की जांच में इन आरोपों को बिलकुल सही पाया और इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें भी कहीं।
अपनी रपट में मुंगेकर कमेटी ने जाति के आधार पर भेदभाव करने के लिए अधिकारियों और प्रबंधन की आलोचना की। साथ में यह भी कहा कि ऐसे लोगों के खिलाफ़ अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमे चलाए जाने चाहिए तथा प्रबंधन की भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण जिन छात्रों को नुकसान उठाना पड़ा है, उन छात्रों को दस-दस लाख रूपए मुआवजा भी मिले।
इन्हीं कारणों से कई बार यह देखने में आता है कि कई छात्र इस घुटन और भेदभाव को बर्दाश्त नहीं कर पाते और मौत को गले लगा लेते हैं। वर्ष 2010 में बाल मुकुंद भारती नामक मेडिकल छात्र ने आत्महत्या की, जो एम्स, दिल्ली में पढ़ रहा था। अगले साल ही इसी संस्थान में अनिल मीणा ने मौत को गले लगा लिया। वर्ष 2019 में पायल तड़वी की आत्महत्या सोशल मीडिया में छाई रही। उसकी आत्महत्या ने भी ऐसे ही सवालों को हमारे सामने प्रस्तुत किया था, जब उसे स्नातकोत्तर पढ़ाई के दौरान अपनी सहपाठियों के हाथों उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था।
(संपादन : नवल/अनिल)
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