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आंखों-देखी : दलित-बहुजनों में बढ़ रहा पितरों को सुख पहुंचाने का अंधविश्वास

समाज विज्ञानी अभी तक हमें यही बताते आये हैं कि आर्थिक संपन्नता के बाद ही व्यक्ति अपने संस्कृतिकरण की दिशा में अग्रसर व प्रयासरत होता है। फाफामऊ पुल के नीचे मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि जो जजमान बनकर आए हैं, वे किन-किन जातियों से हैं और उनका आर्थिक आधार क्या है। पढ़ें, सुशील मानव की यह रपट

गत 25 सितंबर, 2022 को हिंदू कैलेंडर के मुताबिक आश्विन महीने के कृष्णपक्ष की अमावस्या की तिथि थी। इस दिन खासकर ब्राह्मण व अन्य ऊंची जातियों के लोग गंगा व अन्य नदियों के किनारे जाकर अपने पितरों (पुरखों) के लिए पिंडदान करते हैं। इसके लिए वे पंडा-पुरोहित को पैसा, अनाज व महंगा धातू आदि का दान देकर उनसे पिंडदान की प्रक्रिया को संपन्न कराने का अनुरोध करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ब्राह्मण धर्म में मान्यता है कि उनके ऐसा करने से उनके पुरखों को लाभ मिलेगा। इसलिए आश्विन मास का पहला पखवारा पितृपक्ष (पितर पाख) के तौर पर जाना जाता है। इसकी नवमी तिथि को मातृ नवमी और अमावस्या तिथि को पितृ-विसर्जन के तौर पर जाना जाता है। यहां पूर्वांचल के गांव-देहात में बच्चे इसे दाई-बबा की विदाई का त्योहार कहते हैं।

खैर, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के फाफामऊ पुल से घाट तक जाने वाले रास्ते के दोनों तरफ पत्तल, पिंडा बनाने का सामान, आदि बेचने वाले भी अपनी अपनी दुकान सजाये बैठे दिखे। छ्यूल (ढाक, पलाश) के पत्तल पांच रुपए की दर से बिक रहे थे। मुझे सोरांव के उन मुसहरों की याद हो आई, जो दो दशक पहले तक ढाक के पत्तों से पत्तल बनाकर बेचते थे और इससे उनके परिवार का गुज़ारा चलता था। लेकिन प्लास्टिक व थर्मोकोल की रेडिमेड थालियों ने उनकी रोटी-रोजी छीन ली। वहीं दूसरी ओर पवित्रता के आग्रह के साथ छ्यूल के पत्तल अभी भी मृतकों से जुड़े कर्मकांड में अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। 

पुल के दोनों ओर कतार लगाकर बैठे सैंकड़ों नाई लोगों (जजमानों) के सिर के बाल छिल रहे थे। पुल से नीचे घाट का नज़ारा भी इससे अलग नहीं था। पुल से जगह-जगह काले सफेद बालों का ढेर नज़र आ रहा। घाट पर भी सैकड़ों नाई भी इसी काम में व्यस्त दिखे। घाट पर ही तमाम पंडे-पुरोहित एक साथ कई जजमानों को पिंडदान करा रहे थे। पुल पार गंगा दूसरे तट के घाट पर तो सैंकड़ों जजमानों को एक लाइन में बिठाकर पुरोहित माइक से मंत्र बोल रहे थे और सैंकड़ों जजमान एकसाथ सामूहिक पिंडदान कर रहे थे। यह तकनीकी विकास की देन है वर्ना एक समय तो एक पुरोहित द्वारा एक बार में एक ही जजमान को पिंडदान संपन्न कराने का विधान होता था। 

मेरे आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र वहां जजमान की शक्ल में मौजूद तमाम वर्ण की देह वाले लोग रहे। यहां कम से कम दर्ज़न भर दुधहारे (दूधवाले) अपनी साइकिल में बंधे दूध पात्र के साथ खड़े थे। ये लोग शहर में दूध बेचने के बाद गंगा घाट पर पितरों का पिंडदान करने आये थे। कुछ अभी घाट पर सिर मुड़ा रहे थे। शिवपुरी गांव के हरिशंकर यादव से मैंने पूछा कि क्या यादव समाज भी पिंडदान करता है तो उन्होंने बताया कि हमारे समाज में होता है। बाप-दादा को करते देखता आया हूं। अब वे लोग नहीं हैं तो मैं उनका पिंडदान कर रहा हूं। लेकिन जिस तरह से आज समय बदल रहा है पूरे दावे के साथ नहीं कह सकता कि जब मैं नहीं रहूंगा तो मेरेबच्चे मेरा पिंडदान करेंगे या नहीं करेंगे। 

हरिशंकर यादव ने आगे कहा कि जिन लोगों ने हमें जन्म दिया, हमारी परवरिश की, अपना नाम, अपना कुल अपनी संपत्ति दी, उनके प्रति हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है ना? फिर उन्होंने कहा कि जैसे हम देवी-देवताओं की पूजा करते हैं कि वे लोग खुश रहें और हमारे ऊपर अपना आर्शीवाद बनाये रखें, वैसे ही माता-पिता भी मरने के बाद दूसरे लोक चले जाते हैं और देवता स्वरूप बन जाते हैं। इसीलिये तो उन्हें पितृदेव कहते हैं। उनका कहना था कि साल के 365 दिन में 15 दिन पितरों का है। उनके लिये जो विधि विधान है, उसके मुताबिक जैसा बन पड़ा है कर रहें। वे खुश होंगे तो हमें आशीर्वाद देंगे। फिर वे सवाल भी पूछते हैं कि पुरखों के आशीष के बिना कोई कुछ कर सकता है क्या? 

प्रयागराज में फाफामऊ पुल के नीचे गंगा नदी के किनारे पिंडदान की तैयारी करते लोग और उन्हें देखता एक ब्राह्मण पुरोहित (तस्वीर : सुशील मानव)

गौरतलब है कि समाज विज्ञानी अभी तक हमें यही बताते आये हैं कि आर्थिक संपन्नता के बाद ही व्यक्ति अपने संस्कृतिकरण की दिशा में अग्रसर व प्रयासरत होता है। फाफामऊ पुल के नीचे मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि जो जजमान बनकर आए हैं, वे किन-किन जातियों से हैं और उनका आर्थिक आधार क्या है। इसके लिये ज़रूरी लगा कि मैं हर एक व्यक्ति से सवाल पूछूं कि वह किस जाति-बिरादरी से हैं? इसके लिये मैं सबसे पहले मुस्कुराते हुए उनका अभिवादन करता और फिर सवाल पूछता। पिंडदान के बाद एक पंडे को द्रव्य (दक्षिणा) व अन्नदान करके फारिग हुए एक व्यक्ति से अभिवादन के बाद मैंने पूछा कौन बिरादरी हो भाई। उसने दो टूक कहा– हिंदू हूं। मुझे तआज्जुब हुआ उसका जवाब सुनकर। ऐसे सवालों के जवाब में अक्सर ग्रामीण समाज के लोग अपनी जाति बताते हैं, धर्म नहीं।

ख़ैर मैंने उससे दोबारा पूछा कि किस बिरादरी के हो भाई तो उसने प्रतिप्रश्न किया ‘क्यों’। मैंने उसे समझाने की कोशिश करते हुए कहा कि मैं पत्रकार हूं और यह जानना चाहता हूं कि आज पितरों का उत्सव मनाने पिंडदान करने गंगा घाट पर किन-किन जातियों के लोग आए हैं। फिर उसने सहज भाव में बताया कि उसका नाम प्रदीप कुमार भारतीय है। मैंने पूछा कि आप करते क्या हैं, माने आजीविका कैसे चलाते हैं। उसने बताया कि वो गांव-गांव साइकिल से फेरी लगाकर दाल बेचता है। मैंने अगला सवाल किया कि कितना कमा लेते हैं आप दिन भर में। उसने जवाब में बताया कि एक दिन में 200-300 रुपए कमा लेता है। फिर मैंने उससे पूछा कि आज के पिंडदान कार्यक्रम में कितने दिन की कमाई गई। उसने मुस्कुराते हुए कहा कि बस एक दिन की कमाई, और फिर उसने हिसाब दिया कि 30 रुपये नाई ने लिये। पंडित परिचित हैं तो उनको 51 रुपए दक्षिणा दिया। करीब 100 रुपए पिंडदान के लिए जरूरी सर-सामान ख़रीदने में लगे। बाक़ी 100 रुपए का किराया भाड़ा। मैंने पूछा क्या बच्चे भी कमाते हैं तो उसने बताया कि बच्चे अभी छोटे हैं। फिर मैंने मूल सवाल पूछा पिंडदान आदि तो ब्राह्मण, ठाकुर लोग करते थे। आप लोगों के लिये तो उन्होंने वेदमंत्र और मंदिर आदि निषिद्ध कर रखे थे। फिर ब्राह्मणवादी कर्मकांड में आप अपनी एक दिहाड़ी क्यों फूंक रहे हैं? जवाब में प्रदीप भारतीय ने कहा कि परंपरा है, निभा रहा हूं। 

मैंने दोबारा कहा कि यह दलितों-शूद्रों की तो परंपरा नहीं है न। यह तो ब्राह्मणों की परंपरा है। इस पर उसने कहा कि मैं चाहता हूं कि पिता व पूर्वजों को खुशी मिले, मुक्ति मिले, इसलिए कर लिया। मंदिरों वो नहीं जाने दे रहे थे वो जब की बात रही होगी तबकी रहे। हमारी पीढ़ी में तो कोई रोक-टोक नहीं तो कर रहे हैं। मैंने उनके साथ खड़े एक दूसरे व्यक्ति से पूछा कि जिन लोगों ने अभी तक आपको अछूत बनाये रखा, उन पंडों ने आपके हाथ को छुआ अन्न और द्रव्य कैसे ले लिया। इस पर मुस्कुराते हुए प्रदीप भारतीय ने कहा कि इसका जवाब तो वही दे सकते हैं। 

नाई से मूड़ मुड़वाते पैगंबरपुर के रामलाल पटेल गंगाघाट पर पितर का पिंडदान करने आए थे। पूछने पर बताते हैं कि मेरे गांव में सभी कुर्मी, कुशवाहा बिरादरी के लोग पितृपक्ष पर पिंडदान ज़रूर करते हैं। गांव से पटेल बिरादरी के दो लोग पिंडदान करने गया (बिहार) गए हैं। बता दें कि ऐसी लोकमान्यता है कि गया में पिंडदान किये बिना मृतक को मुक्ति नहीं मिलती है। तो पितृ-पक्ष में लोग पिंडदान करने के लिये गया जाते हैं और वहां से लौटने के बाद समय और सामर्थ्य के अनुसार ‘गया का भात’ का आयोजन करते हैं। 

बाल बनवाने के बाद गंगा स्नान करके पिंडदान के लिये जाते तुलसीराम जाटव से जब मैंने पूछा कि जाटव समाज के लोग मृतकों के लिये पिंडदान जैसी ब्राह्मणवादी कर्माकांड तो कभी नहीं करते थे, उनके लिए वर्जित था, यह सब करना? पिंडदान करने के लिये जनेऊदारी होना भी एक शर्त है, क्योंकि पिंडदान करते समय अपसभ्य (जनेऊ उल्टे कंधे पर चढ़ाना) होना होता है। इस पर तुलसीराम ने कहा कि मुझे नहीं पता जनेऊ का हिसाब-किताब। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूं कि घर-परिवार में कोई मरता है, विशेषकर अकाल मौत और उसे मुक्ति नहीं मिलती तो वो भूत प्रेत बनकर छिछियाता (भटकता) रहता है। साथ ही वह परेशान करता है। इससे तरक्की बाधित होती है। हमलोगों की तरक्की न होने का एक कारण यह भी रहा है कि हम अपने मृतक पुरखों का पिंडदान पहले नहीं करते थे। अब पिंडदान करके उन्हें मुक्ति दिलवा रहे हैं ताकि वो भी खुश रहें और यहां हम भी खुश रहें। तुलसीराम जाटव दिहाड़ी मजदूर हैं।

बहरहाल, यह पूरा दृश्य एक बानगी है कि किस तरह ब्राह्मणवादी ताकतें दलितों और पिछड़ों को अंधविश्वास के गहरे कुएं में धकेलते जा रहे हैं। उनके अंदर अपनी सांस्कृतिक चेतना का अभाव हो रहा है। क्या आज वे लोग, जो इनके नाम पर राजनीति करते हैं, वे इस विषय में कभी सोचना चाहेंगे?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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