जब वर्ष 2014 से भाजपा लगातार दो आम चुनाव में भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आई और जब आरएसएस के हिंदुत्व का एजेंडा लागू किया जाने लगा तब समाजशास्त्रियों, लेखकों व अनेक दलों के नेताओं ने इसे द्वितीय महायुद्ध के आसपास जर्मनी, इटली और स्पेन की तरह का फासीवाद-नाजीवाद बतलाया। नस्ल और जाति की शुद्धता तथा कथित जर्मन अंधराष्ट्रवाद के नाम पर लाखों यहुदियों को गैस चैंबर में डालकर मार डाला गया था। हालांकि जर्मनी, इटली और स्पेन में फासीवाद एवं नाजीवाद को अपेक्षाकृत इतना जनसमर्थन हासिल नहीं था, जितना आज भारत में भाजपा और संघ परिवार को मिला है, क्योंकि वे देश भारत की अपेक्षा आधुनिक समाज वाले देश थे। द्वितीय महायुद्ध में पराजय ने वहां फासीवाद और नाजीवाद की कमर तोड़ दी थी तथा आज इन देशों के लोगों में अपने अतीत के प्रति ग्लानि देखी जा सकती है। जर्मनी में आज हिटलर का कोई नामलेवा नहीं बचा है। वहां मारे गए लोगों के स्मारक और संग्रहालय हैं। यही हाल स्पेन और इटली में भी है। अमेरिका तक में उन लाखों अमेरिकी रेड इंडियन मूलनिवासियों की उस समय हत्या कर दी गई थी, जब उपनिवेशवादियों ने अमेरिका पर कब्ज़ा किया था। आज वहां मूलनिवासियों की संख्या बहुत कम रह गई है तथा उनके ऊपर हुए जुल्मों और नरसंहार के बड़-बड़े स्मारक एवं संग्रहालय बने हुए हैं। मूलनिवासियों को सरकारी-गैरसरकारी कारपोरेट तथा सरकारी ठेकों में आरक्षण की व्यवस्था है। वहां के समाज ने इन बातों को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया है।
अगर हम आज संपूर्ण विश्व में अमेरिकी बर्बरता देख रहे हैं, तो वह साम्राज्यवादी राजसत्ता की बर्बरता है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि इस बर्बरता को अमेरिकी समाज के एक तबके का समर्थन हासिल है। लेकिन वहां 11 सितंबर, 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद अमेरिका के अंदर वैसी सामाजिक बर्बरता देखने को नहीं मिली, जैसी गुजरात में दिखलाई पड़ी। यह कोई भी कह सकता है कि गुजरात में भी राजसत्ता का ही कारनामा था, लेकिन इससे पूरी सच्चाई बयां नहीं होती। अमेरिका की राजसत्ता भी वहां के समाज के अंदर ऐसे दंगे नहीं करवा सकती जिससे अमेरिकी मुसलमानों का क़त्लेआम हो। अमेरिकी राजसत्ता का अमेरिका के बाहर की बर्बरता को कुछ समर्थन ज़रूर हासिल है। लेकिन इसके मुकाबले अनगिनत जातिगत हिंसक घटनाएं, 1984 में दिल्ली में सिक्खों का नरसंहार अथवा 2002 में गुजरात दंगा या फिर बिहार में रणवीर सेना के गुंडों द्वारा किये गए डेढ़ दर्जन से अधिक नरसंहार आदि एक तरह की सामाजिक बर्बरताएं ही थीं, जिसे सियासी ताक़तों और राजसत्ता की शह मिली थी।
ऐसी राजनीतिक शह के पीछे भी समाज की सोच और बनावट का ही हाथ है। यहां दंगों के बाद वोट की फ़सल काटी जा सकती है, इसलिए भारत और अमेरिका के इन मिलते-जुलते दिखाई देने वाले मामलों की जड़ में एक बुनियादी फ़र्क है। सामाजिक बर्बरता के उदाहरण पश्चिमी समाजों में ख़त्म होते जा रहे हैं। वहां नस्लवाद अभी भी है। संस्कृतियों और समुदायों के बीच भेदभाव भी है, लेकिन वहां रवांडा, बोस्निया, भारत, यमन, इराक़ और लिबिया जैसे सामाजिक गृहयुद्धों और सामुदायिक क़त्लेआम के नमूने नहीं मिलते।

आज सामुदायिकता की तारीफ़ तथा आधुनिकता की आलोचना इस उत्तर-आधुनिक समय की मुख्य विशेषता बन गई है। आधुनिकता पर यह आरोप है कि उसने पुराने सामुदायिक जीवन को तहस-नहस करके समुदायों की जैविक संरचना को तोड़-फोड़कर उन्हें उद्योग बाज़ार और शहर की धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया, जिससे सामुदायिक जीवन का सारा रस जाता रहा। इस पूर्व-आधुनिक सामुदायिकता का रस किसके लिए मीठा था, यह सवाल अकसर पूछा तक नहीं जाता, जवाब तो बहुत दूर की बात है। गांधी रामराज्य और ग्राम-स्वराज की बात किया करते थे। गांवों की ज़िंदगी को सादगी, अच्छाई, मेहनत और इंसाफ़ का नमूना बताया करते थे। उनके लिए यह बड़ा मसला नहीं था कि उसी गांव में दलित को क्या जगह मिली है तथा छोटी जातियां किस तरह रहती हैं। डॉ. आंबेडकर ने यह सवाल उठाया था और भारत के गांव की बनावट को ही दलितों तथा अन्य निचली जातियों के खिलाफ़ बताया था और पूर्व-आधुनिकता को कटघरे में खड़ा किया था। वास्तव में सामुदायिकता का रस चंद लोगों के लिए मीठा था और बाकी लोगों के लिए बेहद कड़वा था।
आज भी भारतीय समाज के ज्यादातर हिस्से इस पूर्व-आधुनिक सामुदायिकता के बोझ तले दबे हैं, यदि देश के किसी कोने में पंचायत यह फ़ैसला सुनाती है कि जाति की सीमा लांघकर अपनी मर्ज़ी से शादी करने वाले दो नौजवान लोगों को पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी जाए, तो यह देश के केवल एक कोने की बात नहीं; इस तरह की सामुदायिकता पूरे देश में पसरी पड़ी है। जो लोग सामुदायिकता को अच्छी परंपरा मानते हैं, वे व्यक्ति पर होने वाले समुदाय के अत्याचार पर आंखें मूंद लेते हैं। वे एक समुदायिकता के द्वारा दूसरे प्रकार की सामुदायिकता पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मों से भी आंख मूंद लेते हैं। बात यही ख़त्म नहीं होती। जो समुदाय खुद दूसरे समुदाय के अत्याचार तले दबे हैं, वे भी अपने सदस्यों के व्यक्तिगत अधिकार छीन लेने के मामले में आततायी समुदाय से पीछे नहीं हैं। डॉ. आंबेडकर के हिसाब से कहें तो इसकी वजह परत-दर-परत जातिगत पदक्रम भी है। इन सबके कारण हमारे देश में व्यक्ति की जान बहुत सस्ती है। इस दुर्दशा की मोटी वज़ह उपनिवेश के ज़माने से लेकर आज तक के साम्राज्यवादी हुकूमत, प्रभुत्व और साजिशें बतलाई जाती हैं। यह सच्चाई का केवल एक ही हिस्सा है। इस यह पूरी सच्चाई नहीं है।
देश भर में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के नरसंहार तथा उनके साथ भेदभाव एवं गैरबराबरी से इतिहास भरा पड़ा है और कमोबेश यह आज भी जारी है। इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज जैसे आधुनिक शिक्षा संस्थानों तक में यह भेदभाव व्यापक रूप से पसरा हुआ है। क्या इस किस्म की दरिंदगी जातियों और समुदायों के सफाए की जड़ भी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में ही खोजी जानी चाहिए? या इस समाज की पूर्व-आधुनिक बनावट का भी इससे लेना-देना है? पूर्व-आधुनिक समाजों में नाइंसाफ़ी, गैरबराबरी और हिंसा के रिश्ते समाज के रग-रग में बसे होते हैं। अगर हिसाब लगाया जाए, तो परमाणु बम गिराए बगैर, हिटलर की तरह लाखों लोगों को गैस चैंबरों मारे बगैर पूर्व-आधुनिकता अधिक लोगों को मारती है, अधिक ज़ुल्म ढाती है और बेपनाह कहर बरपाती है।
भारत में जिस फासीवाद का उभार आज हम देख रहे हैं, उसकी जड़ें यहां के पूर्व-आधुनिक समाज में हैं। हमारे सम्पूर्ण सामाजिक ढांचे में फासीवाद आसानी से स्वीकार्य है। यही कारण है कि संघ परिवार की राजनीति आज भारतीय समाज में सफ़ल होती दिख रही है। देश के अधिकांश राजनीतिक दल किसी न किसी रूप में फासीवाद का समर्थन करते हैं। वामपंथियों तक ने कभी जाति व्यवस्था के खिलाफ़ गंभीरता से संघर्ष नहीं किया। आज भारत जैसे पूर्व-आधुनिक समाज के रग-रग में बसी हिंसा के खिलाफ़ व्यापक संघर्ष की जरूरत है। भारत के लिए सामाजिक आधुनिकता तक पहुंचना निहायत ज़रूरी है। इसके बिना इंसाफ़ तथा तरक्की दोनों की मुहिम नाकाम रहेगी और संघ परिवार के फासीवाद की जगह कोई दूसरा फासीवाद स्थान ग्रहण कर लेगा तथा सामाजिक पीड़ा निरंतर जारी रहेगी।
(संपादन : नवल/अनिल)
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