[प्रस्तुत आलेखांश जोतीराव फुले की चर्चित किताब ‘गुलामगिरी’ के छठे अध्याय का आंश है। इस अंश में जोतीराव धोंडिबा के साथ संवाद के दौरान मूलनिवासियों के नायक बाणासुर और ब्राहणवादियों के नायक वामन के बीच हुए संघर्ष का वर्णन करते हैं तथा बताते हैं कि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अमावस्या का दिन मूलनिवासियों के लिए जश्न का दिन था। साथ ही वे भैयादूज पर्व का महत्व भी बताते हैं]
बाणासुर ने वामन पर हमला बोला और उसे परास्त करके उसके पास जो भी था, वह सब छीन लिया और राज्य से बाहर खदेड़ दिया तथा हिमालय पर्वत पर जाने के लिए मजबूर किया। फिर पर्वत की तलहटी में उसने शिविर लगाकर वामन और उसके लोगों को अनाज की आपूर्ति बंद कर दी, जिससे उसके लोग भुखमरी से ही मरने लगे। इसकी चिंता से वामन का अवतार वहीं ख़त्म हो गया; वामन की मृत्यु हो गयी। विप्रों के बीच के एक बड़े उपाधी – मतलब वामन – के मरने से बाणासुर के लोग निश्चिंत हो गए कि अब उनकी पीड़ा दूर हो जाएगी। संभवतः इस उपाधी शब्द से विप्रों को उपाध्याय कहना शुरू हो गया होगा। आगे उन उपाध्यायों ने अपने-अपने परिवार के जितने लोग रणभूमि में जान गंवा बैठे थे, उनके नाम से चिताएं जलाईं (जिसे वर्तमान में होलिका दहन कहा जाता है) और उनका क्रिया-कर्म किया।
ऐसा पता चलता है कि उनमें पहले से ही शवों को जलाने का रिवाज़ था। उसी तरह बाणासुर और सभी क्षत्रियों[1] ने रणभूमि में मरे हुए उनके प्रियजनों का – फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष के पहले दिन पर नंगी तलवारों के साथ नाचकर – सम्मान किया। क्षत्रियों के बीच शवों को ज़मीन में दफ़न करने का रिवाज़ बहुत पहले से पाया जाता है। आखिर बाणासुर ने कुछ लोगों को वहां उपाध्यायों की रक्षा के लिए छोड़कर बाकी सभी सरदारों के साथ अपनी राजधानी की ओर प्रस्थान किया; वहां उन्होंने जो जश्न मनाया, उसका अगर हम वर्णन करने लगें तो ग्रंथ का काफ़ी विस्तार हो जाएगा। इसलिए सिर्फ उसका सारांश यहां दे रहा हूं।

बाणासुर ने अपने युद्ध में जीते हुए सारे धन को गिनकर आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के तेरहवें दिन उसकी पूजा की और कृष्ण पक्ष के चौदहवें दिन तथा महीने के तीसवें दिन या अमावस्या के दिन उसने अपने सरदारों को बढ़िया खाने की दावत देकर मौज मस्ती की। बाद में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के पहले दिन पर उसने अपने सरदारों को उनकी योग्यता अनुसार दान देकर उनको अपने-अपने क्षेत्र में जाकर काम करने का आदेश दिया। इससे सभी औरतें बहुत खुश हो गयीं और उन्होंने कार्तिक के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन अपने भाइयों को यथाशक्ति बढ़िया भोजन खिलाकर उनकी आरती उतारी और वही “बुराई और दुष्टता दूर रहे और बलिराजा का राज लौट आए” कहते हुए उन्हें भविष्य में आने वाले बलिराजा की याद दिलाई। तबसे लेकर आज तक हर साल दीपावली में भैयादूज के दिन क्षत्रियों की बेटियां अपने भाइयों को आनेवाले बलिराजा की याद दिलाना नहीं भूलतीं। लेकिन उपाध्यायों के बीच इस तरह का रिवाज़ बिलकुल नहीं पाया जाता।
(जोतीराव फुले, ब्राह्मणवाद की आड़ में गुलामगिरी, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 96-97 से उद्धृत)
[1] फुले की अवधारणा के अनुसार क्षेत्रीय मूलनिवासी शासकों के लिए एक उपाधि