मुलायम सिंह यादव (22 नवंबर, 1939 – 10 अक्टूबर, 2022) पर विशेष
किसान परिवार में जन्मे और पहलवान व शिक्षक रहे मुलायम सिंह यादव करीब तीन दशक तक देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश की राजनीति की धुरी थे। साथ ही वे राष्ट्रीय राजनीति को भी गहराई से प्रभावित करते रहे। गत 10 अक्टूबर, 2022 को उनका निधन हो गया। हालांकि राजनीतिक दृष्टिकोण से कहें तो उनका अवसान पांच साल पहले ही हो गया था। उनका मूल्यांकन राजनीतिक विश्लेषकों के लिए हमेशा एक कठिन पहेली रही है। वैसे भी इतिहास में व्यक्तियों से ज्यादा उन चालक शक्तियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जो इतिहास का संचालन करते हैं। मुलायम सिंह यादव का मूल्यांकन भी इसी दृष्टि से किया जाना चाहिए।
यह कहना अतिरेक नहीं कि उनका निधन उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति के एक युग की समाप्ति का सूचक है। उनका व्यक्तिगत जीवन और राजनीति अंतर्विरोधों से भरा हुआ था। वास्तव में उनके ये अंतर्विरोध भारतीय राजनीति और समाज के ही अंतर्विरोध थे। मुलायम सिंह यादव ने पांच दशक तक सक्रिय राजनीतिक जीवन जीया। उनका जीवन घटनाओं से भरा था। शुरुआत जितनी चमकदार और धमाकेदार थी, उसका अंत उतना ही दर्दनाक। करीब पांच साल पहले उनके बेटे अखिलेश यादव ने करीब तीन महीने तक चले पारिवारिक सत्ता संघर्ष के बाद उन्हें समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली थी।
राम मंदिर आंदोलन के चरम पर पहुंचने के दौरान वर्ष 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन करने वाले मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति के केंद्रक के रूप में देखा गया। उत्तर प्रदेश के सैफई गांव में जन्मे मुलायम सिंह यादव दस बार विधायक रहे और सात बार सांसद भी चुने गए। वे तीन बार (वर्ष 1989-91,1993-95, 2003-2007) उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और 1996-98 तक देश के रक्षामंत्री भी रहे। एक समय तो उन्हें प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में भी देखा गया था।
दरअसल, डॉ. राममनोहर लोहिया से प्रभावित होकर राजनीतिक सफ़र शुरू करने वाले मुलायम सिंह यादव समय-समय पर अनेक दलों से जुड़े रहे। इनमें राममनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और चौधरी चरणसिंह के भारतीय क्रांति दल, भारतीय लोकदल और समाजवादी जनता पार्टी भी शामिल है। उसके बाद 1992 में उन्होंने स्वयं अपनी पार्टी का गठन किया। इस संबंध में एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने या बचाने के लिए बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का भी साथ लिया।
मुलायम सिंह यादव जब सत्ता में आए तब वह समय था, जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में ऊंची जातियों व कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़कर दलित और पिछड़ों की नयी राजनीतिक शक्तियां बहुत दमखम से सत्ता पर अपनी दावेदारी ठोक रहीं थीं। वास्तव में यह प्रक्रिया डॉ. राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह के समय में ही शुरू हो गई थी, लेकिन यह प्रक्रिया उस समय कांग्रेसी वर्चस्व को तोड नहीं पाई। हालांकि उत्तर प्रदेश और देश में 1975 में देश में आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी को व्यापक पैमाने पर पिछड़े और दलितों ने समर्थन दिया, जिसके कारण 1977 में जब चुनाव हुए तब कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। दलित और पिछड़े वर्ग का प्रभाव ही था कि उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव और बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सरकार का गठन। हालांकि जनता पार्टी का कुछ ही समय में पतन हो गया और 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व कांग्रेस फिर सत्ता में वापस आ गई। लेकिन दलित-पिछड़ों की सत्ता में भागीदारी को रोकना असंभव था। मंडल कमीशन की ओबीसी के लिए आरक्षण संबंधी अनुशंसा लागू होने के बाद यह अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई। स्थिति यह बन गई थी कि कांग्रेस और भाजपा जैसे ब्राह्मणवादी दल भी दलितों-पिछड़ों की अनदेखी नहीं कर सकते थे। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर अनेक गुमनाम दलित-पिछड़े नेताओं को सत्ता के उच्च पदों पर पहुंचाया, जिनमें कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे नेता प्रमुख थे। अगर आज भाजपा मज़बूरी में ही सही दलित और आदिवासी समाज से आनेवाले लोगों को राष्ट्रपति तक बना रही है, तो इसके पीछे इन वर्गों की सत्ता में जबरदस्त दावेदारी थी और है, जिसे कोई नकार नहीं सकता।
दलित और पिछड़े उच्च जातियों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक धर्मनिरपेक्ष थे। यही कारण है कि जब दलित-पिछड़ों की राजनीति में भारी भागीदारी से भयभीत होकर भाजपा ने हिंदू कार्ड खेला, तब मुलायम सिंह यादव तथा लालू प्रसाद यादव इसके खिलाफ़ चट्टान की तरह खड़े रहे। 1990 में जब भाजपा द्वारा संचालित हिंदू उग्रपंथियों की भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद को ध्वस्त करने के लिए उस पर हमला बोला, तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने उनके ऊपर गोली चलाने का आदेश दिया था। इसमें अनेक चरमपंथी लोग मारे भी गए थे। इस घटना के बाद मुलायम सिंह यादव सवर्णों की अत्यधिक घृणा के शिकार भी हुए तथा उन्हें मुल्ला मुलायम तक कहा गया। यद्यपि उस समय कांग्रेस भाजपा के उभार को रोकने के लिए सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेल रही थी। यह इतिहास में दर्ज है कि बाबरी मस्ज़िद का ताला हिंदुओं के लिए खुलवाकर कांग्रेस ने भाजपा की मदद ही की, जिसके भयंकर दुष्परिणाम देश को आगे भोगने पड़े। इस घटना के बाद ही मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के सर्वमान्य नेता बन गए। आज अखिलेश यादव को अपने पिता की इसी छवि का लाभ मिल रहा है।
मुलायम सिंह यादव के मूल्यांकन में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं– पहला राजनीति में समाजवादी विचार और दूसरा जो सबसे महत्वपूर्ण है दलित-पिछड़ों की एकता का सवाल। उनकी राजनीतिक यात्रा लोहियावादी समाजवाद से शुरू हुई थी तथा वे पहली बार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट से विधायक बने थे। लोहियावादी समाजवाद की कुछ अपनी गहरी दिक्कतें थीं, उनका समाजवाद उस समाजवादी इंटरनेशनल पार्टी से जुड़ा था, जर्मनी में जिसके अध्यक्ष कार्ल काउत्स्की थे, जिन्होंने द्वितीय महायुद्ध में जर्मन राष्ट्रवाद के नाम पर हिटलर का समर्थन किया। उनका यह राष्ट्रवाद बहुत जल्दी अंधराष्ट्रवाद में बदल गया तथा इसने जाने-अनजाने में जर्मन फासीवाद की सेवा ही की। इसके भारतीय स्वरूप के नेता राममनोहर लोहिया भी समाजवाद तथा दलित-पिछड़ों की बात करते हुए पहले राष्ट्रवाद और बाद में अंधराष्ट्रवाद तक पहुंच जाते हैं। इसे डॉ. लोहिया के आलेख ‘राम, कृष्ण और शिव’ तथा रामायण मेलों की उनकी परिकल्पना से समझा जा सकता है।
लेकिन मुलायम सिंह यादव का मूल्यांकन एकदम से इसी प्रकार नहीं किया जा सकता। धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन तथा मुसलमानों के एकमात्र नेता होने के बावजूद उन्होंने भी राम के मुकाबले कृष्ण को खड़ा करने की कोशिश की। सैफई में कृष्ण की एक बड़ी मूर्ति भी बनाई गई। बाद के दौर में उन्होंने कल्याण सिंह के साथ भी एकता बनाई, जो बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के लिए जिम्मेदार थे। बाद के दौर में अमर सिंह और अमिताभ बच्चन जैसे विवादास्पद लोगों से उनके संबंध तथा समाजवादी पार्टी में कांग्रेसी अभिजात्य संस्कृति की शुरुआत की, जिसके वे कभी बहुत खिलाफ़ थे।
मुलायम सिंह यादव ने एक सपना देखा– दलित-पिछड़ों की एकता का सपना या यह कहना चाहिए कि बहुजन एकता का सपना। उन्होंने जब बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के बाद कांशीराम का साथ लिया तो उस समय यह नारा ही चल निकला– ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़े गए जय श्री राम’। जब दोनों ने मिलकर सरकार का गठन किया तब न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर के राजनीतिज्ञ विश्लेषक चौंक गए। यह सच है कि यह एकता उन्हें भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा नेता बना सकती थी तथा यह गठबंधन संभवतः आज के फासीवादी राजनीति को भी पीछे धकेल सकता था, लेकिन यह बहुत ही कम समय तक चल पाया। इसका पटापेक्ष विवाद से हुआ। कथित तौर पर गेस्टहाऊस कांड ने तो सपा-बसपा एकता की ताबूत में अंतिम कील ठोक दी।
वास्तव में आज भाजपा के फासीवाद का मुकाबला दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कोई बड़ा गठबंधन ही कर सकता है। दलित-पिछड़ों की सत्ता में भागीदारी को स्थायित्व प्रदान करने में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम, दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण थी, जो भारतीय इतिहास को नयी गति और दिशा दे सकती थी। लेकिन ऐसा न हो सका।
बहरहाल, भारतीय समाज में हजारों साल से ब्राह्मणवाद स्थायी रूप से अपनी जड़ें जमाए हुए है। दलित-पिछड़ों की राजनीति जब तक खुद भी इन प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं होगी तबतक भारतीय समाज और राजनीति की पीड़ा इसी तरह जारी रहेगी। इसके मद्देनजर मुलायम सिंह यादव को हमेशा संघर्ष के नायक के रूप में याद किया जाता रहेगा।
(संपादन : नवल/अनिल)
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