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यात्रा संस्मरण : वैशाली में भारत के महान अतीत की उपेक्षा

मैं सबसे पहले कोल्हुआ गांव गयी, जहां दुनिया के सबसे प्राचीन गणतंत्र में से एक राजा विशाल की गढ़ी है। वहां एक विशाल स्नानागार था। उस जगह और उसके आसपास की जगह को एएसआई ने घेर कर बोर्ड भी लगाया है, लेकिन वहां घुसते ही गेट पर कोई नहीं था। उस जगह पर कुछ लोग घास काट रहे थे और उसकी दीवारों पर कुछ लोग बैठे थे। बता रही हैं सविता पाठक

भारत में जिन आठ जगहों पर बुद्ध के अवशेष स्तूपों में सुरक्षित रखे गए हैं, उनमें बिहार के वैशाली जिले के कोल्हुआ नामक गांव का स्तूप भी एक है। प्रशासनिक दृष्टिकोण से यह जिला बिहार के तिरहुत प्रमंडल का हिस्सा है। 

यहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा लगाए गए एक शिलापट्ट पर दी गयी जानकारी मुताबिक, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के निकट कुशीनगर में मल्ल राजवंश द्वारा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरांत अंतिम संस्कार किया गया था। बुद्ध की अस्थि अवशेष को मगध के राजा अजातशत्रु, कपिलवस्तु (जो कि बुद्ध की पैतृक भूमि थी) के शाक्यों को, अलकप्पा के बुलियों को, रामग्राम (बुद्ध की मां से जुड़ा स्थल) के कोलियों को, वेठद्वीप के ब्राह्मणों को, पावा और कुशीनगर के मल्लों के साथ ही वैशाली के लिच्छवियों को स्मृति के तौर पर दिया गया। इस वितरण के साक्ष्य विभिन्न मूर्तियों में सुरक्षित हैं। 

प्राथमिक तौर पर यह मिट्टी से बना एक स्तूप था, लेकिन बाद में मौर्य वंश के शासकों द्वारा इसका विस्तार किया गया। कालांतर में विभिन्न अंग्रेज इतिहासकारों ने पूरे इलाके के ऐतिहासिक महत्व पर शोध किया और महत्वपूर्ण स्थलों के रूप में चिन्हित किया। वर्ष 1958 में काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना ने इस स्थान की विशिष्ट तौर पर खुदाई करवाई और उत्खनन के बाद यहां बुद्ध से जुड़े अनेक अवशेष सामने आए। इनमें एक पत्थर की टोकरी में रखीं वस्तुओं के अवशेष भी शामिल हैं। 

कुछ जगहें हमारी जेहन में अलग स्थान बना लेती हैं। तब जब मुझे पटना आने का आमंत्रण मिला तो लगा कि पटना नहीं पाटलिपुत्र बुला रहा है। गंगा का विशाल पाट और उसका समृद्ध रूप मेरे भीतर उतर गया। नक्शा खोल कर देखा तो पता चला कि वैशाली यहां से बमुश्किल 50-55 किलोमीटर दूर है। ‘आउटलुक ट्रैवेलर’ की पहली पंक्ति ‘वेलकम टू द फर्स्ट रिपब्लिक ऑफ द वर्ल्ड’ (विश्व के पहले गणतंत्र में आपका स्वागत है) किसी सपने की तरह कौंधी। 

बस अगले दिन वैशाली जाना ही था। यह वही स्थल है, जहां कभी बुद्ध ने घूम-घूम कर लोगों को जीवन का नया दर्शन दिया होगा। कहते हैं कि वे यहां तीन बार आये थे। आखिरी बार वह वृद्ध हो चुके थे। यहीं पर उन्होंने अपने भावी परिनिर्वाण के बारे में भी बताया था।

मेरे लिए ये यह वह जगह थी जहां बुद्ध को सोचना पड़ा कि इस विशाल जग में स्त्री की क्या स्थिति है? एक स्त्री को जगत जंजाल से मुक्त होने का अधिकार हो या न हो। वह किस उहापोह से गुजरे होंगे, क्या हुआ होगा जब वैशाली की नगर वधु आम्रपाली उनके समक्ष होगी। एक ऐसी स्त्री जिसे नगर सेठों की सम्पत्ति बना दिया गया हो, जिसके रूप सौंदर्य के हर जगह चर्चे हों, जिसके यहां जाने की नगर वणिकों में होड़ मची हो। वैशाली की नगर वधु जब बुद्ध का दर्शन करने जाती है तो पूरे नगर का ध्यान बुद्ध पर रहता है। आम्रपाली बुद्ध से मुक्ति की कामना करती है। वह उपभोग के व्यापार से उकता चुकी है। वह धन-संपदावान लोगों का खिलौना नहीं, भिक्षुणी बनना चाहती है। बुद्ध लोगों की समस्त आशंकाओं को किनारे रखकर बौद्ध मठ का द्वार आम्रपाली के लिए खोल देते हैं।

वैशाली मेरे लिए बुद्ध के सबसे उद्दात रूप का स्थान है। इन्ही भावनाओं से उत्साहित मैं 6 नवंबर, 2022 को वहां पहुंची। हालांकि यह देखकर दंग रह गई कि यहां जाने के लिए जो सड़क राज्य सरकार द्वारा बनायी गयी है, वह बेहद संकरी है। यहां तक कि वहां जाने के लिए पटना से सीधी बस परिवहन व्यवस्था तक नहीं है। 

मैं सबसे पहले कोल्हुआ गांव गयी, जहां दुनिया के सबसे प्राचीन गणतंत्र में से एक राजा विशाल की गढ़ी है। वहां एक विशाल स्नानागार था। उस जगह और उसके आसपास की जगह को एएसआई ने घेर कर बोर्ड भी लगाया है, लेकिन वहां घुसते ही गेट पर कोई नहीं था। उस जगह पर कुछ लोग घास काट रहे थे और उसकी दीवारों पर कुछ लोग बैठे थे। दूसरी तरफ का इलाका जहां खुदाई होनी बाकी है, वहां मवेशी चर रहे थे। एक-दो स्थानीय पर्यटक भी थे, जो बार-बार कह रहे थे कि यह क्या है और क्या देखें।

वैशाली के कोल्हुआ गांव स्थित विशाल गढ़ी की तस्वीर

छटपटाहट में मैंने कुछ कहने की भी कोशिश की कि यह जगह बुद्ध की स्थली है। लेकिन आधे-अधूरे इतिहास के ज्ञान से क्या कह पाती। मेरी खुद की भी निगाह ढूंढ रही थी कि कोई तो हो जो कुछ बताये। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरे साथ मेरे तीन छात्र भी थे। हमने कुछ जोड़-जोड़ कर समझने की कोशिश की। स्नानागार के अंदर घास कुछ लोग चारा के लिए घास काट रहे थे और कुछ दीवार पर बैठे थे। समझ नहीं आ रहा था कि उनसे कुछ विशेष जानने हेतु कैसे अनुरोध करूं। 

उसके आगे हम बुद्ध के अवशेष स्तूप पर गये। ऐसे लगा कि वहां कि स्थिति अलग होगी। लेकिन एक समृद्ध इतिहास की स्थली कैसे उपेक्षा की शिकार हो सकती है, यह वहीं जाकर पता चला। सिर्फ टीन के शेड से ढंका यह स्तूप बिलकुल ही अलग तरह का दिखा। निश्चित ही इतिहास के चिन्ह कभी भी चमकीले नहीं हो सकते हैं, लेकिन उनका रखरखाव ही उन्हें अलग तरह से दिखाता है। उनके प्रति दर्शकों के मन में एक तरह का सम्मान और गर्व भरता है। लेकिन पूरे परिसर में मुझे कोई भी ऐसा नहीं मिला जो मुझे ऐसी अनुभूतियों का बोध कराता। आसपास की घास बढ़ी हुई थी एएसआई के पत्थर का सूचना-पट्ट बीट से पटा था। अंग्रेजी वाला पट्ट तुलनात्मक तौर पर ठीक था। 

बाहर निकलने पर गेट पर एक लड़का अपनी बाइक, चश्मा और गिटार देकर स्थानीय लड़कों से फोटो खिंचवाने के लिए कहता और उसी से कुछ कमाई कर पा रहा था। 

बुद्ध के अस्थि अवशेष स्तूप की तस्वीर, जिसे सिर्फ टीन के शेड से ढंक दिया गया है

उसी परिसर में संग्रहालय है। इस संग्रहालय में वह प्रस्तर चित्र भी है, जिसमें बुद्ध की मां समान मौसी गौतमी अपने चार सौ लोगों के साथ उनके समक्ष आ खड़ी होती हैं और कहती हैं कि हमें अपने संघ में लो। इस तरह वह पहली भिक्षुणी बनती हैं। यह संग्रहालय बौद्धकालीन तमाम मूर्तियों, खिलौनों, बर्तनों और शौचालय के नमूने से समृद्ध था। लेकिन उसके भीतर पर्याप्त रौशनी नहीं थी। कांच के भीतर छिपकलियां और संग्रहालय में चूहे घूम रहे थे। कांच के भीतर लगा कपड़ा फीका होकर धब्बे छोड़ चुका था। मूर्तियों के नीचे लगी सूचना पट्टियां बेतरह धुंधली हो चुकी थीं। संग्रहालय के भीतर कोई ऐसा क्यूरेटर या गाइड नहीं था, जो कुछ बताता। अलबत्ता बाहर कुछ गार्ड जरूर थे। संविदा पर नियुक्त या फिर किसी एजेंसी द्वारा तैनात किये गये।वह क्या मदद कर पाते। 

 मैंने उनसे पूछा कि क्या कहीं कोई कैंटीन है, तो कहने लगे कि मैडम यहां कहां कैंटीन हो सकता है। बाहर पान-बीड़ी की कुछ दुकानें थीं।एक-दो चाय की दुकानें थीं। भला हो कि एक गोलगप्पे वाला था। कुछ एक दुकानें कंठी-माला और खिलौनों की भी थी, जिनकी हालत बहुत खराब थी।

इस परिसर के सामने एक तालाब बना है। छठ पूजा का अनुष्ठान हाल ही में सपन्न हुआ है और उसकी गवाही तालाब में पॉलिथीन और केले के तने दे रहे थे। तालाब जलकुंभी से भरा हुआ था। हम उसके दूसरी ओर आ गए जहां वियतनाम और जापान सरकार द्वारा बनाये बौद्ध मंदिर हैं। उनकी भी साफ सफाई की हालत बहुत खराब थी। इसके अलावा कोई भी ऐसा शौचालय तक नहीं था, जहां सफाई और पानी हो। पार्किंग की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं है। कुछ बारह-तेरह साल के लड़के गाड़ी की रखवाली करते हैं और उसके बदले कुछ पैसा पाने की अपेक्षा करते हैं।

कोल्हुआ स्थित अस्थि अवशेष स्तूप की जानकारी देता एएसआई द्वारा लगाया गया शिलापट्ट

हमने खाना खाने की जगह की तलाश की। पता चला कि विशुद्ध रूप से भोजनालय तक नहीं हैं। जो दिखा वह वास्तव में मेरैज हॉल था। उसमें एक किनारे पर दूल्हा-दुल्हन के लिए गद्देदार सोफा और तमाम सजावटें हुई रहती हैं। एक मैरेज हॉल में तो रात को बारात आने वाली थी। मुझे समझ नहीं आया कि आसपास एएसआई द्वारा चिन्हित पर्यटन स्थल हैं। ऐसे में बहुत ही अलग मंतव्य से आयी भीड़ को किस प्रकार संभाला जाता होगा।

मेरे दिमाग में सांची, सारनाथ और कुशीनगर घूम रहे थे। कैसे वहां एतिहासिक परिसर को संभाला गया है। यहां तक कि स्थानीय कुटीर उद्योग और रोजगार को भी बढ़ावा मिला है। मैंने राजगीर, नालंदा और गया को नहीं देखा है। निश्चित ही वहां की स्थिति अलग होगी, क्योंकि पर्यटकों की आवाजाही होती होगी। यही सोच कर खुद को दिलासा दे रही थी।

वैशाली मेरे लिए धार्मिक स्थान नहीं है, लेकिन वह ऐतिहासिक जगह है, जहां मानवता के इतिहास का बड़ा हिस्सा सुरक्षित है। यहां से बुद्ध के विचार किसी प्रकाशपुंज की तरह पूरी दुनिया में फैल गये। यह बुद्ध की ऐतिहासिक कर्म स्थली है तो थोड़ा पहले कुंडूपुर में तीर्थंकर महावीर की जन्मस्थली है। 

समझ में नहीं आ रहा था कि किससे शिकायत करूं? कोई शिकायत पेटिका होती तो शायद वहीं लिख कर डाल देती और झूठी अपेक्षा के साथ लौट आती कि क्या पता कोई कभी इसे खोल कर पढ़े, लेकिन वह भी नदारद थी। इतिहास को संभालना वर्तमान की जिम्मेदारी होती है। उसी से वह तय कर पाता है कि मनुष्यता ने कितनी लंबी यात्रा की है। इसी से वह यह भी तय करता है कि उसे आगे किस दिशा में जाना है। उसकी उपेक्षा सिर्फ इतिहास की उपेक्षा नहीं है, वर्तमान की त्रासदी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सविता पाठक

डॉ. सविता पाठक दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की प्रवक्ता हैं। उन्होंने डॉ. आंबेडकर की आत्मकथा, ‘वेटिंग फॉर वीजा’ का हिंदी अनुवाद किया है। वे नियमित तौर पर 'पल-प्रतिपल' (पत्रिका) के लिए अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद करती हैं। एक युवा कहानीकार के रूप में भी उनकी पहचान बन रही है।

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