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सन् 2022 में भारतीय सिनेमा : यथार्थ से मीलों दूर रहे ऊंची जातियों के फिल्म निर्माता

ऊंची जातियों के निर्माता-निर्देशकों की अधिकांश फिल्में दलित-बहुजनों को दुखी और उदास दुनिया के वासी के रूप में चित्रण करती हैं जबकि जाति-विरोधी निर्माताओं की फिल्में – जिनकी संख्या बहुत कम है – पूरे जोशोखरोश और ताकत से न्याय व समानता के विचार को आगे बढ़ाती दिखती हैं। बता रहे हैं नीरज बुनकर

हम नए साल में प्रवेश कर चुके हैं और हमारे पास बीते वर्ष 2022 में भारत में प्रदर्शित हुई फिल्मों पर एक नज़र डालने का यह एक उपयुक्त मौका है। मेरी दिलचस्पी विशेष रूप में यह जानने में है कि इन फिल्मों ने भारतीय जनता के अरमानों को किस तरह देखा और किस रूप में प्रस्तुत किया। इस दृष्टिकोण से देखने पर लगता है कि ऊंची जातियों के निर्माता-निर्देशकों की अधिकांश फिल्में दलित-बहुजनों को दुखी और उदास दुनिया के वासी के रूप में चित्रण करतीं हैं, जबकि जाति-विरोधी निर्माताओं की फिल्में जिनकी संख्या बहुत कम है पूरे जोशोखरोश व ताकत से न्याय और समानता के विचार को आगे बढ़ाती दिखती हैं।

मसलन, विवेक अग्निहोत्री की ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने दक्षिणपंथी विचारधारा को केंद्र में रखते हुए, ध्रुवीकरण की राजनीति को मजबूती देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इस फिल्म ने ‘अन्यों’ (मुसलमान) का अमानवीयकरण कर हिंदुओं की सहानुभूति हासिल करने का अपना राजनैतिक लक्ष्य बहुत अच्छे से हासिल किया। यह फिल्म ऊंची जाति के कश्मीरी पंडितों पर केंद्रित है, जिन्हें 1989-90 में कश्मीर घटी में भड़की हिंसा के दौरान घाटी को छोड़कर भागना पड़ा था। फिल्म यह ज़रूर बताती है कि मुसलमानों ने पंडितों के खिलाफ किस तरह की वीभत्स हिंसा की, लेकिन इस पर चुप रही कि उसके पहले तक पंडितों को किस तरह के विशेषाधिकार हासिल थे।

मुख्यधारा के सिनेमा के लिए इसमें कुछ भी नया नहीं है। उसका फोकस हमेशा से ऊंची जातियों के जीवन उनके संघर्षों और उनकी महत्वाकांक्षाओं पर रहा है। उदाहरण के लिए शकुन बत्रा द्वारा निर्देशित ‘गहराईयां’ ऊंची जाति की एक दंपत्ति और उनके साथियों के जीवन और क्रियाकलापों और उन्हें पेश आ रही कठिनाईयों के बारे में है। फिल्मों में दलित पात्रों के अभाव पर बहस से बचने के लिए शकुन बत्रा और निर्माता करण जौहर ने पत्रों को कोई सरनेम ही नहीं दिया है। उन्होंने ऐसा तरीका निकाला है कि उन्हें अपनी फिल्म में किसी दलित किरदार को शामिल ही ना करना पड़े। इससे ही उनका पाखंड जाहिर होता है। हालंकि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई, लेकिन इससे ऐसा मान लेना गलत होगा कि वे आगे ऐसी फिल्में नहीं बनाएंगे। 

ऐसी ही एक अन्य फिल्म है ‘शर्माजी नमकीन’ (हितेश भाटिया द्वारा निर्देशित), जो ऊंची जाति के एक सेवानिवृत्त विधुर की जिंदगी के बारे में है। इसी सूची में शामिल है गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ (आखिरी शो)। नलिन कुमार पंड्या द्वारा निर्देशित यह फिल्म 95वें ऑस्कर पुरस्कारों के लिए बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म श्रेणी में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि है। यह फिल्म केंद्रित है फिल्म निर्माता बनने का सपना पाले एक छोटे से बच्चे पर। फिल्म इस बच्चे के परिवार की ‘कष्टों’ से तो हमें रू-ब-रू करवाती है, लेकिन यह नहीं बताती कि इस परिवार के पास कितनी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक पूंजी है। दरअसल, भारतीय सिनेमा के प्रारंभ से ही हमारे फिल्म निर्माता इस सच को छुपाने में निष्णात रहे हैं। वे यथार्थ के सिक्के के एक पहलू को दिखाते हैं और दूसरे को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देते हैं। जब वे ऊंची जातियों को आर्थिक रूप से कमज़ोर दिखाते हैं तब वे समाज के एक बड़े हिस्से को परदे से गायब कर रहे होते हैं। 

करण मल्होत्रा द्वारा निर्देशित ‘शमशेरा’ एक पीरियड एक्शन-ड्रामा रही, जो एक काल्पनिक दमित आदिवासी समुदाय खमेरण और उसके शक्तिशाली मुखियाओं शमशेरा और उसके पुत्र बाली (दोनों किरदारों को रणबीर कपूर ने निभाया है) के बारे में है। फिल्म की कथावस्तु में अछूत प्रथा और सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव शामिल हैं, लेकिन इसमें सबाल्टर्न वर्ग को देखते-समझने की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि का अभाव है, जिसके चलते अछूत प्रथा की अवधारणा की उसकी समझ अस्पष्ट और अप्रासंगिक नज़र आती है। फिल्म का कथानक अधिकांश दर्शकों को भ्रमित कर देने वाला है। यह फिल्म एक ऐसे योद्धा (क्षत्रिय) समुदाय के बारे में भी हो सकती है जो अपने समुदाय के किसी समूह के लिए किसी कारणवश अछूत बन गया हो और जाति-आधारित समाज में अपनी उच्च स्थिति और अपने आत्मसम्मान को फिर से हासिल करने के लिए लड़ रहा हो। यह अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने की लड़ाई भी हो सकती है या आदिवासियों व सवर्णों के बीच टकराव की कहानी भी। अनेक जाति-विरोधी अध्येताओं ने फिल्म की इस अस्पष्टता को रेखांकित किया है। 

प्रश्न यह है कि ऊंची जातियों के फ़िल्मकार यदि सचमुच चाहते हैं कि वे दलित-बहुजनों की कहानियां सुनाएं, उन्हें पर्दे पर दिखाएं तो उन्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि उन्हें एक समावेशी टीम बनानी चाहिए, जिसमें एक दलित-पिछड़े-आदिवासी पटकथा लेखक हो या फिर सिनेमेटोग्राफर। 

सन 2022 में रिलीज़ हुई कुछ फिल्मों के दृश्य: (बाएँ ऊपर से घड़ी की सुई की दिशा में) शमशेरा, मट्टो की साइकिल, झुंड और नटचथीरम नागरगिराडू

ऐसी ही एक अन्य फिल्म है लाल सिंह चड्डा’, जिसका निर्देशन अद्वैत चंदन ने किया है और जो 1994 की अमरीकी फिल्म फारेस्ट गम्प’ की रीमेक है। मूल फिल्म का निर्देशन राबर्ट जेमिकिस ने किया था। यह फिल्म भारतीय समाज के सभी महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे जातिगत अत्याचार को नजरअंदाज करती है, परंतु ऐतिहासिक घटनाक्रम, जिसमें राम रथयात्रा और 1984 का सिक्ख कत्लेआम शामिल है, पर जोर देती है। इसके विपरीत फारेस्ट गम्प’ में नस्लवादी भेदभाव को चित्रित किया गया है। लाल सिंह चड्डा’ सामाजिक यथार्थ को दर्शाने तक पहुंचाने का तनिक भी प्रयास नहीं करती। 

मूक दलित-बहुजनों की सवर्णों की काल्पनिक दुनिया पर यह चर्चा, एक अन्य फिल्म मट्टो की साईकिल’ के बिना अधूरी रहेगी। एम. गनी के निर्देशन में बनी यह फिल्म रोज कमाने-खाने वाले एक दलित मजदूर मट्टो की कहानी कहती है। मट्टो के किरदार में प्रकाश झा हैं जो इस फिल्म के निर्माता भी हैं। बिना अपनी साईकिल के वह कमजोर है और उसकी साईकिल ही उसकी बैसाखी है। अपनी 20 साल पुरानी साईकिल के सहारे वह रोज शहर जाता है, जहां वह एक भवन निर्माण श्रमिक के रूप में काम कर अपनी व अपनी पत्नी तथा दो छोटी बच्चियों का पेट पालता है। मट्टो की बेबसी आपको उसके प्रति सहानुभूति में दो-चार आंसू टपकाने के लिए मजबूर कर सकती है और यही शायद इस फिल्म का लक्ष्य है। लेकिन मट्टो मजदूर होने के साथ-साथ दलित भी है और उसे जिस रूप में चित्रित किया गया है, वह इसलिए विवादास्पद है क्योंकि मट्टो अपने हालात बदलने के लिए कुछ नहीं करता। वह एक कमजोर, निराश और दुःखी आदमी है। दमन के खिलाफ शिक्षा को एक हथियार के रूप में उपयोग करने के डॉ. आंबेडकर के आह्वान को यह फिल्म तिरस्कृत करती है। फिल्म में दलित वकील राजेश (आकाश शर्मा) के रूप में गांधी का हरिजन मौजूद है, जो शिक्षित होने के बाद भी मुखर नहीं है। वह सुअर पालन करता है और हमेशा अपनी समस्याओं के बारे में शिकायतें करता रहता है। ऐसा लगता है कि यह फिल्म दलितों को यह संदेश देती है कि चाहे वे कितने भी शिक्षित हो जाएं, उनका काम गटर साफ करना और सुअरों के बीच रहना है। मट्टो की साईकिल, जो सुधारी जा सकती है, उस दुष्चक्र का रूपक है, जिसमें मट्टो फंसा हुआ है। वह इस दुष्चक्र से मुक्त नहीं हो सकता। 

बालीवुड की इन फिल्मों, जो जाति से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को किनारे करते दिखती हैं, के अलावा जाति-विरोधी फिल्म निर्माताओं ने 2022 में नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित झुंड’, शैलेष नरवले के निर्देशन में बनी मराठी फिल्म ‘जयंती’ एवं पा रंजीत के निर्देशन वाली तमिल फिल्म नटचथीरम नागरगिराडू’ के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। ‘मट्टो की साईकिल’ के विपरीत ये तीन फिल्में आंबेडकरवादी विचारधारा के अनुरूप आशा का संचार करती हैं और हिम्मत व साहस के साथ काम करने की प्रेरणा देती हैं‘झुंड’, नागपुर की गद्दी गोदाम नामक झुग्गी बस्ती के युवाओं की जीवनयात्रा को चित्रित करती है। इस फिल्म में विजय बारसे के उस अभियान को भी दिखाया गया है, जिसके अंतर्गत वे फुटबॉल के खेल का उपयोग झुग्गी बस्तियों के बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए करते आ रहे हैं। बारसे युवाओं के ‘झुंड’ को टीम में बदलने के लिए प्रेरित करते हैं। यह शायद बॉलीवुड की पहले फिल्म है, जिसमें आंबेडकर जयंती के उत्सव को स्क्रीन पर दिखाया गया है। यह दलित-बहुजनों की विषाक्त और दयनीय दुनिया को तो दिखाती है, साथ ही यह भी बताती है कि इससे बाहर कैसे निकला जाए और कैसे उस चहारदीवारी को तोड़ा जाये जो ऊंची जातियों ने खड़ी कर दी है। यह इस अवधारणा के परखच्चे उड़ाती है कि दलित-बहुजनों में न तो योग्यता होती है और ना ही कौशल। 

‘जयंती’, आंबेडकर जयंती के उत्सव को आंबेडकरवादी आंदोलन की एक पहचान के रूप में तो देखती ही है, वह जाति-विरोधी आंदोलन के मर्म को भी छूती है। इस फिल्म के नायक को आंबेडकर, छत्रपति शाहूजी महाराज, मैल्कम एक्स, शिवाजी महाराज, जोतीराव फुले, रैदास व अन्यों के जीवनवृत्त और सोच के अध्ययन के आधार पर इतिहास की समझ विकसित करते हुए दिखाया गया है। अज्ञानता से शुरू उसका सफ़र जाति-विरोध के इतिहास के बारे में जागरूक होने पर ख़त्म होता है और यह अत्यंत प्रेरणादायक है। वह न केवल स्वयं के अधिकारों के बारे में मुखर है, बल्कि सामुदायिक चेतना के विकास में भी अपनी भूमिका अदा करता है और अन्यों को मुखर बनने की प्रेरणा देता है।  

नटचथीरम नागरगिराडू’ समाज की जाति, वर्ग, लिंग और यौनिकता से जुड़ी अंतर्वर्गीय जटिलताओं के आसपास घूमती है और रिश्तों में राजनीति की बात भी करती है। दुशारा विजयन इसमें मुख्य किरदार रेने की भूमिका में हैं। वह अपनी विचारधारा को मुखरता और गर्व से अभिव्यक्त करती है और उसके इतिहास से पूरी तरह वाकिफ है। एक दृश्य में, रेने का पुरुष मित्र अर्जुनन (कैलैयार्सन) उससे उसकी विचारधारा के बारे में पूछता है– “क्या तुम कम्युनिस्ट हो?” रेने इस ख्याल को तुरंत ख़ारिज करते हुए कहती है– “मैं आंबेडकरवादी हूँ”; और इस बीच वह बीफ फ्राई का स्वाद भी लेती है। यह संवाद और यह दृश्य, ऊंची जातियों पर एक तल्ख़ टिपण्णी है जो हाशियाकृत वर्गों की संस्कृति, भोजन और विचारधारा को हमेशा ‘दूसरा’ बतातीं हैं। मेरी दृष्टि में नटचथीरम नागरगिराडू’ संगीत के दृष्टि से जीवंत, कला के लिहाज से समृद्ध और विचारधारा के परिप्रेक्ष्य से मानवतावादी है। मैं जोर देकर यह कहना चाहूंगा कि जाति-विरोधी दलित-बहुजन परिप्रेक्ष्य को परदे पर कैसे दिखाया जा सकता है, उसे समझने के लिए ये तीन फिल्में देखी जानी चाहिए। 

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)  


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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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