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शरद यादव : रहे अपनों की राजनीति के शिकार

शरद यादव उत्तर प्रदेश और बिहार की यादव राजनीति में अपनी पकड़ नहीं बना पाए और इसका कारण थे लालू यादव और मुलायम सिंह यादव, जिन्हें उनके बड़े कद से हमेशा परेशानी रही। इन दोनों नेताओं से मतभेदों के चलते शरद यादव ने नीतीश कुमार से समझौता कर एनडीए का हिस्सा बने। लेकिन नीतीश कुमार ने भी शरद यादव के बड़े कद का कभी सम्मान नहीं किया। स्मरण कर रहे हैं विद्या भूषण रावत

शरद यादव (11 जुलाई, 1947 – 12 जनवरी, 2023) पर विशेष

जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से युवा नेता के तौर पर उभरे और विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रिमंडल में मंडल आंदोलन के सबसे मुखर प्रवक्ता शरद यादव के निधन से सामाजिक न्याय और समाजवादी आंदोलन को बड़ा आघात लगा है। वर्ष 1974 में लोकसभा के एक उपचुनाव में जबलपुर से पहली बार चुनकर आए शरद यादव तथा 1977 मे पुनः चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे। ऊनकी छवि एक वैचारिक तौर पर मजबूत युवा नेता पर उभरी। वर्ष 1980 के बाद से वह संसद में नहीं पहुंच पा रहे थे और अलग-अलग क्षेत्रों से संसद मे पहुंचने के उनके तमाम प्रयास सफल नहीं हुए। 

हालांकि वह मध्य प्रदेश से थे, लेकिन उन्होंने अपने राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र उत्तर प्रदेश बनाने का प्रयास किया। वह चौधरी चरण सिंह के समय से ही लोकदल से जुड़े रहे, लेकिन 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब विपक्षी एकता की मुहिम चलाई और जनता परिवार के विभिन्न धड़ों मे एकता और सामंजस्य बनाया तो शरद यादव उनके साथ जुड़ गए और फिर उस वर्ष हुए आम चुनावों में वह बदायूं से चुनाव जीत कर आए और राष्ट्रीय मोर्चा की उस सरकार में उनके कपड़ा और खाद्य संसाधन मंत्रालय के मंत्री बने। 

उस दौर मे शरद यादव एक सशक्त नेता के तौर पर उभरे और सामाजिक न्याय की शक्तियों के सबसे बड़े पैरोकार के रूप मे सामने आए। 7 अगस्त, 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब संसद मे मंडल आयोग की आरक्षण संबंधी अनुशंसाओं को स्वीकार करने की घोषणा की तो उनके कबीना सहयोगियों में सबसे मुखर लोगों में उत्तर भारत से केवल दो ही लोग थे, जिनमें एक थे रामविलास पासवान और दूसरे शरद यादव। दोनों ने सड़क से लेकर संसद तक अपने विरोधियों को आक्रामक भाषा मे जवाब दिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार तो चली गई, लेकिन मंडल आयोग को स्वीकार करने के उनके फैसले ने यह भी दिखा दिया कि कौन किस पाले मे है। उत्तर प्रदेश के बड़े नेता मुलायम सिंह यादव ने मंडल विरोधी चंद्रशेखर-देवीलाल के साथ हाथ मिला लिया और नतीजा यह हुआ कि इसके कारण आंदोलन न केवल कमजोर हुआ अपितु हिंदुत्ववादी शक्तियों को आगे मजबूत कर गया। 

शरद यादव (11 जुलाई, 1947 – 12 जनवरी, 2023)

यह वह दौर था जब कांग्रेस सवर्णों को अपनी और लाने के लिए आतुर थी और पिछड़ी जातियों के उत्तर भारत के नेता भी मंडल के प्रश्न पर बहुत मुखर नहीं थे। उस दौर में केवल दो मुख्यमंत्री इस घटनाक्रम में वी.पी. सिंह के साथ रहे। एक बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव और तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि। तब वी.पी. सिंह, शरद यादव और रामविलास आरक्षण के सवर्ण विरोधियों के निशाने पर सबसे अधिक थे। इन तीनों को वे बात-बात में गालियां देकर मजाक उड़ाया करते थे। लेकिन शरद यादव अंत-अंत तक पिछड़े वर्ग और दलितों के अधिकारों के लिए संसद के अंदर और बाहर अपनी बात कहते रहे। 

वर्ष 1974 से शुरू हुई उनकी राजनैतिक यात्रा में शरद यादव 7 बार लोकसभा के लिए चुने गए और यह शायद उनके हिस्से में अकेले एक रिकार्ड होगा कि वह तीन राज्यों से लोकसभा का चुनाव जीते। उनकी शुरुआती लड़ाई जबलपुर से आपातकाल विरोधी एक सशक्त युवा नेता से शुरू हुई। दो बार जबलपुर से जीतने के बाद, तीसरी बार उनकी एंट्री लोकसभा में 1989 में उत्तरप्रदेश के बदायूं से हुई। बाद मे वह चार बार लगातार बिहार की मधेपुरा सीट से चुने गए। 

शरद यादव एक प्रखर वक्ता थे और उत्तर भारत मे पिछड़े वर्ग के एक समझदार और अनुभवी नेता थे, जो इस आंदोलन को एक नई दिशा दे सकते थे। लेकिन तमाम खूबियों के बावजूद उत्तर प्रदेश और बिहार के पिछड़े वर्ग के नेताओं ने उन्हें उनके इलाकों मे प्रभाव जमाने के प्रयासों को खारिज कर दिया। वह इन नेताओं से अपेक्षाकृत युवा थे और एक समय में बहुत से संसद और विधायक उनके शिष्य थे, लेकिन बदायूं मे मुलायम सिंह यादव ने उन्हें दुबारा एंट्री नहीं करने दी। ऐसे ही बिहार में शरद यादव ने मधेपुरा सीट जीती हो, लेकिन लालू यादव ने कभी ऐसा नहीं होने दिया जिससे शरद बिहार के आम जनों के नेता बनते। 

दरअसल, शरद यादव उत्तर प्रदेश और बिहार की यादव राजनीति में अपनी पकड़ नहीं बना पाए और इसका कारण थे लालू यादव और मुलायम सिंह यादव, जिन्हें उनके बड़े कद से हमेशा परेशानी रही। इन दोनों नेताओं से मतभेदों के चलते शरद यादव ने नीतीश कुमार से समझौता कर एनडीए का हिस्सा बने। लेकिन नीतीश कुमार ने भी शरद यादव के बड़े कद का कभी सम्मान नहीं किया और बाद में तो दोनों के मतभेद इतने अधिक हो गए थे कि बेहद मजबूरी में शरद जी को सरकारी आवास भी छोड़ना पडा जब उनकी राज्यसभा की सीट चली गई। नई दिल्ली के 7, तुगलक रोड में करीब 22 साल रहने के बाद शरद यादव ने जब मजबूरी में आवास छोड़ा तो उनके दिल का दर्द बाहर निकल गया था। 

वर्ष 2015 में नीतीश कुमार ने कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर जब एक नया गठबंधन तैयार किया था तो शरद यादव को इसका सूत्रधार माना गया, लेकिन फिर नीतीश कुमार ने राजद से नाता तोड़ा। तभी से उनके और शरद जी के मतभेद और गहरा गए। शरद यादव ने अपने समर्थकों के साथ एक नई पार्टी भी बनाई, लेकिन शायद वह ऐसे कामों के लिए बने ही नहीं थे। फिर उन्होंने पार्टी का राजद में विलय कर लिया। इस घटनाक्रम के बाद तो नीतीश समर्थक उनसे और भी नाराज थे।

शायद ही कोई इस बात पर यकीन करे कि जो व्यक्ति इतने वर्षों तक मंत्री रहा, सांसद रहा और एक महत्वपूर्ण राजनेता रहा, उसके पास अपना निजी घर तक नहीं था। 

आज जब शरद यादव दुनिया में नहीं हैं तो सभी ने आंसू बहाए हैं, लेकिन उनके शक्तिशाली मित्रों ने इतना भी नहीं सोचा कि एक इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति जीवन के अंतिम दौर में अपने आप से भी संघर्ष कर रहा है तो उसकी मदद की जाए। जिस राजद में अपनी पार्टी के विलय के लिए नीतीश कुमार और उनके प्रशंसकों ने शरद जी को बहुत कुछ कहा, वही राजद भी उनकी कुछ मदद विशेष नहीं कर पाई। 

दरअसल शरद यादव एक बेहद संजीदा इंसान थे। वह कोई भी बाद बिना लाग-लपेट के कह देते थे क्योंकि उन्हें बातों मे मक्खन लगाने की आदत नहीं थे। उन्हें उम्मीद थी कि राजद से उन्हें राज्यसभा मे भेजा जाएगा, लेकिन शायद पार्टी को उनकी जरूरत नहीं महसूस हुई। अंत मे नीतीश कुमार और राजद साथ आ तो गए, लेकिन शरद यादव एक अवांछित व्यक्ति बन कर ही रह गए। 

शरद यादव वंचितों के अधिकार हेतु संघर्षरत योद्धा थे, लेकिन पिछड़े वर्ग की राजनीति में उन्हे केवल ड्रॉइंग रूम का नेता मान लिया गया। उनका कद इतना बड़ा था कि राज्यों के क्षत्रपों, जो सामाजिक न्याय की कमान संभाले हुए हैं, को लगता था कि उनके आने से उनके अपने वजूद को खतरा हो सकता था। शरद यादव पर व्यक्तिगत तौर पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लगा। 

शरद यादव उन नेताओ में थे, जिन्होंने जातिगत जनगणना का सवाल पहले उठाया था। आज तो ओबीसी नेता लोग यह सवाल उठा रहे हैं, लेकिन शरद यादव के पास एक वैचारिक ताकत थी। बहुत से नेता यह कह रहे हैं कि वह आम जनता के नेता नहीं थे, बिल्कुल गलत बात है। शरद यादव अधिकांश समय लोक सभा के लिए चुने गए और जेपी आंदोलन से लेकर वी.पी. सिंह के समय तक शरद यादव अपने समकालीन नेताओं से सीनियर थे। संसद में जब वे बोलते थे तो लोग उन्हे गंभीरता से सुनते थे। 

अंतिम समय में शरद यादव जिस तरह नजरअंदाज किये गये, वहर भारत मे ‘सामाजिक न्याय’ की शक्तियों की नेताओ की महत्वाकांक्षाओं और विचारहीनता को दिखाता है। शरद यादव सामाजिक न्याय के लिए एक बहुत बड़े स्तंभ थे। वह एनडीए के संयोजक भी रहे और उसमें केन्द्रीय मंत्री भी। फिर भी कोई उन्हें उनकी विचारधारा से नहीं डिगा पाया। उत्तर प्रदेश मे मुलायम सिंह यादव और बिहार मे लालू यादव दोनों शरद यादव को किसी भी तरह से स्वतंत्र रूप से खड़े नहीं देखना चाहते थे। शरद यादव से उनका डर वीपी सिंह के समय से था जब मंत्रिपरिषद में रहते हुए शरद यादव बहुत सशक्त थे, लेकिन उस सरकार के गिरने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर जनता परिवार का वजूद खत्म हो गया और उत्तर प्रदेश व बिहार में जनता परिवार के एक धडे के परिवारों ने सत्ता पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया। 

शरद यादव एक आत्मस्वाभिमानी नेता थे और उन्होंने उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया।उन्होंने देख लिया कि समाजवाद के नाम पर राजनीति करते करते वह सुरेन्द्र मोहन और मधु लिमये की तरह रह गए, जिन्होंने विचारधारा के लिए सब कुछ समर्पित कर दिया। हालांकि समाजवाद के नाम पर दोनों राज्यों (उत्तर प्रदेश और बिहार) में राजनीति करने वालों ने न केवल परिवरवाद किया अपितु उनके पास पैसों का भी कोई अभाव नहीं रहा। 

बहरहाल, शरद यादव के निधन से सामाजिक न्याय और सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ने वाले एक महान योद्धा का अंत हो गया है। भारत की राजनीति मे उनकी सार्थक और सकारात्मक भूमिका को देश हमेशा याद रखेगा। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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