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सवालों के घेरे में भारतीय प्रेस परिषद

तमिलनाडु बनाम बिहार की जो कहानी तैयार की गई, वह वास्तव में स्थानीय किस्म के होने वाले विवाद को तोड़ मरोड़ कर तैयार करने की कोशिश है। पहले ‘दैनिक भास्कर’ ने अफवाहों को सच मान लेने की खबरें प्रसारित की और जब बाद में अफवाह का सच सामने आया तो उसने अपना रुख बदल लिया। अनिल चमड़िया का विश्लेषण

बात की जिस हवा को अफवाह कहते हैं, लोग उस पर भरोसा नहीं करते हैं, इसीलिए थोड़े समय बाद उसका दम निकल सकता है। लेकिन जैसे ही अफवाह को एक खबर के रुप में प्रसारित कर देते हैं तो उसमे सच के डैने लग जाते हैं और माहौल में मरघट का डर व्याप्त हो जाता है। उसकी गति बहुत तेज होती है। इतनी तेज की बंदूकों–तोपों वाली संस्थाओं के चौखट हिल जाते हैं। 

इस पूरे सूत्रीकरण में हमें एक बात यह तलाशनी है कि वे कौन हैं जो कि अफवाह को एक खबर के रुप में फैलाते है। अपने देश में अफवाह का दम निकल जाएगा। इस तरह का भरोसा पहले समाचार माध्यमों को लेकर होता था। लेकिन अब स्थितियां ठीक विपरीत हो गई हैं। अफवाहों को भरोसे में तब्दील करने की मशीनों का नाम है– समाचार माध्यम यानी मीडिया।

तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर अत्याचार और उनका पलायन के अफवाहों पर मीडिया की भूमिका को लेकर नये सिरे से चर्चा हो रही है। लगभग पिछले तीन दशकों से अफवाहों को खबर के रुप में प्रसारित करने और सड़कों पर खून खराबे का माहौल बनाने और फिर पूरी संसदीय व्यवस्था को उसकी चपेट में लेने की घटनाएं सामान्य सी बात लगने लगी है। इन वर्षों में अफवाह को एक खबर के रुप में प्रसारित और प्रचारित होने के बीच कई पात्र और जुड़े हैं। वे हैं सत्ता के भूक्खड़, जो कि किसी भी तरह का माहौल बनाकर अपने लिए जश्न की तैयारी करना चाहते हैं। जैसे तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी के नेता ने किया और फिर उसे उसी पार्टी के बिहार के नेताओं ने विस्तार करने की अपनी तैयारी को अंजाम दिया। 

तमिलनाडु बनाम बिहार की जो कहानी तैयार की गई, वह वास्तव में स्थानीय किस्म के होने वाले विवाद को तोड़ मरोड़ कर तैयार करने की कोशिश है। पहले ‘दैनिक भास्कर’ ने अफवाहों को सच मान लेने की खबरें प्रसारित की और जब बाद में अफवाह का सच सामने आया तो उसने अपना रुख बदल लिया। ‘दैनिक भास्कर’ ने तमिलनाडु में 15 बिहारी श्रमिकों की मौत का दावा किया गया था। बाद में बताया कि करीब डेढ़ माह पहले तमिलनाडु के तिरुपुर में चाय की एक दुकान में सिगरेट के धुएं को लेकर उठा विवाद अफवाहों की वजह से बड़ा बवंडर बन गया। धूएं को लेकर उठा विवाद इस सीमा तक गया कि स्थानीय लोगों को उन लोगों ने दौड़ा लिया जो कि प्रवासी माने जाते है। इसी का वीडियो बनाकर वायरल कर दिया गया। तब कुछ तमिल संगठनों ने इसे अपना मुद्दा बना दिया और फिर घटनाओं का एक पूरा चक्र तैयार हो गया। बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा ने कहा, “बिहार सरकार इन घटनाओं को छुपाना चाहती है और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव के बारे में कहा कि उन्होने इस प्रकरण को झूठा बताकर भ्रम फैलाया है। इस तरह उन्होंने मजदूर विरोधी मानसिकता का परिचय दिया है। जो हवाई जहाज पर केक काटते हैं, उन्हें मजदूरों के दुख-दर्द का अंदाजा कैसे होगा? डीएमके के नेता टीकेएस एलंगोवन ने कहा कि भाजपा अफवाह की राजनीति कर रही है और तमिलनाडु में कामगार पूरी तरह सुरक्षित हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश पर अफसरों की एक टीम तमिलनाडु पहुंच गई।

लगातार फर्जी खबरों पर संज्ञान नहीं ले रहा भारतीय प्रेस परिषद

‘दैनिक भास्कर’ कोई अकेला नहीं है। दर्जनों की तादाद में समाचारों का करोबार करने वाली कंपनियां इसके लिए जिम्मेदार है। उनमे कोई प्रेस की तकनीक का इस्तेमाल करती है तो कोई वेब का तो कोई टेलीविजन तकनीक का। लेकिन करोबार सबका एक ही है। अफवाह की पुष्टि करने में मददगार होना और करोबार में अपना हिस्सा सुनिश्चित करना। 

संस्थाएं किस हद तक कमजोर हो चुकी है

भारतीय समाज में अफवाह को खबर बनाने और उससे खेलने वालों की तस्वीर साफ हो गई हैं। इसमें यह बात बहुत स्पष्ट हो गई है कि देश भर में राजनीतिक पार्टियों के ढांचे का संबंध इस बात से भी जुड़ा हैं कि समाज में सच और झूठ के प्रसारण और प्रचार की क्या तस्वीर बनने जा रही है। मसलन सरकार अफवाहों के दबाव में आ जाती है और उसका नेतृत्व राजनीतिक तौर पर असुरक्षित महसूस करने लगता है। भाजपा देश में खुद के सबसे ताकतवर और राष्ट्रीय स्तर की पार्टी होने का दावा करती है तो उसे एक अफवाह को भी भरोसे की खबर के रुप में प्रचारित और प्रसारित करना सहज लगता है। 

इन संस्थाओं के बीच भारतीय प्रेस परिषद की भूमिका पर सबसे ज्यादा सवाल खड़े किए जाने चाहिए। लगता है कि यह संस्था मृत प्राय: हो गई है। जबकि यह एक मात्र संवैधानिक संस्था है, जो खबरों की संस्कृति की पहरेदार है। भारतीय प्रेस परिषद का गठन देश के लोकतंत्र में जिम्मेदार समाचार माध्यम का ढांचा और संस्कृति विकसित करने में सहायक की भूमिका अदा करने लिए की गई थी। लेकिन वह गैर-जिम्मेदारी को देखते रहने की संस्कृति की तरफ खुद को लगभग ढाल चुकी है। प्रेस परिषद की भूमिका तमिलनाडु व इस तरह के तमाम प्रकरणों के बीच कहीं दिखती नजर नहीं आई। सत्ता संस्कृति के साथ उसके रिश्तों की चर्चाएं जरुर देखने व सुनने को मिल जाती है। 

प्रेस परिषद के साथ मेरा अनुभव 

भारतीय प्रेस परिषद को लेकर मेरा बहुत भरोसा रहा है। मैं कई तरह की शिकायतों और सुझावों को लेकर भारतीय प्रेस परिषद के दरवाजे खटखटाए है। उसके दरवाजे पर लंबी-लंबी इंतजारी के बावजूद धैर्य नहीं खोया है। अब भी घैर्य है। लेकिन कई बार लगता है कि वहां दरवाजा हैं नहीं, इसीलिए इंतजार का कोई मतलब नहीं है। सबसे नया अनुभव जूलाई 21 तक का है, जिसमे भारतीय प्रेस परिषद ने खुद तो कोई कदम नहीं उठाया, लेकिन जहां मुझ जैसे लोगों ने भी शिकायत की, तो उसे तकनीकी आधार पर खारिज करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। मामला असम में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान ‘पेड न्यूज’ से जुड़ा था। उस पूरे प्रकारण की एक झलक यहां मिल सकती है।

दरअसल, 3 मई 21 को भारतीय प्रेस परिषद का जवाब आया कि आपकी ईमेल शिकायत दिनांक 31 मार्च मं संदर्भ में सूचित किया जाता है कि प्रेस परिषद जांच प्रक्रिया विनिमय के अनुसार निम्न जरुरतें हैं–

  1. अखबार में छपी आपेक्षित समाचार करतनें की मूल प्रिंट प्रति (कृपया ध्यान दें कि समाचार कतरन के डाउनलोड किए गए वेबसाइट संस्करण स्वीकार्य नहीं है)
  2. प्रकाशित समाचार के संबंध में संपादक को जारी किए पत्र की प्रति और यदि पत्र के संबंध में कोई उत्तर प्राप्त हुआ हो की स्पष्ट प्रति उपलब्ध कराएं
  3. प्रतिवादियों के पूर्ण पते उपलब्ध कराये

फिर 8 मई, 2021 को (केस संख्या 211-215/2021 ए) का फिर से मैंने यह जवाब दिया–

3 मई को ईमेल के जरिये मेरी ईमेल से 31-03-2021 को कोई गई शिकायत के संबंध में आपका पत्र मिला। 

मेरा निम्न अनुरोध हैं।

  1. सर्व प्रथम मैं आपको आपके पत्र (3 मई ) में उल्लिखित एक तथ्यात्मक भूल को सुधारने की तरफ ध्यान ले जाना चाहता हूं। मैंने ‘द टेलीग्राफ’ के विरुद्ध कोई शिकायत नहीं की है, जैसा कि आपने अपने 3 मई के पत्र के विषय में उल्लेख किया है।
  2. आपको ज्ञात कराना चाहूंगा कि इस समय पूरा विश्व कोविड -19 की आपदा से बुरी तरह प्रभावित है। लाखों लोगों की मौत हो चुकी है और करोड़ों लोग इस महामारी से जुझ रहे हैं। भारत में भी हालात बदतर हैं। यहां सरकार व सरकारी तंत्र लगातार नागरिकों को घरों से न निकलने की सलाह दे रही है। मैं मानव सभ्यता पर आए इस संकट की घड़ी में दिल्ली से असम जाने के हालात में नहीं हूं। आपने यह मांग की है कि उन समाचार पत्रों की वह मूल कॉपी या सुपाठ्य फोटो कॉपी आपको भेजना अनिवार्य है जिनके विरूद्ध शिकायत की गई हैं। आपको यह जानकारी मैंने दी है कि मैं दिल्ली का निवासी हूं। आपने वेबसाइट संस्करण को पहले ही अस्वीकार्य कर दिया है।
    असम स्थित जिन समाचार पत्रों के विरुद्ध शिकायत की गई है उन समाचार पत्रों की मूल प्रति असम जाकर लाने के लिए आर्थिक स्तर पर भी असमर्थ हूं। दिल्ली में उन समाचार पत्रों की कॉपी मिलती है, यह मुझे ज्ञात नहीं है।
    भारतीय प्रेस परिषद उपरोक्त वर्णित हालात में उन समाचार पत्रों से मूल कॉपी उपलब्ध कराने का निर्देश जारी कर सकती है जिनके विरुद्ध शिकायत की गई हैं।
  1. जिन समाचार पत्रों के विरुद्ध शिकायत की गई है और जिस तरह की सामग्री के प्रकाशन को लेकर शिकायत की गई है वे उस श्रेणी की सामग्री में शामिल नहीं माना जाती है, जिसके लिए केवल संपादक जिम्मेदार माना जाता है। समाचार पत्रों का पूरा प्रबंधन इसके लिए जिम्मेदार है और यह जान-बुझकर किया गया है। जन प्रतिनिधि कानून के प्रावधानों के विरुद्ध समाचार पत्रों ने सामग्री का प्रकाशन किया है और इसके लिए समाचार पत्रों के प्रबंधन ने एक निश्चित राशि मिलने का आश्वासन भी हासिल किया है। पेड न्यूज की श्रेणी में भी इस सामग्री को शामिल माना जा सकता है।
    आपका ध्यान भारत सरकार द्वारा गठित द्वितीय प्रेस आयोग ( 1980-1982) की रिपोर्ट के पहले खंड (दिव्तीय प्रेस आयोग टिप्पणी संख्या -22 ) की तरफ ले जाना चाहता हूं, जहां यह उल्लेख किया गया है कि समाचार पत्रों को मिलने वाले विज्ञापनों के प्रकाशन में संपादकों की भूमिका नहीं होती है। आयोग ने यह पाया कि समाचार पत्रों में प्रथम पृष्ठ से लेकर अन्य पृष्ठों पर विज्ञापनों के प्रकाशन के लिए संपादकों की अनुमति की कोई जरूरत ही महसूस नहीं की जाती है। संपादक विज्ञापनों के बाद की जगहों के लिए सामग्री निश्चित करता है। इस तरह से वह समाचार पत्र में दोयम दर्जे की स्थिति में होता है।
    संपादक को इस संबंध में पत्र लिखने की वैधानिक व प्रक्रियागत बाध्यता के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।
    यह शिकायत इसीलिए की गई क्योंकि समाचार पत्रों द्वारा भारतीय प्रेस परिषद व भारत चुनाव आयोग के निर्देशों को जानते समझते दरकिनार कर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चलने वाली संसदीय प्रक्रिया को चोट पहुंचाती है। यह सामग्री का प्रकाशन भूलवश व लापरवाही का हिस्सा नहीं है।
  1. इस समय समाचार पत्रों की गतिविधियां कागज पर प्रिंट तक नहीं सीमित है। मैं आपके समक्ष यह कहना चाहता हूं कि समाचार पत्र व पत्रिकाएं कागज पर प्रिंट संस्करण निकालने के लिए पंजीकृत हैं, लेकिन उसी पंजीकृत ब्रांड का उपयोग वे इलेक्टॉनिक मीडिया में भी करते हैं। वे प्रिंट संस्करण को इलेक्टॉनिक माध्यमों से प्रसारित करते हैं। इलेक्टॉनिक माध्यमों से प्रिंट के लिए पंजीकृत ब्रांड का इस्तेमाल कर प्रतिक्रियाएं व टिप्पणी करते हैं। इस हालात में प्रिंट संस्करण की परिभाषा स्वत: विस्तारित हो जाती है। किसी भी परिभाषा की व्याख्या समय काल के साथ होती है। प्रिंट की परिभाषा आज के संदर्भ में केवल वहीं नहीं हो सकती है, जिसमें कागज पर किसी प्रकाशन को प्रिंट माना जाता है और जिसके लिए पुरानी तकनीक पर आधारित मशीन का इस्तेमाल किया जाता है। नई तकनीक के साथ प्रकाशन के अर्थ बदल गए हैं। कागज पर प्रिंट होते थे और हैं लेकिन जब से इलेक्टॉनिक माध्यमो का विकास हुआ है, प्रकाशन वेब साईट पर भी होते हैं। यानी कागज और वेबसाइट दोनों पर प्रकाशन को प्रकाशन माना जाता है। वेबसाइट पर भी प्रकाशन को प्रिंट माना जाता है।
    मैं यह अनुरोध करता हूं कि भारतीय लोकतंत्र के प्रति सचेत भाव से मेरी शिकायत पर विचार करें व कार्रवाई करें। पाठको को याद होगा कि असम विधानसभा का चुनाव दो चरणों में हुआ था और दूसरे चरण के मतदान को प्रभावित करने के लिए असम के समाचार पत्रों में विज्ञापन के जरिये भाजपा के जीत सुनिश्चित होने का दावा किया गया था।

स्थिति यह हो गई कि अफवाह को खबर के रुप में भरोसा करने का दबाव बनाने वाले खलनायकों का दबदबा लगातार बढ़ता चला गया है और लोकतंत्र की संस्थाओं पर काबिज लोग संस्थाओं को मूक दर्शक बने रहे देने की स्थिति को अपनी उपलब्धि मान रहे हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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