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हमारा रावेन रामायण का रावण नहीं : उषाकिरण आत्राम

हिंदुओं के रामायण का रावण हम गोंडी समुदाय के पुरखे रावेन से मेल नहीं खाता। मैं तो मानती हूं कि गोंडी सभ्यता का रावेन मिटाने के लिए ही रावण की अवधारणा फैलायी गई। पढ़ें, उषाकिरण आत्राम का यह संबोधन

[उषाकिरण आत्राम गोंडी साहित्य व संस्कृति की अध्येता हैं। प्रस्तुत आलेख उनके द्वारा सोमैय्या यूनिवर्सिटी, मुंबई में 3 फरवरी, 2023 को ‘रिफ्लेक्शंस ऑन द रामायणा’ शीर्षक और गुरू घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर में 13 मार्च, 2023 को ‘गोंडी रामायण में राम’ शीर्षक व्याख्यान में दिये गये संबोधनों का संपादित स्वरूप है।]

रामायण में लंकापति रावण का उल्लेख किया गया है। उन्हें हम आदिवासी अपने समुदाय का पुरखा मानते हैं। हम ऐसा क्यों मानते हैं, यह समझने के लिए पहले कोयामुरी द्वीप का मानववंश और विस्तार जानना बहुत जरूरी है। 

करोड़ों साल पूर्व इस देश का नाम कोयामुरी द्वीप था। इसे ही शंबू द्वीप भी कहा गया। यह गोंडवाना भूभाग था। गोंडी इतिहास में मानव की उत्पत्ति का इतिहास उपलब्ध है। हमारा इतिहास हमें यह बताता है कि जब धरती पर महाप्रलय आया और पूरी धरती जलमग्न हो गई थी। तब अमुरकोट (अमरकंटक) पर्वत ऐसा था, जो पानी में डूबा नहीं था। 

गोंडी इतिहास और साहित्य के अग्रणी अध्येता रहे डॉ. मोतीरावेन कंगाली ने इस बारे में विस्तार से बताया है कि कैसे अमुरकोट पर्वत पर फरावेन सई रांगरा ने दो बच्चों को जन्म दिए। वो थे आदिरावेन पेरियोल एक पुरुष और सुकमापेरी एक स्त्री। बड़े होने पर इसी से वंश विस्तार होकर मानव वंश आगे बढ़ा। इसीलिए आदिरावेन पेरियोल को प्रथम पिता और सुकमापेरी को प्रथम माता के रूप में गोंडी सभ्यता में पूजा जाता है। हम इन्हीं को अपना आदि पुरखा मानते हैं। 

इन्हीं के नाम से सल्लेगागरा नामक एक प्रतीक प्राचीन काल से आदिमानव बने पृथ्वी के सभी क्षेत्र में बना के रखे। आर्यों के आगमन के बाद उन्होंने इसको शिवलिंग कहा और कहा कि इसी से सृष्टि की शुरूआत हुई। जबकि यह गोंडी संस्कृति में इसे सल्लेगागरा कहा जाता है। हमारे पुरखे संभूसेक रहे। यही वह भूमि है, जहां मानव सभ्यता के विभिन्न सोपान रचे गए। अनाज उत्पादन के लिए कृषि, पशुपालन, धातु शोध, औजार-हथियार निर्माण से लेकर सोना-चांदी, हीरा-मोती तक खोजे गए। पशु-पक्षी के आवाज से भाषा आई। इस विकास की दास्तान आज भी गुफाओं में बने भित्ति चित्र बताते हैं। 

गोंडी परंपरा हमें यह बताती है कि 84 लाख पशु व पक्षी हैं। वहीं पेड़-पौधों की संख्या 52 लाख है। हमारे पुरखों ने वनस्पतियों की खोज की और उन्हें नाम दिए। नदी-नाले, समंदर, और मैदानी इलाकों को प्रथम नाम हमारे पुरखों ने दिए। उन्होंने ही खगोल और भूगोल का अध्ययन किया। सृष्टि के काल चक्रानुसार सभ्यता की नींव डाली। 

हमारे पुरखों ने मानववंशशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणितशास्त्र, खगोलशास्त्र, वायुशास्त्र, जलशास्त्र, राज्यशास्त्र आदि की अवधारणाओं को स्थापित किया। शंबू काल में ही एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया गया, जिसमें हर मानव एक था और धरती पर रहनेवाले सभी प्राणी समाज के हिस्से। पंचमहा शक्ति को बड़ापेन या पेरसापेन या फिर बड़ा देव यानी सर्वशक्तिमान माना जाने लगा था। शंबू द्वीप में ऐसे 750 गणसमूह बनाए गए। सभी गणसमूहों को एक पशु, एक पंछी और एक पेड़ कुलचिन्ह के रूप में दिया गया था। इन्हें टोटेम कहा गया। जैसे कि पुरार जनजाति का कुलचिन्ह कबूतर है, पन्नी जनजाति के लोगों का कुलचिन्ह मेंढ़क, मीणा जनजाति का कुलचिन्ह मछली, वृत्त जनजाति के लोगों का कुलचिन्ह नाग, नल वंश वालों का कुलचिन्ह हंस, गुप्त वंश के लोगों का कुलचिन्ह मकड़ी, कोल समुदाय के लोगों का कुलचिन्ह भेड़िया, सिरीसटवा जनजाति का कुलचिन्ह तोता, शुंग जनजाति के लोगों का कुलचिन्ह शंख, नई समुदाय के लोगों का कुलचिन्ह कुत्ता, वाकाटक वंश का कुलचिन्ह जंगली बिल्ली, पुल्ली वंश का कुलचिन्ह सिंह, मुंडा समुदाय के लोगों का कुलचिन्ह बंदर, करूचुरी समुदाय के लोगों का कुलचिन्ह साही, काकतेय वंश का कुलचिन्ह कौआ, और रावेन वंश के लोगों का कुलचिन्ह नीलकंठ पंछी। यह सभी टोटेम गोंडी भाषा में हैं।

सोमैय्या यूनिवर्सिटी, मुंबई में आयोजित व्याख्यान को संबोधित करतीं उषाकिरण आत्राम

इन गण्समूहों में से कृषि करनेवाले से लेकर राज्य की भूमि और समाज की रक्षा करने वाले बहादुर रक्षक भी शामिल थे। इनमें महिषासुर, बाणासुर, मयदानव, पुलत्स्य, वृत्तासुर, शंखासुर जैसे अनेक महापराक्रमी गण प्रमुख हुए। उन्होंने शंबू द्वीप में अपने-अपने गणराज्य का विस्तार किया। 

मातृशक्ति को सर्वोच्चशक्ति मानने वाले गणनायकों की पहचान उनके मां के नाम से होती थी। बाद में आखिरी शंभूसेक और पारी कुपार लिंगो इस विज्ञानवादी समाज के व्यवस्थापक थे। यह सभी प्राचीन कोयामुरी द्वीप की प्रथम माता सुकमापेरी और पिता आदिरावेन के वंशज हैं। 

रावण जिसका चरित्र वाल्मीकि और तुलसीदास कृत रामायण में अत्यंत नालायक के रूप में किया गया है। उन्हें हम अपना पुरखा मानते हैं। जबकि हिदू ग्रंथों में उन्हें पापनिष्ठ, अहंकारी, दुर्जन, चांडाल आदि कहकर अपमानित किया गया है। साथ ही उन्हें दस मुख, बीस हाथ, बेडौल शरीर, बड़े-बड़े दांत व कर्कश आवाज वाला राक्षस बताया गया है । इस तरह हिंदू धार्मिक ग्रंथों के जरिए लोकमानस में रावेन को विद्रूप कर प्रस्तुत किया गया, जिससे लोगों के मन में उसके प्रति घृणा, व्यंग्यपूर्ण और अपमानजनक भावनाएं भर गईं। इस प्रकार हिंदुओं के रामायण का रावण हम गोंडी समुदाय के पुरखे रावेन से मेल नहीं खाता। मैं तो मानती हूं कि गोंडी सभ्यता का रावेन मिटाने के लिए ही रावण की अवधारणा फैलायी गई। 

रामायण सच है या झूठ है? या फिर यह काल्पनिक है या मिथ्या, इससे गोंडी संस्कृति और आदिवासी संस्कृति का कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि हिंदुओं का न तो राम हमारा आराध्य है और ना ही हमें उसके रावण में कोई विश्वास है। हमारे लिए तो प्राचीन काल में जो ‘फरावेन सई रांगरा’ से आदिरावेन पेरियोल और सुकमापेरी के वंश का जो रावेन है, जिसे सभी आदिवासी, सभी 750 गणसमूहों के लोग पूजते हैं। हम आदिवासी उसको अपना सम्राट, पुरखा, महाप्रतापी, सभी शास्त्रों का अध्ययनकर्ता मानते हैं। हम उसेमातृपूजक और धरतीपूजक मानते हैं, जो पशु-पक्षी, पेड़-पौधों सभी से प्यार करता था। वह समूहवादी न्यायप्रिय, प्रजापालक और लोकप्रिय गणनायक था। वह आदर्श पिता था जो कुटुंबवत्सल था। विश्व में जिसकी राजधानी लंका थी, जो सोने की थी। बड़े-बड़े शस्त्रागार थे और उसके पास धन का विपुल भंडार था। हीरे-मोतियों से उसके खजाने भरे पड़े थे। वह महानसाहित्यकार था, जिसने कई ग्रंथ लिखे थे। उस समय कोयाभाज और चित्रलिपि थी, जिसमें रावेन ने ग्रंथ रचे थे। उसके सारे ग्रंथ जला दिये गये, हमारी लिपि नष्ट कर दी गयी। हमारे पुरखे रावेन के समय में विश्व प्रसिद्ध ग्रंथालय, प्रयोगशालाएं थीं। खुद के विश्वविद्यालय थे, जिसमें देश-विदेश के लोग अध्ययन करने आते थे। ये वे कारण हैं, जिनके चलते हम रावेन को अपना महान पुरखा मानते हैं। साथ ही उन्हें महानायक और महात्मा मानते हैं। 

चंद्रपुर, महाराष्ट्र के चांदागड़ के किले की दीवार पर रावेन की प्रतिमा

कई लोग सवाल करते हैं कि उसका अनुवांशिक संबंध क्या है? गोंडी सभ्यता में आदिरावेन पेरियोल और सुकमापेरी के वंशज रावेन थे। वो रावेन वंश के थे, जिसमें लंकापति रावेन का जन्म हुआ। सारे गोंडी जन रावेन को अपना राजा मानते हैं। गोंडी भाषा में रावेन का मतलब नीले कंठ वाला पंछी होता है। 

रावेन का परिचय

असल में नीलकंठ पंछी रावेन का कुलचिन्ह था। रावेनवंशी हमारे महान पुरखे का पूरा नाम था– राऊजोनेर वरेंदु नरेंदर। गोंडी में इसका मतलब होता है। रा से राऊजोनेर यानी ताड़। वे से वरेंदु यानी जंगल और न से नरेंदु यानी राजा। इस प्रकार तीन अक्षरों के मेल से रावेन शब्द का निर्माण होता है।

ताड़ का वृक्ष मडावी गोत्र का टोटेम है। ‘भारत से आर्य’ किताब मेें लेखक रामदेव पासवान का भी यही मत है। 

हिंदू ग्रंथ रामायण में विश्वश्रवा को रावण का पिता बताया जाता है। जबकि हम गोंडी जिस रावेन को मानते हैं, उनके पिता का नाम कुवरेव विरेंदर था। उनके पिता यानि रावेन के दादा का नाम पुलत्स्तय था। पुलत्स्तय का मतलब गोंडी भाषा में सबसे बलवान सिंह होता है। इसका मतलब पुलत्स्तय का टोटेम सिंह था। मड़ावी गोत्र का एक टोटेम सिंह भी है।

सूर्पणखा उसकी बहन थी। उसका मतलब गोंडी में ताड़ का सुंदर पत्ता होता है। इससे पता चलता है कि रावेन का टोटेम ताड़ वृक्ष था। यह बात एल.के. मड़ावी नामक गोंडी ग्रंथकार ने भी अपनी रचना में कही है। 

हिंदुओं के रामायण में रावण की माता का नाम कैकसी बताया गया है, जो एक राक्षस की पुत्री थी। उसकी पत्नी मंदोदरी प्राचीन मयनार (दिल्ली) के गण प्रमुख की बेटी थी। वह बड़ा शास्त्रज्ञानी, विज्ञानवादी प्रसिद्ध अभियंता था। वह बड़े और विशाल महलों का निर्माता था। उसने ‘मयामतम’ नामक ग्रंथ लिखा था। उसने प्रथम हवाई जहाज बनाकर पुत्री मंदोदरी को भेंट दिया था। मयदानव राक्षस गणों का प्रमुख था। वह विशाल भूभाग का स्वामी था। इसी तरह अहिरावेन, महिरावेन, दोदल्या रावेन भी इसी परिवार के थे। 

गोंडी संस्कृति में रावेन को गोंड राजा क्यों कहते हैं? यह जानना चाहिए।

गोंडी संस्कृति में मड़ावी गोत्र सात देव वाले होते हैं। उनका टोटेम वृक्ष ताड़ का वृक्ष है। यही रावेन का टोटेम था। साल के पेड़ों का जंगल, जिसे दंडकारण्य कहते हैं, वही उसका राज था। विंध्याचल में जो गोंड लोगों का प्रदेश है, वहां के गोंड ताड़ वृक्ष और रावेन की पूजा करते हैं, ऐसा जी.एस. सांकलिया और जी. रामदास, व्यंकटेश आत्रामजी और एल.के. मड़ावी का भी कहना है। यही बात डॉ. मोतीरावण कंगाली और मारुति उईके आदि ने भी अपने शोधों में कही है।

अमुरकोट (अमकंटक) को गोंडों की उत्पत्ति भूमि मानी जाती है। लोकगीत व लोककहानियों में इस उत्पति स्थान का वर्णन है। अमुरकोट गोंडी शब्द है। मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में रावेनग्राम गांव में रावेन उत्सव आज भी लोग धूमधाम से मनाते हैं। लगभग दस फुट ऊंची मूर्ति वहां पर प्राचीन समय से स्थापित है। यह मूर्ति कब स्थापित हुई, इस बारे में संजय शर्मा ने 2009 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अपनी एक रपट में कहा है। ऐसे ही मंदसौर, मध्य प्रदेश के खानपुर येठिया में रावेन की करीब 34 फीट ऊंची प्रतिमा है। भालखेड़ी, मध्य प्रदेश में भी रावेन की 25 फुट ऊंची मूर्ति है। महाराष्ट्र के चंद्रपुर चांदागढ़ के आत्राम गोंड राजाओं ने 900 साल तक राज किया। उनका विशाल सुंदर किला आज भी है। वहां इस किले के चार नंबर गेट, जिसे बिनबा गेट कहा जाता है, उसके ऊपर रावेन की अतिप्राचीन मूर्ति है। वहां पर गोंड अपने राजा रावेन का उत्सव मनाते थे। उन्हीं के बसाये बाबूपेठ में रावेन की 25 फुट की भव्य मूर्ति है, जो मराठा काल में पत्थर-गोबर मारकर विद्रूपित किया गया है। लेकिन यह आज भी है। मैं इसी गोंड घराने की बेटी हूं। 

अमरावती, महराष्ट्र के इलाके में कोरकु जनजाति के लोगों द्वारा गड़ पूजा का दृश्य। इसे हिंदूवादी मेघनाथ पूजा कहते हैं

अमरावती, महाराष्ट्र में कोरकु समुदाय के गोंड कोरंदु (रावेन के पुत्र, जिन्हें रामायण में मेघनाथ कहा गया है) और रावेन की स्मृति में लकड़ी का ऊंचा प्रतीक बनाकर धूमधाम से पूजा किया जाता है। इसे खंडेरा पूजा कहते हैं। इसमें लकड़ी के ऊंचे चार खंभे होते हैं। इसे इस तरह से बनाते हैं कि इसमें सिर और हाथ नहीं होता। इसमें एक लंबी सीढ़ी लगी होती है। रावेन का बेटा भी बुद्धिमान और महाप्रतापी था। उसको कोई हरा नहीं सकता था। वह सिर्फ मातृशक्ति कली कंकाली की हर सुबह प्रार्थना करता था और शस्त्रविहीन रहता था। रामायण में भी साफ है कि राम-लक्ष्मण के साजिश के तहत विभीषण ने षडयंत्र रचा और राम-लक्ष्मण ने मेघनाथ को धोखे से तब मार दिया, जब वह दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा था। राम-लक्ष्मण ने तब उसका सिर उड़ा दिया और दोनों हाथ काट दिए। फिर भी उसने अपने खून से जमीन पर लिखा– मेरा सिर राम-लक्ष्मण ने धोखे से काटा है। पढ़कर रावण आगबबूला हो गया। उसका दुख कोरकु गोंड के द्वारा गाए जानेवाले गीतों में सामने आता है। बिना सिर वाला और कटे हाथ वाले मेघनाथ की स्मृति में लोग ऐसा ऊंचा प्रतीक बनाते हैं। इसे गड़ पूजा, खंडेरा पूजा, कहीं पर मेघनाथ पूजा भी कहते हैं। 

महाराष्ट्र में नागपुर काे गोंड राजा बख्तबुलंदशाह उईके ने बसाया है। वहां पर गर्रा चौक है। वहां पर गर्रापूजा (गड़ पूजा या रावेन पूजा) धूमधाम से मनाई जाती थी। उसी वक्त चांदागड़ के आत्राम लोगों की राजधानी में गड़ पूजा होती थी। गड़चिरौली के परसवाड़ी गांव में मनिरावेन दुग्गाजी ने रावेन की लकड़ी की प्रतिमा 25 साल तक बनवाई। वे दस दिनों तक विविध विषयों पर व्याख्यान रखते थे। इस क्षेत्र में सभी रावेन की बड़ी श्रद्धा से पूजा करते हैं। रावेन के नाम से बहुत सारे गांव हैं, जैसे रावनबाड़ी, रावेनर, रावणखिंडी, रावेनकसा, रावेनझरी, रावेनपट्टी, रावनपली और रावनपेठ। गोंड आदिवासियों के लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति मेंरामायण के राम का कहीं पर जिक्र नहीं होता है। न ही राम की कथा-कहानी को कोई जानता है। उससे उनका कुछ लेना-देना नहीं, लेकिन वे रावेन का गुणगान जरूर करते हैं। जब रावेन पूजा करते हैं तब यह गीत गाते हैं– 

रेना रेना रे रे रे ऽ ऽ
रेनाss रेना ऽ ऽ  रेना ऽ ऽ रे
कोया पे राजप राजाले नावे
दायी वो सोनाले अवाले
कोय ये वंशीतोर राजाले नामे
दायी वो सोनाले अवाले
केयातोरे सुमरन
वीतोरोठे बानावो सोनाठे अवाले
कुपार लिंगो ना तात्काल नावे

इस गीत में वे गाते हैं कि हे कोयावंशीय राजा, तू हमारे वंश का है, इसीलिए तुम्हें याद करते हैं। तुम्हारी नगरी सोने के नगरी थी। तुम्हारी मां और बहनें तुम्हें याद करती हैं। हे सोने के नगरी के कोयतुर राजा, हम तुम्हारा स्मरण करते हैं।शंबू और लिंगो के उपासक राजा तू हमारे वंश का है। 

अमरावती, महाराष्ट्र के मेलघाट में मेघनाथ व रावेन का उत्सव दस दिनों तक मनाया जाता है। तब महिलाएं गीत गाती हैं। उस गीत में वह रावेन को निष्पापी बताती हैं। वह गाती हैं कि सीता को उसने नहीं भगाया या फिर ले गया, बल्कि सीता स्वयं रावेन का आकर्षक व्यक्तित्व, विद्वता और भुजबल देखकर उसके साथ चली गई। गीत है–

“लंका रावना, जुगी टऊटेन ओलेन जोय
लंका रावना, जुगी जीडमा नोडया जोय
लंका रावना जुगी टऊटेन ओलेन जोय ।।1।।

लंका रावना टीका ढेंका डोयना जोय
लंका रावना चुनुका चिंगी डोयना जोय
लंका रावना दंडा झुली डोयना जोय
लंका रावना जुगी टाऊटेन ओलेन ।।2।।

बहरहाल, वह 1930 में संघ परिवार के लोगों ने नागपुर में रावण का पुतला जलाया। और अब वे पूरे देश में जलाते हैं।। ऐसा कर वे नई पीढ़ी को कौन-सा संदेश दे रहे हैं? वे अपना द्वेष, जातीयता, विषमता और बदले की भावना को संभाले रहे हैं और विषमता का बीज बो रहे हैं। यह गलत भावना है। देशवासियों! आत्मपरीक्षण करो!

(संपादन : समीक्षा/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

उषाकिरण आत्राम

उषाकिरण आत्राम की गिनती प्रमुख आदिवासी लेखिका व सांस्कृतिक मुद्दों की कार्यकर्ता के रूप में होती है। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियां में मोरकी (काव्य संग्रह : 1993 में गोंडी भाषा और बाद में हिंदी और मराठी में अनुवादित), 'कथा संघर्ष' (1998) और 'गोंडवाना की वीरांगनायें' (2008) हैं

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