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‘मूल से हटे बिना कुछ नया नहीं जोड़ रहे हैं, तो हम लोक-संस्कृति को बेहतर बनते नहीं देख पाएंगे’

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के जोगिया गांव में इस साल फिर ‘लोकरंग’ का आयोजन किया गया। यह आयोजन अब अंतरराष्ट्रीय बनता जा रहा है। इस बार आदिवासी समुदायों के कलाकारों ने अपनी पारंपरिक प्रस्तुतियों से इसे खास बना दिया। बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

लोक संस्कृति का निर्माण समाज के हाशिए पर पड़े लोग औरतें, दलित-पिछडे़, जनजाति समाज ही करते हैं। इसमें उनकी जय-पराजय, हर्ष-विषाद और संघर्षों की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद (जिला) के फ़ाजिलनगर के जोगिया गांव में गत 14-15 अप्रैल, ‌2023 को लोकरंग समारोह में यह बात बार-बार सामने आयी।

 

पिछले सोलह वर्षों से हो रहा यह आयोजन वास्तव में लोक संस्कृति का अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव बन गया है। इसमें न केवल भारत के, बल्कि नीदरलैंड, मारीशस, सुरीनाम तथा‌ दक्षिण अफ्रीका से आए हुए भारतीय मूल के कलाकार भी भाग लेते हैं। ये वे हैं, जिनके पूर्वज सदियों पहले गिरमिटिया मजदूर बनाकर इन देशों में ले जाए गए थे तथा वहां आज भी लोगों ने अपने पूर्वजों की भाषा, जिसमें विशेष रूप से भोजपुरी और अवधी है, को बचाकर रखा है। अपनी भाषा और संस्कृति के लिए वे अपनी-अपनी सरकारों से संघर्षरत भी हैं। 

इस बार लोकरंग में दक्षिण अफ्रीका के भोजपुरी गायक केम चांदलाल ने भोजपुरी गायन की शानदार प्रस्तुति दी। इस आयोजन की विशेषता यह है कि इसमें कला, लोक नृत्य, लोक वाद्य तथा लोक नाट्य सभी की सामूहिक प्रस्तुति होती है। संभावना कला मंच, गाजीपुर के चित्रकार करीब एक माह पहले ही गांव में रहकर समूचे आयोजन परिसर को अपनी कलाकारी से सुसज्जित कर देते हैं। उनकी कलाकृतियों में भित्ति चित्र, कविताएं, पोस्टर शामिल होते हैं। अपने प्रयास से वे पूरे गांव को कलाग्राम में तब्दील कर देते हैं। 

इस बार भी उनका प्रयास रंग लाया और विशेष रूप से बांस व मिट्टी के बने बखार (अनाज रखने के लिए बनाए गए बड़े पात्र) पर की गई चित्रकारी ने लोगों का मन मोहा। ये चित्र साल भर इन बखारों पर बने रहते हैं और लोगों को लोकरंग महोत्सव की मधुर स्मृतियों से वाकिफ कराते हैं। 

आयोजन के दौरान नृत्य प्रस्तुत करते आदिवासी कलाकार

इस बार झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़, नेपाल के तराई इलाकों में रहनेवाले जनजाति समाज के लोक गायन और लोक नृत्य प्रमुख आकर्षण के केंद्र थे। इस मौके पर झारखंड की सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता व चर्चित साहित्यकार वंदना टेटे के नेतृत्व में गुमला से आई टीम ने कई आदिवासी नृत्य प्रस्तुत किये। वंदना टेटे ने बताया कि आदिवासी लोकनृत्यों में आदिवासी समाज की तरह सामूहिकता की भावना होती है, जिसमें बहुत ही छोटी कविता में सारी बातें कह दी जाती है। इसमें प्रकृति और पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं से गहरे लगाव की अभिव्यक्ति होती है। साथ ही इसमें स्त्री-पुरुषों में कोई भेदभाव नहीं होता है। सभी मिलकर सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं। पारंपरिक रूप से स्त्रियां भी पुरुषों की तरह वाद्ययंत्र बजाती हैं।

इसी तरह की सामूहिकता बिहार के पश्चिम चंपारण के थारू जनजाति समूह के नृत्य में भी देखने को मिली। वहीं इस बार का आयोजन विविधतापूर्ण समृद्ध संस्कृति की छाप छोड़ गया। नुपुर लोककला संस्थान, सागर, मध्य प्रदेश द्वारा ‘बधाई’ और ‘नवरता’ लोक नृत्य की शैली गुमला और पश्चिम चंपारण के थारू जनजाति के नृत्य से अलग दिखा। जहां एक ओर‌ जनजाति समुदायों के नृत्य में प्रकृति से प्रेम और जिंदगी की जद्दोजहद देखने को मिली तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश के कलाकारों के नृत्य में राम के अयोध्या आगमन की खुशी। 

आदिवासी लोक नृत्य हज़ारों साल पुरानी परंपरा से जुड़े हैं और उसी तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहते हैं। यह बात स्पष्ट रूप से देखने में आती है कि हमारे लोक जीवन में प्रगतिशील तथा प्रतिक्रियावादी तत्व दोनों हैं। 

इसी आयोजन के दौरान गत 16 अप्रैल को एक गोष्ठी ‌का आयोजन किया गया, जिसका विषय ‘लोक-संस्कृति का भविष्य बनाम भविष्य की लोक-संस्कृति’ था। इस गोष्ठी में दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और उत्तर प्रदेश के कई जिलों से आए बुद्धिजीवियों और लोककला से जुड़े लोगों ने अपनी बातें रखीं। इसमें कहा गया कि दुनिया तेजी से बदल रही है। कृषि गतिविधियों के स्वरूप बदल रहे हैं। एक समय फसल की कटाई से लेकर मंडाई तक सारे काम खेतिहर मजदूर करते थे, जिनमें महिलाओं की भी बराबर भागीदारी होती थी, अब आधुनिक थ्रेसर और हार्वेस्टर मशीन उपयोग में लाए जाने लगे हैं। इसका दोहरा असर पड़ा है। एक असर तो यह कि गांवों में कृषि आधारित रोजगार न के बराबर रह गए हैं और दूसरा यह कि लोक गीतों से दूरी बढ़ी है। पहले कृषि कार्यों के दौरान लोक गीतों का महत्व बना रहता था।

बखार पर बनाई गई पेंटिंग व अनाज मांड़ती एक वृद्धा

महाराष्ट्र के समाजवादी चिंतक डाॅ. सुरेश खैरनार ने कहा कि “हमारा पुराना पारिवारिक ढांचा‌ स्त्रियों के शोषण पर टिका था। उनके श्रम का कोई मूल्य नहीं था।‌ उन्होंने अपने बचपन में देखा था कि घर का चूल्हा निरंतर जलता रहता था। घर की स्त्रियां; जिनमें उनकी मां, ,भाभी और दादी सभी थीं,‌ निरंतर रसोई तथा घर के अन्य कामों‌ में लगीं रहती थीं। किसानों की स्त्रियां तो‌ घर के सभी काम करने के बाद ‌खेतोंं पर भी जाती थीं। उनके द्वारा उस समय गाए जाने वाले गीतों में इसकी अभिव्यक्ति मिलती है।” 

इस मौके पर कोलकाता की स्त्री विमर्श की अध्येता डाॅ. आशा सिंह ने भी इसी तरह के अपने विचार रखे। वहीं झारखंड से आई वरिष्ठ लेखिका एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता वंदना टेटे ने कहा कि “आदिवासी संस्कृति पुरखा संस्कृति है, जो हमारी ज्ञान-परंपराओं और लोकगाथाओं से बनी है। आज जो लोग लोक संस्कृति के ज्ञान का भ्रम प्रदर्शित करते हैं, वास्तव में उसमें जी‌ते नहीं हैं। आज की बदलती दुनिया में अगर हम मूल से हटे बिना कुछ नया नहीं जोड़ रहे हैं, तो हम लोक संस्कृति को बेहतर बनते नहीं देख पाएंगे।” 

इस गोष्ठी में मैंने अपनी बात रखते हुए कहा कि स्त्री विरोधी परंपराओं को खारिज किया जाना चाहिए। मसलन, बिहार के आंचलिक पर्व को महिमामंडित कर राष्ट्रीय पर्व बना दिया गया है। ऐसा करनेवालों में उत्तर भारत का प्रगतिशील और वामपंथी तबका भी शामिल है जो इसे लोकजीवन और लोकतत्व का पर्व करार देता है। जबकि पुत्र प्राप्ति की कामना वाले इस पर्व में गाए जाने वाले लोकगीतों को देखें, तो पाएंगे कि ज्यादातर स्त्री-विरोधी हैं। इस गोष्ठी में यह बात भी बार-बार उभरकर सामने आई कि लोक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए सोशल मीडिया का किस तरह से प्रयोग किया जा सकता है। हालांकि यह आज भी अश्लील, भौड़े और द्विअर्थी गीतों से भरा हुआ है। लोक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए इसका प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए, नहीं तो इसके घातक परिणाम सामने आ सकते हैं। नेहा सिंह राठौर जैसी एक लोकगायिका ने संप्रदायवाद और फासीवाद के ख़िलाफ़ बहुत कुशलता से लोकगीतों का इस्तेमाल किया है। हालांकि इसके लिए उन्हें आज सरकारी कोपभाजन का शिकार भी बनना पड़ रहा है। इसी लोकरंग में लखराज लोककला मंच, सुल्तानपुर द्वारा अवधी बिरहा गायन प्रस्तुत किया गया था, जिसके मुख्य कलाकार डॉ. बृजेश यादव रहे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली से पीएचडी की उपाधि अर्जित की हैं। उन्होंने अपने गायन में बहुत ही खूबसूरती से धार्मिक पाखंड, सांप्रदायिकता तथा फासीवाद के मुखालिफत को स्थान दिया है तथा आज उनकी लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ रही है। 

इस गोष्ठी में जनसंस्कृति मंच के सचिव मनोज सिंह व लेखक सह संस्कृतिकर्मी सुभाष चंद्र कुशवाहा सहित सभी का मानना था कि पढ़े-लिखे लोगों को लोक-संस्कृति और लोकसाहित्य का गहन अध्ययन करना चाहिए, जिससे कि वे इनमें से सकारात्मक चीज़ों को निकालकर आज के उभरते हुए जन आंदोलनों में इसका प्रयोग कर सकें।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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