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परमाणुवाद के जनक आजीवकों को जानें (अंतिम भाग)

आजीवक पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु के अलावा पांचवे तत्व के रूप में ‘जीव’ की महत्ता को स्वीकारते हैं। लेकिन ‘जीव’ का तब तक कोई योगदान नहीं है, जब तक बाकी चारों प्रमुख तत्वों के परमाणु सक्रिय होकर एक-दूसरे से मिलने को उद्यत नहीं होते। पढ़ें, ओमप्रकाश कश्यप के आलेख शृंखला का अंतिम भाग

दूसरे भाग के आगे

आजीवकों तथा उनके दर्शन से संबंधित आमतौर दो शब्द मिलते हैं– ‘आजीवक’ या ‘आजीविक’। हिंदी में ‘आजीवक’ ही चलन में है। इसे लेकर सामान्य तौर पर कोई मतभेद भी नहीं है। लेकिन अंग्रेजी में सुरेंद्रनाथ दासगुप्त जैसे एक-दो लेखकों को छोड़कर बाकी सबने ‘आजीविक’ ही लिखा है। ऐसे में आजीवक दर्शन के सामान्य अध्येता के लिए मुश्किल हो सकती है कि सही किसे माना जाय– ‘आजीवक’ को या ‘आजीविक’ को? ‘अमरकोश’ में ‘आजीव’ के लिए ‘आजीवव्यतेऽनेनेति आजीवः’, ‘जीव्यतेऽनयेति जीविका’, ‘जीवकः’ आदि आया है।[1] इन पदों का आशय अपनी आजीविका का स्वयं उपार्जन करने वाले श्रमण से है। ‘हिंदी शब्द सागर’ में भी ‘आजीविक’ का पर्याय– जीविका, धंधा, जीविका का साधन, उचित लाभ आदि बताया गया है। अर्थ-विस्तार के रूप में आजीवक के लिए ‘अचेलक’ भी आता है, जिसके अर्थ ‘नग्नक’, ‘वस्त्र न पहनने वाला’, ‘अत्यल्प श्वेत वस्त्र रखने वाला’ भिक्षु आदि हैं। इनके अलावा ‘आजीवक’ के पर्याय के रूप में ‘गोसालक द्वारा प्रवर्त्तित धार्मिक संप्रदाय का साधु’, ‘भिखमंगा’, भिक्षु जैसे शब्द भी मिलते हैं।

बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग में ‘सम्यक आजीविका’ को शामिल किया है, जिसका अर्थ है– ईमानदारी से अर्जन करना। ऐसे किसी कार्य को आजीविका बनाने से बचना जिससे किसी को कष्ट पहुंचता हो। क्या आजीवक दर्शन के संदर्भ में भी ‘आजीव’ का संबंध आजीविका से ही लिया जाना चाहिए? हरिपद चक्रवर्ती जैसे कई विद्वान इसी अर्थ में लेते हैं।[2] इसके लिए उन्होंने ‘मोनियर विलियम संस्कृत शब्दकोश’ को आधार माना है, जिसमें ‘आजीविक’ का अर्थ– ‘आजीविका के लिए विशिष्ट नियमों का पालन करने वाला’, ‘मक्खलिपुत्र गोसालक द्वारा स्थापित धार्मिक संप्रदाय का भिक्षु’ बताया गया है। हैरानी की बात है कि इसी शब्दकोश में ‘आजीविक’ का अर्थ ‘जैन’ भी दिया गया है।[3] खास बात यह है कि इससे थोड़ा-सा पहले ‘आजीवक’ शब्द भी आया है, जिसके अर्थपर्याय अलग न देकर, ‘आजीविक के समान’ – दिया है। आशय है कि सर मोनियर विलियम की निगाह में भी ‘आजीविक’ ही महत्वपूर्ण था। ‘हिंदी शब्दसागर’ में आजीवक को ‘गोसाल द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय का साधु (जैन)’ लिखकर मोनियर विलियम की परंपरा का अनुसरण किया गया है। लेकिन हरिपद चक्रवर्ती या किसी भी अन्य विद्वान ने ‘जैन’ का अर्थ स्वयं आजीविका चलाकर श्रमण-धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति से नहीं लिया है। इसके विपरीत बताया गया है कि जैन भिक्षु (और बौद्ध भी) बनने के लिए आजीविका का त्याग आवश्यक था।

एक समस्या और भी है। यदि आजीवक को ‘गोसाल द्वारा प्रवर्तित संघ का भिक्षु’ मान लिया जाए तो पूरण कस्सप, पकुध कच्चायन आदि के संप्रदाय के भिक्षुओं को क्या कहा जाएगा? बॉशम आदि विद्वानों ने इन्हें एक ही समवाय (समूह) से संबद्ध’ माना है। बौद्ध और जैन ग्रंथों में जहां भी बुद्ध एवं महावीर के समकालीन जिन छह संघ-प्रमुख का उल्लेख हुआ है, उनमें पूरण कस्सप, मक्खलि गोसाल, पकुध कच्चायन, अजित केशकंबलि, संजय वेलट्ठिपुत्त को आजीवक चिंतकों की श्रेणी में ही रखा गया है। इनमें पूरण कस्सप भी मक्खलि गोसाल से वरिष्ठ माने गए हैं।

‘हिंदी शब्द सागर’ में ‘आजीव्य’ को जीविका योग्य, जीविका बनाने योग्य, जीविका या रोजी-रोटी का साधन माना है। इसी से आजीवी शब्द भी बना है, जिसका अभिप्राय, ‘जीविकायुक्त, या एक प्रकार के भिक्षुक (एकदंडी)’ बताया गया है। इसके आधार पर हरिपद चक्रवर्ती इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि “श्रमणों का वह वर्ग, जो आजीविका के साधन पर निर्भर रहता था, धीरे-धीरे उसे ‘आजीव्य’ कहा जाने लगा।” इसके समर्थन में दूसरा तर्क पाणिनी के माध्यम से आता है। उनके अनुसार, ‘मंखत्व’ पद गोसालक पर लागू होता है, क्योंकि उनका काम तस्वीर दिखाकर आजीविका चलाना था। गोसालक के पिता ‘मंख’, भिक्षु थे। वे काष्ठपट्टिका पर शिव की तस्वीर दिखाकर आजीविका चलाते थे। ‘हर्षचरितम्’ में वाणभट्ट ने ‘यमपट्टिका’ दिखाकर आजीविका चलाने वाले व्यक्ति का उल्लेख किया है। उसके ऊपर यम का चित्र होता था। अशोकावदानम् में भी हम ऐसे निर्ग्रंथ (गरीब, मूर्ख) को पाते हैं, जिसने बुद्ध को अपमानित किया था। उससे नाराज होकर अशोक सारे ‘आजीविकों’ को दंडित करने की आज्ञा सुना देता है।

सवाल यह है कि ‘आजीवक’ को ‘आजीव्य’ या ‘आजीविका’ से जोड़ा जाना उचित है? यह ठीक है कि पाणिनी ने गोसालक के पिता को काष्ठपट्टिका पर शिव का चित्र लगाकर, उसके प्रदर्शन द्वारा आजीविका कमाने वाला बताया है। प्रव्रज्या से पहले स्वयं गोसालक भी अपने पैतृक व्यवसाय के अनुरूप ‘चित्रफलक हाथ में लेकर, पाणिनी के शब्दों में कहें तो– मंखत्व वृत्ति द्वारा, जीवन यापन करते थे।’[4] हम मक्खलि गोसाल के आजीवक होने के बारे में तो जानते हैं, लेकिन उनके पिता भी आजीवक मतावलंबी थे, यह बात कहीं सिद्ध नहीं होती। अनेक विद्वान तो मक्खलि गोसाल को ही आजीवक संप्रदाय का संस्थापक मानते हैं। ऐसे में उनके पिता ‘आजीवक’ कैसे हो सकते हैं? गोसालक की महावीर से भेंट उनकी प्रव्रज्या के दूसरे वर्ष में होती है। भगवतीसूत्र में इसका विस्तार से वर्णन है–

‘चातुर्मास पूरा होने पर महावीर ने राजगृह से नालंदा की ओर प्रस्थान किया। वहां से कोल्लाग सन्निवेश में जाकर ‘बहुल ब्राह्मण’ के यहां अंतिम मास-खमण (महीने में एक बार) का पारण (आहार ग्रहण करना) किया। गोसालक उस समय भिक्षा के लिए बाहर गया हुआ था। जब वह लौटकर तंतुवायशाला [बुनकर फैक्ट्री] में आया और महावीर को वहां नहीं देखा तो सोचा कि वे नगर में कहीं गए हैं। उन्हें खोजने के लिए वह नगर में पहुंचा। वहां बहुत खोजने पर भी महावीर का पता न चला तो निराश होकर फिर तंतुवायशाला में लौट आया। उसके बाद अपने वस्त्र, कुंडिका, चित्रफलक आदि सारी वस्तुएं ब्राह्मणों को देकर, दाढ़ी-मूंछ तथा सिर मुंडवाकर महावीर की खोज में निकल पड़ा।’[5]

जैन ग्रंथों के अनुसार यह गोसालक की महावीर का कथित शिष्यत्व स्वीकारने से पहले की घटना है। इससे साफ है कि श्रमण जीवन अपनाने के बाद ही गोसालक ने सांसारिक वस्तुओं के साथ-साथ, पैतृक पेशे के संसाधन, ‘चित्रफलक’ से भी छुटकारा पा लिया था। महावीर के साथ वर्षों भटकने के बाद वे उनसे अलग होते हैं। उसके तुरंत बाद उनकी भेंट छह दिशाचरों (यायावर श्रमणों) से होती है, तदनंतर वे खुद को ‘जिन’ घोषित कर, श्रावस्ती स्थित ‘कुंभकारायण’ में स्वतंत्र आजीवक संघ की स्थापना करते हैं। यही नहीं, मक्खलि गोसाल के अलावा महावीर और बुद्ध के समकालीन पूरण कस्सप, अजित केशकंबलि, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त, यहां तक कि उपक आजीवक, छह दिशाचर आदि जितने भी आजीवकों को पाते हैं, वे सभी के सभी श्रमण हैं। ‘अशोकावदानम्’ में एक ‘निर्ग्रंथ’ को चित्रफलक लेकर आजीविका कमाते अवश्य बताया गया है। परंतु बुद्ध का अपमानजनक चित्र दिखाकर आजीविका कमाने वाला सचमुच आजीवक ही था– यह इस ग्रंथ से प्रमाणित नहीं होता। अशोकावदानम् के अनुसार पुंडवर्धन नगर में ‘निर्ग्रंथ उपासक’ जिस चित्र को लेकर घूम रहा था, उसमें बुद्ध को निर्ग्रंथ (निगंठ) के पैरों में गिरते हुए दिखाया गया–

‘तस्मिंश्च समये पुण्डवर्धननगरे निर्ग्रन्थोपासकेन बुद्धप्रतिमा निर्गन्थस्य पादयोर्निपतिता चित्रार्पिता।’[6]

यह खबर अशोक तक पहुंची तो वह बेहद नाराज हुआ। बिना यह विचारे कि निर्ग्रंथ उपासक जैन या किसी और संप्रदाय का श्रमण भी हो सकता है, उसने पुंडवर्धन के सभी ‘आजीविकों’ को मौत के घाट उतारने का आदेश दे दिया–

‘दृष्टां च राज्ञा रुषितनाभिहितं। पुंडवर्धने सर्वे आजीविकाः प्रघातयितव्याः। यावदेकदिवसेऽष्टादश सहस्राणि आजीविकानां प्रघातितानि।’[7]

ध्यान देने की बात यह है कि कथित रूप से पुंडवर्धननगर के 18000 आजीविकों को मृत्युदंड देने के बाद भी बुद्ध के अपमान वाली प्रतिमाओं का प्रदर्शन बंद नहीं होता है। थोड़े अंतराल के बाद वैसी ही घटना पाटलिपुत्र में भी घटती है। वहां भी एक ‘निर्ग्रंथ’ बुद्ध की अपमानजनक प्रतिमा/चित्र के साथ उपस्थित होता है। अशोक नाराज हो जाता है। इस बार वह ‘कोई गलती नहीं करता’ है और आदेश देता है कि जो भी मुझे निर्ग्रंथ का सिर लाकर देगा, उसे हर सिर के बदले एक दीनार ईनाम दिया जाएगा–

‘तत पाटलिपुत्रे भूयोऽन्येन निर्ग्रन्थोपासकेन बुद्धप्रतिमा निर्ग्रन्थस्य पादयोर्निपतिता चित्रार्पिता। श्रुत्वा च राज्ञाऽमर्षितेन से निर्ग्रन्थोपासकः सबंधुवर्गो गृहं प्रवेशयित्वाऽग्निना दग्धः। आज्ञप्तं च यो मे निर्ग्रन्थस्य शिरो दास्यति, तस्य दीनारं दास्यामि। इति घोषितं।’[8]

दोनों घटनाओं में बुद्ध की अपमानजनक प्रतिमा के साथ उपस्थित होने वाला ‘निर्ग्रंथ’ है। लेकिन पहली घटना में अशोक ‘आजीविकों’ को मृत्युदंड देने का आदेश सुनाता है, दूसरी में निर्ग्रंथों को। क्या पहली घटना में अशोक द्वारा निर्ग्रंथों को ‘आजीवक’ समझ लेने की भूल हुई थी?

एक समय मगध आजीवकों के लिए विख्यात रहा। वर्तमान में जहानाबाद जिले में अवस्थित बराबर पहाड़ की गुफाओं में आजीवकों की जीर्ण-शीर्ण प्रतिमाएं

आमतौर पर पार्श्व और महावीर के अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा गया है। मोनियर विलियम संस्कृत शब्दकोश में ‘निर्ग्रंथ’ का मतलब, ‘सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त’, ‘ऐसा साधु जिसने खुद को संसार से अलग कर लिया है और जो एक साधु या यायावर श्रमण की तरह नग्न विचरण करता है’, ‘नग्न जैन या बौद्ध भिक्षु’ आदि से लिया है।[9] ‘श्रामण्यफलसुत्त’ में छह दार्शनिकों में से केवल एक को ‘निगंठ (निर्ग्रंथ) नाथपुत्त’ कहा गया है। निगंठ नाथपुत्त का अर्थ है– “नाथ (राजसी) परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति, जो निर्ग्रंथ हो गया, जिसकी गांठें खुल चुकी हों।” दीघनिकाय में निगंठ नाथपुत्त का निम्नलिखित वक्तव्य भी इसकी पुष्टि करता है–

“महाराज! निगंठ (ग्रंथियां, गांठें) चार प्रकार के संवरों से संयत रहता हैं।” यहां संवर का अर्थ है निग्रह, रोकना, दूर करना।

‘अशोकावदानम्’ में जिन्हें बुद्ध के अपमान के लिए दंडित करने का आदेश सुनाया जाता है, उन्हें सीधे ‘आजीविक’ बताया गया है। वे मक्खलि के पिता मंख की परंपरा के आजीवकेत्तर ‘भिक्षु’ हो सकते हैं। मक्खलि गोसाल और उसके अनुयायियों के लिए हिंदी और संस्कृत में ‘आजीवक’ और ‘आजीविक’ दोनों लिखे मिलते हैं। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में हेमचंद्र की ‘स्यादवाद् मंजरी’ की मल्लिषेण सूरि की टीका में भी आजीविक (आजीविकन) शब्द ही आया है– ‘चाहुराजीविकनयानुसारिणः।’[10]

‘आजीवक’ कहा जाए या ‘आजीविक’, इसे समझने में ए.एफ. रुडोल्फ हार्नले हमारी मदद कर सकते हैं। वे हमें महावीर और उन्हीं दिनों के महान धर्मवेत्ता के बीच भयंकर शत्रुता के बारे में बताते हैं। वह धर्मवेत्ता कोई और नहीं, गोसालक ही था– मंखली का बेटा या भिखारी, जिसने खुद को आजीवक श्रमणों के एक संप्रदाय के मुखिया के रूप में स्थापित किया था। ऐसा संप्रदाय जो इतना महत्वपूर्ण था कि उसका असर केवल उसके अपने समय में बल्कि शताब्दियों बाद भी बना रहा। इस कारण अशोक के स्तंभों पर भी उसका उल्लेख मिलता है।’[11]

हार्नर्ले के वक्तव्य से जो बात एकदम साफ हो जाती है, वह यह कि गोसालक सभी आजीवकों के मुखिया न होकर, उसकी एक शाखा के गुरु थे। श्रामण्यफलसुत्त में पूरण कस्सप, अजित केशकंबलि आदि के बारे में दिए गए विवरण भी इसी की पुष्टि करते हैं। उसमें इन सभी की ‘संघ प्रमुख’, ‘मत-संस्थापक’ आदि कहकर प्रशंसा की गई है। पूरण कस्सप को एक जगह 500 शिष्यों के बीच प्रवचन देता बताया गया है, तो अन्यत्र उनके शिष्यों की संख्या 80,000 बताई गई है। बुद्ध जब संजय वेलट्ठिपुत्त से मिलते हैं तो उसके पास उसके 250 शिष्यों की मंडली थी। इनमें गोसालक का संघ सबसे बड़ा था। भगवतीसूत्र के अनुसार गोसालक के अनुयायियों की संख्या 11,61,000 थी, जबकि महावीर के मात्र 1,59,000 शिष्य थे। उस समय तक बुद्ध का संघ उन दोनों से छोटा था। बुद्ध से मिलते समय प्रसेन्नजित यह याद भी दिलाता है।

‘आजीवक’ या ‘आजीविक’ नाम आजीवकों ने स्वयं चुना था, या दूसरों ने उन्हें दिया था? इस बारे में प्राचीन ग्रंथ हमारी कोई मदद नहीं कर पाते। हालांकि, इस बात की संभावना है कि यह नाम गोसालक या उनके अनुयायियों ने स्वयं नहीं चुना था। यह आजीविकोपार्जन के साथ-साथ श्रमण अनुशासन का पालन करने वाले भिक्षुओं को उनके विरोधियों की ओर से मिले उपनाम जैसा था।[12]

आजीवक समस्त कर्म-विधान यानी पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को नकारते थे। दृश्यमान जगत से परे भी कोई ईश्वर है, इसपर उन्हें भरोसा न था। भिक्षाटन के समय वे कठोर अनुशासन का पालन करते थे। इसके लिए उनके विरोधियों ने भी उनकी जमकर प्रशंसा की है। लेकिन भिक्षाटन को आजीविका से नहीं जोड़ा जा सकता। ‘आजीविका’ का सामान्य नियम यह है कि व्यक्ति जो भी सेवा या उत्पाद उपलब्ध करा रहा है, उसका कोई न कोई मूल्य होना चाहिए। भले ही सेवा प्रदाता को यह शिकायत हो कि उसे उसकी सेवा/उत्पाद का पूरा मूल्य नहीं मिल रहा है, या मूल्य के निर्धारण का अधिकार दूसरों के हाथों में चला गया है। भिक्षाटन के साथ ‘मूल्य’ की कोई अवधारणा नहीं जुड़ी होती है। किसी दरवाजे से याचक को भीख मिल भी सकती है, और उसे दुत्कारा भी जा सकता है।

‘औपपातिक सूत्र’ में कहा गया है कि आजीवकों के लिए भिक्षा मांगना भी उनके तप का हिस्सा था। वे हर तीसरे, प्रत्येक चौथे अथवा आठवें घर से भिक्षा लेते थे। सबसे कठिन व्रत था खुद को कुप्पे या घड़े में बंद कर, कठिन परिस्थितियों के बीच भिक्षाटन करना। धम्मपद (खुद्दकनिकाय) में जंबूक नामक मुनि की कथा आती है। वह श्रावस्ती के धनाढ्य व्यक्ति का बेटा था। उसकी कुछ विचित्र आदतें थी। वह न तो पलंग पर सोता था, न ही ढंग का बिस्तर लगाता था। भोजन के लिए वह अपनी ही विष्ठा का इस्तेमाल करता था। बड़ा होने पर भी जब उसकी आदतों में कोई सुधार न हुआ तो उसके माता-पिता ने उसे आजीवकों के यहां भेज दिया। उन्होंने जंबूक की आदतों में सुधार करने के बजाए, ज्यों का त्यों छोड़ दिया। अब वह रात्रि में अपनी विष्ठा (मल) खाता और दिन में एक पैर पर, ऊपर की ओर मुंह किए खडे़ रहता। ऋद्धालु भोजन को पूछते तो टाल देता। कहता कि वायु ही मेरा भोजन है। एक बार बुद्ध वहां से गुजरे। उनसे प्रभावित होकर वह संघ में शामिल हो गया।[13]

जैन ग्रंथ, औपपातिक सूत्र (संख्या 74) में 37 प्रकार के तापसों का उल्लेख हुआ है, उनमें से कई की विशेषताएं आजीवक श्रमणों से मिलती है। सूत्र में उनके कठिन तपमार्गों के बारे में बताया गया है। लेकिन एक में भी यह नहीं बताया गया है कि वे भोजन को अर्जित करने के लिए ‘आजीविका’ का सहारा लेते थे। इसी ग्रंथ में आजीवकों के भिक्षार्जन संबंधी कठोर नियमों का भी वर्णन है–

“से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु आजीविया भवंति, तं जहा – 1. दुघरंतरिया, 2. तिघरंतरिया, 3. सत्तघरंतरिया, 4. उप्पलबेंटिया, 5. घरसमुदाणिया, 6. विज्जयंतरिया, 7. उट्टिया समणा, ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाइं ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव।”[14]

‘ग्राम, आकर (परिवार), सन्निवेश (सार्वजनिक स्थल) आदि में जो आजीवक [गोसालक मतानुयायी] होते हैं, जैसे– 1. उसे घरों के अंतर से यानी दो घर छोड़कर भिक्षा मांगने वाले, 2. तीन घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, 3. सात घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, 4. भिक्षा में केवल कमल-डंठल ग्रहण करने वाले, 5. प्रत्येक घर से भिक्षा लेने वाले, 6. जब बिजली चमकती हो तब भिक्षा नहीं लेने वाले, और 7. मिट्टी से बने नांद जैसे बड़े बर्तन में बैठकर तप करने वाले। ऐसे कठिन आचार का पालन करते हुए वे आजीवन आजीवक पर्याय का पालन कर मृत्योपरांत, उत्कृष्ट अच्युत कल्प में देव रूप में जन्म लेते हैं।’

बोध प्राप्ति से पहले स्वयं बुद्ध आजीवक श्रमणों की तरह ही विचरते थे। वे शरीर को विभिन्न प्रकार के कष्ट देते थे। भोजन संबंधी मर्यादाएं भी उन्होंने पाल रखी थीं। ‘मज्झिमनिकाय’ में बुद्ध सारिपुत्र को उन कठिन व्रतों के बारे में बताते हैं, जिनका वे प्रव्रज्याकाल में पालन करते थे–

“सारिपुत्र! मैं अचेलक (नग्न रहनेवाला) था। मुक्ताचार, हस्ताऽपलेखन (हाथ-चट्टा), नएहिभादंतिक (बुलाई भिक्षा का त्याग करने वाला), न-तिष्ट-भदंतिक (ठहरिये कहकर दी गई भिक्षा का त्यागी) था। न अभिहट (अपने लिए की भिक्षा) को, न अपने-अपने उद्देश्य के लिए किए गए भिक्षादान को, और न निमंत्रण को खाता था, न कुंभी (घड़े) के मुख से ग्रहण करता था, न पथरी के मुख से, न दो पटरों के बीच से, न दो दंडों के बीच से, न मूसलों के बीच से, न दो भोजन करने वालों के बीच से, न गर्भिणी का, न (दूध) पिलाती का, न अन्य पुरुष के पास गई स्त्री का, न संकित्ती (चंदावाले) घर से, न वहां से जहां कुत्ता खड़ा हो, न वहां से जहां मक्खी भिनभिना रही हो। मैं न मछली, न मांस खाता था और न सुरा (अर्क उतारी शराब), न मेरय (कच्ची शराब) व न ही तुषोदक (चावल की शराब!) पीता था।

“मैं एकागारिक (एक ही घर में भिक्षा करने वाला) होता था, या केवल एक कौर खाने वाला होता था, या द्वि-आगारिक (दो बार) आहार करने वाला होता था, या केवल दो कौर खाने वाला होता था, या सप्त आगारिक (सात घरों से भिक्षा लेने वाला) होता था, या केवल सात कौर खाने वाला होता था, केवल एक कलछी भर भोजन से भी गुजारा करता था, दो कलछी भोजन से गुजारा करता था, सात कलछी भोजन पर गुजारा करता था, एकाहिक (दिन में एक बार) आहार करता था, द्व्याहिक (दो दिन में एक बार आहार करने वाला), साप्ताहिक आहार करता था, इस प्रकार अर्धमासिक बारी-बारी से भोजन करता हुआ विचरता था। शाकाहारी था, संवाभोजी था, नीवार (तिल्ली) तिल-भक्षी भी था, दद्दुल (कोदो!) भक्षी था, कट (एक तृण भक्षी) था, कण (खेत में छूटे हुए अनाज के दानों का) भक्षी था, आचाम (मांड) भक्षी था, पिण्याक (खली) भक्षी था, तृण भक्षी था, गोबर भक्षी था, वनमूल और फलाहार से गुजारा करता था, जमीन पर गिरे फलों को खाकर दिन बिताता था, सन के वस्त्र धारण करता था, श्मशान के वस्त्र धारण करता था, मुर्दे के कपड़े धारण करता था, पांसुकूल (फेंके हुए) वस्त्र धारण करता था, तिरीट (एकल छाल) धारण करता था, अजित (मृगचर्म) धारण करता था, अजिनक्षिप (मृगचर्म खंड) धारता था, कुशचीर को भी धारता था, वल्कल चीर भी धारता था, काष्ठ फलक चीर धारण करता था, केश-कंबल धारण करता था, बालों का कंबल भी धारता था। उलूक के पंखों को भी धारता था, मैं केश-दाढ़ी नोंचने वाला था, केश-दाढ़ी नोचने के व्यापार में लग्न होते उव्वट्ठिक (ठढे़सरी) भी था, आसन त्यागी बन उकड़ूं बैठने वाला भी था, उकड़ूं बैठने के व्यापार में लग्न हो कांटे पर सोने वाला भी था, कंटक के प्रश्रय (चारपाई) पर सोता था, शाम को जल-शयन के व्यापार में लिप्त हो जाता था, ऐसे अनेक प्रकार के कायापन के आतापना-संतापन के व्यापार में लिप्त होकर विहरता था। ‘सारिपुत्र! यह मेरी तपस्विता थी।’ बुद्ध यहां आजीवक, निगंठ, शैव आदिम मतावलंबियों की तपस्या के बारे में बताते हैं, जिनसे बोध प्राप्ति से पहले वे गुजर चुके थे।”[15]

देह पर भभूत मल, शिव जैसा भेष बनाकर भिक्षा मांगना, या शिव का चित्र दिखाकर भिक्षाटन करना एक ही बात है। दोनों का उद्देश्य अपने ‘आराध्य’ की महानता को दर्शाना है। यदि चित्रपट दिखाकर भीख मांगना आजीविका है तो शिव जैसा दरवेश बनकर, या वैष्णवों जैसा तिलक लगाकर भिक्षा मांगना भी आजीविका ही कहा जाएगा। उस अवस्था में महावीर, बुद्ध से लेकर सभी ब्राह्मण ऋषि-मुनियों को भी आजीविक ही कहा जाना चाहिए। ‘आजीवक’ को ‘आजीव्य’ से जोड़ने का मुख्य आधार पाणिनी की व्याख्या है। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि पाणिनी ने ‘मंख’ जाति के बारे में बताया है। मक्खलि गोसाल के बारे में नहीं। और जिस भगवतीसूत्र के आधार पर बताया गया है, उसके अनुसार, गोसालक प्रव्रज्या स्वीकार करने से पहले ही उनसे मुक्ति पा चुके थे।

फिरआजीवकको कैसे समझा जाए?

आजीवकों को ‘अक्रियावादी’ कहा जाता है। इसका अभिप्राय कर्मवाद के निषेध से है। वे पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व से इंकार करते थे। ‘राजतरंगिणी’ में कल्हण ने ‘मूर्ति-भंजकों’ को ‘वदनेषु स नग्नाटैः’ कहा है। बॉशम आदि विद्वानों ने श्रीहर्ष के ‘आजीवक’ होने की संभावना व्यक्त की है। ‘चित्रफलक’ भी एक मूर्ति का ही प्रतीक है। ऐसे में ‘मूर्तिभंजक’ का दर्जा प्राप्त आजीवक किसी चित्र या प्रतिमा को अपने ‘रोजगार’ का सहारा कैसे बना सकते थे? साफ है कि ‘अशोकावदानम्’, ‘हर्षचरितम्’ आदि ग्रंथों में ‘काष्ठ पट्टिका’ अथवा ‘यमपट्टिका’ दिखाकर भीख मांगने वाले निर्ग्रंथ, ‘मंख’ या वैसी ही किसी जाति के सदस्य तो हो सकते हैं। उन्हें ‘आजीवक’ श्रमण का दर्जा देना उचित न होगा।

बुद्ध के अष्टांग मार्ग में ‘सम्यक आजीविका’ का अपना महत्व है। तदनुसार व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में नैतिकता के सामान्य स्तर को बनाए रखने के लिए अष्टांग मार्ग का पालन जरूरी है। संभावना इसकी है कि मूल शब्द, जिसका संबंध आजीवकों से था, ‘सम्यक-आजीव’ जैसा ही कुछ रहा होगा। लेकिन वह आजीविका के संदर्भ में नहीं था। ‘आजीव’ के ‘आ’ उपसर्ग के अर्थ को ‘परिव्याप्ति’ अथवा ‘परिसीमा’ के संदर्भ में लेना उचित होगा। इसलिए आजीव (आ-जीव) का अर्थ होगा– ‘सर्वचैतन्य’, ‘महाचैतन्य’ अथवा ‘पूरा संसार ही जीवनमय है’। ऐसा मान लेना कि जो कुछ दृश्यमान है, वह चाहे जड़ दिखाई पड़ता हो अथवा चैतन्य, सब इस प्राणवंत प्रकृति का हिस्सा है। आजीवक दृश्यमान जगत से परे किसी सत्ता को नहीं स्वीकारते थे। अनुभूति को प्रमाण का दर्जा देने वाले आजीवकों के लिए संपूर्ण सृष्टि की प्राणमय है। उसका कारण भी इसी संचेतन जगत में व्याप्त है।

आजीवक : परमाणु सिद्धांत के जन्मदाता

आजीवकों को परमाणुवाद का प्रवर्त्तक माना गया है। उनके अनुसार चार महाभूत हैं। पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु। इनके अलावा पांचवे तत्व के रूप में वे ‘जीव’ की महत्ता को स्वीकारते हैं। लेकिन ‘जीव’ का तब तक कोई योगदान नहीं है, जब तक बाकी चारों प्रमुख तत्वों यानी पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि के परमाणु सक्रिय होकर एक-दूसरे से मिलने को उद्यत नहीं होते। जब ये परमाणु परस्पर मिलने को उत्सुक होते हैं तो जीव-तत्व का परमाणु भी स्वतः उनमें आ मिलता है। इसी प्रकार जब वे चारों तत्व अलग-अलग होते हैं, जो पांचवा यानी जीव-तत्व अपने आप अलग हो जाता है। उस समय पृथ्वी तत्व महापृथ्वी तत्व का हिस्सा बन जाता है, वायु तत्व महावायुतत्व में समा जाता है, ऐसे ही जल और अग्नि भी क्रमशः महाजल और महाअग्नि तत्व का हिस्सा बन जाते हैं।

यहां क्रियावादी यानि ऐसा व्यक्ति, जो सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के पीछे किसी परासत्ता के योगदान को आवश्यक मानता है, आसानी से आपत्ति कर सकता है। कह सकता है कि अलग-अलग तत्वों के परमाणु, बिना जीव के आपस में मिलने को कैसे उत्सुक हो सकते हैं? कौन-सी प्रेरणा या शक्ति है, जो उन्हें एक होकर नए तत्व के निर्माण को प्रेरित करती है? इसका जवाब होगा कि यह ठीक ऐसे ही संभव है, जैसे ऑक्सीजन का एक परमाणु और हाइड्रोजन के दो परमाणु संयुक्त होकर जल के एक अणु को जन्म देते हैं। ऑक्सीजन के दो परमाणु परस्पर संयुक्त हो उसका एक अणु बनाते हैं। यदि ऑक्सीजन के तीन परमाणु मिल जाएं तो वे ओजोन गैस के एक अणु का निर्माण करते हैं। यह काम बिना किसी ईश्वर या परमात्मा के, वैज्ञानिक प्रयोगशाला में भी किया जा सकता है।

तमिल ग्रंथों– ‘मणिमेखलाई’, ‘नीलकेशी’ और ‘शिवज्ञान सिद्धियार’ में आजीवकों के परमाणु सिद्धांत के बारे में बताया गया है। उसके अनुसार बाकी चारों तत्व निर्जीव भले ही हों, निश्चेत या निष्क्रिय हरगिज नहीं होते। परस्पर मिलकर, नई सृष्टि को जन्म देने की अंतश्चेतना, उन सभी में विद्यमान होती है। ध्यातव्य है कि जीव या ‘प्राण-तत्व’ का परमाणु बाकी चार भूतों के परमाणुओं को सक्रिय नहीं बनाता। उनकी संयुक्त चेतना में वह बस इतना ही इजाफा करता है, कि पांचों भूतों (परमाणुओं) के संयुग्मन से बनी इकाई को जीवंत कहा जा सके। इस तरह यह संपूर्ण प्रकृति अपनेआप में ‘जीव’ का विस्तार है… ‘आजीव’ है। उसकी चेतना को मिटाया नहीं जा सकता। कोई तलवार उसे काट नहीं सकती। आग उसे जला नहीं सकती। वह केवल ‘इकाई विशेष’ को क्षतिग्रस्त कर सकती है। महाभूतों को नहीं। तलवार के प्रहार से क्षत हुए शरीर में निहित पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और प्राणतत्व उस प्रहार के बाद, अपने-अपने ‘महारूप’ की ओर लौट जाते हैं। नए जीवन की रचना करने को तत्पर। पूर्ण कस्सप का ‘अक्रियावाद’, अजित केशकंबलि का ‘उच्छेदवाद’, संजय वेलट्ठिपुत्त का ‘संशयवाद’ और गोसालक का कथित ‘नियतिवाद’ इसी ओर संकेत करते हैं। कथित इसलिए कि गोसालक के सृष्टि निर्माण में किसी भी बाहरी ‘हेतु’ या कारक सत्ता का सर्वथा निषेध किया गया है।

आजीवक जहां ‘अक्रिया’ अथवा ‘अकर्म’ के प्रति सुनिश्चित हैं, वहीं गीता ‘कर्म’ और ‘अकर्म’ के बीच उलझकर रह जाती है। कारण है कि वह ऐसी परासत्ता में विश्वास रखती है, जो दृश्यमान जगत से परे है, और दूर रहकर उसपर नियंत्रण रखती है। उसके अनुसार वही असल कारक सत्ता है। लेकिन इसे सिद्ध करने के लिए उनके पास कोई तार्किक आधार नहीं है। इसलिए, तर्कों को विराम देते हुए कृष्ण, अर्जुन से सबकुछ छोड़कर अपनी शरण में आने के लिए कहते हैं। सबकुछ छोड़ने से कृष्ण का स्पष्ट आशय उनके प्रति परमआस्थावान हो जाना है। यहां परमआस्थावान का दूसरा अर्थ है– मानवोचित जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति पा लेना।

आजीवकों के लिए प्रकृति ही सबकुछ थी। महाभूत ब्रह्मांड ही महाचैतन्य (आजीव) है। जीवन उसी से विकसित होता और समय आने पर उसी में समा जाता है। प्रकृति के परे किसी और कारक सत्ता की उपस्थिति को वे सिरे से नकार देते हैं। गोसालक का मानना था कि प्रत्येक पदार्थ में जीवन है। वह स्वयं-समर्थ, स्वयं-स्फूर्त्त और महापरिव्याप्त (आजीव) है। किसी बाहरी शक्ति या कारक सत्ता (आत्मा, परमात्मा आदि) की उसे आवश्यकता ही नहीं है। चूंकि कोई बाहरी कारक सत्ता नहीं हैं, इसलिए स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य जैसा भी कुछ नहीं है। मनुष्य अपने कार्यों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। यही कारण है कि आजीवक और दूसरे अनीश्वरवादी दर्शन, धर्म के स्थान पर नैतिकता पर जोर देते हैं। यही कारण है कि उनके विरोधियों ने भी उनकी जमकर प्रशंसा की है। न केवल आजीवक श्रमणों अपितु उस धर्म में विश्वास करने वालों की भी। आजीवक श्रमणों के आचार की प्रशंसा करने के बाद डॉ. बलदेव उपाध्याय आजीवक गृहस्थों के आचार के बारे में लिखते हैं–

“आजीवक गृहस्थों के आचार भी बहुत अच्छे थे। माता-पिता की सेवा उनका प्रधान कर्त्तव्य था। भोजन में गूलर, बड़, बेर, शहतूत और पीपल के फलों का त्याग करते थे। (पञ्चफल प्रत्याख्यान)। प्याज, लहसुन, कंद-मूल को कभी न खाते थे। बिना दागे और बिना नाथे हुए बैलों से जीविका चलाते थे। और त्रस (चलते-फिरते) जीवों का बचाकर अपना जीवन निर्वाह करते थे … (आजीवक) भिक्षुओं के सामान आजीवक मत के गृहस्थों का आचार उच्च कोटि का था। प्राणी हिंसा से बचना उनका प्रधान ध्येय था।”[16]

(समाप्त)

संदर्भ :

[1] अमरकोश के ‘वैश्य वर्ग’ उपखंड का प्रथम उद्धरण
[2] ऐस्टिशिज्म इन एन्सिएंट इंडिया, पुंथी पुस्तक, कोलकाता, 1973, पृ. 449
[3] मोनियर विलियम संस्कृत शब्दकोश, मोतीलाल बनारसीदास, 1986, पृ. 133
[4] ‘चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरई’ – भगवतीसूत्र 15।19
[5] ‘उवागच्छित्ता साडियाओ य पाडियाओ य कुंडियाओ य बाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेई, आयामेत्ता, सउत्तरोट्ठं भंडं कारेइ, कारेत्ता तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता नालंदं बाहिरियं मज्झंमज्झेणं निग्गछई… ’ – भगवतीसूत्र 15।51
[6] अशोकावदानम्, वीतशोकावदानं
[7] वही
[8] वही
[9] मोनियर विलियम शब्दकोश, पृ. 541
[10] आजीविक मत के अनुयायी, स्याद्वाद मंजरी, 1।1
[11] एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के वार्षिक सम्मेलन में दिया गया व्याख्यान, दिनांक 2 फरवरी, 1898, बेपटिस्ट मिशन प्रेस, पृ. 41
[12] जार्ल कारपेंटियर, ‘आजीविक’, ‘जरनल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ ग्रेट बिटेन एंड आयरलेंड’, जुलाई 1913, केंब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, पृ. 669-674
[13] धम्मपद, पद 70
[14] औपपातिक सूत्र संख्या 119
[15] महासीहनाद सुत्त, मज्झिमनिकाय
[16] धर्म और दर्शन, बलदेव उपाध्याय, शारदा मंदिर, बनारस, 1945, पृ. 79

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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