h n

दो महीने तक लंबे विचार-विमर्श के बाद सिदो ने छेड़ा था हूल

ई.जी. मान का विचार है कि हूल की जमीन 1832 से ही तैयार होने लगी थी। सन् 1832 से ही कोर्ट-कचहरी महाजनों के पक्ष में फैसला सुनाने लगे थे। 40 प्रतिशत से 75 प्रतिशत चक्रवृद्धि ब्याज जबरन वसूला जाता था। पुलिस, महाजन और जमींदारों के त्रिपक्षीय़ सांठ-गांठ ने संथालों पर भयानक जुल्म किए। बता रहे हैं प्रो. देवेंद्र शरण

विदेशी और देशी इतिहासकारों की नजर में संथालों का हूल विद्रोह

संथाल परगना को कभी जंगल का तराई कहा जाता था। फिर इसे दामन-ए-कोह (कहीं-कहीं दामिन-इ-कोह भी लिखा गया है) अर्थात पहाड़ का आंचल नाम दिया गया। दामन-ए-कोह में बसने से पूर्व संथाल हजारीबाग, गिरिडीह, घासभूम, मानभूम, बीरभूम और मिदनापुर आदि क्षेत्रों में रहते थे। इसके पूर्व ये ‘चाइ-चंपा’ में निवास करते थे। दामन-ए-कोह में 1810 के आसपास अंग्रेजों की मदद से संथाल बसने लगे। 1832-33 ई. में जानपेरी बुड की सहायता से दामन-ए-कोह का गठन हुआ। जेम्स पोंटेंट को 1837-38 में भू-बंदोबस्ती और लगान वसूली के लिए यहां का अधीक्षक बनाया गया। वह शुरू में आदिवासियों का हितैषी था, लेकिन असल में उसकी नीतियां संथालों के खिलाफ थीं। उसने जमींदारों और महाजनों को संरक्षण देकर ताकतवर बनाया। धीरे-धीरे संथालों पर लगान की रकम बढ़ती गई और जमींदारों, महाजनों-सूदखोरों का अत्याचार संथालों पर बढ़ता गया। संथालों की समस्याओं को देखने-सुनने वाला कोई नहीं था। एकमात्र स्थानीय मजिस्ट्रेट देवघर में बैठता था। बड़े मामलों के निपटारे के लिए संथालों को भागलपुर, बीरभूम या बहरामपुर जाना पड़ता था। संथालों पर अत्याचार करनेवालों में जमींदार, महाजन और उनके लठैत शामिल थे तथा पुलिस भी अत्याचारियों का साथ देती थी। संथाल हूल के कारणों में महाजनों, जमींदारों और पुलिस द्वारा लूट बताया गया है। 

विभिन्न इतिहासकारों ने ‘संथाल हूल’ की प्रामाणिकता, उसके कारणों और परिणामों पर विस्तृत रूप से चर्चा की है।

विदेशी इतिहासकारों की नजर में 

विलियम विल्सन हंटर ने अपनी पुस्तक ‘द एन्नल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में हूल के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है। 1868 में प्रकाशित इस पुस्तक में हूल के कारणों का विश्लेषण किया गया है, जिसमें जमींदारों द्वारा संथालों की जमीन हड़पना, महाजनों द्वारा संथालों का भयंकर आर्थिक शोषण, पुलिस का भ्रष्ट और अत्याचारी होना, सरकारी कर्मचारियों का भ्रष्ट होना और रेलवे कर्मचारियों द्वारा संथाल महिलाओं के प्रति दुराचारी होना इत्यादि शामिल हैं। महाजन कर्ज देकर भारी सूद वसूलते थे। माप-तौल के लिए अलग-अलग बटखरे रखते थे। संथालों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज और अन्य वस्तुओं को खरीदने के लिए भारी बटखरे रखते थे, जिसे ‘केना राम’ कहते थे और बेचने के लिए हल्के बटखरे रखते थे, जिन्हें ‘बेचा राम’ कहते थे। इस तरह वे खरीद-फरोख्त में भारी गड़बड़ी करते थे। वे गरीब संथालों के मवेशी और उनकी महिलाओं के लोहे के गहने तक छीन लेते थे। 

लेकिन हंटर रेलवे निर्माण को सकारात्मक मानते हैं। रेलवे निर्माण से संथालों को रोजगार प्राप्त हुआ और चाय बगानों में काम करने से संथालों को आर्थिक रूप से संपन्नता प्राप्त हुई ऐसा हंटर का मानना है। लेकिन यह तर्क सच्चाई से परे है। रेलवे निर्माण के क्रम में संथालों की बहुत-सी जमीन रेलवे ने ले ली। जंगल कटने से भी संथाल दुखी थे। संथालों को जो नगद पैसा प्राप्त हुआ, उसका वे सही इस्तेमाल करना तक नहीं जानते थे। उन्होंने पैसों को सहेजकर नहीं रखा। खाने-पीने की आदत और उत्सव मनाने की प्रवृत्ति के कारण महाजनों द्वारा उनसे पैसा ठग लिया गया। रेलवे के कामों में संथालों से बेगार कराना और महिलाओं का यौन शोषण आम बात हो गई थी। चाय बागानों में उन्हें गुलामों की तरह रखा जाता था। बड़ी संख्या में उन्हें दामन-ए-कोह से जबरन विस्थापित किया गया था। इसलिए रेलवे और चाय बागानों के संबंध में हंटर का आकलन उचित नहीं जान पड़ता है। 

ई.जी. मान की पुस्तक ‘संथालिया एंड द संथाल्स’ सन् 1867 ई. में प्रकाशित हुई। उन्होंने संथाल हूल के बारे में प्रमुखता से लिखा है। उनकी नजर में संथाल हूल का प्रमुख कारण लगभग वही बताए गए हैं, जो हंटर द्वारा बताए गए हैं। जैसे कि महाजनों द्वारा आर्थिक लेन-देन में भयंकर गड़बड़ी करना और संथालों को कर्ज में फंसाकर कई गुना सूद वसूलना। कर्ज के कारण संथालों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ मजदूर बनाकर रखना, महाजनों और पुलिस की मिलीभगत से भ्रष्ट महाजनों और भ्रष्ट पुलिस द्वारा संथालों पर जुल्म करना। मान ने कोर्ट-कचहरी पर संथालों का भरोसा नहीं होना और आदिवासी जीवन पद्धति में कल की परवाह न कर आज के लिए जीने को भी हूल के मुख्य कारणों में गिना है। 

ई.जी. मान का विचार है कि हूल की जमीन 1832 से ही तैयार होने लगी थी। सन् 1832 से ही कोर्ट-कचहरी महाजनों के पक्ष में फैसला सुनाने लगे थे। 40 प्रतिशत से 75 प्रतिशत चक्रवृद्धि ब्याज जबरन वसूला जाता था। पुलिस, महाजन और जमींदारों के त्रिपक्षीय़ सांठ-गांठ ने संथालों पर भयानक जुल्म किए।

इसके परिणामस्वरूप हूल हुआ और उसमें हजारों संथाल महिला और पुरुष मारे गए। सैनिक टुकड़ियों ने संथाल परगना को जलाकर तबाह कर दिया। संथाल आत्मसमर्पण को मजबूर हुए। ई.जी. मान ने संथालों की साहस की प्रशंसा की है। वे ईसाई मिशनरियों के संथालों के बीच आगमन को वरदान मानते हैं। ईसाई मिशनरियों ने उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं प्रदान की। लेकिन उन्होंने संथालों के सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना की। उनमें अपनी संस्कृति के प्रति हीन-भावना आई, जिससे वे ईसाई होते चले गए।

संथाल हूल पर डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर और ई.जी. मान के बाद एल.एस.एस. ओ’मैली का लेखन अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। 

‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स-संथाल परगना’ में ओ’मैली संथाल विद्रोह का कारण अंग्रेज अफसरों द्वारा संथालों की उपेक्षा, महाजनों द्वारा उनकी लूट, कर्मचारियों का भ्रष्टाचार, पुलिस की भ्रष्टाचारियों से सांठ-गांठ और दमनकारी अत्याचार बताते हैं। वे कहते हैं कि संथालों में बहुत अधिक रोष था। बंगाली महाजनों और दिकुओं (गैर आदिवासियों) ने भी शोषण और दमन शुरू कर दिया था। संथालों को दूर देवघर जाकर मजिस्ट्रेट से फरियाद करना पड़ता था, जो बेहद तकलीफ और मुश्किल भरा होता था। इस तरह महाजन द्वार पर और न्याय दूर था। ओ’मैली के विवरण से पता चलता है कि महाजन कर्ज देने के लिए बही-खाते और दैनिक बही तैयार रहती थी। जबकि संथालों के पास गांठ लगी एक रस्सी होती थी। उन गांठों का मतलब था कि कब कितना पैसा महाजनों से उधार लिया। गांठों के बीच की दूरी से वह उस कर्ज की उस अवधि का हिसाब लगाता था। महाजन संथालों से गिरवी पत्र पर अंगूठा लगवा लेते थे, जो एक तरह का बॉन्ड होता था। न्यायलयों में महाजन सबूत के तौर पर फर्जी खाता-बही और बॉन्ड दिखला देते थे, जिसमें संथालों का अंगूठा लगा होता था। जबकि संथालों के पास रस्सी छोड़कर कोई प्रमाण नहीं था। महाजन शातिर और गड़बड़ी करने वाले होते थे, जबकि संथाल अज्ञान और डरपोक थे। कर्ज ना चुका पाने पर अपने लठैतों द्वारा महाजन संथालों के पशु, पक्षी उठवा लेते थे। कोर्ट से भी संथालों को न्याय नही मिलता था। पुलिस के पास कोर्ट से जांच के लिए मामले भेजे जाते, लेकिन पुलिस भी महाजनों, सूदखोरों और जमींदारों के हाथों अपनी जमीर बेच चुकी होती थी।

संथाल महाजनों का कर्ज नहीं चुका पाते थे और कई पीढ़ियों तक उन्हें महाजनों का हरवाहा बनकर रहना पड़ता था। यह एक प्रकार की गुलामी ही थी। लेकिन ओ’मैली रेल परियोजना के कार्यस्थलों पर संथालों के शोषण और संथाल औरतों से दुराचार की बात छुपा जाते हैं। 

चार्ल्स एडवर्ड बकलैंड की पुस्तक ‘बंगाल अंडर द लेफ्टिनेंट गवर्नर्स’ में हूल का विस्तृत वर्णन करते हैं। दरअसल बकलैंड की रिपोर्ट उनकी उपर्युक्त पुस्तक में संकलित है। 1901 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में ‘हूल’ का कारण वे बंगाली महाजनों के विरुद्ध विद्रोह मानते हैं। बंगाली महाजनों ने सीधे-साधे संथालों को अपने गिरफ्त में ले लिया। एक बार महाजन के चंगुल में फंसने के बाद संथाल सपरिवार कई पीढ़ियों तक गुलाम बनने को मजबूर थे। 

हूल विद्रोह की प्रतीकात्मक तस्वीर

बकलैंड ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार को दोषी नहीं मानते, जबकि वे संथालों को जंगली, क्रूर और बर्बर मानते हैं। रेलवे के कर्मचारियों द्वारा शोषण को वे नहीं मानते। हां, कोर्ट-कचहरी तक संथालों की पहुंच ना होना जैसी बात स्वीकारते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि संथालों ने हूल के दौरान ब्रिटिश फौज को कड़ी टक्कर दी। लेकिन हूल को काफी कट्टरता से दबाया गया, जिसमें 25 हजार के लगभग संथाल मारे गए। संथालों के गांव जलाकर नष्ट कर दिए गए।

संथाल ‘हूल’ पर डब्ल्यू.जे. कल्शॉ और डब्ल्यू.जी. आर्चर ने भी महत्वपूर्ण काम किया है। उनका संयुक्त रूप में लिखा लेख ‘द संथाल रिबेलियन’ मानव विज्ञानी एस.सी. राय द्वारा संपादित पत्रिका ‘मेन इन इंडिया’ के विद्रोह विशेषांक में रांची से प्रकाशित हुआ। साथ ही ‘संथाल हूल’ के कुछ लोकगीत भी इसी विशेषांक में प्रकाशित हुए। उन हूल गीतों के मुताबिक महाजनों और जमींदारों के लूट और हाकिमों द्वारा उन्हें न्याय नहीं मिलने पर संथालों को विद्रोह करना पड़ा।

“सिदो-कान्हू ने क्या क्रांति की

और क्यों हूल छिड़वा दिया? 

महाजन केनाराम और बेचाराम ने

लोगों को ठगने के चलते हूल छिड़वा दिया।”

कल्शॉ ने यह बताया है कि जमीन से संथालों का लगाव उनकी आस्था से भी जुड़ा था। वे मानते थे कि जमीन के साथ अच्छी आत्मा जुड़ी रहती है। उन आत्माओं को खुश रखने के लिए जमीन को बचाना संथालों के लिए बहुत जरूरी था। कल्शॉ ने एक कथा का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि “सिदो-कान्हू ने संथालों को आदेश दिया कि आत्माओं को खुश रखने के लिए गांवों को पवित्र किया जाय।” हूल से पहले सिदो-कान्हू ने हर गांव में शालवृक्ष के पत्तों से बनी पत्तल पर सूखा चावल, तेल और सिंदूर रखकर भेजा ताकि आत्माओं को खुश रखा जाय। लेकिन हूल को आर्चर मूर्खतापूर्ण कदम मानते हैं। उनका मानना रहा कि हूल की वजह से संथालों को भारी कीमत चुकानी पड़ी।

एक बात संथाल गीतों से निकल कर यह आती है कि सिदो, कान्हूं, चांद, और भैरव तो अगुआ थे ही, महिलाओं ने भी हूल में बढ़-चढ़कर भाग लिया था।

“फूलों-झानो तुमने हाथों में तलवार पकड़ी

तुमने भाइयों से बढ़-चढ़कर बीरता दिखाई

भोगनाडीह में तुम दोनों ने कसम खाईं

तुमने महाजनों सूदखोरों के अत्याचार को नहीं सहा

तुमने दोनों हाथों से तलवार उठा 

केनाराम-बेचाराम को तुमने सबक सिखाया

तुमने 21 अंग्रेज सिपाहियों की हत्या की 

तुम दोनों का नाम अमर हो गया।”

हूल के दौरान फुलो-झानो ने औरतों की शक्ति का ना सिर्फ प्रदर्शन किया, बल्कि संथाल औरतों की इज्जत की रक्षा के लिए तलवार उठाया।

“फूलो-झानो तुम दोनों ने हूल किया

तुम दोनों ने स्त्री की ताकत दिखाई

तुम दोनों ने अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ तलवार उठाया

तुम दोनों ने औरत की इज्जत की रक्षा के लिए तलवार उठाया।”

भारतीय इतिहासकारों की नजर में

भारतीय इतिहासकारों में सबसे महत्वपूर्ण शोध कार्य काली किंकर दत्त (के.के. दत्त) का है। ‘द संताल इंस्सरेक्शन ऑफ 1855-57’ हूल पर आधारित अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह शोध कार्य 1940 में प्रकाशित हुई, जो चार अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय में विद्रोह के कारण, द्वितीय अध्याय में प्रादुर्भाव और हूल का प्रसार, तृतीय अध्याय में हूल का कुचला जाना और चतुर्थ अध्याय में हूल के परिणामों का अध्ययन है। 

उनकी नजर में एक कारण लगान का कई गुना बढ़ाया जाना था। इसके अलावा महाजनों द्वारा संथालों का शोषण और संथालों की जमीन जमींदारों द्वारा लूटा जाना भी कारणों में शामिल थे। सरकार द्वारा संथाल गांवों के पट्टे गैर-आदिवासिय़ों को दिए जाने लगे थे। संथाल इसी कारण से पाकुड़ और महेशपुर के राजाओं से नफरत करते थे। इस एक कारण को अंग्रेज इतिहासकार छुपा जाते हैं। जिसको संथालों के असंतोष की बड़ी वजह के.के. दत्त बताते हैं, वह था रेलवे के कर्मचारी और ठेकेदार। ये संथाल औरतों का यौन शोषण करते थे। कोर्ट कचहरी, थाना पुलिस सब जगह भ्रष्टाचार का बोल-बाला था। आखिर ‘संथाल’ जाते तो कहां जाते?

दत्त के अनुसार 1855 में सिदो और कान्हू दोनों भाइयों ने विद्रोह को धार्मिक और दैविक आधार दिया। दोनों ने संथालों को बताया कि ठाकुर (देवता) ने दर्शन दिया है कि ‘हूल’ करो।

भोगनाडीह में 30 जून, 1855 को संथालों की एक बड़ सभा आयोजित की गई, जिसमें दस हजार संथालों ने भाग लिया था। भोगनाडीह की सभा में सिदो-कान्हू ने दैवीय आदेश की घोषणा की कि उनको शोषकों के निय़ंत्रण से बाहर निकलना चाहिए। इसलिए सशस्त्र विद्रोह का बिगुल फूंका और पहला शिकार महेश दत्त दारोगा हुआ। फिर विद्रोह की आग गोड्डा, पाकुड़, महेशपुर, मुर्शिदाबाद और बीरभूम तक फैल गया। 

के.के. दत्त के अनुसार ‘हूल’ में संथालों के साथ अन्य स्थानीय जातियों के लोगों ने भी भाग लिया था। हालांकि विद्रोह कुचल दिया गया। 251 कैदियों को सजा हुई, जिसमें 191 संथाल, 34 नाई, 5 डोम, 6 धांगड़, 7 कोल, 1 ग्वाला, 1 रजवान और 6 भुईयां शामिल थे। के.के. दत्त मानते हैं कि पुलिस और प्रशासन में भ्रष्टाचार नहीं होता तो संथाल ‘हूल’ नहीं करते। ‘हूल’ के बाद संथाल परगना का गठन के साथ सरकार ने संथाल की समस्या और हालात को समझने और उसके निदान के लिए कदम बढ़ाए। 

डॉ. एस.पी. सिन्हा ने ‘हूल’ पर ‘संताल हूल (इंस्सरेक्शन ऑफ संथाल्स), 1855-56’ नामक पुस्तक लिखी। इसका पहला अध्याय ए.सी. विडवेल और डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर के कार्य का अध्ययन है। उन्होंने विडवेल की रिपोर्ट के आधार पर कैप्टन शेरविल, चार्ल्स वान्स इत्यादि लोगों के मतों का अध्ययन किया है। कैप्टन शेरविल लगान के बढ़ोत्तरी को हूल का कारण नहीं मानते हैं। उनके अनुसार संथाल लगान अधिकारी पोटेंट से खुश थे। चार्ल्स वार्न्स का विचार है कि संथालों को जमींदारों और महाजनों से कोई समस्या नहीं थी। ‘हूल’ की वजह संथालों का दैवीय आदेश से कार्य करने का विचार था। वहीं मि. ग्रांट मानते हैं कि महाजनों और जमींदारों का आर्थिक शोषण और भ्रष्टाचार नहीं, बस पुलिस का अत्याचार हूल का कारण था।

सिन्हा संथालों की समस्याओं का अध्ययन करते हुए बताते हैं कि संथालों में महाजनों और जमींदारों के गुलामी से निकलने के लिए बेचैनी थी। संथाल बेहतर जीवन की आस में रेल परियोजनाओं में जा रहे थे। रेलवे कर्मचारियों द्वारा संथालों के पुरुषों और महिलाओं के शोषण को सिन्हा हल्के तरीके से लिया है। जमीनों से संथालों का जुड़ाव सिर्फ आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक भी था। जमीन से उनका जुड़ाव धार्मिक आस्था से जुड़ा था, इसलिए जमीनों के छीने जाने से वे इतने आहत हुए कि उन्हें हूल करना पड़ा। संथाल ‘अबुआ राज’ (अपना राज) की बात करते थे। वे किसी अन्य के अधीन रहना नहीं चाहते थे।

डॉ. सिन्हा ‘हूल’ के दूरगामी परिणाम पर चर्चा करते हैं। उनके अनुसार हूल संथालों के शहादत का प्रतीक ही नहीं, उनके बेहतर भविष्य का वादा था। हालांकि हूल के दौरान हजारों संथाल महिलाएं विधवा हो गईं। सैकड़ों बच्चे अनाथ हो गए। संथाल गांवों को आबाद होने में दशकों लग गए।

रणजीत गुहा ने अपनी पुस्तक ‘एलीमेंट्री एस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इंसर्जेंसी इन कोलोनिअल इंडिया’ में संथाल विद्रोह (हूल), कोल विद्रोह (1832) और बिरसा मुंडा के उलगुलान’ पर विस्तृत रूप से विचार किया है। 

संथाल हूल पर विचार करते हुए रणजीत गुहा ने कई अनछुए प्रसंगों पर प्रकाश डाला है। संथालों ने अपने दुश्मनों को ठीक से पहचाना और शोषण के खिलाफ असहिषुणता दिखलाई। उन्होंने जमींदारों, पुलिस और महाजनों के खिलाफ न सिर्फ हिंसक आंदोलन किया, बल्कि उनके सहयोगियों अंग्रेजों और भद्र बंगालियों के प्रति भी हिंसा की, क्योंकि संथालों की नजर में ये वर्गभेद के प्रतीक थे।

दूसरी तरफ इनलोगों ने दुश्मनों की संस्कृति और उनके प्रतीक चिह्नों को अपनाकर भी विरोध प्रदर्शित किया। संथाल दुश्मनों को यह आभास दिलाना चाहते थे कि तुम जिन प्रतीकों के आधार पर अपने को अभिजात्य और ताकतवर समझते हो, उनको अपनाकर संथाल भी ताकतवर हो सकते हैं। इसलिए सिदो ने ‘ठाकुर का परवाना’ को एक लिखित दस्तावेज के रूप में प्रयोग किया। सिदो इस लिखित दस्तावेज को एक जादुई शक्ति के रूप में देखा, जिसके जादू से संथाल लामबंद हुए और भोगनाडीह में दस हजार की संख्या में जुटे। दिकुओं (गैर आदिवासियों) के लिए भी यह चेतावनी थी कि संथाल भी लेखन से जुड़कर ताकतवर हो गए हैं और वे आरा, छपरा गंगा पार चले जाएं। महाजन बही-खाता में लेखन का इस्तेमाल कर संथालों को लूटते थे। संथालों के लिखित परवाने ने उन्हें भी अगाह किया कि अब संथाल भी लिखना, पढ़ना जान गए हैं। अब बही-खाता का घपला नहीं चलेगा।

संथालों ने हिंदू देवी-देवताओं यथा दुर्गा और गणपति की पूजा की। दो ब्राह्मणों का अपहरण करके इन देवताओं की पूजा कराई। इसके अलावा संथालों ने गैर-संथाली जातियों को अपने साथ आने का निमंत्रण दिया। संथालों ने एक ग्वाला जाति के व्यक्ति को पगड़ी पहनाकर सम्मानित किया। सिदो-कान्हू ने उसे पगड़ी पहनाई और हिंदुओं के उन जातियों को अपने आंदोलन का सहभागी बनाया, जिन्हें निम्न कहा जाता था। हूल के दौरान सिदो, कान्हू, चांद और भैरव ने लाल कपड़े पहने। लाल रंग क्रांति का प्रतीक बना। इसका इस्तेमाल ‘अबुआ राज’ (अपना राज) के नारे को प्रभावी ढंग से स्थापित करने के लिए किया गया। 

रणजीत गुहा कहते हैं कि संथालों ने महाजनों के घर चोरी, डकैती करके बड़े विद्रोह का संकेत दिया। गुहा मानते हैं कि हूल मांझियों (मुखियाओं) और परगनैतों (सरपंचों) के साथ दो महीने तक लंबे विचार-विमर्श के बाद सिदो ने शुरू करवाया। 

हूल की एक खास विशेषता थी कि पुरुषों के साथ महिलाएं भी सक्रिय रहीं। यह ‘मोरहकरामको रियक कथा’ (लोककथाओं) से पता चलता है। रणजीत गुहा के अनुसार हमेशा की तरह महिलाओं ने हूल में पुरुषों का साथ दिया। हूल के दौरान महिलाओं को भी गिरफ्तार किया गया था। उस दौरान 45 महिलाओं को सजा दी गई थी। 

रणजीत गुहा का मत है संथाल अपने दुश्मनों के यहां लूट-पाट, आगजनी करके उनको हमेशा से पंगु बना देना चाहते थे। साथ ही लूट-पाट करके जमींदारों और महाजनों से अपनी ही संपत्ति वापस ले रहे थे, क्योंकि महाजनों और जमींदारों द्वारा संथालों से लूटकर ही संपत्ति खड़ी की गई थी। संथाल हूल के दौरान लूट-पाट को ठाकुर का आदेश मान रहे थे। रणजीत गुहा संथालों की एकता और सजातीयता की चर्चा करते हैं। संथालों में एकजुटता की भावना और उत्साह पूर्वक चलने की प्रवृत्ति ने हूल में एक प्रेरणा का काम किया और नेतृत्व करने वालों सिदो-कान्हू के साथ हो लिए। संथालों में सजातीयता की भावना ने भी एकजुट करने में बड़ी भूमिका का निर्वहन किया।

इतना ही नहीं, हूल एक जनक्रांति के रूप में घटित हुई। गुहा ने इसमें जुटने वाले तेरह जातियों का उल्लेख किया है– बैरागी, कोरी, बोचा, खाती, धांगड़, डोम, ग्वाला, हाड़ी, जुलाहा, कलवार, कुम्हार, लोहार और तेली। इन जातियों के लोगों ने हूल में संथालों के साथ मिलकर संघर्ष किया। इस प्रकार यह एक धर्म और जाति दोनों रूपों में निरपेक्ष विद्रोह था।

रणजीत गुहा ने ‘हूल’ के प्रसार के तरीकों का भी अध्ययन किया है। संथालों ने शालवृक्ष की डाली, तेल, सिंदूर और चावल भेजकर संदेश का प्रसार किया। हूल के दौरान वाद्य यंत्रों यथा मांदर, डुगडुगी, बांसुरी बजाकर लोगों को लामबंद किया। ‘अबुआ देस, अबुआ राज’ की संथाल परिकल्पना स्वतंत्रता, स्थानीयता और शोषणविहिन राज्य की थी। 

अंत में केदार प्रसाद मीणा के पीएचडी शोध प्रबंध का संपादित और संशोधित रूप ‘आदिवासी विद्रोह’ नामक पुस्तक की चर्चा आवश्यक जान पड़ती है। केदार प्रसाद मीणा ने अपने इस शोध में अपने निष्कर्ष में हूल की वजहों में महाजनों द्वारा संथालों का शोषण, जमीन की लूट और रेल परियोजनाओं में लगे कर्मचारियों द्वारा संथाल महिलाओं के शोषण को मानते हैं। इसके अलावा वे सबसे बड़ी वजह संथालों की स्वतंत्रता और स्वाभिमान से जीने की इच्छा को मानते हैं।

दूसरी बात यह कि हूल काफी सोच विचार और अन्य दूसरे तरीके पर विचार-विमर्श और कोशिश के बाद किया गया था। केदार प्रसाद मीणा ने अपने शोध में बताया है कि हूल के नेता सिदो खुद पोटेंट से मिलकर संथालों की समस्या से अवगत कराया था और समाधान की मांग की थी, लेकिन पोटेंट ने उसे गाली देकर अपमानित करके भगा दिया। कोई उपाय नहीं देखकर सिदो ने दर्शन की कहानी व शालवृक्ष की डाली गांव-गांव में भेज दी। अंततः भोगनाडीह में 30 जून,1855 को सभा आयोजित कर हूल छेड़ दिया गया। हूल परंपरागत आदिम हथियारों से लड़ी गई आधुनिक लड़ाई थी। तीर-धनुष, भाला, फरसा जैसे पुराने हथियार से शोषणविहीन आधुनिक समाज की स्थापना का लक्ष्य था हूल।

केदार प्रसाद मीणा के अनुसार अबुआ राज की परिकल्पना लोकतांत्रिक मूल्यों की परिकल्पना थी। इसका दायरा बहुत बड़ा था। संथाल हूल के बाद ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र में सुधार के अनेक काम किए, लेकिन शायद आदिवासी इससे खुश नहीं थे। वे जंगल, जमीन और जल पर अपना हक-हूकूक चाहते थे। वे एक शोषणविहीन व्यवस्था चाहते थे, जहां संथाल सोहराय में खुलकर नाचते-गाते। समाज में झगड़ा आदि होने पर ‘विटालाहा’ होता। आदिवासियों की ‘अबुआ राज’ की संकल्पना को ना तो विदेशी साम्राज्यवादी समझ सके और ना ही देशी उपनिदेशवादी। हूल तो किसी न किसी रूप में देश में आदिवासी जनता द्वारा शोषण के खिलाफ आज भी जारी है। झारखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर मणिपुर तक।

संदर्भ सूची

  1. ई.जी. मान, संथालिया एंड द संथाल्स, मित्तल पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2003
  2. एल.एस.एस. ओ’मैली, बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेरियर्स-संथाल परगना, वी.आर. पब्लिशिंग कॉरपोरेशन, दिल्ली, 1984
  3. एल. नटराजन, ‘द संथाल इंस्सरेक्शन 1855-56’ (लेख), ए.आर. देसाई (संपादक) पीजेंट स्ट्रगल इन इंडिया, यूनिवर्सिटी प्रेस, बंबई, 1979
  4. एस.पी. सिन्हा, ‘संताल हूल (इंस्सरेक्शन ऑफ संथाल्स), 1855-56’, टी.आर.आई, रांची, 1990
  5. काली किंकर दत्त, द संताल इंस्सरेक्शन ऑफ 1855-57, पी. लिमिटेड, कलकत्ता, 2000
  6. केदार प्रसाद मीणा, ‘आदिवासी विद्रोह’, अनुज्ञा बुक्स, शहादरा (दिल्ली), 2018
  7. डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर, ‘द एन्नल्स ऑफ रूरल बंगाल’, कोस्मो पब्लिकेशंस, दिल्ली, 1975
  8. डब्ल्यू.जी. आर्चर, ‘दि हिल ऑफ प्लूटस’, इशा बुक्स, दिल्ली 
  9. डब्ल्यू.जी. आर्चर, संथाल रिविलियन सांग्स, रांची, 1945
  10. रणजीत गुहा, एलीमेंट्री एस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इंसर्जेंसी इन कोलोनियल इंडिया, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1983
  11. डब्ल्यू.जे. कुल्शॉ, ट्राइबल हेरिटेज: ए स्टडी ऑफ संथाल्स, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2004
  12. सी.ई. बकलैंड, बंगाल अंडर द लेफ्टिनेंट गवर्नर्स, दीव पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 1976 

(संपादन : समीक्षा/राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

देवेन्द्र शरण

लेखक रांची विश्वविद्यालय, रांची के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘शेड्यूल्ड कास्ट्स इन दी फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ (1999), ‘भारतीय इतिहास में नारी’ (2007), ‘नारी सशक्तिकरण का इतिहास’ (2012) और ‘मेरे गीत आवारा हैं’ (काव्य संग्रह, 2009) शामिल हैं।

संबंधित आलेख

व्यक्ति-स्वातंत्र्य के भारतीय संवाहक डॉ. आंबेडकर
ईश्वर के प्रति इतनी श्रद्धा उड़ेलने के बाद भी यहां परिवर्तन नहीं होता, बल्कि सनातनता पर ज्यादा बल देने की परंपरा पुष्ट होती जाती...
सरल शब्दों में समझें आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ. आंबेडकर का योगदान
डॉ. आंबेडकर ने भारत का संविधान लिखकर देश के विकास, अखंडता और एकता को बनाए रखने में विशेष योगदान दिया और सभी नागरिकों को...
संविधान-निर्माण में डॉ. आंबेडकर की भूमिका
भारतीय संविधान के आलोचक, ख़ास तौर से आरएसएस के बुद्धिजीवी डॉ. आंबेडकर को संविधान का लेखक नहीं मानते। इसके दो कारण हो सकते हैं।...
पढ़ें, शहादत के पहले जगदेव प्रसाद ने अपने पत्रों में जो लिखा
जगदेव प्रसाद की नजर में दलित पैंथर की वैचारिक समझ में आंबेडकर और मार्क्स दोनों थे। यह भी नया प्रयोग था। दलित पैंथर ने...
राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों का संघ ऐसे बनाना चाहते थे जगदेव प्रसाद
‘ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना...