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गीता प्रेस को सम्मान देने का मतलब

इस प्रकाशन संस्थान द्वारा छापे जा रहे साहित्य को देखें तो दोनों का दूर-दूर तक कोई संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता। मसलन, भगवद्गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों के प्रकाशन को अहिंसावादी तथा सामाजिक बदलाव की श्रेणी में रखना वास्तविकता से आंखें चुराना है। बता रहे हैं द्वारका भारती

पिछले दिनों एक धार्मिक कहे जाने वाले प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस, गोरखपुर, के सौ वर्ष पूरे होने पर जब वर्ष 2021 का महात्मा गांधी शांति पुरस्कार केंद्र सरकार द्वारा दिया गया तो किसी को किंचित मात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि देश में चूंकि आजकल ‘अमृतकाल’ चल रहा है और इस अमृतकाल में, जोकि अगले 25 सालों तक देश में अपनी छटा बिखेरता रहेगा, में जो कुछ भी घटित होगा, उसे इसी अमृतकाल की ही देन कहा जाएगा।

इस अमृतकाल में भारतीय जनता पार्टी जैसे राजनैतिक दल को खुली छूट है कि वह इस अमृतकाल की घनी परछाई में खुलेआम कुछ भी कर सकती है। हम मान सकते हैं कि इस वर्तमान सत्ता ने अपने रामराज कालीन उद्देश्यों और कार्य शैली के अनुरूप ही इस गीता प्रेस, गोरखपुर का चयन उपरोक्त सम्मान के लिए किया है और इस पुरस्कार की एक करोड़ की राशि उसके झोले में डाल दी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह पुरस्कार स्वीकार नहीं किया गया है। वैसे भी इस प्रकाशन के बारे में कहा जाता है कि यह किसी प्रकार का अनुदान या सहायता स्वीकार नहीं करता।

उपरी दृष्टि से देखें तो किसी को भी किसी प्रकार का उज्र नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसे एक धार्मिक कृत्य की संज्ञा दी गई है और धार्मिक कृत्य का विरोध करना मानो अपने कंधों पर अनजाने खतरों को लादे हुए इस समाज में विचरन करना। वजह यह कि यह प्रकाशन संस्थान हिंदू धर्म से जुड़ी धार्मिक कहे जाने वाली पुस्तकों का प्रकाशन करने में अग्रणी स्थान रखता है, इसलिए इसे एक धार्मिक संस्थान होने का गौरव स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।

विकिपीडिया से मिल रही जानकारी के अनुसार इस प्रकाशन संस्थान की स्थापना 1923 में हुई थी और इसका विधिवत् संचालन 1927 को शुरू होना बताया गया है। इसके संस्थापक कोई गीता मर्मज्ञ जयदयाल गोयनका बताए जाते हैं। इसमें लगभग दो सौ कर्मचारी कार्यरत हैं। यह जानकारी रोचकता से भरपूर होती यदि कोई निम्न जाति का कर्मचारी इनमें  शामिल होता। वैसे इस बात की पूरी संभावना है कि हिंदू धर्म को समर्पित इस प्रकाशन संस्थान में किसी दलित वर्ग के कर्मचारी का कार्यरत होना चील के घोंसले से मांस का टुकड़ा मिलने जैसा होगा। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस संस्थान में पूरी तरह से ठोक-बजाकर कर्मचारियों के वंश और जाति व गोत्र का पता लगा कर ही भर्ती की जाती होगी।

गीता प्रेस, गोरखपुर के एक विक्रय केंद्र का दृश्य

खैर, इस संस्थान का दावा है कि उसने अब तक 45 करोड़ 45 लाख से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन किया है। इनमें 8 करोड़ 10 लाख भगवद्गीता और साढ़े सात करोड़ रामचरित मानस की प्रतियां शामिल हैं। इसके अतिरिक्त इस संस्थान ने महिला और बालोपयोगी साहित्य की 10.30 करोड़ प्रतियों की बिक्री की जानकारी दी है। यहां यह समझना जरूरी होगा कि इन आंकड़ों का कारण इस देश की जनसंख्या का बढ़ना है या इस देश में हिंदुत्व को राजनीतिक हवा देना। संस्थान ने यह स्वीकार किया है कि पिछले वित्तीय वर्ष में उसने पुस्तकों की छपाई के लिए 4500 टन कागज का इस्तेमाल किया, जो एक तरह से बहुत अधिक इस्तेमाल ही कहा जाएगा। इससे भी घोर आश्चर्य यह है कि यह प्रकाशन अपनी मांग को पूरा नहीं कर पा रहा है। 

संस्थान द्वारा जारी यह तथ्य भी हैरान करता है कि प्रत्येक वर्ष 1.75 करोड़ से अधिक पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं। गीता प्रेस के प्रबंधक (उत्पादन) बताते हैं कि यह संस्थान प्रतिदिन 50 हजार से भी ज्यादा पुस्तकें बेचता है। यह भी कहा गया है कि विश्व का कोई भी प्रकाशन संस्थान इतनी पुस्तकें नहीं बेचता है। सबसे ज्यादा मांग रामचरित मानस की बताई जाती है।

गीता प्रेस के कुल प्रकाशनों की संख्या 1600 दर्शाई गई है, जिनमें 780 प्रकाशन हिंदी तथा संस्कृत में हैं। इसके अलावा गुजराती, मराठी, तेलुगु, बांग्ला, उड़िया, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी, और अन्य स्थानीय भाषाओं में प्रकाशन कार्य होता है। यह प्रकाशन अपनी हिंदी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ का प्रकाशन भी करता है। कहा जाता है कि इसके शुरुआती अंक की 1600 प्रतियां छापी गईं थी जो आज बढ़कर 2 लाख 30 हजार हो गई है। 

एक जानकारी यह भी है कि इस प्रकाशन संस्थान के संरक्षक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बताए जाते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि यह संस्थान एक शक्तिशाली साम्राज्य से कम महत्व नहीं रखता है। 

खैर, केंद्र सरकार द्वारा पुरस्कार की घोषणा के समय कहा यह गया है कि गीता प्रेस, गोरखपुर को यह पुरस्कार अहिंसा और गांधीवादी तरीके से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में बदलाव लाने में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया गया है। जबकि इस प्रकाशन संस्थान द्वारा छापे जा रहे साहित्य को देखें तो दोनों का दूर-दूर तक कोई संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता। मसलन, भगवद्गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों के प्रकाशन को अहिंसावादी तथा सामाजिक बदलाव की श्रेणी में रखना वास्तविकता से आंखें चुराना है। 

सर्वविदित है कि यह हिंदू ग्रंथ एक ऐसी साहित्यिक कृति है, जिसमें ‘अहिंसा’ शब्द ढूंढने पर कहीं भी नहीं मिलता है। यह पुस्तक एक ऐसे भयंकर युद्ध का दस्तावेज है, जिसे धर्म का लबादा ओढ़ा दिया गया है। इस ग्रंथ के बारे में संसार के विद्वानों की राय बहुत अच्छी नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकार धर्मानंद कोसंबी की राय को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। उनका मानना है कि गीता की विसंगतियां पूर्णतः भारतीय चरित्र में है। (प्राचीन भारत की सभ्यता, पृष्ठ 258)

वास्तव में गीता एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें हिंदू धर्म का सार मिलता है। इस संदर्भ में हम डॉ. आंबेडकर की सारगर्भित टिप्पणी को देख सकते हैं। उनका मानना था कि “ऐसा कहा जाएगा कि मनुस्मृति हिंदू धर्म का धर्मग्रंथ है, मेरा ऐसा मानना ही गलत है और हिंदुत्व की शिक्षा सार वेद तथा भगवद्गीता में सम्मिलित है।” ( डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वाङ्‌मय, खंड-6, पृष्ठ 102)

वास्तव में गीता जैसे ग्रंथ उतने पढ़े नहीं जाते, जितने पूजे जाते हैं। इसके भीतर की सामग्री अपने सगों का रक्तपात करने को प्रेरित करने से भी नहीं चुकती।

इसके अतिरिक्त गीता प्रेस, गोरखपुर जो अन्य साहित्य प्रकाशित करता है, वह किसी भी तरह से प्रगतिशील या मानववादी नहीं कहा जा सकता। धर्म के नाम पर देश की महिलाओं तथा दलितों के लिए बहुत निम्न स्तर के आदेशों का आज भी इन पुस्तकों में प्रकाशन होना बहुत शर्मनाक कहा जा सकता है। लेकिन यह प्रकाशन धड़ल्ले से ऐसी पुस्तकें बिना हिचक छापता रहा है। इनमें किन्हीं रामसुखदास की पुस्तक ‘गृहस्थ कैसे रहें?’ इसी प्रकार की ही एक ऐसी पुस्तक है, जिसे आज के युग में छापना हास्यास्पद कहा जा सकता है। इस पुस्तक में हम मध्ययुगीन औरत को देख सकते हैं। 

बानगी के तौर पर देखें तो इसमें कहा गया है कि औरत को मन से अपने पति की सेवा करनी चाहिए, सती प्रथा हिंदू धर्म की रीढ़ है, अगर पति बाहर भी कहीं संबंध बनाता है तो औरत पति को नहीं छोड़ती, यदि पति मारपीट भी करे तो पत्नी को पूर्वजन्मों का कोई पाप समझना चाहिए आदि।

बहरसूरत यह भी देखने में आया है कि सामाजिक स्तर पर इस संस्थान को पुरस्कृत किए जाने का विरोध नहीं के बराबर देखा गया है। देश की तर्कशील व प्रगतिशील संस्थाओं की ओर से दो पंक्तियों का वक्तव्य तक भी नहीं देखा गया है, मानो जो भी हुआ है, वह एकदम ठीक हुआ है। राजनीति से जुड़े कुछ लोगों के वक्तव्य जरूर सामने आए हैं, लेकिन वह राजनीति के गलियारों तक ही सीमित है, वह भी कुछ दिनों तक ही।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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