h n

पूर्वांचल के दलित-बहुजन कर रहे ब्रह्मभोज का बहिष्कार

जौनपुर जिले के निवासी और मडियाहूं के पूर्व प्रखंड प्रमुख, सामाजिक कार्यकर्ता लाल प्रताप यादव ने भी एक अरसे से ब्रह्मभोज के ख़िलाफ मुहिम छेड़ रखा है। वे दलील देते हैं कि ब्रह्मभोज खाना मानवमांस भक्षण के बराबर है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में चल रहे पाखंड विरोधी मुहिम में सभी दलित-बहुजन जातियों के लोग शामिल हैं। इस बारे में बता रहे हैं सुशील मानव

एक तरफ दलित-बहुजन समाज के युवक कांवड़ उठाए उत्तर प्रदेश की सड़कों पर डीजे के कानफोड़ू आवाज़ संग लहुलुहान क़दमों से चलते-नाचते आदिम युग में जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर पूर्वांचल के बहुजन समाज में प्रगतिशील बदलाव की एक चिंगारी फूटी है। पिछले कुछ दिनों में दलित-बहुजन समाज के लोगों ने ब्रह्मभोज (तेरही) का बहिष्कार करना शुरू कर दिया है।

हालिया घटना गोरखपुर जिले की है। रैदास समाज के धर्मेंद्र कुमार ‘112 नंबर’ सेवा में संविदा के तहत होमगार्ड (चालक) हैं। उनके परिवार में जीवनसंगिनी के अलावा तीन बच्चे हैं। उनकी सात बहने हैं, जो शादी-ब्याह करके अपनी-अपनी गृहस्थी में रमी हुई हैं। एक महीना पहले गांव तांगीपार निवासी उनकी बहन कलावती के ससुर शिवमणि का देहावसान हो गया। धर्मेंद्र को बहन ने बुलाया तो वो उसके ससुराल गये। वहां धर्मेंद्र ने बहनोई विनोद, जो कि दिहाड़ी मज़दूर हैं, उन्हें उनके घरवालों को बाल बनवाने और ब्रह्मभोज का विरोध करने के लिए मनाया और परिवार ने ऐसा किया भी। धर्मेंद्र कुमार की सलाह पर शिवमणि जी के देहावसान के एक महीने बाद परिजनों ने उनकी स्मृति में गांव में एक सामाजिक कार्यक्रम करने का निश्चय किया और उस कार्यक्रम में इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डॉ. विक्रम को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया। साथ ही अन्य सामाजिक लोगों को भी बुलाया गया। 

धर्मेंद्र बताते हैं कि उनलोगों की कोशिश यह थी कि कार्यक्रम के ज़रिए उस गांव समाज के लोगों को ब्राह्मणवादी पाखंडों और कर्मकांडों के प्रति जागरुक किया जाय और उन्हें समझाया जाय कि यह सब व्यर्थ की बातें हैं। 

वहीं इस ब्राह्मणवाद, कर्मकांड विरोधी कार्यक्रम के बाद तांगीपार के ब्राह्मण समुदाय के लोगों ने कलावती-विनोद के परिवार से नाराज़ होकर उनका बहिष्कार कर दिया है। गांव और आस-पास के बाज़ार के दुकानदार उन्हें सामान तक नहीं दे रहे हैं। 

संत कबीर नगर जिले के ग्राम हांसडाडी, पोस्ट सेमरडाड़ी, धनघटा निवासी किसान रामचेत मौर्या का गत 27 जून को देहावसान हो गया। उन्हें 21 जून को ब्रेन हैमरेज हुआ था। उनके बड़े बेटे कृष्ण मोहन मौर्या ने अपने चारों भाइयों समेत निर्णय लिया कि पिता का अंतिम संस्कार और उसके बाद के कर्मकांड को वे लोग नहीं करेंगे। उनके पट्टीदार लोग भी साथ खड़े हुए। उन लोगों ने पिता के पार्थिव शरीर को बहुत साधारण तरीके से ले जाकर अपने खेत में ही दफ़ना दिया। निर्णय लिया गया कि कोई बाल वगैरह नहीं मुंडवाएगा। पर उनके पट्टीदारों ने कहा कि सारा कुछ एक साथ करोगे, तो कई लोग नहीं कर पाएंगे। धीरे-धीरे छोड़ेंगे लोग। तो कुछ लोगों ने बाल मुंडवाया और कुछ लोगों ने नहीं मुंडवाया। 

इसके बाद 9 जुलाई को ब्रह्मभोज की जगह पर स्मृतिभोज का आयोजन किया गया। जिसमें एक सभा ‘स्मृतिभोज क्यों?’ सवाल पर रखी गई। कृष्ण मोहन बताते हैं कि इसका यह फायदा हुआ कि लोगों ने बात करना बंद कर दिया। वर्ना जगह-जगह बैठकर नकारात्मक बातें करते कि बेटा नालायक है, जिसने पिता के मरने पर कुछ किया ही नहीं। इसलिए कार्यक्रम किया। करीब दो हजार लोगों को कार्ड भेजकर बुलाया। बारिश के बावजूद डेढ़ हजार लोग आए और शाम पांच बजे से लेकर 11 बजे रात तक कार्यक्रम चला। शोकनाशक सभा में कई वक्ताओं ने ब्राह्मणवादी कर्मकांडों के ख़िलाफ़ लोगों को संबोधित किया। 

वे बताते हैं कि उनके गांव में संख्या के लिहाज से पहले नंबर पर रैदास, दूसरे नंबर पर यादव और तीसरे नंबर ब्राह्मण हैं। ऐसे ही चौथे नंबर पर बेलदार और पांचवें नंबर पर कहार हैं। फिर नाई, धोबी, लुहार, कुम्हार, मुस्लिम, हैं। पूरे गांव में केवल तीन घर मौंर्या हैं। स्मृति भोज में सबसे पहले बच्चों को खाना खिलाया गया। फिर सौ बच्चों को एक-एक कॉपी, एक-एक पेन और दस-दस रुपए कार्यक्रम में मौजूद तमाम लोगों के हाथों दिलवाया गया। 

एक शोकनाशक कार्यक्रम में बच्चों को कॉपी-कलम देते लोग

शोकनाशक सभा को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉ. विक्रम, गोरखपुर यूनिवर्सिटी के इतिहास के विभागाध्यक्ष डी.एन. मौर्या, आंबेडकरनगर के रिटायर्ड लेक्चरर गंगा प्रसाद यादव, आर.पी. गौतम, रामबीर गौड़ आदि ने संबोधित किया। कृष्ण मोहन मौर्या दावा करते हैं कि इस कार्यक्रम का एक सार्थक प्रभाव यह रहा कि केवल ब्राह्मणों को छोड़कर गांव के शेष अन्य सभी लोग साथ देने के लिए तैयार हो गए।

इसी तरह पिछले महीने यानि जून में वाराणसी जिले के पिंडरा तहसील के गांव वाज़िदपुर में गांववालों ने एक पंचायत बुलाकर प्रतिज्ञा की कि गांव में किसी की तेरही या ब्रह्मभोज नहीं किया जाएगा। गांव के प्रधान लालमन यादव दलील देते हैं कि मृतक के नाम पर गांव में पेड़ लगाया जाएगा। इससे शुद्ध हवा भी मिलेगी और पर्यावरण भी प्रदूषण मुक्त होगा। साथ ही, तेरही में खर्च होने वाले पैसे का इस्तेमाल शिक्षा और ग़रीब बच्चियों की शादी जैसे सामाजिक कार्यों में होगा। 

जौनपुर जिले के निवासी और मडियाहूं के पूर्व प्रखंड प्रमुख, सामाजिक कार्यकर्ता लाल प्रताप यादव ने भी एक अरसे से ब्रह्मभोज के ख़िलाफ मुहिम छेड़ रखा है। वे दलील देते हैं कि ब्रह्मभोज खाना मानवमांस भक्षण के बराबर है। 

इसी साल जनवरी महीने में झांसी जिले के बंगरा विकास खंड के उल्दन गांव में अहिरवार समाज के लोगों ने भी मिलकर तय किया कि वे अपने परिवार के किसी सदस्य की मौत के बाद ब्रह्मभोज का आयोजन नहीं करेंगे। जो इस बात को नहीं मानेगा और ब्रह्मभोज का आयोजन करेगा, उसके ऊपर आर्थिक जुर्माने के साथ सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। इस मुहिम में अहिरवार समाज के पांच सौ से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किया। इस गांव में अहिरवार समाज की आबादी पांच हजार के क़रीब है। इन लोगों को कहना है कि गांव में अहिरवार समाज में ऐसे कई केस हुए कि 20-35 साल के लड़के बीमारी या दुर्घटना से मर गए। मरने से पहले उनके इलाज में परिवार ने ख़ूब पैसा खर्च किया। उसके बाद ब्रह्मभोज के दबाव के चलते उन्हें अपना खेत बेचना या गिरवी रखना या कर्ज़ लेना पड़ा।   

ब्रह्मभोज और स्मृतिभोज में क्या फर्क है

आपने ब्रह्मभोज का नाम बदलकर स्मृतिभोज कर दिया, लेकिन काम तो वही किया। इसके जवाब में कृष्ण मोहन मौर्या तर्क देते हैं कि शोकसभा से ब्राह्मणवादी लोगों की बोलती बंद हो गई। कहीं किसी ने कोई निंदा नहीं की। अगर सभा न हुई होती तो दुनिया भर की निंदा होती। लोग जगह-जगह बैठकर प्रपंच करते। ये नहीं किया वो नहीं किया। इसके यहां खाने लायक नहीं है, इसके यहां का पानी पीने लायक नहीं है आदि। लेकिन शोकसभा से सब मौन हो गए हैं। साउंड लगाकर शोकसभा का आयोजन किए हैं। पूरे गांव ने वक्ताओं को सुना है, जो नहीं आए उन्होंने भी सुना है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफ़ेसर डॉ. विक्रम ने सभा में मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि हिंदू धर्म में ब्रह्मभोज को लेकर जो कर्मकांड हैं, बहुत ही अमानवीय और क्रूर हैं। किसी के परिजन मर गए हैं, जवान बेटा-बेटी या बहू मर गये हैं और आप पीड़ित परिवार के प्रति संवेदना जताने के बजाय उसके ऊपर ब्रह्मभोज खिलाने का दबाव बनाएं, और ब्रह्मभोज खाएं तो यह न सिर्फ अमानवीयता है, बल्कि क्रूरता भी। ऐसी क्रूर प्रथा का बहिष्कार होना ही चाहिए। आत्मा, ब्रह्म जैसे शब्दों का बहिष्कार होना चाहिए। पुण्यतिथि की जगह परिनिर्वाण शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए। माता-पिता का देहांत होने के बाद घर पर उनकी प्रतिमा लगानी चाहिए ताकि पीढ़ियां उस व्यक्ति को याद रखें। उनकी खेत में ही समाधि बना देनी चाहिए।

ब्रह्मभोज के बदले स्मृतिभोज का निमंत्रण पत्र

दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष दिग्विजय नाथ मौर्या ने शोकसभा में कहा कि सत्ता का यह चरित्र होता है कि जनता को धर्मभीरु बनाए रखो। सत्ता जनता को धर्मभीरू बनाने के लिए पैसा ख़र्च करती है। चाणक्य ने चंद्रगुप्त से कहा था कि सत्ता को ऐश्वर्यपूर्वक चलाते रहने के लिए जनता का धर्मभीरू होना ज़रूरी है ताकि वह इस पर भरोसा करें कि जो कुछ उनके साथ हो रहा है, जहां उन्होंने जन्म लिया, उनकी ग़रीबी, ग़ैर-बराबरी सबका जिम्मेदार भगवान है। यह बात हमारे दिमाग में बहुत गहरे से बैठाई गई है। जनता से चंदा लेकर कभी हॉस्पिटल नहीं बना, अयोध्या में मंदिर बना, जिसकी लागत खरबों में है। इतने मूल्य का यूपी में कोई हॉस्पिटल नहीं बना। उन्होंने कहा कि हर गांव में देवालय है, विद्यालय नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि नई शिक्षा नीति के दूरगामी परिणाम होंगे और ग़रीबों के बच्चे पढ़ नहीं पाएंगे। 

लंबे समय तक बामसेफ के कैडर रहे और वर्तमान में समदर्शी लोक संघ से संबद्ध राजेंद्र प्रसाद गौतम ने कहा जब तक जनता पांच सौ रुपए पर वोट देती रहेगी, पांच किलो अनाज पर वोट देती रहेगी, तब तक उसे अंधविश्वास और कर्मकांड से मुक्ति नहीं मिलेगी। उन्होंने आगे कहा कि लोगों की यह धारणा होती है कि वे खुशी में जाएं चाहे न जाएं, ग़म में ज़रूर जाएं। तो अगर इस अवसर (तेरहवीं) को चेतना जगाने वाले ऐसे अवसर में बदल दिया जाय तो यह हमारे समाज के लिए रोल मॉडल, माइलस्टोन है। ऐसे कार्यक्रम सबको आयोजित करने चाहिए।

आंबेडकरनगर जिला निवासी गंगा प्रसाद यादव, जो कि उत्तराखंड के राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर पद से अवकाशप्राप्त हैं, ने शोकनाशकसभा में कहा कि दलित बहुजनों का आईक्यू लेवल ब्राह्मण और उसकी समकक्ष जातियों से कम है। इसलिए वो ब्राह्मणवाद का मुक़ाबला नहीं कर पा रहा है। आईक्यू लेवल शिक्षा से बढ़ता है। शिक्षा ही वह औजार है, जिससे अपना आईक्यू लेवल बढ़ाकर दलित बहुजन समाज के लोग ब्राह्मणवाद कर्मकांड और अंधविश्वास से पार पा सकते हैं। 

बता दें कि संत कबीरनगर जिले के निवासी, सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार कृष्ण मोहन मौर्या ‘समदर्शी लोक संघ’ के नाम से एक संगठन के संस्थापक संचालक हैं, जो पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद, कर्मकांड, रुढ़िवाद, कठमुल्लावाद, अंधविश्वास आदि के ख़िलाफ़ जनचेतना के विकास का काम करता है। कृष्ण मोहन कहते हैं कि उनकी यह संस्था पूरी तरह से नास्तिकता को बढ़ावा देने वाली संस्था है। आज धर्म के नाम पर समाज का शोषण करने वाली परंपराओं और रीति रिवाज से सिर्फ़ दलित बहुजन ही नहीं, ब्राह्मण जातियां भी पीड़ित हैं। 

संगठन की भावी योजना के बाबत कृष्ण मोहन बताते हैं कि आंबेडकर नगर जिले में 21-24 सितंबर को चार दिन का वार्षिक अधिवेशन करेंगे। इसके अलावा वो एक नई व्यवस्था शुरु करने जा रहे हैं। जैसे जो ब्राह्मणवाद को पुष्ट करने वाला यज्ञ होता है तीन दिन, एक सप्ताह, ग्यारह दिन, पंद्रह दिन का उसकी तर्ज़ पर इतिहास स्मृति समारोह शुरु करेंगे। जो जैसा परिवेश हो, उसके मुताबिक, लेकिन फिर भी कम से कम पांच दिन से लेकर सात दिन का कार्यक्रम करेंगे और अतिंम दिन सहभोज करके कार्यक्रम संपन्न करेंगे। वे कहते हैं कि “हमारा समाज दिनभर काम करता है तब शाम को खाता है। अगर उसको दिन में डिस्टर्ब कर देंगे तो वो खुद भूखों मरेगा तो हमारा सहयोग कहां से करेगा। अतः कार्यक्रम का समय शाम 7-11 रखेंगे, ताकि लोग खा पीकर आएंगे और कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे। बीच में रंगारंग कार्यक्रम चलेगा, जिसमें नाटक कविता कहानी बिरहा भी होगा और बीच में वक्ता अपनी बात भी रखेंगे।” वे आगे कहते हैं कि इस कार्यक्रम में वे दलित-बहुजन समाज के लिए काम करने वाले लोगों के बारे में समाज को बताएंगे। उनकी जीवनी, इतिहास, ऐतिहासिक घटनाक्रम पर वर्तमान परिवेश पर चर्चा की जाएगी। इस कार्यक्रम की शुरुआत आगामी 1-8 अक्टूबर को अपने पैतृक गांव से करेंगे। साथ ही अपने गांव के चौराहे पर लाइब्रेरी की स्थापना करेंगे। 

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

संबंधित आलेख

बहुजनों के वास्तविक गुरु कौन?
अगर भारत में बहुजनों को ज्ञान देने की किसी ने कोशिश की तो वह ग़ैर-ब्राह्मणवादी परंपरा रही है। बुद्ध मत, इस्लाम, अंग्रेजों और ईसाई...
ग्राम्शी और आंबेडकर की फासीवाद विरोधी संघर्ष में भूमिका
डॉ. बी.आर. आंबेडकर एक विरले भारतीय जैविक बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को व्यवस्थित और संरचनात्मक रूप से चुनौती दी। उन्होंने हाशिए के लोगों...
मध्य प्रदेश : विकास से कोसों दूर हैं सागर जिले के तिली गांव के दक्खिन टोले के दलित-आदिवासी
बस्ती की एक झोपड़ी में अनिता रहती हैं। वह आदिवासी समुदाय की हैं। उन्हें कई दिनों से बुखार है। वह कहतीं हैं कि “मेरी...
विस्तार से जानें चंद्रू समिति की अनुशंसाएं, जो पूरे भारत के लिए हैं उपयोगी
गत 18 जून, 2024 को तमिलनाडु सरकार द्वारा गठित जस्टिस चंद्रू समिति ने अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को सौंप दी। इस समिति ने...
नालंदा विश्वविद्यालय के नाम पर भगवा गुब्बारा
हालांकि विश्वविद्यालय द्वारा बौद्ध धर्म से संबंधित पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। लेकिल इनकी आड़ में नालंदा विश्वविद्यालय में हिंदू धर्म के पाठ्यक्रमों को...