अगर पेरियार को समझना है तो यह जानना जरूरी है कि पेरियार कैसे पेरियार बने। बता दूं कि ई.वी. रामासामी पेरियार (17 सितंबर, 1879 – 24 दिसंबर, 1973) एक समृद्ध परिवार से थे। सन् 1904 में एक बार वे संन्यासी बनने के लिए काशी गए। बहुत भटकने के बाद जब उनके पैसे खर्च हो गए और भूख लगी तब काशी के किसी मंदिर और आश्रम में उन्हें न ठौर मिली और न भोजन। तब एक मंदिर में खुद को ब्राह्मण बताकर भोजन प्राप्त करने की कोशिश की। लेकिन ब्राह्मणों ने उन्हें पहचान लिया और पांत से उठा दिया, क्योंकि वे एक शूद्र (ओबीसी) परिवार से आते थे। शूद्र होने के कारण ब्राह्मण वर्ग ने उन्हे जलील किया। अपमानजनक घटना से उन्हें ज्ञान हुआ कि धर्म की सत्ता वास्तव में क्या है। वहां उन्होंने देखा कि काशी में जो दानदाताओं की सूची है, उसमें सबसे ज्यादा शूद्र समाज के ही लोग हैं। लेकिन उन्हें भोज में शामिल होने का अधिकार नहीं है।
फुले और आंबेडकर को भी झेलना पड़ा अपमान
ठीक ऐसी ही घटनाएं डॉ. आंबेडकर और जोतीराव फुले के साथ भी घटित हुईं। फुले जब अपने एक सवर्ण मित्र की बारात में जाते हैं तो शूद्र होने के कारण उनको भी बेइज्जत किया जाता है। ब्राह्मण वर्ग उन्हें भी जलील करता है। जबकि वे भी एक समृद्ध परिवार से थे। ठीक इसी प्रकार डॉ. आंबेडकर जब ट्रेन से उतर कर अपने पिता के पास जाते हैं और जिस बैलगाड़ी में बैठते है, उसमें उनको अछूत जाति का होने के कारण जलील किया जाता है। जबकि डॉ. आंबेडकर एक सैन्य सूबेदार के बेटे थे।
जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में अगर कोई व्यक्ति जाति के कारण जलील होता है तो बेगैरत व्यक्ति ही धार्मिक गुलाम बनता है। लेकिन जिसमें थोड़ी भी गैरत बची है, जिसमें थोड़ा भी स्वाभिमान बचा हो, वह व्यक्ति तर्कवादी बनेगा। जैसे फुले, पेरियार और आंबेडकर बने। अगर पेरियार उस घटना से आहत नहीं होते तो वे धार्मिक गुलाम बनते। जैसे करोड़ों ओबीसी, दलित और आदिवासी धार्मिक गुलाम बने हुए हैं।
जाति के दंश से सभी दलित-आदिवासी-पिछड़े पीड़ित
दलित, आदिवासी और ओबीसी के बहुत सारे लोग कहते है कि उनके साथ कभी जातिगत भेदभाव नहीं हुआ। वे कहते हैं कि हमारा प्रमोशन हो गया, हम बड़े पद पर चले गए या फिर हमारा बिजनेस है, करोड़ों की संपत्ति है। हमें किसी ने जाति के नाम पर जलील नहीं किया गया। असल में ऐसा कहनेवाले लोग झूठ बोलते हैं। इनमें यह पहचान करने का गुण कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है, खत्म हो चुका है। जैसे-जैसे कोई भेदभाव को स्वीकार करता जाता है, वैसे-वैसे उसे जलालत महसूस होना बंद हो जाता है। वह व्यवस्था को स्वीकार कर लेता है और धार्मिक गुलाम बन जाता है। ऐसे लोग अपनी जलालत को ही अपनी इज्जत समझने लगते हैं।
वास्तविकता तो यह है कि दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदायों का शायद ही ऐसा कोई हो, जिसे जातिगत लांछन नहीं सहन करना पड़ा हो। अभी हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तक को जाति के नाम पर पुरी के जगन्नाथ मंदिर में जलील होना पड़ा।
आसमानी किताबें नहीं हैं हिंदू धर्मग्रंथ
पेरियार, आंबेडकर और फुले, तीनों अपेक्षाकृत समृद्ध परिवारों से थे, इसके बावजूद उन्हें जलालत झेलनी पड़ी। पेरियार – ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्र और ब्राह्मणवाद – इन चारों को खत्म करने की बात कहते हैं। वे कहते हैं कि जब तक इनका खात्मा नहीं होगा, तब तक समाज का उत्थान संभव नहीं। वे कहते हैं कि ईश्वर को इसलिए रचा गया ताकि छोटी जाति से अपनी सेवा करा सके। और ईश्वर को स्थापित करने के लिए धर्म की रचना की गई। धर्म को स्थापित करने के लिए शास्त्र लिखा गया है और कहा गया कि यह अपौरुषेय है। इसको किसी पुरुष ने नहीं रचा, स्वयं भगवान ने लिखा है। ब्राह्मण दावा करते हैं कि यह ग्रंथ आकाश से उतरा है।
पेरियार ने ब्राह्मणवाद पर करारा प्रहार किया। उनका मानना था कि ईश्वर, धर्म और धर्मशास्त्र, इन तीनों को स्थापित करने के लिए ब्राह्मणवाद को लागू किया गया। ब्राह्मणवाद का मतलब होता है– अंधविश्वास का पालन करना। ब्राह्मणवाद का मतलब है– भेदभाव को स्थापित करना। ब्राह्मणवाद का मतलब होता है– स्त्रियों का शोषण करना। ब्राह्मणवाद का मतलब है– किसी एक जाति/वर्ग को सर्वश्रेष्ठ बताना और शेष सभी को निम्न बताना। पेरियार ने कहा कि इन चारों के खात्मे के लिए वे जीवन भर आंदोलन करते रहेंगे।
तर्कवादी पेरियार
एक महत्वपूर्ण बात जो पेरियार से जुड़ी हुई है, वह है– तर्क। वे एक तर्कशास्त्री के रूप में काम करते हैं। वे कहते हैं कि तर्क और विज्ञान का रास्ता ही कल्याण का रास्ता है। मतलब यह कि कोई व्यक्ति अगर यह दावा करे कि वह वंचित वर्ग की भलाई के लिए काम कर रहा है और उसके अंदर तर्क-शक्ति नहीं है, वैज्ञानिक विचारधारा नहीं है, तो वह झूठा है। अगर वह व्यक्ति कलावा, जनेऊ और तिलक धारण किए हुए है व तरह-तरह के धार्मिक आडंबर करता है, तो वह वंचितों के लिए काम नहीं कर रहा, बल्कि उन्हें ठग रहा है। पेरियार कहते थे कि वंचितों को ठगने का काम मत करो, क्योंकि जो वैज्ञानिक विचारधारा है, जो विज्ञान को बढ़ाने वाली विचारधारा है, जो तर्क की विचारधारा है, वही वास्तव में वंचितों की मुक्ति का मार्ग है। अगर अंधविश्वास को हटाकर विज्ञान को ला दिया जाय तो मानसिक गुलाम लोग अपने-आप तर्कशील हो जाएंगे। सबसे पहले लोगों को विज्ञान की तरफ ले जाना होगा। अंधविश्वास से मुक्त करना होगा, क्योंकि गुलामी का जो भी माहौल बनाया गया है, वह अंधविश्वास के जरिए बनाया गया। जाति और ऊंच-नीच भी एक तरह का अंधविश्वास है।
उच्च वर्ण का अंधविश्वास और निम्न वर्ण का अंधविश्वास
यहां तक कि अंधविश्वास को भी दो हिस्से में बांट दिया गया है। एक उच्च वर्ण का अंधविश्वास और दूसरा निम्न वर्ण का अंधविश्वास। छुआछूत, वेद, शास्त्र, जातिवाद, जनेऊ, कुंडली, फलित ज्योतिष, हस्तरेखा जैसे उच्च वर्ण के अंधविश्वास को ऊंची जातियों के लोग अंधविश्वास नहीं मानते। वे सिर्फ निम्न वर्ण के अंधविश्वास झाड़-फूंक, डायन प्रथा, तोता-मैना से भविष्य बताना आदि को ही अंधविश्वास मानते हैं। असल में अंधविश्वास का दायरा सीमित नहीं किया जाना चाहिए। आप एक निम्न वर्ण के विश्वास को ही आप खुलासा करिए और जो उच्च वर्ण का अंधविश्वास है, उसकी आप रक्षा करिए, तो यह जो सोच है, इसका भी पर्दाफाश करने की जरूरत है। यदि कोई ऐसा नहीं करता है और खुद को अंधविश्वास का विरोधी कहता है तो वह झूठ बोल रहा है। इस मामले में कबीर, फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर बेहतरीन आदर्श हैं। इन्होंने दोनों प्रकार के अंधविश्वासों पर चोट किया। पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ भी इसी उद्देश्य से लिखी।
लैंगिक न्याय पर पेरियार
पेरियार स्त्री-पुरुष की बराबरी की बात करते हैं। वे कहते हैं कि पति–पत्नी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि पति का मतलब मालिक है और पत्नी का मतलब दासी। मालिक एवं दासी का रिश्ता नहीं हो सकता। दोनों के बीच दोस्ती का रिश्ता होना चाहिए। उनके बीच बराबरी, एक-दूसरे के बीच सम्मान का रिश्ता होना चाहिए। वे कहते हैं कि विवाह आडंबर रहित हो और न्यायालय में होना चाहिए।
उत्तर भारत और तमिलनाडु का फर्क
पेरियार रामायण और महाभारत जैसे तथाकथित धार्मिक ग्रंथों को पॉलिटिकल ग्रंथ मानते थे। वे कहते थे कि लोगों का ब्रेन-वॉश करने के लिए ग्रंथों की रचना की गई। इन ग्रंथों का मकसद लोगों को सांस्कृतिक गुलाम बनाए रखना है। पेरियार ने इनका विरोध किया और राजनीतिक ग्रंथ कहा। इसका असर तमिलनाडु में दिखता है, जहां आज पेरियार को माननेवाली पार्टी सत्ता में है। वहां किसी भी सरकारी संस्थान में किसी देवी-देवता की तस्वीर या मूर्ति नहीं है। इसके लिए बकायदा एक सरकारी आदेश है कि सरकारी कार्यालय में ईश्वर के किसी प्रतीक को स्थापित नहीं किया जाएगा। वहीं उत्तर भारत में स्थिति दूसरी है। अधिकांश सरकारी संस्थानाें में ईश्वर के अनेक रूप देखने को सहज ही मिल जाते हैं।
तमिलनाडु में पेरियार ने सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के लिए आत्मसम्मान आंदोलन चलाया, जिसके कारण गैर-ब्राह्मणवादी दलों को सत्ता में आने के लिए जमीन तैयार हुई। इसका परिणाम आज देखा जा सकता है कि आज वहां ऐतिहासिक रूप से वंचित जमातों को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण लागू है और यह भी कि वहां आर्थिक आधार पर गरीब सवर्णों के नाम पर अलग से दस प्रतिशत आरक्षण लागू नहीं है। इसके बरक्स उत्तर भारत में, जहां गैर-ब्राह्मणवादी आंदोलनों का प्रभाव सीमित रहा, दलित-ओबीसी पार्टियों का केंद्रीय एजेंडा केवल सत्ता पर कब्जा करना रहा, जिसके कारण उनका प्रभाव अस्थायी साबित हुआ।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)