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मैंने किसी का हक छीना हो तो कोई बताए : संजीव

बहुत साधारण-सी बात आती है कि संकट है क्या? संकट की पहचान कैसे हो? यह व्यंजनात्मक तरीके से कहा जाय कि ‘मुझे पहचानो’ अमूमन शीर्षक ऐसे नहीं हुआ करते। अलग-अलग तरीके होते हैं। यहां ‘मुझे पहचानो’ या किस तरह पहचानो, इसको मुख्य मुद्दा बनाया गया है। पढ़ें कथाकार संजीव का यह साक्षात्कार

[प्रसिद्ध कथाकार संजीव को इस साल का हिंदी में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है। उन्हें यह सम्मान उनके उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए दिया जाना है। वे यह सम्मान पाने वाले पहले ओबीसी हैं। अभी तक यह सम्मान किसी दलित साहित्यकार को भी नहीं दिया गया है। कथाकार संजीव को सम्मान दिए जाने के बाद कई सारे सवाल बौद्धिक जगत में उठाए जा रहे हैं। इन संदर्भों में फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने कथाकार संजीव से दूरभाष पर विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश]

साहित्य अकादमी ने आपकी रचना ‘मुझे पहचानो’ के लिए आपको पुरस्कार देने का एलान किया है। अनेक लोगों ने कहा है कि आपकी अन्य रचनाएं जैसे कि ‘सूत्रधार’ अधिक महत्वपूर्ण हैं, जिनकी अनदेखी की गई। आप इसे किस रूप में देखते हैं?

पहली बात यह है कि जिन लोगों ने इस बात की नोटिस ली कि ‘मुझे पहचानो’ को सम्मान साहित्य अकादमी ने दिया, उन सारे मित्रों और अकादमी को उसकी चयन पद्धति को सलाम। लेकिन, प्रश्न इतने सारे गहरे हैं कि किसी एक प्रश्नावली में समाएंगे नहीं। ‘मुझे पहचानो’ देखने में एक सिंपल-सा शीर्षक लगता है। यानि वह जो ‘आईडेंटीफाईड’ नहीं है। ‘मुझे पहचानो’ का आशय ही यही है कि हम कौन हैं। सवाल तो यह है। पहचान का संकट तो है, लेकिन संकट इस मायने में है कि हर चीज सामने पड़ी रहती है, सामने गड्ढा पड़ा रहता है या और कोई विसंगति पड़ी रहती है, लेकिन हम उसे पहचानते नहीं। समस्याओं का निदान जो है वो तो बाद में होगा, पहले समस्याएं हैं क्या। क्लात्मक रूप से पहचान का संकट पहला संकट होता है। यह चार्ल्स डिकेंस या और किसी ने कहा था कि पहचान का संकट ही बड़ा संकट है। यह संकट का सवाल आता है… बहुत साधारण-सी बात आती है कि संकट है क्या? संकट की पहचान कैसे हो? यह व्यंजनात्मक तरीके से कहा जाय कि ‘मुझे पहचानो’ अमूमन शीर्षक ऐसे नहीं हुआ करते। अलग-अलग तरीके होते हैं। यहां ‘मुझे पहचानो’ या किस तरह पहचानो, इसको मुख्य मुद्दा बनाया गया है। अगर उपन्यास आप पढ़ेंगे तो उस हिसाब से उसमें प्रश्नों की उत्पत्ति होगी। मतलब यह कि एक मनुष्य है, उसकी पहचान क्या है। 

जैसे मान लीजिए राजा राममोहन राय के सामने जो संकट था कि उनकी तीन-तीन शादियां हुई थीं तथा उनके घर में और भी औरतें थीं । वे अलग-अलग जगहों से पढ़कर आए थे। उन्हें सूचना मिली कि उनकी भाभी को सती बनाने का निर्णय लिया गया है। उन्होंने मना किया, फिर भी रोक नहीं पाए। तो चीजें इसी तरीके से घटित होती रहती हैं समाज में, जिन्हें हम रोक नहीं पाते हैं। इस बात की जानकारी के बावजूद कि ऐसा हो रहा है, अन्याय का प्रतिकार आप नहीं कर सकते। यहां सामूहिक प्रश्नावली खड़ी होती है हमारे सामने कि आखिर हम क्यों नहीं कर पाते हैं। इस उपन्यास में इस प्रश्न को उठाया गया है कि पहचानने का संकट जो है और प्रतिकार के उपाय, ये दोनों अंतर्संबंधित हैं। 

राजा राममोहन राय की बात बीच में आ गई, क्योंकि एक ज्वलंत मुद्दा था– सती प्रथा। असल में औरतों के ऊपर नाना तरीके के जो शोषण किए जाते हैं, उससे संबंधित है। इतना पढ़ा-लिखा व्यक्ति कहां-कहां नहीं पढ़ा, बड़े घर का बेटा के परिप्रेक्ष्य में भी कहें तो ऐसा नहीं है कि वे कुछ और भी कर सकते थे। खुद समाज इतना गया गुजरा नहीं था। राजा राममोहन राय की भाभी और जो वहां औरतें थीं, जब निर्णय लिया गया कि इनको सती बनाया जाय और इसका मतलब एक का वध होगा। इतना नैतिक साहस नहीं था कि वह दूसरों से लड़ सकता है, वह अपने घर में होने वालों अत्याचारों का प्रतिकार तक नहीं कर सकता। तो ऐसा हमारा समाज था। यह हमारे समाज में व्याप्त था। कुछ लोग कहते हैं कि उस समय कोई समस्या नहीं थी और आज भी कोई समस्या नहीं है। 

एक सवाल तो यह भी है कि आपकी जो अन्य रचनाएं हैं, जैसे कि ‘सूत्रधार’ या फिर ‘जंगल जहां से शुरू होता है’, ऐसी जो रचनाएं हैं, जो ज्यादा महत्वपूर्ण थीं, उनकी अनदेखी हुई? 

इसमें कोई शक नहीं कि बहुत सारी रचनाएं अच्छी होती हैं। विषय वस्तु और चयन के हिसाब से आपको अच्छी लग रही हों। इसको दूसरे ढंग से लीजिए कि ‘मुझे पहचानो’ एक स्त्री के दर्द को, उसके न पहचाने जाने का, जो संकट है, उसका भी महत्व है। खासकर हमारे भारतीय परंपरा में, जिसमें लोग केवल लंबी-लंबी बातें हांकते हैं और उसके दर्द को नहीं पहचानते हैं कभी भी। आप देखिए कि एक आदमी है। कहीं जल जाय तो उसे कितना दर्द होता है और एक आदमी को जिंदा जलाना वह भी जानवर के तरीके से। हम अपने यहां औरतों को क्या दे रहे हैं, जो वे अपना सारा जीवन समर्पित कर देती हैं। आखिर में वो देगी क्या? संतान देगी। वह भी समाज के लिए देगी। कितना सारा कुछ हम उससे ले रहे हैं। इतना तिलमिला देने वाला कष्ट कि उसे जलाकर खाक कर देना है, कोई सोच सकता है। अगर नहीं सोच सकता है तो क्यों नहीं सोच सकता, तो सवाल यह है। 

इस उपन्यास की नायिका है, वह दलित स्त्री है। इसके पीछे अवधारणा क्या है?

कोई भी स्त्री हो सकती है। दलित स्त्री है तो उसकी पीड़ा और भी ज्यादा होगी, जो अव्यक्त होगी। औरत इधर से भी मार खाती है, उधर से भी मार खाती है, संतानों से भी मार खाती है, समाज से मार खाती है। वह सब कुछ देती है लेकिन बदले में उसे क्या मिलता है, असहनीय पीड़ा। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लोग बगल से झांक कर चले जाते हैं। औरत को एक तरीके से बाजार की चीज बनाते हैं तो हम किस गरिमा की बात करते हैं? सारे प्रपंच को हम निगल लेते हैं। यह तो विषय में आ गया, लेकिन सचमुच में कहा जाय तो हम मनुष्य के पीड़ा को समझना नहीं चाहते हैं। उसे सिर्फ गरिमा में ढाल देते हैं, तो हम किस प्रपंच में जी रहे हैं? 

यहां तो राजा राममोहन राय की कहानी है, उसको जोड़ा गया है। राजा राममोहन राय की तीन भाभियां थीं। तीनों में यह हुआ कि अब जलना जरूरी है क्यों, क्योंकि सामाजिक तत्व है, गरिमा का तत्व है। कौन जलेगी? यहां मौत झांकती है और मौत के डर से कौन नहीं भागता है। हम उसको धर्म को योनियों में बांट देते हैं और महान कार्य समझते हैं। इतना नारकीय इतनी बर्बरता कहां किस धर्म में है, इस उपन्यास में इस मुद्दे को उठाया गया है। 

निःसंदेह बहुत मार्मिक कहानी है, समाज का जो क्रूरतम चेहरा है वो इस उपन्यास के रूप में सामने आता है।

और लोग कहते हैं कि अब नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है। मैंने दो घटनाओं का जिक्र किया है। वे दोनों घटनाएं सच्ची हैं। मैं आपको दो घटनाओं के बारे में बता सकता हूं कि कहां की घटनाएं हैं। पहली इलाहाबाद के आसपास यमुना के उस पार एक ब्राह्मण परिवार की लड़की थी। उसके साथ सती प्रथा की घटना हुई। आश्चर्य की बात ये थी उसके लोग वहां आते थे चढ़ावा चढ़ाने। वे एक तरह से वो प्रापर्टी होल्डर हो गए। उनके घर की जो औरत थी, वह तो मर गई, लेकिन इतनी बर्बरता कैसे सह लेते हैं लोग? फिर लोग दया की बात करते हैं। हम तो कुछ भी नहीं कर पाए सिवाय असहनीय दर्द के। ऐसे सामान्य रूप से ऐसे लोगों का सीधा मुकाम है जेलखाना। जबकि उसे माफी दे दी जाती है, तो हम कैसी बात करते हैं मानवीय उदारता की? यह सब ढोंग है। दूसरी एक औरत थी जालौन की। उसको यह हुआ कि जलाया जाना है। इतना पवित्र कार्य के लिए आसपास की सारी औरतें झुंड बनाकर तरह-तरह के उपाय से वहां पहुंच रही हैं। औरत को भी कोई फिक्र नहीं कि उसकी क्या क्षति हो रही है। मौत एक तमाशा है। एक औरत मर रही है दूसरी औरतें देख रही हैं। 

कथाकार संजीव

ये आपके सामने घटी थी घटनाएं?

संयोगवश एक ग्रामप्रधान थे। उन्हें अंदर बंद कर दिया गया। वह चिल्लाते रहे कि खोलो-खोलो, तुम लोग पापी हो, बहुत गलत कर रहे हो। तुम लोग गदहे हो, तुम लोग पापी हो। लेकिन किसी ने उनकी एक नहीं सुनी। क्या कहें इसे? ये सब जो चीजें हैं, ये क्या हैं? हम आगे जा रहे हैं या पीछे? सिर्फ बातों के छलावे में हम जी रहे हैं।

मैं मुख्यधारा के साहित्य की बात कर रहा हूं। समाज में इतने सारे मुद्दे हैं जैसे आपने ‘योद्धा’ में सवाल उठाया या ‘सूत्रधार’ में जो बातें कहीं हैं या फिर ‘जंगल जहां से शुरू होता है’, जिसमें जो समाज का यथार्थ होता है, वह सामने आता है, लेकिन मुख्यधारा का साहित्य अब भी इन सारे सवालों से एक तरह से कन्नी काट रहा है या फिर मुंह चुरा रहा है?

वैसे पूरे समाज का तो हम नहीं जानते हैं, लेकिन जब तक जागरूकता नहीं आएगी, कुछ नहीं हाेगा। थोड़ी-थोड़ी बातों की जागरूकताओं की आवश्यकता है। बड़ी-बड़ी बातों की जरूरत नहीं है। बड़ी-बड़ी बातों में ऐसा ही होता है जैसे कि किसान आंदोलन कैसे फेल हुआ। हम आगे जा रहे हैं या पीछे। हम आगे जाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन ऐसी-ऐसी बातें हुई हैं जिसकी कोई बात ही नहीं करता। बात क्या करेगा, बात करेगा तो सुधार हो जाएगा। आजकल इतनी जालिमाना हरकतें हैं और हम चुपचाप आराम से हैं। कुछ राजनीतिक चीजें हैं। आवश्यकता तो यह है कि अपने को सुधारा जाए। कितनी-कितनी बातें कहने और सोचने के लिए हैं, जिस पर लोग खड़े होंगे, लेकिन कहां खड़े होंगे। डरपोक समाज और लालची समाज। इसको क्या कहा जाय? हम ही ऐसे हैं।

जो दलित साहित्य है, जिसे राजेंद्र जी ने आगे बढ़ाया और आपने भी योगदान दिया है। लेकिन यह बहुजन साहित्य नहीं बन पा रहा है। आपके हिसाब से कमियां कहां रह जा रही हैं? 

आंदोलन। याद है आंबेडकर जी ने क्या कहा था– शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो। यहां तो क्या शिक्षा है, कुछ नहीं, संगठित होने की बात है तो आजकल संगठनों के नाम पर क्या नहीं होता। संघर्ष करने की बात तो छोड़ ही दें। हम सभी को बाबा आंबेडकर जी ने जो ज्ञान दिया है, उसका अनुसरण करना है। हां कुछ लोगों ने करके दिखाया है कि ऐसा होता है और हम कर सकते हैं। लेकिन हम (मौजूदा दौर में) नहीं कर पाए। सब दिख रहा है। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले का अनुकरणीय उदाहरण रहा है। उन्होंने आंबेडकर को शिक्षित किया, शाहूजी महाराज को शिक्षित किया। और भी बहुत सारे लोगों ने अपना काम किया। किसी को आप इग्नोर नहीं कर सकते।

तो क्या यह मान लिया जाय कि द्विज साहित्य में जन्मना श्रेष्ठ का जो सिद्धांत लागू होता है, वही सिद्धांत दलित साहित्य में भी लागू किया जा रहा है?

नहीं। कुछ-कुछ संघर्ष हो रहे हैं, लेकिन जितना साहस होना चाहिए उतना नहीं हो पाया। फिर भी पहले से काफी कुछ बदला है।

कुछ लोगों ने आपसे साहित्य अकादमी का सम्मान नहीं लेने का आग्रह किया है। आपकी प्रतिक्रिया क्या है?

नहीं लेकर मैं क्या करूंगा। आपको मालूम है कि मुझे कोई पेंशन नहीं मिलती है। न ही आय का कोई और उपाय है। और मैंने कहीं ऐसा भी कुछ नहीं किया है कि मुझे किसी दूसरे स्रोत से पैसे मिलें। जो लोग ऐसा बोल रहे हैं, उन्हें जानना चाहिए कि लाख दो लाख या उससे ज्यादा की आर्थिक सहायता का मुझ जैसे के लिए क्या महत्व है। पैसे नहीं होंगे तो मैं खाऊंगा क्या, रहूंगा या जिऊंगा कैसे। यदि मैं किसी का छीन रहा हूं तो अलग बात है। मैं किसी का छीन भी नहीं रहा हूं। मुझे कोई बता दे कि मैंने किसी का छीना है। यहां तक कि मेरे ब्राह्मण मित्र हैं, दलित हैं और ओबीसी भी हैं। मैंने कहां गलत किया है, ये तो बताएं। 

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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