राजेंद्र यादव के बाद हंस के संपादक रहे कथाकार संजीव को हिंदी भाषा के तहत साहित्य अकादमी के द्वारा पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है। अकादमी के द्वारा इसकी घोषणा का दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने स्वागत किया है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हिंदी में साहित्य अकादमी द्वारा अबतक किसी भी दलित-ओबीसी को सम्मान नहीं दिया गया।
वर्ष 2019 में अनुज लुगुन को उनके काव्य संग्रह ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।
बताते चलें कि 6 जुलाई, 1947 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के बांगर कला गांव के पिछड़ा वर्ग परिवार में जन्मे संजीव हिंदी के प्रमुख कथाकारों में शामिल रहे हैं। उन्होंने विभिन्न विधाओं में लगभग दो दर्जन पुस्तकें लिखी हैं। भिखारी ठाकुर को केंद्र में रख लिखा गया उनका उपन्यास ‘सूत्रधार’ बहुचर्चित रहा है। उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं– ‘तीस साल का सफ़रनामा’, ‘आप यहां हैं’, ‘भूमिका और अन्य कहानियां’, ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’, ‘प्रेत मुक्ति’, ‘ब्लैक होल’, ‘डायन और अन्य कहानियां’, ‘खोज’, ‘गली के मोड़ पर सूना-सा कोई दरवाजा’ (कहानी संग्रह), ‘किसनगढ़ के अहेरी’, ‘सर्कस’, ‘सावधान! नीचे आग है’, ‘धार’, ‘पांव तले की दूब’, ‘जंगल जहां शुरू होता है’, ‘आकाश चंपा’ (उपन्यास), ‘मुझे पहचानो’ (उपन्यास), ‘ऑपरेशन जोनाकी’ (नाटक), ‘सात समदंर पार’ (यात्रा साहित्य), ‘रानी की सराय’ और ‘डायन’ (बाल उपन्यास)।
‘मुझे पहचानो’ के लिए दिया जा रहा सम्मान
संजीव को साहित्य अकादमी द्वारा सम्मान उनके उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए दिया जा रहा है। यह उपन्यास छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसमें राजे-रजवाड़ों और हीरा उत्खनन करने वाले व्यापारियों की भूमिका भी सामने आती है। उपन्यास की नायिका एक दलित महिला है, जिसे एक जमींदार अपनी पत्नी बना लेता है। नायिका जमींदारी के काम में अपने पति का सहयोग करती है। लेकिन जब वह विधवा हो जाती है तो जमींदार की अन्य पत्नियों के बजाय उसे सती बनाने की साजिश की जाती है, लेकिन वह किसी प्रकार से बचकर निकल जाती है। कर्मकांडों को धता बताने वाली कहानी वैसे तो सीधी और सपाट-सी दिखती है, लेकिन इसके हर हिस्से में एक अंतर्धारा है, जो समाज की कलई खोलती है।

अकादमी पर उठाए जा रहे सवाल
प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र यादव ने फेसबुक पर संजीव को बधाई देते हुए लिखा है– “संजीव जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अकादमी ने दिनों-दिन अपनी गिरती हुई साख को बचाने की एक कोशिश की है। यद्यपि इस वर्ष पुरस्कार के लिए विचारार्थ अधिकांश पुस्तकों की सूची देखकर ऐसा लगता है कि संजीव को पुरस्कार मिलना महज एक संयोग है, क्योंकि एक दो अपवादों को छोड़कर इस सूची की अधिकांश पुस्तकों का चयन गुणवत्ता के आधार पर न करके इतर कारणों से किया गया लगता है। संजीव को पुरस्कार उनकी पूर्व प्रकाशित अपेक्षाकृत बेहतर कृतियों को न दिया जाकर जिस औपन्यासिक कृति पर दिया गया है, वह उनकी रचनात्मकता का श्रेष्ठतम नहीं है। यद्यपि इसके पूर्व भी रचनाकारों के श्रेष्ठतम की अनदेखी कर उनकी कम महत्व की कृतियों को पुरस्कृत किया जाता रहा है। यशपाल को ‘झूठा सच’ के लिए पुरस्कृत न करके उनके उपन्यास ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के लिए तब पुरस्कृत किया गया, जब वे मृत्युशैय्या पर थे। कितने लोगों को जैनेंद्र के उपन्यास ‘मुक्तिबोध’, हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध संग्रह ‘आलोक पर्व’ या विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर’ का स्मरण है, जिनकी श्रेष्ठ रचनाओं की अनदेखी करके अपेक्षाकृत इन कमतर पुस्तकों को सम्मानित किया गया? काशीनाथ सिंह को जब ‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास के लिए पुरस्कृत किया गया तो उन्हें मलाल था कि उनकी बेहतर कृति ‘काशी का अस्सी’ की अनदेखी की गई। संजीव को ‘सूत्रधार’, ‘जहां एक जंगल शुरु होता है’, ‘फांस’, ‘प्रत्यंचा’ सरीखे उपन्यासों के लिए पहले ही पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। बहरहाल देर से ही सही भूल सुधार के रुप में संजीव की रचनात्मकता का यह सम्मान उचित है। संजीव जी को हार्दिक बधाई।”
वहीं प्रसिद्ध आलोचक कंवल भारती ने जातिगत उपेक्षा का मसला उठाया है। उन्होंने लिखा है– “पिछले दिनों संजीव का हंस में इंटरव्यू छपा था। उन्होंने कहा था कि वह ब्राह्मण नहीं हैं, इसलिए उनकी उपेक्षा हुई। साहित्य अकादमी ने इसका संज्ञान लेकर उनको सम्मान देकर अपनी गलती को सुधारने का काम किया है। संजीव जी को बहुत बहुत बधाई।”
प्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा है कि संजीव को यह सम्मान पहले ही मिल जाना चाहिए था। उन्होंने लिखा है– “सुखद आश्चर्य! हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार संजीव को साहित्य अकादमी सम्मान देने का ऐलान हुआ है। सन् 2023 के आखिर में अकादमी को उनकी याद आई। ‘मुझे पहचानो’ उपन्यास के लिए उन्हें सम्मान देने की घोषणा की गई। बरसों पहले संजीव को यह सम्मान मिलना चाहिए था। पर अकादमी का हिंदी सम्मान कुछ खास ‘वर्ग-वर्ण और विचार’ के लोगों के बीच ही बांटने का रिवाज रहा है। यदा-कदा कुछ अपवाद दर्ज होते रहे हैं। अच्छा लगा, संजीव का सम्मान अपवादों की उस संक्षिप्त सूची में शुमार हुआ है। संजीव जी को बहुत-बहुत बधाई।”
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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