h n

क्या मराठा आरक्षण के पक्षधर होते आंबेडकर?

प्रतिनिधित्व या आरक्षण का प्रावधान कमजोरों को सशक्त बनाने व सभी को समान स्तर पर लाने के लिए है। इस भूमिका को सभी की सहमति के बाद ही संविधान में शामिल किया गया था। इसलिए कमज़ोरों को ताकतवरों से अलग किया गया। बता रहे हैं श्रवण देवरे

डॉ. आंबेडकर ने अनुच्छेद 340 में अत्यंत सटीक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य जातियों को ओबीसी आरक्षण से दूर रखा। उनके ये सटीक शब्द थे– ‘सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग’। डॉ. आंबेडकर ने जानबूझकर इसमें ‘आर्थिक रूप से पिछड़े’ शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि वे जानते थे कि यदि ऐसा किया गया तो ऊंची जातियों के लोग गरीबी का रोना रोते हुए आरक्षण का लाभ उठाने लगेंगे और ओबीसी में घुसपैठ करेंगे। 

विदित है कि 1951-52 में स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनावों के बाद डॉ. आंबेडकर ने भारत सरकार से अपेक्षा की कि वह संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत ओबीसी के लिए तुरंत एक राष्ट्रीय आयोग की नियुक्ति करे। लेकिन तत्कालीन नेहरू सरकार इसके लिए टालमटोल करती दिख रही थी। उसी समय हिंदू कोड बिल का मुद्दा भी गरमाया हुआ था। संविधान के निर्माण के दौरान जवाहर लाल नेहरू द्वारा किए गए वादे पूरे नहीं किए जा रहे थे। डॉ. आंबेडकर के समक्ष ऐसी संतापजनक परिस्थिति में इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। 

इस्तीफा देने का कारण अपने इस्तीफा पत्र में विशेष रूप से उद्धृत करते हुए डॉ. आंबेडकर ने लिखा– “आर्टिकल 340 के अनुसार ओबीसी के लिए ‘राष्ट्रीय आयोग’ की नियुक्ति नहीं की गई।” उसी समय सुप्रीम कोर्ट ने तमिल प्रांत में ओबीसी के आरक्षण को रद्द कर दिया और इसके विरोध में रामास्वामी पेरियार का तीव्र ओबीसी आंदोलन खड़ा हो गया था। यह ओबीसी आंदोलन इतना प्रभावशाली था कि नेहरू को संविधान में पहला संशोधन पारित करके ओबीसी आरक्षण को संवैधानिक बनाना पड़ा।

डॉ. आंबेडकर के इस्तीफे और रामास्वामी पेरियार के तीव्र ओबीसी आंदोलन के संयुक्त प्रभाव के कारण, नेहरू को अनुच्छेद 340 के तहत ओबीसी के लिए ‘काका कालेलकर आयोग’ नियुक्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

आरक्षण के लिए प्रदर्शन करते मराठा और डॉ. आंबेडकर

संविधान के अनुच्छेद 340 में डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखे गए सटीक शब्द – ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े’ – का उपयोग सर्वेक्षण के दौरान करते समय कालेलकर आयोग द्वारा दिशा-निर्देश रूपरेखा के रूप में किया गया था। इसमें दलित और आदिवासी (एससी व एसटी) सूची में शामिल जातियों को छोड़कर सभी जातियों का सर्वेक्षण किया गया। जाट, पटेल, मराठा, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों के साथ किसान, बटाई पर खेती करनेवाले, घुमंतू व विमुक्त जाति-जनजातियों का सर्वेक्षण किया गया।

सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की कसौटी का उपयोग करते हुए सभी जातियों के डेटा इकट्ठा करके सावधानीपूर्वक अध्ययन किया गया। निष्कर्ष के रूप में पिछड़ी जातियों की एक सूची तैयार की गई और इनके विकास के लिए कुछ सिफारिशें की गईं। 

कालेलकर आयोग द्वारा तैयार की गई। पिछड़ी जातियों की सूची में मराठा जाति को शामिल नहीं किया गया था, क्योंकि उस समय उपलब्ध डेटा के अनुसार मराठा जाति समृद्ध सिद्ध हुई थी। उसके बाद वर्ष 1979 में दूसरा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष बी.पी. मंडल बनाए गए। 

कालेलकर आयोग और मंडल आयोग के बीच महत्वपूर्ण अंतर यह है कि मंडल आयोग ने सामाजिक और शैक्षणिक कसौटियों के साथ-साथ आर्थिक कसौटी पर भी विचार किया था। हालांकि इसके बावजूद भी मराठा जाति का पिछड़ा होना साबित नहीं हो सका। 

बाद में सुप्रीम कोर्ट के नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने मंडल आयोग की पिछड़ी जातियों की सूची व उनके लिए की गई सिफारिशों और किए गए प्रावधानों पर 16 नवंबर, 1992 को विस्तृत न्यायादेश देकर मुहर लगाई। न्यायादेश में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आदेश दिया गया कि वे अपने-अपने स्तर पर विशेषज्ञ कमेटियों का गठन करें और प्रत्येक 10 साल में इन पिछड़ी जातियों का सर्वेक्षण कराएं और जिन जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल चुका है, उन्हें पिछड़ी जातियों की सूची से बाहर निकाल दें। 

इसी प्रकार जो जातियां पिछड़ी जातियों की सूची में नहीं हैं, और यदि वे दावा करती हैं कि वे पिछड़ी हैं, तो उनका भी सर्वेक्षण कराकर यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि वे पिछड़े हैं या नहीं। और इस संबंध में सरकार को रिपोर्ट दें। 

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने-अपने पिछड़ा आयोग की नियुक्ति कर दी। 

तब से लेकर अब तक महाराष्ट्र में कुल आठ बार राज्य पिछड़ा आयोग का गठन किया गया और मराठा जाति ने प्रत्येक आयोग के समक्ष बार-बार पिछड़े होने का दावा किया। हर बार आयोग ने मराठा जाति का सर्वेक्षण किया और उपलब्ध डेटा के अनुसार मराठा जाति हर क्षेत्र में समृद्ध साबित होने के कारण सभी आयोगों ने मराठा जाति को ओबीसी के रूप में खारिज कर दिया।

इतना ही नहीं, देशभर से जाट, पटेल, मराठा आदि जातियों के अनेक दावे सुप्रीम कोर्ट में गए और हर बार सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए कहा कि इन समृद्ध जातियों को पिछड़ी जाति के तौर पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, क्योंकि विशेषज्ञ आयोगों द्वारा किये गए सर्वेक्षणों के मुताबिक ये जातियां समृद्ध हैं। इस कड़ी में 5 मई, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर न्यायादेश देकर यह सिद्ध किया कि मराठा जाति हर प्रकार से एक उन्नत जाति होने के कारण उसे ओबीसी आरक्षण नहीं दिया जा सकता। 

देव-धर्म के नाम पर कुछ अतिरंजित मिथकों को फैलाने के लिए ब्राह्मणी छावनी में एक विशेष तंत्र होता है। हिटलर के एक मंत्री जोसेफ गोयबेल्स (1897-1945) को इस तरह के मिथक फैलाने का ही विभाग सौंपा गया था। एक झूठी कहानी को सौ बार अलग-अलग तरीके से अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग स्थानों से बताई जाय तो जनता को वह सच लगने लगती है। ब्राह्मणी छावनी में ऐसे असंख्य गोयबेल्स गांव से शहरों तक हर स्तर पर काम कर रहे हैं। बाबाओं और प्रवचनकारों की फौज इसका ही एक हिस्सा है।

अब्राह्मणी छावनी में भी कुछ संगठन गोयबेल्स का काम करते रहते हैं। मसलन यह कि छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक के समय गागाभट्ट ने अपने पैर से राजतिलक का टीका लगाया। जबकि यह बिल्कुल निराधार है। फिर भी ऐसी अनेक झूठी-सच्ची कहानियों को सत्य कहकर फैलाई गई।

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का मुद्दा गरमाने के बाद जानबूझकर एक झूठी कहानी फैलाई गई कि डॉ. आंबेडकर ने संविधान बनाते समय मराठा जाति के तत्कालीन नेताओं से पूछा कि “आपकी मराठा जाति को आरक्षण चाहिए क्या?” उस समय मराठों ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “क्या हम महार या मांग हैं जो हमें आरक्षण चाहिए?” यह एकदम-से झूठी कहानी है, लेकिन सोशल मीडिया पर रोज-ब-रोज देखने को मिल जाती है। 

वास्तविकता यह है कि डॉ. आंबेडकर ने आरक्षण के लिए दो कैटेगरी की सूची तैयार की। एक– अछूत-दलित जातियों की सूची, जिन्हें अनुसूचित जाति कहा जाता है और दूसरी– आदिवासी कैटेगरी की जातियों की सूची, जिन्हें अनुसूचित जनजाति कहा जाता है। इन सूचियों को तैयार करते समय डॉ. आंबेडकर किसी भी जाति के नेता से यह पूछने नहीं गए कि “आपकी जाति को सूची में डालूं या नहीं डालूं।” इसकी वजह यह थी कि अंग्रेजों के समय में हर दस साल पर जातिवार जनगणना की जाती थी, जिसमें जंगल में रहने वाली आदिवासी जातियों की सूची और गांव के बाहर रहने वाली अछूत जातियों की सूची जे.एच. हटन ने 1931 में ही तैयार करके रखा था। तत्कालीन अंग्रेज सरकार द्वारा 1935 के अधिनियम को तैयार करते समय पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए उसी सूची का उपयोग किया गया था और बाद में डॉ. आंबेडकर ने संविधान तैयार करते समय उसी सूची को थोड़ा बहुत संशोधित करके संविधान में एक सूची के रूप में शामिल किया।

अब बचा सवाल गैर-दलित और गैर-आदिवासी को आरक्षण देने का।

डॉ. आंबेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 340 में इन जातियों में से पिछड़ी जातियों का पता लगाने के लिए स्वतंत्र रूप से विशेषज्ञों का एक आयोग नियुक्त करने का सुझाव दिया था। 

सवाल यह है कि यह काम विशेषज्ञों के एक आयोग को सौंपने की अनुशंसा करने के बाद डॉ. आंबेडकर ऐसे किसी जाति के नेताओं से यह क्यों पूछेंगे कि क्या आपकी जाति को आरक्षण चाहिए? 

यह विचार के केंद्र में रखा जाना चाहिए कि प्रतिनिधित्व या आरक्षण का प्रावधान कमजोरों को सशक्त बनाने व सभी को समान स्तर पर लाने के लिए है। इस भूमिका को सभी की सहमति के बाद ही संविधान में शामिल किया गया था। इसलिए कमज़ोरों को ताकतवरों से अलग किया गया। सबल जातियां दुर्बल जातियों की सूची में न आने पाएं, डॉ. आंबेडकर ने इस बात का पूरा ध्यान रखा। मूलतः प्रत्येक क्षेत्र में सबल जातियों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी से कई गुना ज्यादा होने के कारण उन्हें आरक्षण देने का सवाल ही नहीं उठता। 

कई बार लोग कहते हैं कि किसी मजबूत जाति को आरक्षण दे दिया जाए तो उस जाति के मन से जातिगत वर्चस्व का दंभ कम हो जाएगा, लेकिन यह बिलकुल निराधार बात है। इसके बरक्स होगा यह कि आरक्षण के कारण वह मजबूत जाति और अधिक शक्तिशाली हो जाएगी तथा उसे निचली जाति का अधिकाधिक शोषण करने की शक्ति मिल जाएगी।

वास्तविकता यह है कि जाति व्यवस्था को नष्ट करने के लिए बाबा साहब आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के समर्थक ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों को आरक्षण से दूर रखा, क्योंकि उन्हें पिछड़ा दर्जा और आरक्षण देने के बाद भी उनकी उच्च जातीय वर्चस्व की दांभिक मानसिकता और अधिक मजबूत होती है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

संबंधित आलेख

केशव प्रसाद मौर्य बनाम योगी आदित्यनाथ : बवाल भी, सवाल भी
उत्तर प्रदेश में इस तरह की लड़ाई पहली बार नहीं हो रही है। कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के बीच की खींचतान कौन भूला...
बौद्ध धर्मावलंबियों का हो अपना पर्सनल लॉ, तमिल सांसद ने की केंद्र सरकार से मांग
तमिलनाडु से सांसद डॉ. थोल थिरुमावलवन ने अपने पत्र में यह उल्लेखित किया है कि एक पृथक पर्सनल लॉ बौद्ध धर्मावलंबियों के इस अधिकार...
मध्य प्रदेश : दलितों-आदिवासियों के हक का पैसा ‘गऊ माता’ के पेट में
गाय और मंदिर को प्राथमिकता देने का सीधा मतलब है हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति को मजबूत करना। दलितों-आदिवासियों पर सवर्णों और अन्य शासक...
मध्य प्रदेश : मासूम भाई और चाचा की हत्या पर सवाल उठानेवाली दलित किशोरी की संदिग्ध मौत पर सवाल
सागर जिले में हुए दलित उत्पीड़न की इस तरह की लोमहर्षक घटना के विरोध में जिस तरह सामाजिक गोलबंदी होनी चाहिए थी, वैसी देखने...
फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)
मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण...