“इद्दन जब पहली बार लोहे के तसले को अपनी बगल में दबाकर ‘कमाने’ निकली तो मोहम्मद अफ़ज़ल खां के घर के भीतर बनी खुड्डी में जाकर वह क्या देखती है कि वहां पीले-पीले गू के दलदल में कुछ कीड़े कुलबुला रहे हैं। नमरूदी कीड़े! … असलम को एक चीख सुनाई पड़ी– “उई अल्लाह! सांप!” असलम ने पूछा कहां है सांप? इद्दन ने खुड्डी की ओर इशारा करते हुए कहा “हुंआ! खुड्डी में! एक नहीं, दुइ दुइ सांप। सांप भी नहीं, संपोले। सांप के बच्चे। रंग एक दम सुपेद …” असलम खुड्डी में गया। वहां भयंकर बदबू थी। उसने अपनी लुंगी उठा कर उसके एक कोने से नाक को दबाये, डरता हुआ-सा गौर से देखने लगा। खुड्डी में कोई खिड़की नहीं थी, मगर खपड़ैल के टूटे हुए हिस्से से सूरज की रोशनी अंदर आ रही थी। उसी रोशनी में असलम ने देखा कि खुड्डी में रखी दो ईटों के बीच में ढेर सारा पख़ाना पड़ा हुआ था और सफ़ेद रंग के दो लंबे-लंबे कीड़े उसमें कुलबुला रहे थे।”
उपरोक्त उद्धरण अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘कुठांव’ का है, जिसे पढ़ते हुए शायद आपने भी जरूर अपनी नाक दबा ली होगी। यह उपन्यास हलालखोर जाति की सामाजिक स्थिति की दयनीयता को प्रस्तुत करता है।
कौन हैं हलालखोर?
‘हलालखोर’ यानी हलाल का खाने वाला। यह सिर्फ एक अलंकार नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज में मौजूद एक जाति का नाम है, जिनका पेशा नालों, सड़कों की सफाई करना, मल-मूत्र की सफाई करना, बाजा बजाना और सूप बनाना है। हलालखोर जाति के अधिकतर व्यक्ति मुस्लिम समाज के सुन्नी संप्रदाय के मानने वाले हैं। निश्चित ही ये लोग अपनी मेहनत द्वारा कमाई गई रोटी खाने के कारण हलालखोर कहलाए होंगे। हालांकि कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि धर्म-परिवर्तन के बाद जब इस जाति ने सूअर का गोश्त खाना छोड़ दिया तो इस जाति को हलालखोर के नाम से जाना जाने लगा। मुस्लिम समाज में एक दूसरी जाति भी सफाईकर्मी है और उसका नाम है– लालबेगी।
बताया जाता है कि हलालखोर जाति के भीतर के विभाजन से ही इस जाति की उत्पत्ति हुई। हालांकि इस विभाजन के कारणों की कोई खास जानकारी लिखित रूप में उपलब्ध नहीं है। दरअसल जैसा कि जॉयल ली लिखते हैं कि हलालखोर जाति के लोग उस बड़े समूह का हिस्सा थे, जो सफाई के काम में लिप्त थे। जैसे लालबेगी झाड़ू देने वाली स्वीपर लोगों का एक ऐसा वर्ग है, जो उत्तरी भारत से आते हैं। इनमें से कुछ सिपाही रेजिमेंट से जुड़े लोग हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो काम की तलाश में भटकते रहते हैं। लालबेगी झाड़ू देने वाले नौकरों के रूप में यूरोपीय परिवारों के यहां काम किया करते थे। अन्य नौकर उन्हें जमादार कहते थे। अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखित ‘आईने अकबरी’ में पहली बार ‘खाकरुब’ (गंदगी/धूल साफ करने वाले) के रूप में एक जाति का ज़िक्र आया है।
डॉ. अयुब राईन लिखते हैं कि मुगल काल में अकबर महान के शासनकाल में भिन्न-भिन्न तरह के काम करने वाले मुस्लिम समुदाय के कई समुदायों को जातिगत संबोधनों से पुकारने का चलन शुरू हुआ। उसी काल में लोगों के शौच को साफ करने का काम करने वाले समुदाय को हलालखोर नाम दिया गया। डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘अछूत : वे कौन थे और वे अछूत क्यों बने’ में अछूत जातियों की एक सूची देते हैं, जिसमें हलालखोर जाति भी शामिल है। उस वक़्त तक अछूत जातियां किसी धर्म विशेष से जोड़कर नहीं देखी जाती थी। 1950 के राष्ट्रपति अध्यादेश के बाद मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति से बाहर कर दिया गया। आज भी मुस्लिम समुदाय में हलालख़ोर जाति को अरज़ाल जाति में गिना जाता है। अरज़ल शब्द का संबंध ‘अपमान’ से होता है और अरज़ल जाति को भनर, हलालखोर, हेला, हिजरा, कस्बी, लालबेगी, मौग्टा, मेहतर आदि उपजातियों में बांटा जाता है। उत्तर भारत में यह जाति पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में श्रेणीबद्ध है।
एक समाजशास्त्री अरशद आलम ने अपने लेख ‘न्यू डायरेक्शंस इन इंडियन मुस्लिम पॉलिटिक्स: दी एजेंडा ऑफ ऑफ इंडिया पसमांदा महाज’ में लिखा है– “ऐसे उदाहरण हैं, जहां उन्हें [हलालखोर समुदाय के सदस्यों को] मस्जिदों में प्रार्थना करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया…”
वंशावली की खोज
मुस्लिम समाज में मौजूद पसमांदा जातियां सम्मान पाने के लिए अपना संबंध अरब समाज से जोड़ती आई हैं। इन्होंने अपनी जाति का नाम बदल कर अपना संबंध अरब समाज से जोड़ने की कोशिश इस आशा से की कि इनकी जाति को सम्मान मिल सके, पर ऐसा वास्तव में हुआ नहीं, क्योंकि इनके पास सैयदों की तरह कोई ‘शजरा’ (वंश वृक्ष) नहीं था। जैसे बुनकरों ने अंसारी, हज्जामों ने सलमानी, धुनियों ने मंसूरी, कसाइयों ने कुरैशी, धोबी ने हवारी, मनिहारों ने सिद्दीकी, भठियारा ने फ़ारुकी, गोरकन ने शाह, पमारिया ने अब्बासी से खुद को जोड़ा है। इस ‘अरबीकरण’ अशराफीकरण का असर हमें हलालखोर जाति में भी देखने को मिलता है।
मौखिक परंपरा में ऐसी अनेक कहानियां सुनने को मिलती हैं, जिससे इस जाति का संबंध सीधे पैगंबर मुहम्मद से जुड़ता है। जैसे एक कहानी तो यह बताई जाती है कि जब नबी की तबीयत खराब हुई और उन्हें उल्टी और दस्त होने लगे तब उनकी देखभाल करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया। ऐसे में एक सहाबी उनकी देखभाल करने के लिए आगे आया और उनकी उल्टी और दस्त को साफ़ किया। पैगंबर ने उन्हें शेख हलालखोर का नाम दिया। कश्मीर में आज भी जिन व्यक्तियों के नाम के आगे शेख लगता है वह हलालखोर होते हैं और जिनके नाम में पीछे वे अशराफ होते हैं– जैसे शेख अब्दुल्लाह। इस संबंध में कश्मीर में शेख हलालखोर के हालात पर आबिद सलाम की रिपोर्ट देखी जानी चाहिए, जो यू-ट्यूब पर उपलब्ध है।)
एक दूसरी कहानी मिलती है जिसमें बताया जाता है कि मुहम्मद की बीवियों के क्वार्टर की सफाई के लिए किसी की जरूरत थी। ऐसे में हजरत बिलाल ने यह जिम्मेदारी उठाई। इसी कारण कुछ हलालखोर अपने नाम के साथ ‘बिलाली’ भी लगाते हैं। ये सारी कहानियां हलालखोर जाति के सम्मान को बनाए रखने के लिए जरूरी थीं। साथ ही इन कहानियों के माध्यम से इस काम के महत्व की पुष्टि भी मुहम्मद से कराई जाती है।
अब हम ‘हलालखोर’ जाति की वंशावली की खोज की एक अलग मौखिक परंपरा को सुनते हैं, जिसका संबंध पैगंबर मुहम्मद के हलालखोर से अलग है। इंजीनियर बशीर ए. अलहाज ने एक किताब लिखी है, जिसका नाम है– ‘हरूफी नामा’। इसमें वह लिखते हैं कि ईरान के फ़ज़ल उल्ला हलालख़ोर (1340-1348 ई.) ने एक नया मज़हब चलाया। इस मज़हब का नाम ‘हरूफिया’ रखा गया। इसके मानने वालों में पेशेवर, हुनरमंद कारीगर यानी अहले-हेरफ ज़्यादा थे। तैमूर लंग के बेटे मीरान शाह ने फ़ज़ल उल्ला हलालख़ोर को ईशनिंदा के आरोप में कत्ल करा दिया। फ़ज़ल उल्ला हलालख़ोर की मौत के बाद उसके मुरीद दूसरे देशों में चले गए तो बाकी बचे अनुयायियों को सबक देने के मकसद से तैमूर लंग और उसके बेटे मीरान शाह ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और साईस (मीर-आखोर, अस्तबल का सरदार) का पेशा अख्तियार करने पर मजबूर किया। तैमूर लंग ने जब भारत पर हमला किया तो अपने साथ इंची अहले हरूफ को साथ लाया। छावनी में इनका काम घोड़ों की देखभाल के साथ खाकरूबी (मल-मूत्र साफ़ करने) का भी काम करना पड़ा।
यहां लेखक बताते हैं कि अस्तबल में दो प्रकार के सेवक थे। पहला जेलूदार (जमादार) जो अस्तबल का सरदार हुआ करता था और दूसरा फरार्स यानी खाकरुब, भिश्ती (इसमें अफ्रीकी गुलाम हुआ करते थे)। जेलूदार (जमादार) को भी अफ्रीकी गुलामों के साथ मिल कर खाकरुब और भिश्ती का काम करना पड़ा। तैमूर लंग जब भारत से वापस लौटा तो बड़ी तादाद में हुनरमंद कारीगरों को अपने साथ ले गया। ऐसा उसने इसलिए किया क्योंकि फ़ज़ल उल्ला हलालख़ोर के अनुयायियों को उसने उनके पुश्तैनी कामों से हटाकर दूसरे काम में लगा दिया था। इस तरह उसके पास काबिल कारीगरों की कमी हो गई थी और उनकी कमी को दूर करने के लिए भारत से इन कारीगरों को ले जाया गया और फ़ज़ल उल्ला हलालख़ोर के अनुयायियों को भारत में ही छोड़ दिया गया। इन लोगों को इनके पीर फ़ज़ल उल्ला हलालख़ोर से जोड़कर हलालखोर बोला जाता है। लगातार अमानवीय स्थिति में रहने के कारण, यह कौम एक नशीली पत्ती जिसे उर्दू में ‘भंग’ कहते हैं (जिसका अर्थ होता है बर्बाद होना) का प्रयोग करने लगी। यह कौम ‘भंग’ की इस कदर आदि हो गई की इनका एक नाम भंगी भी रख दिया गया। इस तरह इस कहानी में ये बताया गया है कि हलालखोर अपने दीन इस्लाम से भटक गए थे जिस वजह से वह प्रताड़ित हुए।
हलालखोर समाज की सामाजिक स्थिति
हलालखोर समाज सदियों से सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न झेलता आया है। दलित मुस्लिम हलालखोर परिषद मऊ नाथ भंजन (उत्तर प्रदेश) के ज़िला अध्यक्ष नसीम बिलाली कहते हैं कि हमारे पुरखे जब मस्जिद में जाते थे तो उनको पीछे की पंक्ति में खड़ा कर दिया जाता था। वह घर से ही वजू (हाथ-पैर-चेहरा धोना) करके जाते थे। उन्हें मस्जिद के अंदर वजू करने की मनाही थी। गांव के बड़े लोग हमारे घर में पानी पीना पसंद नहीं करते थे।
मेरे (इस आलेख के लेखक) द्वारा प्रश्न करने पर कि यह तो पुरानी घटना है। क्या आज भी आपके साथ भेदभाव होता है, उन्होंने मुझसे ही वापिस एक सवाल किया– आपने यादव जूस कॉर्नर, चौहान जूस कॉर्नर आदि सुना होगा पर क्या आपने हलालखोर जूस कॉर्नर कभी सुना है? अगर हम अपनी जाति का नाम लिखकर जूस कॉर्नर खोल दें तो कोई भी जूस पीने नहीं आएगा। नसीम बिलाली एक घटना के बारे में बताते हैं। उनके एक मित्र सलाउद्दीन साहब जो रेलवे के कर्मचारी थे, रिटायर होने के बाद उन्होंने एक होटल खोला। सलाउद्दीन साहब तबलीगी जमात से जुड़े बहुत धार्मिक व्यक्ति थे। जब उन्होंने होटल खोला तो लोग दूर से ही उंगली का इशारा करके होटल को दिखाकर बोलते थे कि वह हलालखोर का होटल है। नतीजा यह हुआ कि उन्हें अपना होटल बंद करना पड़ा, क्योंकि कोई भी उनके होटल में खाना खाने नहीं आता था।
नसीम बिलाली बताते हैं कि जब उनके घर की औरतें जमींदारों के घर उनका पैखाना उठाने जाती थीं, तो इस डर से कि कहीं गंदा काम समझकर यह औरतें उनकी खुड्डी में आना ना छोड़ दें, जमींदार की औरतें कहती थीं कि “ए बहिनी कल कयामत के दिन जौंन हथवा से तु पैखाना उठावती, ऊ हथवा क अल्लाह ताला सोने का कर दीयन’ (जिस हाथ से तुम पैखाना उठाती हो, उसी हाथ को कयामत के दिन अल्लाह सोने का कर देंगे)।
नकाब और बुर्के के ऊपर अशराफ राजनीति बहुत सरगर्म रहती है पर ये हलालखोर औरतें नकाब लगाकर कैसे अशराफ/सैयद साहब के घर का मैला उठाती? तो जो प्रजा कौमें थीं, उनकी औरतों पर नकाब/बुर्का लगवाने का वैसा कोई ज़ोर नहीं था जैसा कि अशराफों के घर की औरतों के लिए था।
क्या हलालखोर जाति की शादी मुसलमानों की दूसरी जाति में होती है? जवाब में नसीम बिलाली कहते हैं कि “पढ़ने लिखने के बाद हलालखोर जाति के युवा अपनी जाति छुपा लेते हैं, पर शादी करते वक्त वह अपनी ही जाति में आते हैं। अगर वह दूसरी जाति में शादी कर लें और बाद में पता चल जाए कि वह किस जाति से आए हैं तो पूरी जिंदगी उनको ताना मिलता रहेगा और उनका जीना मुश्किल हो जाएगा।” वह कहते हैं कि इस्लाम में तो मुसलमान-मुसलमान बराबर हैं, पर सामाजिक तौर पर बराबर नहीं है।
मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था के साथ छुआछूत अभी भी मौजूद है। इस विषय पर कोई बात करने को तैयार नहीं है। छुआछूत इस समुदाय का सबसे ज़्यादा छुपाया गया रहस्य है। प्रशांत के. त्रिवेदी, श्रीनिवास गोली, फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) पत्रिका में एक लेख लिखा– ‘डज अनटचेबिलिटी एक्जिस्ट अमाँग मुस्लिम्स?’ इसमें उन्होंने अक्टूबर, 2014 से अप्रैल, 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों के सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि मुस्लिम समाज में छुआछूत मौजूद है। उन्होंने पाया कि ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं, लेकिन कुछ जगहों पर ‘दलित मुसलमानों’ को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है। कम-से-कम एक-तिहाई लोगों ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते। वह मुर्दों को या तो अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में। दलित मुसलमानों से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर के अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना-पानी दिया गया। उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है। जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई ‘दलित मुसलमान’ परिवार नहीं रहता था। ‘दलित मुसलमानों’ के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता। यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है।
हलालखोर जाति के आज़मगढ़ के पूर्व रेलवे कर्मचारी अंसार साहब कहते हैं कि हलालखोर समाज में शिक्षा का स्तर भी बहुत कम है। वह कहते हैं कि “अगर हमारी जाति पढ़ लिख लेती तो इन अशराफों की गुलामी कैसे करती? इसलिए जानबूझकर हमारी जाति को शिक्षा से दूर रखा गया है। सर सैयद अहमद खान भी पसमांदा जातियों को आधुनिक शिक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। जब हमको शिक्षा से दूर कर दिया गया तो हम कुरान, हदीस, इतिहास, भूगोल क्या जानें? जब शिक्षा नहीं थी तो अपनी बात कहने वाला भी कोई पैदा नहीं हुआ।”
अंसार साहब कहते हैं कि जब अशराफ उलेमा हमारा मुर्गा खाकर हमारी बस्ती में तकरीर करते थे तब कहते थे कि हर मुसलमान मर्द-औरत के लिए शिक्षा अनिवार्य है। हर मुसलमान आपस में बराबर है और सबसे ऊंचा मुसलमान वह है जो अल्लाह से सबसे ज़्यादा डरे। लेकिन मिम्बर (संबोधन स्थल) से उतर कर वही भेदभाव करने लगते हैं।
राजनीतिक प्रतिनिधि के सवाल पर अंसार साहब कहते हैं कि “जब कोई पसमांदा चुनाव लड़ता है तो उसे जाति के आधार पर देखा जाता है और जब कोई अशराफ चुनाव लड़ता है तो उसे कौम से जोड़कर बताया जाता है। मतलब मैं हलालखोर हूं तो मैं मुसलमान नहीं हूं और कोई सैयद साहब हैं तो वह मुसलमान हैं। मुस्लिम जनता को बताया जाता है कि क्यों तुम दर्ज़ी/हलालखोर/नट/पमारिया आदि को वोट दे रहे हो, उनका न कोई बैकग्राउंड है और न ही कोई तालीम है इनके पास। यह लोग विधानसभा/संसद में बैठ कर क्या करेंगे? चुनाव में नारा लगाया जाता है– अल्लाह मिया की मर्जी चुनाव लड़े दर्जी।” अंसार साहब बताते हैं कि एक पीढ़ी पहले तक मस्जिद में उनकी जाति को वज़ू नहीं करने दिया जाता था, वह अपने घर से वज़ू कर के जाते थे या मस्जिद में अपना लोटा साथ ले जाते थे।
दलित मुस्लिमों का आरक्षण
अभी हाल में केंद्र सरकार ने के.जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता में एक पैनल बनाने की घोषणा की है। यह पैनल इस बात की पड़ताल करेगा कि क्या मुस्लिम दलित जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए या नही? ज्ञात रहे कि मुस्लिम दलित जातियों को 10 अगस्त, 1950 को तत्कालीन नेहरू सरकार ने अध्यादेश 1950 के जरिये धार्मिक प्रतिबंध लगाकर हिंदुओं को छोड़कर अन्य धर्म के दलितों को अनुसूचित जाति से बाहर कर दिया। सिखों को 1956 में और बौद्धों को 1990 में दोबारा इस श्रेणी में शामिल किया गया। इस अध्यादेश के खिलाफ पिछले 18 सालों से सर्वोच्च न्यायालय में दलित ईसाइयों दलित मुसलमानों को शेड्यूल कास्ट का दर्जा देने की मांग से संबंधित एक सिविल रिट याचिका लंबित है। दलित मुस्लिम और ईसाई आज भी अनुसूचित जाति के आरक्षण से बाहर हैं। इस दौरान कई धर्म-निरपेक्ष पार्टियां आईं और चली गईं, पर किसी ने मुस्लिम दलितों का नाम लेना भी गवारा नहीं समझा। यह वही पार्टियां हैं जिनको पसमांदा समाज आज भी वोट करता है। इन सेक्युलर पार्टियों को हमारा वोट चाहिए पर वह हमें कोई अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं। यह पार्टियां ‘संविधान बचाओ’ का नारा देती हैं, अनुच्छेद 341 पर लगे धार्मिक प्रतिबंध पर अपनी चुप्पी बांध लेती हैं, ऐसे बचेगा संविधान? संविधान बनने के बाद 1950 में उसके मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14, 15, 16 और 25 की हत्या राष्ट्रपति अध्यादेश द्वारा कर दी गई और किसी भी सेक्युलर पार्टी को इससे कोई फर्क नही पड़ा।
बहरहाल, इन सामाजिक बहिष्कृत जातियों के साथ सामाजिक न्याय के एक साधन के रूप में आरक्षण राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से हजारों हजार वर्षों से जीवन के अनेकों आयामों से बहिष्कृत, शोषित, अनादरित एवं वंचित जातियों को सत्ता, शिक्षा, उत्पादन, न्याय, संचार व्यवसाय, स्वयंसेवी संगठनों आदि में उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व (भागीदारी) को सुनिश्चित करना आवश्यक है।
संदर्भ सूची
- डॉक्टर अयूब राईन, भारत के दलित मुसलमान; खंड 1-2, प्रकाशन : खंड 1 हेरिटेज प्रकाशन, खंड-2 आखर प्रकाशन
- अली अनवर, संपूर्ण दलित आंदोलन, राजकमल प्रकाशन, 2023
- जॉयल ली, हू इज दी ट्रू हलालखोर? जीनोलॉजी एंड एथिक्स इन दलिल मुस्लिम ओरल ट्रेडिशंस
- मसऊद आलम फ़लाही, हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान, आइडियल फाउंडेशन, मुंबई, संस्करण 2009
- दलित मुस्लिम हलालखोर समाज के ज़िला अध्यक्ष नसीम बिलाली का साक्षात्कार
- अंसार अहमद (हलालखोर) का साक्षात्कार
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in