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‘आत्मपॅम्फ्लेट’ : दलित-बहुजन विमर्श की एक अलहदा फिल्म

मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं कि यह फिल्म हाल के दिनों में सामाजिक-राजनीतिक विषय पर सबसे प्रभावशाली व्यंग्यात्मक फिल्मों में से एक है। बता रहे हैं जावेद अनीस

दो साल पहले 2022 में रिलीज हुई आमिर खान की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ हॉलीवुड की क्लासिकल फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’ (1994) की आधिकारिक रीमेक थी। लेकिन इसमें रीमेक के दावे के अलावा ‘फॉरेस्ट गंप’ जैसा कुछ भी नही था। यह एक डरी हुई फिल्म थी, जो गैर-विवादास्पद फिल्म बनने के दबाव में एक साधारण फिल्म बन कर रह गई थी। इसके विपरीत 2023 में रिलीज हुई मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ एक मौलिक फिल्म है जो बिना किसी महानता का दावा किये हमें ‘लाल सिंह चड्ढा’ के बुरे हश्र को भूल जाने का मौका देती है और अनजाने में ही सही खुद को ‘फॉरेस्ट गंप’ के वास्तविक भारतीय संस्करण के रूप में पेश करती है। यह फिल्म 73वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में अपनी जगह बनाने में कामयाब रही है।

विस्तार से बात करें तो यह एक बहुत ही प्यार से बनाई गई फिल्म है, जो दर्शकों को प्यार, दोस्ती और मासूमियत का जश्न मनाने का मौका देती है। अभी पिछले दिनों मराठी भाषा की इस ब्लैक कॉमेडी को अंग्रेजी उपशीर्षक के साथ ओटीटी प्लेटफार्म जी-5 पर रिलीज़ किया गया है। 

इसका निर्माण ज़ी स्टूडियोज, आनंद एल राय और भूषण कुमार द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है। फिल्म को नेशनल अवार्ड विजेता परेश मोकाशी द्वारा लिखा गया है, जिन्हें अपनी हालिया मराठी ‘वालवी’ (2023) के लिए बहुत सराहना मिली है। फिल्म का निर्देशन आशीष बेंडे द्वारा किया गया है। यह उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म है। दिलचस्प यह कि फिल्म के केंद्रीय पात्र का नाम भी आशीष बेंडे ही है। अदाकारी की बात करें तो किशोर आशीष के रूप में ओम बेंडखले का अभिनय प्रभावशाली है। साथ ही उनके दोस्तों के समूह में शामिल बाल कलाकारों ने भी उनका अच्छा साथ दिया है। फिल्म के अन्य किरदार जिसमें आशीष के माता-पिता, दादा-दादी, शिक्षक, पड़ोसी शामिल हैं। सभी अपनी-अपनी भूमिका में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वरिष्ठ कलाकार दीपक शिर्के को एकबार फिर से पर्दे पर देखना अच्छा लगता है। वे आशीष के दादा की भूमिका में हैं।

फिल्म की कहानी बेखौफ भी मासूम भी 

कहना अतिरेक नहीं कि भारत में बहुत कम ऐसी फिल्में है, जो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बात करते समय उपदेशात्मक नहीं होती। जबकि ऐसी फिल्मों की संख्या तो बहुत ही कम है जो ऐसे मसलों को व्यंग्यपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करती हैं। ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन्हीं चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं कि यह फिल्म हाल के दिनों में सामाजिक-राजनीतिक विषय पर सबसे प्रभावशाली व्यंग्यात्मक फिल्मों में से एक है।

‘आत्मपॅम्फलेट’ का एक पोस्टर

फिल्म का मुख्य किरदार महाराष्ट्र में दलित समुदाय एक किशोर लड़का आशीष बेंडे है, जिसे अपनी ब्राह्मण समुदाय की सहपाठी सृष्टि से प्यार हो जाता है। इसमें आशीष के दोस्त जो अलग-अलग जाति और समुदायों (मुस्लिम, मराठा, ब्राह्मण और कुनबी) के हैं, उसकी मदद करते हैं। 

सनद रहे कि यह 1980-90 के दशक और उसके बाद के वर्षों का वह दौर है जब भारत अपने राष्ट्रीय चरित्र में बदलाव के दौर से गुजर रहा था। नतीजतन यह फिल्म आशीष की एकतरफा प्रेम कहानी के साथ-साथ उस समय भारत में हो रहे बदलावों और प्रमुख घटनाओं को भी बहुत बारीकी से दर्शाती है। फिल्म की कहानी काफी हद तक आशीष के बचपन और किशोरावस्था की प्रमुख घटनाओं पर आधारित है। फिल्म आशीष की जिंदगी के अहम पड़ावों को देश के इतिहास के महत्वपूर्ण मोड़ों के साथ लेते हुए आगे बढ़ती है, जिसमें इंदिरा गांधी की हत्या, मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की घोषणा और बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं शामिल हैं। इस सामान्य किशोर प्रेमकथा में दिलचस्प मोड़ तब आना शुरू होता है जब हमें फिल्म के प्रमुख पात्रों के सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में पता चलना शुरू होता है।

वे बातें, जो इस फिल्म को खास बनाती हैं  

फिल्म शुरुआत में ही यह घोषणा कर देती है कि यह एक प्रेम कहानी है। लेकिन यह आधा ही सत्य है। दरअसल फिल्म की पटकथा हल्की-फुल्की और सहज है और यह हमारे समय का एक काला हास्य है; जो जाति, धर्म और अन्य गंभीर सामाजिक मसलों को हास्य के माध्यम से बहुत ही संतुलित तरीके से पेश करती है। खास बात यह कि ऐसा करते समय यह फिल्म बिलकुल भी खौफ में नहीं है। यह दो अलग-अलग विषयों – प्रेम और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों – को अत्यंत ही खूबसूरती से एक साथ सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ती है। संतुलन और प्रवाह इस फिल्म को औरों से अलग बना देता है। फिल्म का मूल नैरेटिव विविधता में एकता है जो पूरे समय विभिन्न जातियों और धर्मों से ताल्लुक रखने वाले दोस्तों के माध्यम से नेपथ्य में चलता रहता है।

‘आत्मपॅम्फलेट’ की दूसरी बड़ी खूबी इसकी सार्वभौमिकता है। यह फिल्म जिस तरह के भेदभाव और इंसानी भेदभाव के मसलों को दर्शाती है, जो दुनिया-भर में अलग-अलग रूपों में मौजूद हैं। हालांकि इसकी कहानी महाराष्ट्र के एक छोटे-से शहर पर आधारित है, लेकिन यह जिन व्यापक इंसानी मूल्यों की वकालत करती है, उसके सरोकार वैश्विक हैं और ऐसा करते समय यह कहीं भी उपदेशात्मक नहीं होती है।

फिल्म की तीसरी खास बात यह कि इसमें बच्चों के नजरिये से कहानी को बताया गया है। बच्चों के दुनिया को देखने का नजरिया बड़ों से बिल्कुल अलग होता है। फिल्म बखूबी इस बात को उजागर करती है कि कैसे समाज द्वारा बच्चों को अपने दकियानूसी और प्रतिगामी विचारों के सांचे में ढ़ालने की कोशिश की जाती है, जो बच्चों के मन में भेदभाव के बीज बोने का काम करता है। इसलिए जब बच्चे धीरे-धीरे अपने धर्म और जाति की मान्याताओं को समझना शुरू कर देते हैं, तो अक्सर उनका अपने सबसे अच्छे दोस्तों के साथ एक अनकहा-सा भेदभाव हो जाता है। 

फिल्म में बच्चों के किरदारों को बहुत प्रभावशाली तरीके से पेश किया गया है, जिसमें उनकी मासूमियत और विवेक के बीच की संतुलन बखूबी नजर आती है। यह फिल्म बताती है कि तमाम राजनीतिक-सामाजिक भेदभावों के बावजूद बच्चे प्यार, दोस्ती और बंधुत्व को बड़ों से बेहतर समझते हैं और तमाम रुकावटों के बीच इसके लिए कोई-ना-कोई मासूम रास्ता निकाल ही लेते हैं। 

भारतीय समाज में जाति पदानुक्रम को प्रस्तुत करती है फिल्म

यह फिल्म भारतीय समाज में जाति पदानुक्रम को बिलकुल अलग अंदाज में पेश करती है। फिल्म का मुख्य पात्र एक दलित है। फिल्म दर्शकों को उसे जातिगत बंधनों और दलित शरीर से बाहर देखने का मौका देती है, क्योंकि परदे पर उसे एक दलित नायक की तरह नहीं, बल्कि एक सामान्य नायक की तरह पेश किया गया है। इसी प्रकार से फिल्म में जाति-आधारित भेदभाव को हास्य के नजरिये से दिखाया गया है। यह एक जोखिम भरा काम था, लेकिन इसमें विषय की गंभीरता को बरकरार रखा गया है। 

सिनेमेटोग्राफी के हिसाब से भी बात करें तो यह एक अलहदा फिल्म है। पूरी फिल्म में वॉयसओवर लगातार चलता रहता है। इसके शुरुआती 25 मिनट में कोई संवाद नहीं है, बल्कि सिर्फ वॉयसओवर द्वारा कुछ दृश्यों के साथ फिल्म आगे बढ़ती है।

कुल मिलाकर करीब 95 मिनट की यह फिल्म हाल के दिनों में सबसे अधिक प्रासंगिक फिल्मों में से एक है। यह हमें हमारे ही बनाये गये ‘हम बनाम वे’ के दायरे से बाहर ले जाती है और हमारे सामने भारत के उस सपने को पेश करती है जिसकी हमें आज सबसे ज्यादा जरूरत है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जावेद अनीस

भोपाल निवासी जावेद अनीस मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर नियमित रूप से लेखन करते हैं

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