दूसरे भाग से आगे
ओबीसी के विरोध में मराठाओं का ध्रुवीकरण पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे पृथ्वीराज चव्हाण ने किया और बाद में देवेंद्र फड़णवीस ने भाजपा को फायदा दिलाने के के लिए 2016-17 में शुरू किया था। फिर भी वे मराठाओं को नियंत्रण में रखने में सफल हुए थे। लाखों के मोर्चे के भयग्रस्त वातावरण में भी उन्होंने कहीं हिंसक घटनाएं नहीं होने दी थी। लेकिन 29 नवंबर, 2018 को फड़णवीस सरकार द्वारा मराठा आरक्षण अधिनियम पारित करने के कारण, ओबीसी ने 2019 के चुनावों में फडणवीस को जबर्दस्त झटका दिया। परिणाम यह हुआ कि उन्होंने 17 सीटें गंवाईं, मुख्यमंत्री पद गंवाया और सरकार भी गंवाई। नतीजतन सबक लेते हुए उन्होंने अपने पहले के मराठावादी नारे को बदल दिया और ओबीसी को खुश करने के लिए एक नया नारा लेकर आए। उन्होंने बार-बार कहा कि भाजपा के डीएनए में ओबीसी है।
फड़णवीस द्वारा 2022 में उद्धव ठाकरे नीत महाविकास आघाड़ी (मविआ) सरकार तोड़ने के बाद महायुति की सरकार एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में अस्तित्व में आई। मराठा आरक्षण के हथियार को हाईजैक करने के लिए शरद पवार ने जरांगे फैक्टर का निर्माण किया। वडी-गोद्री व आंतरवली सराटी में जरांगे को उपवास पर बिठाया गया। शुरुआत में जरांगे को ज्यादा समर्थन नहीं मिला और मीडिया ने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन कुछ दिनों बाद जब शरद पवार की पार्टी एनसीपी की तरफ से रसद आने लगी तो जरांगे के भूख हड़ताल प्रकाश में आने लगा।
इस बढ़ती और लंबी होती जा रही भूख हड़ताल को नियंत्रण में लाया जाना चाहिए, इसके लिए फड़णवीस, जो उपमुख्यमंत्री और गृह मंत्री भी थे, ने उपवास स्थल पर पुलिस बल का उपयोग करके भूख हड़ताल को समाप्त करने का प्रयास किया। शरद पवार भले ही सत्ता में न हों, लेकिन प्रशासन पर उनकी पकड़ हमेशा बनी रहती है। फड़णवीस के पुलिस हमले का करारा जवाब देने के लिए, उन्होंने जरांगे के उपवास स्थल में अपने लोगों को शामिल किया और फिर पुलिस के साथ दो-दो हाथ किये।
उपवास स्थल पर उपद्रव के बाद, सभी लोग तितर-बितर हो गए और जरांगे ने खुद अपनी भूख हड़ताल समाप्त कर दी तथा अपने घर चले गए। लेकिन जरांगे फैक्टर के संयोजक के रूप में शरद पवार द्वारा नियुक्त राजेश टोपे जरांगे के घर जाकर और उन्हें उठाकर लाए तथा फिर से उन्हें उपवास पर बिठा दिया। इसके लिए उन्होंने अपनी पार्टी के नेटवर्क का इस्तेमाल भी किया। चूंकि मीडिया को दंगाग्रस्त और हिंसक माहौल में बहुत सारा मसाले मिल रहे थे, इसलिए टीआरपी बढ़ाने के लिए जरांगे के इस उपवास का खूब प्रचार हुआ। यहीं से जरांगे फैक्टर बेकाबू हो गए। ओबीसी नेताओं को भद्दी-भद्दी व अश्लील गालियां देना, फड़णवीस को असभ्य भाषा का इस्तेमाल कर अपमानित करना, मुख्यमंत्री शिंदे को अपशब्द कहना, “गाड़ दो”, “गिरा दो”, “रौंद दो”, “सबक सिखाओ” जैसे हिंसक बयान हर दिन जरांगे के मुंह से उल्टी की तरह लगातार निकल रहे थे।
इधर जरांगे के आंतरवली सराटी में उपवास पर बैठने के दिन से ही उधर चंद्रपुर में ओबीसी नेता रवींद्र टोंगे अनशन पर बैठे थे। लेकिन वहां नेता, मीडिया और सरकारी प्रतिनिधि आदि कुछ खास नजर नहीं आए। जो दलित, ओबीसी और प्रगतिशील-वामपंथी नेता उपवास स्थल पर जरांगे के चरणों में बैठकर अनशन का समर्थन कर रहे थे, उनमें से एक भी नेता चंद्रपुर में ओबीसी अनशन को समर्थन देने के लिए नहीं गया। मीडिया ने तो उसे पूरी तरह अनदेखा ही कर दिया, क्योंकि ओबीसी का अनशन लोकतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था। इसलिए कहीं कोई तोड़-फोड़ नहीं हुई, कोई हिंसा नहीं हुई। इसलिए मीडिया को वहां टीआरपी कहां से मिलेगी? इस कारण मीडिया ने चंद्रपुर के ओबीसी उपवास पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। मीडिया ही नहीं, तो प्रचार भी नहीं मिलेगा, इसलिए दलित-प्रगतिशील नेता भी वहां नहीं गए।
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जरांगे ने अपने अनशन का समर्थन करने पहुंचे दलित-ओबीसी-प्रगतिशील-वामपंथी नेताओं पर विशेष तंज कसा। जरांगे ने कहा– “दलित, आदिवासी और ओबीसी नाकाबिल लोग हैं, उन्हें मिलने वाले आरक्षण के कारण हम 96 कुलों के श्रेष्ठ लोगों (मराठों) को इन नालायक लोगों के अधीन काम करना पड़ता है, यह मराठों के लिए बड़ी शर्मनाक बात है।” जरांगे द्वारा कहे गए इन शब्दों को उसे समर्थन देने गए दलित, ओबीसी और प्रगतिशील नेताओं ने सहर्ष स्वीकार किया और साबित कर दिया कि वे कितने निर्लज्ज हैं।
खैर, इस बीच, जबकि कोई चुनाव भी नहीं था, शरद पवार भुजबल और धनंजय मुंडे के निर्वाचन क्षेत्रों में गए और ओबीसी विरोधी सभाएं करके वातावरण को और ज्यादा गर्म कर दिया। इससे जरांगे को प्रोत्साहन मिलता गया। जरांगे-समर्थकों ने बीड में समता परिषद नेता सुभाष राउत के 8 करोड़ रुपए के भव्य होटल को जलाकर राख कर दिया। ओबीसी विधायक क्षीरसागर के घर में आग लगा दी गई, जिसमें उनकी पत्नी, बच्चे और बूढ़े माता-पिता जलकर राख हो गए होते अगर एक मुस्लिम पड़ोसी ने अपनी जान जोखिम में डालकर आग में कूद कर उनकी जान न बचाई होती। म्हाडा निर्वाचन क्षेत्र के तुलसी गांव के नाई (ओबीसी) परिवारों के घर जला दिए गए। पुरुषों और महिलाओं को बेरहमी से पीटा गया। इसके बाद, बीड जिले में पंकजा मुंडे के निर्वाचन क्षेत्र में ओबीसी के बीच दहशत पैदा करने के लिए माजलगांव तहसील के गंगामसला गांव में नाई लोगों की हेयर कटिंग सैलून की दुकानों को ध्वस्त कर दिया गया। बीड शहर में सुनार (ओबीसी) जाति के लोलगे बंधुओं की शुभम ज्वैलर्स दुकान जलाकर खाक कर दी गई।
जरांगे के विरोध में या ओबीसी आरक्षण के समर्थन में सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने वाले डॉक्टरों, प्रोफेसरों आदि बुद्धिजीवियों पर गाली-गलौज करने, स्याही फेंकने और मारपीट जैसी हिंसक घटनाएं गांव-गांव में शुरू हो गईं। मराठा संस्था संचालकों द्वारा कुछ ओबीसी प्रोफेसरों को नौकरी से निकाल दिया गया। गांव-गांव के ओबीसी कार्यकर्ता या आम ओबीसी भी दहशत में आ गए थे।
अंततः 17 नवंबर, 2023 को छगन भुजबल ने अंबड में ओबीसी की एक विशाल क्रांतिसभा करके आतंक से भरे आसमान को साफ कर दिया और ओबीसी ने राहत की सांस ली। इसके लिए भुजबल को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। बेशक, भुजबल के तेवर व जन समर्थन को देखते हुए मुख्यमंत्री शिंदे और दोनों उपमुख्यमंत्रियों में भुजबल का इस्तीफा स्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी।
ओबीसी-मराठा के बीच जो हिंसक ध्रुवीकरण हुआ, वह केवल शरद पवार के कारण हुआ। आज कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यही कहेगा! 2024 के विधानसभा चुनाव में ओबीसी के सामने सबसे बड़ा और पहला अहम मुद्दा ‘सुरक्षा’ का था। यह अलग से कहने की जरूरत नहीं कि अगर मविआ सत्ता में आती तो इस पर पूरा नियंत्रण शरद पवार का ही रहने वाला था। जब शरद पवार सत्ता में नहीं थे तब भी उन्होंने जरांगे फैक्टर को हिंसक बना दिया था। और यदि वे सत्ता में आते तो जरांगे फैक्टर को सत्ता का बल देते। ओबीसी समुदाय के लोगों को लगा कि पवार के समर्थन से जरांगे फैक्टर और अधिक हिंसक हो जाएंगे। हरियाणा और मणिपुर के जैसे जातीय दंगों में महाराष्ट्र के ओबीसी का अस्तित्व ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए ओबीसी की पहली प्राथमिकता शरद पवार के नेतृत्व वाले मविआ को चुनाव में खत्म करना और भाजपाणीत महायुति को सत्ता में बिठाने की थी। ओबीसी की दूसरी प्राथमिकता थी फड़णवीस को मुख्यमंत्री बनाने की। उन्हें लगा कि अगर फड़णवीस मुख्यमंत्री बने तो ओबीसी को कम से कम सुरक्षा तो मिलेगी, क्योंकि उन्होंने गृह मंत्री के पद का उचित उपयोग करके जरांगे फैक्टर को नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। इसके कारण जरांगे ने फड़णवीस की छवि “मराठों का खलनायक” के रूप में बनाई थी। इसलिए, “ब्राह्मण बर्दाश्त है, लेकिन मराठा नहीं” – इस फॉर्मूले के अनुसार, फड़णवीस का मुख्यमंत्री बनना ओबीसी मतदाताओं की दूसरी प्राथमिकता थी। इसके लिए ओबीसी ने भाजपा के मराठा उम्मीदवारों को भी चुना है और गठबंधन में शामिल मराठा पार्टियों शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी के उम्मीदवारों को भी भारी वोट देकर चुना है, क्योंकि भाजपा तभी सत्ता में आएगी जब महायुति के पास बहुमत होगा। अगर भाजपा के लिए ओबीसी वोटों की सुनामी बनी तो शिंदे की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी खत्म हो जाएगी और फड़णवीस मजबूती के साथ मुख्यमंत्री बनेंगे।
इस विधानसभा चुनाव में, ओबीसी ने जरांगे की तरह ‘पूर्ण जाति-द्वेष’ का पालन नहीं किया। ओबीसी ने वंचित बहुजन अघाड़ी के ओबीसी उम्मीदवारों को भी खारिज कर दिया, क्योंकि वंचित बहुजन आघाडी के चुने गए ओबीसी विधायकों का नियंत्रण बाला साहेब प्रकाश आंबेडकर के पास ही रहता और वे शुरू से ही जरांगे के कट्टर समर्थक रहे और अभी भी हैं। चुनावी दौर में उन्होंने चुनावी जुमले के तौर पर ओबीसी का पक्ष लेने की शुरुआत की थी। ओबीसी को यकीन था और है कि चुनाव के बाद वे फिर से जरांगे को अपने सिर पर रखकर ओबीसी के खिलाफ नाचेंगे। ओबीसी समाज के लोग यह कैसे भूल सकते हैं कि दलित-ओबीसी के खिलाफ जरांगे प्रणित ‘सगे-सोयरे’ मुद्दे पर प्रकाश आंबेडकर द्वारा दिया गया खुला समर्थन आज भी कायम है? इसलिए इस चुनाव में वंचित बहुजन अघाड़ी के ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। जरांगे का समर्थन करने वाले हर नेता को इस चुनाव में ओबीसी मतदाताओं ने ऐसा सबक दिया है कि वे जीवन भर इसे नहीं भूलेंगे।
मविआ की हार और महायुति की जीत का विश्लेषण करने वाले अधिकांश पत्रकार, विद्वान और नेता हमेशा की तरह ईवीएम, लाडली बहना और पैसे बांटने जैसे फालतू मुद्दे आगे कर रहे हैं। अब सरकार बनाने के लिए महायुति में शामिल दलों की रस्साकशी, उसके असली कारण और ओबीसी के अगले कदम पर चर्चा के लिए इस लेख के चौथे भाग में करता हूं।
क्रमश: जारी
(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : नवल/अनिल)