पिछले भाग में हमने देखा कि सजीव प्राणियों, विशेषकर मानव और मानव समाज के लिए सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है। यदि कोई समाज घटक असुरक्षित हो जाता है तो उसका पूरे समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का जन्म होता है, यह भी हमने देखा। कोई व्यक्ति या समाज अगर दहशत मे आ जाए तो अपनी जान बचाने के चक्कर में वह अपने ही दुश्मन से कुछ भी सौदेबाजी करने के लिए भी तैयार हो जाता है। स्वतंत्र भारत की मनुवादी-ब्राह्मणवादी शासक छावनी ने इसका पहला प्रयोग मुस्लिम समाज पर किया।
भारत में समाज के विभिन्न घटकों के बीच अस्थिरता और असुरक्षा पैदा करने के लिए जैसे जाति-व्यवस्था का इस्तेमाल किया गया, उसी तरह धर्म का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है।
धार्मिक संघर्ष पैदा करके जातिवाद के खिलाफ संघर्ष को विफल करने में सत्ताधारी प्रस्थापित जातियों को हमेशा सफलता मिलती आई है। होता यह है कि समाज के किसी एक घटक को असुरक्षित कर दिया जाता है, तो उसे फिर से प्रस्थापित जातियों की शरण में जाना पड़ता है। इस प्रकार जाति के संरक्षकों की छावनी मजबूत होती रहती है।
इसके कुछ उदाहरण देखते हैं। 1940 के दशक तक धार्मिक संघर्ष का अस्तित्व कहीं भी कुछ खास नहीं था। जैसे-जैसे देश का स्वतंत्रता आंदोलन बड़ा होता गया, वैसे-वैसे जातिअंतक सत्य-शोधक आंदोलन भी प्रभावी होता गया। लेकिन देश के धार्मिक विभाजन के कारण जो हिंसक संघर्ष खड़ा हुआ, उसके कारण विश्व के नक्शे पर भारत और पाकिस्तान नाम से दो देश अस्तित्व में आए। बड़ी संख्या में मुसलमानों के पाकिस्तान चले जाने के कारण मुस्लिम समाज, जिनकी संख्या पहले से ही हिंदुओं की तुलना में कम थी, अल्पसंख्यक हो गया। विभाजन के कारण देशभर में हुए धार्मिक दंगों की वजह से मुस्लिम वर्ग दहशत में आ गया और असुरक्षित हो गया। इंसान असुरक्षित होने के बाद अपनी जान बचाने के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार हो जाता है। विभाजन से पहले मुस्लिम समाज की राजनीतिक पार्टी ‘मुस्लिम लीग’ थी। लेकिन विभाजन के बाद यह पार्टी मुसलमानों को सुरक्षा नहीं दे सकती थी, क्योंकि वह पाकिस्तान में सत्ताधारी पार्टी बन गई और भारत में सत्ताहीन हो गयी थी। चूंकि अविभाजित भारत के अविभाजित मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ होने के कारण कांग्रेस के बराबरी में राजनीतिक सत्ता में सहभागी रहते थे, जिसके कारण मुस्लिम लीग के लिए मुसलमानों को सुरक्षा देना आसान होता था। हिंदू महासभा और आरएसएस हिंदू-मुस्लिम दंगे कराने में अग्रणी थे। उनसे सुरक्षा पाने के लिए मुसलमानों के पास तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। ‘पत्थर से ईंट भली’ यह कहावत चरितार्थ हो गया। स्वतंत्र भारत की मुस्लिम जनता ने अपनी ‘मुस्लिम लीग’ पार्टी को छोड़ दिया और कांग्रेस की शरण में चली गई।
सन् 1992 में सत्ताधारी कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद को गिराने में संघ-भाजपा की मदद की। कांग्रेस की इस छिपी हुई विश्वासघाती धार्मिक राजनीति के कारण मुस्लिम जनता कांग्रेस से नाराज हो गई और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल जैसे कुछ क्षेत्रीय दलों की शरण में चली गई। कांग्रेस की सत्ता डगमगा गई।
अब आइए एक और उदाहरण देखें। सन् 1956 में डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (शेकाफे) पार्टी का रूपांतरण रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) में हो गया। आरपीआई दलितों के बीच दलितों की अपनी पार्टी के रूप में लोकप्रिय थी। दादासाहेब गायकवाड़ के विश्व प्रसिद्ध भूमिहीन-आंदोलन के कारण आरपीआई को गैर-दलित जातियों के बीच भी मान्यता मिलने की शुरुआत हो गई थी। सन् 1957 के दूसरे आम चुनाव में आरपीआई के सात सांसदों के चुनकर आने के कारण दलित समाज की राजनीतिक शक्ति प्रभावशाली दिखने लगी थी। लेकिन 1967 के लोकसभा चुनाव में इसके सांसदों की संख्या घटकर मात्र एक रह गई और महाराष्ट्र में तो शून्य ही हो गई। दलित समाज की राजनीतिक स्थिति भले ही कमजोर हुई थी, लेकिन इस समाज ने शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी प्रगति की थी।
हालांकि वे राजनीति से सरकार में प्रवेश नहीं कर सके, लेकिन शिक्षा और आरक्षण की मदद से प्रशासन में मौके के और महत्वपूर्ण पदों को हासिल करने से प्रशासन में उनकी भागीदारी बढ़ रही थी। इससे सवर्ण जातियों को मिर्ची लगने लगी। इसके परिणामस्वरूप दलितों के विरुद्ध सवर्ण जातियों के दंगे बड़े पैमाने पर शुरू हो गए। दंगों का मुख्य विषय आरक्षण विरोध ही था, क्योंकि आरक्षण के कारण उन्हें प्रशासन में निर्णायक पद मिल रहे थे। ग्रामीण दलित बस्तियों पर हमले रोज-रोज की घटना बन गए थे। ऐसी भयग्रस्त परिस्थिति में दलित समाज असुरक्षित हो गया। इस अन्याय-अत्याचार का मुकाबला करने के लिए ‘दलित पैंथर’ नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना हुई। लेकिन राजनीतिक तौर पर शून्यता पर आ चुके दलित समाज ने अपनी राजनीतिक दिशा बदल ली। असुरक्षा के कारण दलितों ने आरपीआई को छोड़कर कांग्रेस की शरण ली।
कांग्रेस एक जलता हुआ घर है, ऐसा बाबासाहेब ने कई बार कहा है। उसके बावजूद दलित जातियां केवल सुरक्षा के लिए कांग्रेस को वोट देती हैं। आरपीआई, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व वंचित बहुजन आघाडी (वीबीए) यह सभी पार्टियां दलित-राजनीतिक विकल्प हैं। लेकिन आज भी दलित समुदाय के राजनीतिक नेता, विद्वान एवं सामाजिक कार्यकर्ता अपनी पार्टियों को छोड़कर कांग्रेस को फिर से सत्ता में बिठाने के लिए खुलेआम अभियान चलाते नजर आते हैं। मतलब ‘पत्थर से भली ईंट’। लेकिन ईंट भी सर फोड़ने का काम करती है। अपना सर फूटना ही नहीं चाहिए, यह स्वतंत्रता हमें नहीं है। इसलिए हम यह पहले से तय कर लेते है कि हमें अपना खुद का सर फोड़ लेना है। हमे स्वतंत्रता बस इतनी ही है की सर को पत्थर से फोड़ लेना है या ईंट से।
सुरक्षा के लिए कोई भी समझौता करने का तीसरा बड़ा उदाहरण अभी हाल ही में महाराष्ट्र में हुआ है। ओबीसी के खिलाफ मराठा संघर्ष भड़क उठा और ओबीसी ‘असुरक्षित’ हो गया। शरद पवार के नेतृत्व मे महाविकास आघाड़ी (इंडिया) गठबंधन ने जरांगे फैक्टर को हिंसक बनाने का काम किया। आगजनी, मारपीट, तोड़फोड़, उपद्रव, गाली-गलौज जैसी सभी हिंसक घटनाएं गांव-गांव में होने के कारण महाराष्ट्र के ओबीसी भयभीत और असुरक्षित हो गए।
तत्कालीन गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री (अब मुख्यमंत्री) देवेंद्र फड़णवीस ने जरांगे फैक्टर को नियंत्रित करने के लिए पुलिस बल का प्रयोग किया। जरांगे का अनशन ख़त्म करने की कोशिश की। भाजपा के डीएनए में ओबीसी है, फडणवीस के इस बयान के बाद गांव के आम ओबीसी को लगने लगा कि फड़णवीस और भाजपा ही ओबीसी के तारनहार हैं। अगर इस विधानसभा चुनाव में शरद पवार की पार्टी सत्ता में आती है तो जरांगे फैक्टर को सत्ता की ताकत मिलेगी और गांव गांव में ओबीसी पर हमले तेज हो जाएंगे और ओबीसी समाज का नरसंहार हो सकता है। यह स्वाभाविक भय ओबीसी के मन में घर कर गया।
छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में महाविकास आघाड़ी (इंडिया) गठबंधन को मतदान करने वाला ओबीसी विधानसभा चुनाव में पूर्ण रूप से भाजपा की शरण में चला गया और भाजपा-महायुति भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। यह परिवर्तन जैसे हरियाणा मे हुआ, वैसे महाराष्ट्र में भी होना था, और यह हो गया।
सतत बिखरा हुआ महाराष्ट्र का ओबीसी पहली बार जान-बूझकर और तय करके राजनीतिक दृष्टि से एकजुट हुआ है। भले ही भय के कारण ही सही, लेकिन पहली बार शक्तिशाली सत्ताधारी मराठा जाति के सामने खड़ा हो गया है। जरांगे फैक्टर की हिंसा का ओबीसी ने लोकतांत्रिक तरीके से उत्तर दिया है। मराठा पार्टी और मराठा मुख्यमंत्री को सत्ता में बिठाने के जरांगे के स्वप्न को ध्वस्त कर दिया है।
ओबीसी अपने भारी वोटों के बदले में फड़णवीस से क्या अपेक्षा करते हैं? अब ओबीसी के कारण सत्ता में आए और मुख्यमंत्री बनकर लौटे फड़णवीस को ओबीसी के खिलाफ हिंसा करने वाले दंगाइयों को कानून का डंडा दिखाना चाहिए और ओबीसी को सुरक्षा देनी चाहिए। यदि फड़णवीस ने इसमें कामचोरी की तो उनका हश्र भी महाविकास आघाडी व शरद पवार की तरह करने में अब ओबीसी सक्षम हो चुका है।
क्रमश: जारी
(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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