महाराष्ट्र में हर साल नियमित रूप से 25 दिसंबर को दलित-बहुजनों द्वारा ‘मनुस्मृति’ की प्रतियों को जलाया जाता है। यह अब महाराष्ट्र के बाहर भी किया जा रहा है। बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन 25 दिसंबर, 1927 को क्यों किया था, यह समझने के लिए इस किताब को पढ़ना जरूरी है।
मनुस्मृति में क्या छिपा है?
मनुस्मृति एक ऐसी किताब है, जिसमें वर्णवादी और जातिवादी सामाजिक एवं धार्मिक संरचना के नियम लिखे गए हैं। इन नियमों द्वारा महिलाओं और शूद्र-अतिशूद्रों का शोषण किया जाता रहा है। यहां तक कि उनके मौलिक अधिकारों से भी वंचित किया जाता रहा है। मनुस्मृति के नियमों को मनु का विधान भी कहा जाता है। मनु के नियमों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि मनु ही स्त्रियों की दुर्गति का जनक है। मनु कहता है कि महिलाएं वैदिक मंत्र का जाप नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे पापिन हैं। (9.18) पुरुषों को बहकाना और भ्रष्ट करना महिलाओं की विशेषता है। (2.21) महिलाओं को कितना भी नियंत्रण में रखा जाए, वे पर-पुरुषों के प्रति अपने लगाव के कारण निर्दयता से अपने पतियों को धोखा देती हैं। (9.15) मनु स्त्री को तीव्र कामेच्छा रखनेवाली कहता है। वह कहता है कि तीव्र कामेच्छा के कारण स्त्री को अपवित्र वासना, क्रोध, बेईमानी, ईर्ष्या और दुर्व्यवहार आदि से ग्रस्त हो जाती हैं। इससे पता चलता है कि मनु की नजर में औरत कितनी दोयम दर्जे की है। मनु पति को अपनी पत्नी त्यागने और उसे बेचने तक की खुली छूट देता है। जबकि पत्नी बेचे जाने के बाद भी वह अपने पूर्व पति के दायित्वों से मुक्त नहीं होती। मनु के कानून उसे अपने पति की संपत्ति में हिस्सेदारी की अनुमति नहीं देते हैं। मनु उसे जीवित रहने तक अपने पति की आज्ञा के अधीन रहने के लिए कहता है। हिंदू धर्म की व्यवस्था में मनु के ऐसे नियम सामाजिक कानून बन गए और इन सामाजिक कानूनों ने महिलाओं को पूरी तरह से अधिकारहीन कर दिया था।
वहीं मनु ने शूद्र समाज पर भी कई प्रतिबंध लगाए थे। मनु ने इस वर्ग पर अन्यायपूर्ण शर्तें थोपीं। उसने ब्राह्मण को तीनों वर्णों – क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – का स्वामी बनाकर राजा से भी श्रेष्ठ बना दिया और कहा कि राजा को ब्राह्मण के बिना शासन नहीं करना चाहिए। (7.10) मनु जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था का जनक था। मनु ने अंतर्जातीय संबंध से जन्मे नवजात शिशुओं को किस जाति में स्थान दिया जाय, इसके लिए नियम व उपजातियों का निर्माण किया। (10.7 से 10.18) कौन-सी जातियां गांव के अंदर और कौन-सी जातियां गांव के बाहर रहें, इसके लिए नियम बनाए। (10.53 व 10.54) मनु समानता का शत्रु और असमानता का कट्टर समर्थक था। शूद्र को वैदिक मंत्रों के सुनने और बोलने तक से प्रतिबंधित किया गया। (10.124) ऐसे ही उसे आर्थिक अधिकारों से भी वंचित किया गया। मसलन, यदि शूद्र शक्तिशाली भी हो जाय, तब भी वह धन संचय नहीं कर सकता। (10.126) मनु ने कहा कि शूद्र को यज्ञ के लिए पुजारियों को गहने और धन आदि देने चाहिए, लेकिन वे यज्ञ के समीप भी नहीं आ सकते। (11.13) मनु स्वयं ब्राह्मण होने के कारण वह ब्राह्मण जाति को सृष्टि निर्माण से जोड़कर उन्हें ब्रह्मा का प्रतिनिधि बताता है। (11.84)

कुल मिलाकर ‘मनुस्मृति’ का रचयिता मनु विषमतावादी है। उसने समाज में असमानता फैलाकर ऊंच-नीच की खाई पैदा की। वह एक को लालची बनाता है और दूसरे से मेहनत करवाता है। मनु लोगों को काल्पनिक भय दिखाकर समाज और देश पर एक वर्ग का वर्चस्व थोपता है।
भारतीय महिलाएं और ओबीसी मनुस्मृति के खिलाफ क्यों नहीं लड़ रहे?
यह स्पष्ट है कि मनुस्मृति में महिलाओं के संबंध में बहुत ही गंदे, घृणित कानून और महिलाओं के अधिकारों को छीनने के प्रावधान हैं। फिर भी भारतीय हिंदू स्त्रियां मनुस्मृति के खिलाफ आवाज नहीं उठाती हैं। ऐसे ही भारत के बहुसंख्यक वर्ग ओबीसी को मनु के विधानों ने सभी अधिकारों से वंचित कर ब्राह्मणवादी संस्कृति का गुलाम बनाकर रखा है। फिर भी ओबीसी समाज मनुस्मृति का विरोध करने को तैयार नहीं हैं। आखिर इसकी वजह क्या है?
बुद्धिजीवियों द्वारा मनुस्मृति में वर्णित समाज को विभाजित करने वाली बातों को वंचित लोगों को बार-बार बताने की आवश्यकता थी। उन्हें यह बताना चाहिए था कि जाति-व्यवस्था में उच्च वर्ग किस प्रकार उनकी शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों की उपेक्षा कर रहा है। कुछ लोग मनुस्मृति में भयावहता देखते हैं, लेकिन वे मनु के खिलाफ आवाज नहीं उठाते, क्योंकि उन्हें लगता है कि मनु उनकी जाति का है। ओबीसी समुदाय द्वारा मनुस्मृति के खिलाफ आवाज न उठाने का एक कारण अनुसूचित जाति समुदाय (दलित) द्वारा मनुस्मृति के खिलाफ आवाज उठाया जाना भी है। ओबीसी और अन्य समुदाय उन ब्राह्मणवादी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े नहीं होते हैं, जिसके खिलाफ दलित समुदाय अपनी आवाज उठाता है। उदाहरण के लिए, जिस तरह दलित समाज बुद्ध, जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले और शाहूजी महाराज इत्यादि महापुरुषों को स्वीकार करता है, उस तरह से इन महापुरुषों को ओबीसी जातियों के लोग स्वीकार नहीं कर पाते। यहां तक कि अपने घरों में इनकी तस्वीरें लगाना भी पसंद नहीं करते।
मूल बात यह कि महिलाएं और ओबीसी समुदाय के बहुलांश मनुस्मृति के खिलाफ लड़ना नहीं चाहते। इनका यही रवैया ब्राह्मणवादी ताकतों को फायदा पंहुचा रहा है।
मनुस्मृति का दहन के बाद क्या?
बहरहाल, बहुजन समाज मनुस्मृति की चाहे कितनी भी आलोचना करे और उसके दहन का आयोजन करे, लेकिन मनुस्मृति के समर्थकों पर इसका कोई असर नहीं होता। इसके विपरीत, वे पाठ्यक्रम में मनुस्मृति का पाठ शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं। इसका मतलब स्पष्ट है कि मनुस्मृति के विरोधी कमज़ोर हैं और समर्थक अधिक शक्तिशाली। मनुस्मृति विरोधी बुद्धिजीवी समाज द्वारा इस पर चिंतन कर कार्ययोजना बनानी चाहिए। जो लोग मनु की बात से सहमत नहीं हैं, उन्हें मनुस्मृति से मुक्ति हेतु आंदोलन शुरू करना चाहिए। मनुस्मृति ने बहुजन समाज को शिक्षा, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समानता से वंचित कर दिया था। अब, बदले में, उन्हें मनु को अस्वीकार करना चाहिए और गैर-वैदिक त्योहारों और संस्कृति का निर्माण करना चाहिए। दलित-बहुजन महापुरुषों के विचारों को अपनाकर नए राष्ट्रवाद की नींव रखनी चाहिए। इस क्रम में बुद्ध, जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले और शाहूजी महाराज के विचारों का उत्सव आयोजित करने की जवाबदेही ओबीसी समूहों को लेनी चाहिए। केवल मनुस्मृति के प्रतीकात्मक दहन की संतुष्टि से बाहर निकलकर ठोस पहल करने ही होंगे।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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