कांग्रेस ने बिहार में अपना चेहरा बदल दिया है। रविदास जाति (दलित) के राजेश कुमार राम प्रदेश कांग्रेस कमिटी के नए अध्यक्ष बनाए गए हैं। वहीं भूमिहार (सवर्ण) अखिलेश प्रसाद सिंह को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद से मुक्त कर दिया गया है। कांग्रेस आलाकमान का यह फैसला बिहार में कांग्रेस की पदयात्रा शुरू होने के दो दिन बाद आया। पश्चिम चंपारण के भितिहरवा स्थित गांधी आश्रम से ‘नौकरी दो-पलायन रोको’ पदयात्रा 16 मार्च को प्रारंभ हुई और 18 मार्च को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बदल दिया गया। पदयात्रा में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार की मौजूदगी चर्चा के केंद्र में है।
हालांकि कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से यह नहीं कहा है कि पदयात्रा का नेतृत्व कन्हैया कुमार कर रहे हैं। लेकिन स्थानीय मीडिया इसे कन्हैया की पदयात्रा के तौर पर दिखा रही है। कहा जा रहा है कि कन्हैया को बड़ी जिम्मेवारी मिली है। अब कांग्रेस के दिन लौटने वाले हैं। वह मजबूत होकर उभरेगी। लालू यादव की छाया से मुक्त हो जाएगी! भूमिहार जाति के कन्हैया और दलित समुदाय के राजेश की जोड़ी एक साथ अगड़ा और दलित वोटरों को साधने में कामयाब होगी। एक प्रचार यह भी हो रहा है कि अगर कांग्रेस कन्हैया को अपना चेहरा बनाकर अकेले दम पर चुनाव लड़ती है तो अधिक फायदे में रहेगी!
लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस के मजबूत होने की बातें कौन लोग प्रचारित कर रहे हैं? अकेले दम पर चुनाव लड़ने की सलाह किधर से आ रही है? एक बात और कही जा रही है कि कन्हैया को आगे करने और राजेश को अध्यक्ष बनाने से तेजस्वी यादव असहज हो रहे हैं। राजद में बेचैनी दिख रही है। ये तमाम बातें पारंपरिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया के उस हिस्से से निकल कर आ रही है, जिसे भाजपा और आरएसएस समर्थक माना जाता है। भाजपा समर्थक मीडिया में उमड़-घुमड़ रहा ‘कांग्रेस प्रेम’ संदेह पैदा कर रहा है।
सनद रहे कि 1990 के बाद से कांग्रेस बिहार में हाशिए पर है। इस लंबे दौर में वह कभी लालू यादव के खिलाफ और फिर उनके साथ रही है। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस लालू यादव के कारण कमजोर हुई या अपनी वजह से हाशिए पर पड़ी हुई है? कांग्रेस आजादी के आंदोलन से निकली हुई राष्ट्रीय स्तर की पार्टी है। वह बिहार में कमजोर हुई है तो इसकी वजह यह है कि उसने लड़ना छोड़ दिया। परजीवी बन कर रह गई। लालू जब सत्ता में रहे तो उनके साथ सत्ता का सुख लिया। लालू सत्ता से बाहर हो गए तो हाथ पर हाथ रख कर बैठ गई। पार्टी को जनता के ज्वलंत मुद्दों पर जनांदोलन खड़ा करने, पार्टी में दलितों, पिछड़ों, अतिपिछड़ों को नेतृत्वकारी भूमिका में जगह देने से किसने रोक रखा है? क्या यह नेतृत्व की नाकामी नहीं है कि 2017 के बाद से बिहार में कांग्रेस की प्रदेश और जिला कमिटियां गठित नहीं हुईं? पार्टी ने राज्य स्तर पर तो छोड़िए किसी जिले में भी कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन खड़ा नहीं किया। तो क्या राजेश कुमार राम और कन्हैया कुमार को अग्रिम कतार में खड़ा कर देने भर से कांग्रेस मजबूत हो जाएगी या कुछ और करना होगा?

प्रदेश युवा कांग्रेस के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष मनजीत आनंद साहू कहते हैं कि “कांग्रेस नेतृत्व ने वंचित समुदाय से आने वाले नेता को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर राहुल गांधी के सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता को और मजबूत किया है।”
बिहार में विधानसभा चुनाव के सात-आठ महीने रह गए हैं। ऐसे में नेतृत्व परिवर्तन और कन्हैया को बिहार में आगे रखने का फैसला भी देर से लिया गया फैसला है। जिलों में पार्टी पर अगड़ी जातियों के नेताओं का दबदबा है। आधे से अधिक अध्यक्ष अगड़ी जाति से हैं। जिलों में शिथिल और निष्प्राण नेताओं को हटाकर ऊर्जावान और दृष्टिसंपन्न लोगों को जिम्मेदारी देनी होगी। सामाजिक न्याय के एजेंडे आरक्षण बचाने, आरक्षण बढ़ाने, राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना कराने की मांग पर बड़ा राजनीतिक आंदोलन खड़ा करना होगा।
लेकिन चर्चा इन मुद्दों से हटकर लालू की छाया से मुक्त हो जाने, तेजस्वी यादव के मन में भय पैदा होने और कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने पर हो रही है। जाहिर है ऐसा विमर्श खड़ा करने से कांग्रेस तो मजबूत होने से रही। इसके विपरीत महागठबंधन में ‘दरार’ का प्रचार होने लगेगा। हकीकत तो यह है कि कांग्रेस अगर मजबूत होगी, जनता के बीच सक्रिय होगी तो इसका फायदा महागठबंधन को भी होगा। कमजोर सहयोगी किसी भी गठबंधन के लिए लाभदायक नहीं होता है। फिर इससे अंतर नहीं पड़ता है कि गठबंधन कितना पुराना है।
कांग्रेस ने 1998 में राजद के साथ पहली बार गठबंधन के तहत लोकसभा का चुनाव लड़ा था।
2010 में आखिरी बार कांग्रेस अकेले लड़ी थी, इसके बाद सभी चुनावों में वह राजद के साथ लड़ी। 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद को 75 सीटें मिली थी, जबकि कांग्रेस को सिर्फ 19 सीटें हासिल हुई थीं।
याद कीजिए, विधानसभा चुनाव 2020 में सत्ता से चंद कदम दूर रह जाने पर राजद नेता शिवानंद तिवारी ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था कि गठबंधन के लिए कांग्रेस बाधा की तरह रही। चुनाव के वक्त राहुल गांधी पिकनिक मना रहे थे। कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन 70 रैलियां भी नहीं की। तब तिवारी ने कहा था कि क्या कोई पार्टी ऐसे चलाई जाती है? पीएम नरेंद्र मोदी राहुल गांधी से ज्यादा उम्रदराज हैं, लेकिन उन्होंने राहुल से ज्यादा रैलियां कीं। राहुल ने केवल 3 रैलियां क्यों कीं?
पिछले चुनाव में हुई गलतियों को दुरुस्त करने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने बीते साढ़े चार सालों में कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। अब जाकर प्रदेश अध्यक्ष बदला गया है। कन्हैया कुमार को आगे किया गया है। कांग्रेस के नए प्रभारी कृष्णा अल्लावरु भी इसी महीने तैनात किए गए हैं। कृष्णा, राजेश और कन्हैया के सामने चौक-चौराहों, गांव-गिराव में कांग्रेस के पक्ष में बोलने और जनता के मुद्दों पर लड़ने वाले लोगों का समूह तैयार करने की चुनौती है।
जिन्हें भ्रम है कि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़कर बिहार में मजबूत हो जाएगी, उनको इतिहास पलटकर देख लेना चाहिए। लालू यादव 1990 में कांग्रेस को बेदखल करके ही सत्ता में आए थे। उस चुनाव में 1989 के अंत में भागलपुर में हुआ दंगा बड़ा मुद्दा बना था। तब सत्येंद्र नारायण सिंह मुख्यमंत्री थे और कांग्रेस ने उन्हें हटाकर डॉ. जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया था। इसके बावजूद कांग्रेस वह चुनाव हार गई थी। जनता दल को बहुमत मिला और मुख्यमंत्री की कुर्सी लालू यादव को मिली। वह हाशिए के समाज का सत्ता पर दावेदारी और हिस्सेदारी का दौर था। आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों के जबरदस्त उभार के कारण 1995 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन और भी खराब हुआ। 324 सीटों में से उसे महज 29 सीटें मिलीं। जबकि, 167 सीटें जीतने वाली जनता दल की तरफ से लालू फिर से मुख्यमंत्री बने। लेकिन लालू यादव के चारा घोटाले में फंसने के कारण जनता दल उनसे अलग हो गई। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का उदय हुआ। 1998 के लोकसभा चुनाव में कमजोर कांग्रेस ने लालू का हाथ थाम लिया। यह दोनों का पहला गठबंधन था।
लालू ने तब 54 सीटों में से 8 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी थीं। कांग्रेस को चार सीटों पर जीत मिली थी। वहीं 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 13 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से 8 पर राजद से समझौते के तहत और 5 पर ‘फ्रेंडली’ लड़ाई हुई, लेकिन कांग्रेस को जीत मिली सिर्फ 2 सीटों पर।
तब कांग्रेस को लगा कि राजद के साथ उसका गठबंधन फायदे का सौदा नहीं है तो अगले साल यानी 2000 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने अकेले लड़ने का फैसला किया। कांग्रेस ने लालू यादव को भ्रष्ट और घोटाले का आरोपी बताया। जबकि 1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने लालू के साथ मिलकर लड़ा था। वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 23 सीटें मिलीं। लालू की पार्टी भी बहुमत से दूर रह गई। जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हुई। नीतीश कुमार सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने, लेकिन कांग्रेस ने राजद को समर्थन दे दिया और राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बन गईं।
2004 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने राजद के साथ लड़ा। रामविलास पासवान नए साथी बनकर गठबंधन में शामिल हुए। इस चुनाव में कांग्रेस को 4 सीटें मिलीं। केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी और लालू-रामविलास मंत्री बने। फिर फरवरी, 2005 में विधानसभा का चुनाव हुआ। कांग्रेस फिर से राजद से अलग हो गई और लोजपा के साथ मैदान में उतरी। इस बार किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। सत्ता की चाबी रामविलास पासवान के पास रह गई। बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया। इसके बाद अक्टूबर 2005 में बिहार में फिर से विधानसभा चुनाव हुआ। इस बार राजद और कांग्रेस में फिर से मिलन हो गया। इस चुनाव में 9 सीटें कांग्रेस को मिलीं और गठबंधन बहुमत से दूर रह गया। राज्य में एनडीए की सरकार बनी और नीतीश कुमार नए मुख्यमंत्री बने।
उसके बाद लोकसभा के तीन और विधानसभा के भी तीन चुनाव हुए। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राजद और लोजपा ने केवल 4 सीटें दीं। कांग्रेस ने उसे लेने से इनकार कर दिया और अपने दम पर चुनाव लड़ा। हालांकि, इसका फायदा उसे नहीं हुआ और सिर्फ दो सीटें ही जीत सकी।
एक साल बाद 2010 में विधानसभा का चुनाव हुआ। कांग्रेस फिर से अकेले मैदान में उतरी। इस बार उसे सबसे कम यानी सिर्फ 4 सीटें ही हासिल हुईं। कांग्रेस को अब लगने लगा कि राजद के बिना बिहार में उसकी दाल गलने नहीं वाली है। 2014 के लोकसभा में वह फिर से राजद के साथ आ गई। इस बार मोदी की लहर थी। लिहाजा, कांग्रेस और राजद दोनों का प्रदर्शन बहुत खराब रहा। कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। उसे दो सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि 27 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले राजद को चार सीटें मिलीं।
2015 के विधानसभा चुनाव में फिर से कांग्रेस और राजद साथ मिलकर लड़े। इस बार नीतीश कुमार के रूप में इन्हें नया साथी मिला। कांग्रेस के लिए इस चुनाव ने टॉनिक की तरह काम किया। जो पार्टी बिहार में खत्म-सी हो रही थी, उसे थोड़ी जान मिल गई। इस चुनाव में कांग्रेस 41 सीटों पर लड़ी और उसे 27 पर जीत मिली। सीटों की संख्या और स्ट्राइक रेट के हिसाब से 1995 के बाद कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन था। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी राजद और कांग्रेस साथ लड़ी। जहां कांग्रेस को सिर्फ एक सीट तो राजद का खाता तक नहीं खुला।
इन तथ्यों के आइने में देखने से साफ हो जाता है कि कांग्रेस अगर कमजोर है तो उसकी वजह उसका जनता से कट जाना है। केवल अगड़ी जातियों से आये हुए नेताओं पर आश्रित हो जाना है। और केवल चुनाव में अधिक से अधिक सीटें हासिल करने की जुगत में लगे रहना है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in