करीब तीन दशक पहले, जब मैं छोटा बच्चा था, तब मैंने पहली बार ‘रूह अफ़ज़ा’ शरबत का स्वाद चखा था। मुझे यह शरबत तुरंत ही पसंद आ गया था। यह उस समय की बात है जब मेरे मामा के बेटे की शादी हो रही थी। वहीं पहली बार मैंने इसे पिया, और तभी से यह मेरी पसंदीदा चीज़ों में शामिल हो गया। शादी का जश्न हो, इफ्तार की पार्टियां हों या फिर चिलचिलाती गर्मी के दिन, इन तमाम मौकों पर रूह अफ़ज़ा की मीठी, सुगंधित और लाल रंग की ठंडी बोतल ने हर अवसर को खास बना दिया। इसने मेरी स्मृतियों में एक स्थायी जगह बना ली। जब भी इसे पीने का मौका मिला, मैंने कभी मना नहीं किया।
सच कहूं तो, लंबे वक़्त तक मुझे इसके ब्रांड का नाम तक नहीं पता था। और न ही कभी यह सवाल मेरे मन में उठा कि यह पेय किसी मुस्लिम व्यक्ति अथवा संस्थान के स्वामित्व वाली कंपनी का उत्पाद है या नहीं। मैंने कभी यह विचार नहीं किया कि एक गैर-मुस्लिम होने के नाते मुझे अपनी धार्मिक या जातिगत पहचान के आधार पर किसी उत्पाद को प्राथमिकता देनी चाहिए। मेरे लिए यह सिर्फ़ एक स्वादिष्ट पेय था, जो बचपन की भावनाओं और यादों से जुड़ा हुआ था।
हाल ही में सोशल मीडिया पर प्रसारित एक वीडियो में योग गुरु और व्यवसायी बाबा रामदेव उपभोक्ताओं से एक विशेष पेय का बहिष्कार करने की अपील करते हुए सुने गए। उनका दावा है कि इस पेय की बिक्री से होने वाली आय का उपयोग मदरसों और मस्जिदों को वित्तीय सहायता देने के लिए किया जा रहा है। यद्यपि उन्होंने इस उत्पाद का नाम स्पष्ट रूप से नहीं लिया, लेकिन यह बिल्कुल साफ़ है कि उनका इशारा ‘रूह अफ़ज़ा’ की ओर था। उनकी यह अपील हिंदू बहुसंख्यक समुदाय से थी।
याद रखना चाहिए कि रूह अफ़ज़ा भारत में मुस्लिम स्वामित्व वाली कंपनी ‘हमदर्द’ द्वारा निर्मित एक अत्यंत लोकप्रिय पेय है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, रूह अफ़ज़ा का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए में होता है। हर साल इसकी लाखों बोतलें बिकती हैं। यह पेय न केवल भारत और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में अत्यधिक पसंद किया जाता है, बल्कि पश्चिम एशियाई देशों में भी इसकी विशेष मांग है।
हमदर्द कंपनी की यह व्यावसायिक सफलता देश में मुसलमानों की समग्र आर्थिक स्थिति से एकदम विपरीत प्रतीत होती है। आज भी देश के मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा शहरी मज़दूरों के रूप में आजीविका अर्जित करने को मजबूर है। इनमें बड़ी संख्या में दलित और पिछड़ी जातियों के वे लोग हैं जिन्होंने हिंदू धर्म में व्याप्त छूआछूत व भेदभाव की वजह से इस्लाम स्वीकार किया, जिन्हें पसमांदा भी कहा जाता है। उन्हें संस्थागत और सामाजिक भेदभाव की चुनौतियों के बीच सीमित संसाधनों और सीमित अवसरों के साथ जीवन व्यतीत करना पड़ता है।
इसी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बीच रामदेव अब रूह अफ़ज़ा के बाज़ार में हिस्सेदारी को चुनौती देने के लिए अपने उत्पाद को आक्रामक रणनीति के साथ आगे बढ़ा रहे हैं। यदि वे इस प्रतिस्पर्धा में हमदर्द की बाज़ार हिस्सेदारी को कम करने में सफल हो जाते हैं, तो इसका सीधा असर उन मुस्लिम परिवारों की आजीविका पर पड़ेगा जो पहले से ही आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं।
सबसे गंभीर चिंता यह है कि रामदेव गुणवत्ता और मूल्य निर्धारण जैसे व्यावसायिक मानकों के आधार पर प्रतिस्पर्धा करने के बजाय धार्मिक पहचान को बाज़ार रणनीति के केंद्र में रखकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं। यह व्यापार को धर्म और राजनीति से जोड़ने की एक खतरनाक प्रवृत्ति है। न केवल अनैतिक, बल्कि सामाजिक ताने-बाने के लिए भी अत्यंत विघटनकारी।

एक तरह से मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की ज़मीन तैयार करते हुए, रामदेव ने कथित तौर पर एक वीडियो में कहा कि एक कंपनी आपको शरबत देती है, लेकिन उस शरबत से जो पैसा कमाया जाता है, वह मदरसों और मस्जिदों के निर्माण में लगाया जाता है। उन्होंने कहा कि अगर आप वह शरबत पिएंगे, तो मदरसे और मस्जिदें बनेंगी। लेकिन अगर आप यह (पतंजलि का गुलाब शरबत) पिएंगे, तो गुरुकुल और आचार्यकुलम बनेंगे और विकसित होंगे, और पतंजलि विश्वविद्यालय का विस्तार होगा। इस तरह के बयान केवल उपभोक्ताओं की खरीद की प्रवृत्तियों को प्रभावित करने तक सीमित नहीं हैं; ये एक समुदाय के विरुद्ध संगठित आर्थिक बहिष्कार को संस्थागत रूप देने की दिशा में खतरनाक संकेत हैं।
रामदेव पहले से अल्पसंख्यक-विरोधी बयानों और धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति खेलने के लिए कुख्यात हैं। उदाहरण के लिए, 2 फरवरी, 2023 को राजस्थान के बाड़मेर में दिए गए एक भाषण के वीडियो में रामदेव ने दावा किया कि मुसलमान और ईसाई ‘धर्मांतरण’ के प्रति ‘जुनूनी’ होते हैं। वे यहीं तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने आगे कहा कि “हमारे मुस्लिम भाई बहुत सारे पाप करते हैं, लेकिन मैंने देखा है कि वे नियमित रूप से प्रार्थना करते हैं, क्योंकि उन्हें यही सिखाया गया है – बस प्रार्थना करो, जो करना है करो। वे आतंकवादी बन गए और उनमें से बहुत से अपराधी बन गए।” (स्रोत: ‘द वायर’, 12 फरवरी, 2023)
इस तरह की अल्पसंख्यक-विरोधी भावनाओं को हवा देकर रामदेव एक साथ कई उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। वे एक हिंदू धार्मिक गुरु की छवि बनाए रखते हुए सत्ताधारी हिंदुत्ववादी ताक़तों को संतुष्ट करते हैं। बहुसंख्यक समुदाय के बीच एक धार्मिक नेता के रूप में स्वीकृति प्राप्त करके और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयानबाज़ी से भावनात्मक लाभ उठाकर वे अपने ब्रांड की लोकप्रियता और उत्पादों की बिक्री दोनों बढ़ाते हैं।
राजनीतिक नेताओं के साथ अपने संबंधों और सांप्रदायिक संदेशों के सहारे ब्रांड प्रमोशन की रणनीति रामदेव के लिए अत्यंत लाभकारी रही है। इस दोहरे खेल के कारण कई आलोचकों ने उन्हें व्यंग्यात्मक रूप से ‘बाबा रामदेव’ के बजाय ‘लाला रामदेव’ कहना शुरू कर दिया है। जहां ‘बाबा’ शब्द एक आध्यात्मिक गुरु की छवि को दर्शाता है, वहीं ‘लाला’ शब्द विशुद्ध रूप से एक व्यवसायिक पहचान को इंगित करता है।
‘लाला’ शब्द के विभिन्न संदर्भ और अर्थ होते हैं। यह शब्द कभी-कभी सम्मानसूचक या किसी विशेष जाति के सदस्य के लिए, या स्नेहपूर्वक छोटे बच्चों के लिए भी प्रयुक्त होता है। हालांकि, आम बोलचाल की भाषा में इसका प्रयोग प्रायः व्यापारियों, दुकानदारों और व्यावसायिक वर्ग के लोगों के लिए किया जाता है। रामदेव के संदर्भ में भी यह उत्तरार्द्ध अर्थ ही लागू होता है। यानी एक व्यापारी की पहचान को दर्शाने के लिए उन्हें ‘लाला’ कहा जाता है।
रामदेव के आलोचकों का मानना है कि योग गुरु के रूप में उनकी छवि मात्र एक मुखौटा है, जिसके पीछे वे पूरी तरह से व्यावसायिक रणनीतियों पर काम करते हैं। उनके अनुसार, अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए वे धार्मिक ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लेते हैं, जिससे वे नैतिक व्यापारिक सिद्धांतों को दरकिनार करते हैं। मदरसों और मस्जिदों के इर्द-गिर्द फैले इस्लामोफोबिक विमर्श का उपयोग करके रूह अफ़ज़ा शरबत को बदनाम करने की उनकी हालिया कोशिश इसी सांप्रदायिक रणनीति का एक स्पष्ट उदाहरण मानी जा सकती है।
हालांकि वास्तविक चिंता की बात यह है कि रामदेव की रूह अफ़ज़ा-विरोधी टिप्पणी केवल किसी एक व्यक्ति की सनक नहीं, बल्कि एक गहरे और संगठित सांप्रदायिक अभियान का हिस्सा प्रतीत होती है। यह कोई निजी राय नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित रणनीति है, जिसका लक्ष्य अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय की आर्थिक बुनियाद को कमजोर करना है। इस प्रकार की इस्लामोफोबिक टिप्पणियां बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के भीतर मुसलमानों के प्रति भय, अविश्वास और घृणा का माहौल बनाने के लिए की जाती हैं।
लोकप्रिय संस्कृति, सिनेमा, मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया पर सक्रिय ‘ट्रोल आर्मी’ चौबीसों घंटे इस नफरती अभियान को हवा देने और इसे मजबूत करने में जुटी रहती है। इन माध्यमों के ज़रिए एक ऐसा ‘नॅरेटिव’ निर्मित किया जा रहा है, जिसमें समाज की अधिकांश समस्याओं के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। उन्हें राष्ट्र की प्रगति में बाधक बताया जाता है, और मुख्यधारा से काटकर हाशिए पर ढकेल दिया जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें ‘देशद्रोही’ के रूप में चित्रित किया जाता है और भारत के सामाजिक ताने-बाने के लिए ‘ख़तरे’ के रूप में चिह्नित किया जाता है। यह सब एक रणनीतिक प्रक्रिया के तहत किया जा रहा है, जिसका उद्देश्य मुसलमानों को सामाजिक और आर्थिक रूप से अलग-थलग करना है।
इस संदर्भ में यदि हम दलित समुदाय के ऐतिहासिक अनुभवों की तुलना करें, तो स्पष्ट होता है कि कैसे सदियों पुरानी अस्पृश्यता जैसी क्रूर और अमानवीय व्यवस्था ने दलितों को केवल सामाजिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक अवसरों से भी पूरी तरह से वंचित कर दिया। लंबे समय तक उन्हें भूमिहीन श्रमिकों या शहरी श्रमजीवियों के रूप में काम करने को मजबूर किया गया, क्योंकि जाति-आधारित सामाजिक बहिष्कार ने उन्हें व्यापार, व्यवसाय और संपत्ति के अधिकार से दूर रखा। आज मुसलमानों के संदर्भ में जो आर्थिक बहिष्कार का विमर्श आकार ले रहा है, वह उसी तरह की सामाजिक अलगाव की प्रवृत्ति को दोहराने का ख़तरा लिए हुए है।
इसी प्रकार, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति – जिसमें मुसलमानों को अमानवीय, संदेहास्पद और राष्ट्र-विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है – उनके आर्थिक बहिष्कार को और अधिक गहराई देती है तथा ‘आर्थिक भेदभाव’ को संस्थागत स्वरूप प्रदान करती है।
दुखद यह कि जहां एक ओर विश्व के अनेक सफल लोकतंत्र अल्पसंख्यकों और हाशिए पर स्थित समुदायों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं, वहीं भारत जैसे एक बड़े लोकतंत्र में सांप्रदायिक राजनीति इन कमजोर तबकों को और भी अधिक आर्थिक एवं सामाजिक रूप से हाशिए पर धकेल रही है।
डॉ. आंबेडकर बार-बार यह बात दोहराते रहे कि कोई भी लोकतंत्र तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक वह अपने अल्पसंख्यकों के अधिकारों, सम्मान और गरिमा की रक्षा नहीं करता। उसी प्रकार, कोई भी समाज सच्ची प्रगति और समृद्धि तक नहीं पहुंच सकता, जहां अल्पसंख्यक समुदाय निरंतर उपेक्षा और सामाजिक अलगाव का शिकार बना रहे।
भारत की वर्तमान राजनीति की सबसे चिंताजनक बात यह है कि वे शासक, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली है, वही लोग अब मुसलमानों को अलग-थलग करने और उन्हें आर्थिक अवसरों से वंचित करने वाली सांप्रदायिक नीतियों को सक्रिय रूप से समर्थन दे रहे हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)