तमिलनाडु प्रांत नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 का विरोध कर रहा है, क्योंकि यह नीति राज्य के समावेशी शैक्षणिक ढांचे को कमज़ोर करती है और प्रदेश पर हिंदी और संस्कृत थोपती है। एनईपी को लागू करने के लिए प्रदेश सरकार पर दबाव बनाने के लिए केंद्र ने राज्य को विभिन्न शैक्षणिक कार्यक्रम चलाने हेतु दी जाने वाली 2,152 करोड़ की धनराशि का भुगतान रोक दिया है। क्या इससे बड़ी विडंबना कुछ और हो सकती है? तमिलनाडु की वर्तमान डीएमके सरकार विद्यार्थियों की भलाई के लिए कई कार्यक्रम चलाने के लिए जानी जाती है। वहां स्कूलों में विद्यार्थियों को नाश्ता मिलता है और ‘मूवालुर आमैयर निनैवु पण थित्तम’ योजना के अंतर्गत स्नातक कक्षाओं में पढ़ने वाली लड़कियों को प्रति माह 1000 रुपए का वज़ीफ़ा दिया जाता है। इसके अलावा, राज्य में विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आर्थिक मदद मुहैया करवाने के लिए कई योजनाएं चल रही हैं। राज्य के विद्यार्थी विदेश में पढ़ सकें, इसके लिए शुरू की गई डॉ. बी.आर. आंबेडकर हायर एजुकेशन स्कॉलरशिप को काफी सफलता मिली है। आने वाले शैक्षणिक सत्र में इस योजना के लिए 60 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं।
देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में तमिलनाडु का हिस्सा नौ फीसदी है। सन् 2024 में अकेले जीएसटी की मद में केंद्र को राज्य से 1 लाख 12 हजार 456 करोड़ रुपए मिले। जाहिर है कि इस धनराशि से केंद्र सरकार को काफी मदद मिलती होगी। मगर फिर भी केंद्र वह रकम राज्य को नहीं दे रहा है, जो कि उसका हक़ है। हमारे संविधान में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि राज्य सरकारों को शिक्षा से संबंधित सभी केंद्रीय नीतियों का पालन करना ही होगा। शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है और उसके विषय में संसद और विधानसभाएं दोनों कानून बना सकती हैं। अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए तमिलनाडु विधानसभा ने सी.एन. अन्नादुरै के मुख्यमंत्रित्व काल में 1968 में एक प्रस्ताव पारित कर यह तय किया था कि राज्य में द्विभाषा नीति लागू होगी और वहां के स्कूलों में तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाएगी। इसके बाद भी केंद्र सरकार जबरन तमिलनाडु पर त्रिभाषा नीति लादने की कोशिश कर रही है। इसका कारण साफ़ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा समर्थित भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार एनईपी के बहाने अपनी सोच तमिलनाडु के लोगों पर थोपना चाह रही है।
हाल ही में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तमिलनाडु सरकार पर कई लांछन लगाए और धनराशि के भुगतान को रोकने के कदम को उचित साबित करने की कोशिश की। उन्होंने कहा, “वे [तमिलनाडु सरकार] लोग केवल सियासत कर रहे हैं। वे तमिलनाडु का भला नहीं चाहते….वे गलत कर रहे हैं….मगर उन्हें भारत के संविधान को स्वीकार करना ही होगा। क्या वे सोच रहे हैं कि वे संविधान से ऊपर हैं? उन्हें नई शिक्षा नीति को मंज़ूर करना ही होगा, उन्हें लागू करना ही होगा। देश के सभी हिस्सों ने इस नीति को मंज़ूर कर लिया है। फिर वे क्यों नहीं करेंगे?”
प्रधान की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया देते हुए तमिलनाडु के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री पलानिवेल थिआगा ने कहा, “एनईपी 2020 संसद द्वारा अनुमोदित नीति नहीं है, जिसका पालन राज्यों द्वारा किया जाना अनिवार्य हो। और ना ही विनियोग विधेयक में ऐसा कोई प्रावधान है कि राज्यों को धनराशि तब तक जारी नहीं की जाएगी जब तक वे इस नीति को लागू न कर दें। इसलिए केंद्र का यह फैसला संविधान के खिलाफ है और संसद द्वारा अनुमोदित और आवंटित धनराशि के वितरण संबंधी नियमों का उल्लंघन है। एनईपी 2020 की प्रकृति केवल परामर्शदात्री है। वर्ष 1968 और वर्ष 1986 (जिसमें 1992 में संशोधन किये गए थे) की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों को संसद द्वारा अनुमोदित किया गया था। मगर उन्हें भी लागू करने के लिए कोई हुक्म जारी नहीं किया गया था, कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की गयी थी, कोई धमकी नहीं दी गयी थी।”
और ऐसा भी नहीं है कि तमिलनाडु की स्वायत्तता पर यह एकमात्र हमला है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) विनियम 2025 के मसविदे में राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव प्रस्तावित हैं। इनके अनुसार, कुलपति के चयन के लिए जो तीन-सदस्यीय समिति बनेगी उसके एक सदस्य का नामांकन यूजीसी और एक का विश्वविद्यालय के कुलाधिपति (अर्थात केंद्र द्वारा नियुक्त राज्य के राज्यपाल) करेंगे। तीसरा सदस्य विश्वविद्यालय के शीर्ष शासी निकाय जैसे सीनेट या सिंडिकेट द्वारा नामांकित किया जाएगा। इस तरह समिति में केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों का बहुमत होगा।
इसके पहले, तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने ऐसे कुछ विधेयकों को स्वीकृति नहीं दी थी, जिनका उद्देश्य राज्यपाल को विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों में अड़ंगा लगाने से रोकना था। राज्यपाल को आरएसएस का प्रतिनिधि माना जाता है और ऐसा लगता है कि वे द्रविड़ शिक्षा प्रणाली को कमज़ोर करना चाहते हैं। राज्यपाल ने प्रदेश के सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय अन्ना यूनिवर्सिटी सहित अनेक विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के नियुक्तियों में अकारण देरी की। राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में जब भी उन्हें दीक्षांत समारोहों की अध्यक्षता करने के लिए बुलाया जाता था तो वे या तो आनाकानी करते थे या फिर उस मौके का इस्तेमाल आरएसएस-भाजपा के एजेंडा के प्रचार के लिए करते थे। सेलम स्थित पेरियार विश्वविद्यालय के कुलपति पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। मगर राज्यपाल ने उन्हें एक साल का सेवा विस्तार दे दिया।
मगर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु राज्य बनाम राज्यपाल तमिलनाडु मामले में अपने फैसले में कुलपतियों की नियुक्ति और उन्हें हटाने के अधिकार से राज्यपाल को लगभग वंचित कर दिया है। यह मामला राज्यपाल द्वारा विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी को लेकर राज्य सरकार द्वारा दायर किया गया था।
संस्कृत और हिंदी अनिवार्य
एनईपी 2020 के अंतर्गत स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूला लागू किया जाना है। राज्य की भाषा और अंग्रेजी अनिवार्य हैं। तीसरी भाषा में नाम भर के लिए विकल्प हैं, मगर असल में विद्यार्थियों को संस्कृत या हिंदी में एक को चुनना पड़ता है। संस्कृत को कई लोग एक मृत भाषा मानते हैं और ऐसे में उसे बढ़ावा देने पर प्रश्नचिह्न लगाए जा सकते हैं। केंद्र सरकार की अधिकांश योजनाओं और कार्यक्रमों को संस्कृत या हिंदी नाम दिए गए हैं और क्षेत्रीय भाषाओं की कीमत पर इन दोनों भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए भारी धनराशि आवंटित की जा रही है।
यह त्रिभाषा नीति बच्चों पर अतिरिक्त बोझ डालती है और उनकी पढ़ाई को प्रभावित करेगी। इसके अलावा, इस नीति के प्रवेश परीक्षाओं के लिए भी निहितार्थ हैं। प्रवेश परीक्षाओं में उम्मीदवारों से अपेक्षा की जाती है कि वे इन भाषाओं में प्रवीण हों। इससे सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहली पीढ़ी के विद्यार्थी दौड़ से बाहर हो जाते हैं।
प्रवेश परीक्षाओं के मामले में दादागिरी
जहां प्रवेश परीक्षाओं को पिछड़े वर्गों की पहली पीढ़ी के विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा तक पहुंच की राह में बाधा माना जाता है, वहीं एनईपी 2020 सभी उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए परीक्षाओं को अनिवार्य बनाने की बात करती है। सन् 2006 से लेकर 2011 तक के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एम. करुणानिधि ने राज्य में सभी तरह की प्रवेश परीक्षाएं रद्द कर दी थीं, जिससे पहली पीढ़ी के स्नातकों का उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश आसान हुआ और राज्य का सकल नामांकन अनुपात, राष्ट्रीय औसत का दोगुना हो गया।

केंद्र सरकार ने पहले ही नीट जैसी प्रवेश परीक्षाएं देश पर लाद दी हैं, जिससे दक्षिणी राज्यों की समावेशी शिक्षा प्रणालियां और शैक्षणिक ढांचे कमज़ोर हुए हैं। इसके अलावा, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कला व विज्ञान पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए सीयुईटी-यूजी एवं सीयुईटी-पीजी प्रवेश परीक्षाएं शुरू कर दी गईं हैं। पीएचडी पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए पहले से ही राष्ट्रीय स्तर की यूजीसी-नेट परीक्षा अनिवार्य है। प्रवेश परीक्षाओं को विद्यार्थियों पर लादने के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इससे योग्य विद्यार्थियों को प्रवेश मिलेगा और शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी। दूसरे शब्दों में यह मान कर चला जा रहा है कि आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों को प्रवेश देने से गुणवत्ता कम होगी। सच तो यह है कि उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में यदि किसी चीज़ की कमी है तो वह है समावेशिता की। आईआईटी, एनआईटी और एनएलयू आदि जैसे प्रतिष्ठित संस्थान प्रवेश और नियुक्तियों दोनों के मामले में आरक्षण की अनिवार्यता का पालन भी नहीं करते हैं।
स्कूलों की बोर्ड परीक्षाओं में विद्यार्थियों के प्रदर्शन का कोई महत्व ही नहीं बचा है, क्योंकि दाखिला केवल प्रवेश परीक्षाओं से होते हैं। ऐसे में 12 वर्ष की स्कूली शिक्षा का कोई महत्व ही नहीं बचता।
कोचिंग उद्योग दिन दूनी-रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है, स्कूल अभिवावकों को लूट रहे हैं और एनटीए (राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी) जैसी अकारथ संस्थाओं के चलते पेपर लीक हो रहे हैं, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और विद्यार्थी ख़ुदकुशी कर रहे हैं। वहीं तमिलनाडु का डॉक्टर-मरीज़ अनुपात राष्ट्रीय औसत का सात गुना है। और यह बिना किसी केंद्रीय प्रवेश परीक्षा के हासिल किया गया है। जहां तक डॉक्टरों की गुणवत्ता का सवाल है, 2020 की कोविड महामारी के दौरान वह सबके सामने थी।
कुल मिलाकर, आरएसएस-समर्थित सरकार ऐसी प्रतिगामी नीतियां लागू करने पर आमादा है जो तमिलनाडु में द्रविड़ शासन द्वारा स्थापित समावेशी ढांचे के लिए खतरा हैं।
वेद, अगम, पुराण – भारतीय ज्ञान प्रणाली
आरएसएस सरकार बिना किसी संकोच के पाठ्यक्रमों में ऐसी कृतियां शामिल कर रही है, जो जातिगत असमानता की पैरोकार हैं। उदाहरण के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय ने एलएलबी के भारतीय विधिशास्त्र विषय के पाठ्यक्रम में मनुस्मृति, वेद, अगम और पुराणों को शामिल किया है। और यह विषय सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है। इसके अलावा, विश्वविद्यालय ने ‘हिंदू अध्ययन’ में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू किया है।
हाल में आईआईटी मद्रास के निदेशक ने गौमूत्र के औषधीय गुणों की समीक्षा की और यह दावा किया कि वह स्वास्थ्यवर्द्धक है। इसी तरह सभी आईआईटी में एक नया शैक्षणिक कार्यक्रम शुरू किया गया है जिसका नाम है– भारतीय ज्ञान प्रणालियां – और इसके अंतर्गत शोध अध्ययनों व सेमिनारों, सम्मेलनों आदि के आयोजन और अन्य गतिविधियों के लिए बड़ी धनराशी आवंटित की गई हैं। और यह भारतीय ज्ञान प्रणाली है क्या? इसके अंतर्गत केवल धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया जाता है और यह साबित करने का प्रयास किया जाता है कि सभी आधुनिक वैज्ञानिक खोजों की जड़ें इन्हीं ग्रंथों में हैं।
जबरदस्ती का प्रतिकार
आर्य और द्रविड़ पहचानों के बीच हजारों सालों से युद्ध जारी है। इस युद्ध में आर्यों ने अक्सर हिंसा का सहारा लिया और शातिराना चालें चलीं। द्रविड़ों ने मजबूती से आर्यों का प्रतिकार किया। तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन आर्य तंत्र को शैक्षणिक संस्थाओं पर थोपने के सतत प्रतिरोध करता आया है।
ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ लंबे आंदोलन की शुरुआत 1938 में हुई थी जब सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) नामक एक ब्राह्मण तत्कालीन मद्रास प्रांत के प्रशासक थे। उनकी सरकार ने प्रदेश पर हिंदी लादने की कोशिश की, जिसके खिलाफ पेरियार और द्रविड़ आंदोलन ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन आयोजित किये। सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त करने के लिए औरतों और बच्चों समेत हजारों लोगों की गिरफ़्तारी के बाद ब्राह्मणवादी सरकार ने अपना आदेश वापस ले लिया। इसी तरह का कड़ा प्रतिरोध 1953 में भी हुआ जब राजाजी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक नई शैक्षणिक योजना शुरू की जिसका नाम था ‘कुल कलवी थित्त्तम’। इस योजना का उद्देश्य जाति-निर्धारित पेशों को बढ़ावा देना और जातिगत पदक्रम को संस्थागत स्वरूप देना था। पेरियार और डीएमके के कार्यकर्ताओं द्वारा इसके जबरदस्त विरोध के चलते राजाजी को इस्तीफा देना पड़ा। यह राज्य में कांग्रेस के लिए एक बड़ा धक्का था। इन्हीं आंदोलनों ने तमिलनाडु की मज़बूत शिक्षा प्रणाली की नींव रखी।
द्रविदर कड़गम जैसे सामाजिक आंदोलनों के साथ मिलकर द्रविड़ सरकारों ने एक नई भाषा नीति पर अमल किया और धार्मिक मुद्दों की बजाय समाज कल्याण को प्राथमिकता दी। इससे राज्य विभिन्न मानव विकास सूचकांकों पर तेजी से आगे बढ़ा और कुछ के मामले में तो वह पश्चिमी देशों के समकक्ष पहुंच गया है।
आर्य-द्रविड़ संघर्ष आज भी जारी है। केंद्र सरकार की शैक्षणिक नीतियां इसका उदाहरण हैं। नई शिक्षा नीति इस संघर्ष का एक हथियार है और इस संघर्ष का उद्देश्य है तमिलनाडु में द्रविड़ मॉडल द्वारा शिक्षा और सामाजिक क्षेत्रों में काफी जद्दोजहद से हासिल की गई उपलब्धियों को विफल करना।
तमिलनाडु देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसकी सत्ताधारी पार्टी की जड़ें जाति-विरोधी आंदोलन में हैं। इस आंदोलन के सामाजिक न्याय पर जोर से सरकारी नीतियां काफी हद तक प्रभावित हुईं हैं, जिनमें कम्युनल गवर्नमेंट आर्डर 1921 से लेकर वर्तमान में 69 प्रतिशत आरक्षण तक शामिल हैं। राज्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्गों और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए समावेशी शिक्षा उपलब्ध करवाने के प्रति प्रतिबद्ध है। बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने तमिलनाडु की तर्ज पर आम लोगों के भले के लिए समाज कल्याण नीतियां अपनाई हैं।
केंद्रीय शिक्षा नीति की असफलता
तमिलनाडु की शिक्षा प्रणाली सफलता की चमकदार कहानी है। द्रविड़ सरकार ने एक सुविचारित शैक्षणिक ढांचा खड़ा किया है जिसने राज्य को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया है। उच्च शिक्षा में तमिलनाडु का सकल नामांकन अनुपात 49.1 प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत 28.6 प्रतिशत से काफी अधिक है। भाषा नीति का प्रभावी कार्यान्वयन इस उपलब्धि का एक बड़ा आधार है। द्रविड़ आंदोलन के चलते, तमिलनाडु की लोकशिक्षण प्रणाली का स्तर इतना ऊंचा हो गया है कि उसकी तुलना पश्चिमी देशों से की जा सकती है। यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि राज्य ने इन सभी सफलताओं शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल रहने के बावजूद हासिल किया।
मातृभाषा या अंग्रेजी
जब भी तमिलनाडु पर भाषाएं लादने का मुद्दा उठाया जाता है तब एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है। वह यह कि जब तमिलनाडु के लोग हमारे औपनिवेशिक शासकों की भाषा अंग्रेजी सीखने को इतने आतुर हैं तो आखिर उन्हें हिंदी सीखने में क्या समस्या है, जो देश में सबसे ज्यादा लोगों की भाषा है। पेरियार ईवीआर अंग्रेजी सीखने के पैरोकार थे। वे कहते थे कि अंग्रेजी की पूरे दुनिया को एक करने में अनूठी भूमिका है। वह दुनिया में संवाद की भाषा है। उन्होंने तमिल को एक आदिम भाषा बताते हुए उसकी आलोचना भी की थी। उनका कहना था कि तमिल प्रगति की राह में बाधक है और अगर ज़रूरी हो तो उसे त्याग दिया जाना चाहिए। इस तरह, सांस्कृतिक पिछड़ेपन से मुकाबला करने के प्रति द्रविड़ नेताओं की इतनी ज़बरदस्त प्रतिबद्धता थी कि उसके लिए वे ज़रूरी होने पर अपनी भाषा की भूमिका की पड़ताल करने के लिए भी तैयार थे। हिंदी को थोपने के प्रति उनके विरोध को केवल उनकी भाषा को संरक्षित रखने के संकीर्ण प्रयास के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए।
अगर कल को तमिल को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है तो इसके खिलाफ आवाज़ भी सबसे पहले तमिलनाडु से ही उठेगी। यह इसलिए क्योंकि द्रविड़ नेताओं की यह स्पष्ट मान्यता है कि दो अलग-अलग मातृभाषाओं वाले लोगों की बीच कभी बराबरी की प्रतियोगिता नहीं हो सकती।
जैसा कि पेरियार ने स्वयं कहा था, “मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि तमिल अन्य देशज भाषाओं और हिंदी से बेहतर और अधिक उपयोगी है मगर मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर हमें तेजी से प्रगति करनी है तो अंग्रेजी ही राजनीति और शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए, अंग्रेजी को तमिल लिपि में लिखा जाना चाहिए और यह भी बेहतर होगा कि अंग्रेजी हमारी आम बोलचाल की भाषा बने। और आज भी प्रोफेसर कांचा आइलैय्या शेपर्ड मानते है कि अगर शूद्रों को शिक्षित द्विजों से मुकाबला करना है तो उन्हें अंग्रेजी सीखनी होगी।
अतः बेहतर होगा कि हर राज्य को अपनी शैक्षणिक नीतियों के मामले में स्वायत्तता दी जाए और यह तभी संभव हो सकता है जब शिक्षा को समवर्ती सूची से हटाकर पूर्व की तरह (1976 के पूर्व) राज्य सूची में वापस रखा जाए। शिक्षा को अधिक वैज्ञानिक और तार्किक बनाया जाना चाहिए। जातिगत ऊंच-नीच के पैरोकार ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म को बढ़ावा देने का अर्थ होगा शिक्षा के विकास में रोड़े अटकाना। देश ने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पा ली है मगर जाति अब भी जीवित है। इसलिए आज जरूरत शिक्षा को औपनिवेशिक नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी मानसकिता से मुक्त करने की है। प्रवेश परीक्षाओं को समाप्त कर और शिक्षण संस्थाओं में अनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर ही हम शिक्षा का लोकतांत्रिकरण कर सकेंगे।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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