अभी हाल ही में बिहार की जदयू-भाजपा सरकार ने गया जिले का नामकरण ‘गया जी’ कर दिया। यह भाजपा शासित राज्यों में जगहों के नाम बदले जाने की कवायद के माफिक है। प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक व बहुजन चिंतक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इस संबंध में फारवर्ड प्रेस से बातचीत की। पढ़ें, यह साक्षात्कार
एक तरफ बोधगया में बौद्ध धर्मावलंबी महाबोधि मंदिर परिसर को हिंदुओं से मुक्त कराने का आंदोलन कर रहे हैं और दूसरी तरफ राज्य सरकार ने गया जिले का नाम ‘गया जी’ करने का फैसला लिया है? इस बारे में आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया है?
देखिए, गया शहर को ‘गया जी’ कहने की परंपरा काफी समय से है। ‘गया महात्म्य’ नामक पुस्तक भी लिखी गई है, जिसमें गया जी को एक हिंदू तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया है। और हिंदू लोग प्रेमवश गया को ‘गया जी’ कहते हैं। हालांकि इस परंपरा को बहुत पहले नहीं ले जाया जा सकता है। लेकिन वर्तमान में गया को ‘गया जी’ कहने की परंपरा है। सिर्फ गया को ही नहीं, अन्य तीर्थ स्थलों को भी – जैसे काशी जी, प्रयाग जी – कहने की परंपरा रही है। लोक परंपरा में इन तीर्थ स्थलों के नाम पर अपने बच्चों का नाम रखने की भी परंपरा रही है। यह सब श्रद्धावश होता है। जैसे कि प्रयाग सिंह, काशी सिंह, गया राय आदि ऐसे नाम रखे जाते हैं। लेकिन जो हमलोगों के पास अभिलेखीय प्रमाण हैं, उनमें गया शहर की चर्चा नहीं मिलती है। जैसे मौर्यकाल में गया शहर का कोई जिक्र नहीं है। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक वहां गए थे। वहां गए थे तो जिस स्थान पर तथागत बुद्ध को ज्ञान मिला था, उसका उन्होंने नाम लिखवाया है। संभवतः वह आठवां शिलालेख है। उसमें उन्होंने नाम लिखवाया है– संबोधि। चूंकि पहले वहां शहर नहीं था, जिस समय तथागत बुद्ध वहां गए थे। उस समय वह गांव था। इसका वर्णन पालि साहित्य में उरुवेला के नाम से उल्लेखित है। और आज भी लोग बताते हैं कि उरैला नामक गांव वहां है, महाबोधि मंदिर के पास। इस तरह उरुवेला के अस्तित्व का पता चलता है। संबोधि के अस्तित्व का पता चलता है। लेकिन गया शहर का जिक्र मौर्यकाल में हमलोगों को किसी अभिलेख में या पुरातात्विक साक्ष्य के रूप में नहीं मिलता है। न केवल मौर्यकाल में, बल्कि गुप्तकाल में भी गया का जिक्र पुरातात्विक सबूतों में नहीं मिलता है। यदि मिलता भी है तो साहित्यिक साक्ष्य के रूप में। और जो साहित्यिक साक्ष्य होता है, वह बहुत तरल होता है। तरल मतलब कि उसमें जोड़-घटाव करने की संभावना होती है। समय को आगे पीछे करने की संभावना होती है। जैसे किसी ऐतिहासिक पुस्तक को कोई पांच सौ साल पुराना बताता है और कोई दो सौ साल पुराना बताता है। यहां तरलता होती है।
साहित्यिक दस्तावेजों का मतलब मिथकीय साहित्य है, धार्मिक साहित्य है?
हां, उसमें मिथक ज्यादा होते हैं। तुलसीदास की एक कृति है– ‘दोहावली’। एक दोहा में तुलसीदास ने यह कहा है कि गया जी जैसे तीर्थ स्थल, मगध जैसे क्षेत्र में भी है। दोहा है–
“बसि कुसंग चह सुजनता ताकी आस निरास।
तीरथहू को नाम भो गया मगह के पास।।”
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘दोहावली’ में गया का अर्थ गया-बीता बताया गया है। गया का मतलब गया-गुजरा के अर्थ में है। मगध क्षेत्र बदनाम रहा। अथर्ववेद वगैरह में भी यह कहा गया है कि यह सारी बीमारियों का क्षेत्र है।
इसे तो कीकट प्रदेश भी कहा गया?
कीकट प्रदेश भी मगध का नाम था। और वेदों में जो कीकट के संदर्भ आए हैं, उसकी व्याख्या इतिहासकारों ने मगध के रूप में ही की है। लेकिन मगध प्रायः संस्कृत साहित्य में भी बहुप्रशंसित नहीं रहा। उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर कर्मनाशा नदी है, उसे पार कर पूरब की तरफ जाना लगभग प्रतिबंधित था। उधर जाने से मनुष्य को पाप लगेगा, गंगा नहाना पड़ेगा। ऐसी तमाम बातें लिखी गई हैं। और बाद के साहित्य में गयासुर की परिकल्पना की गई है। इसमें बेनीमाधब बरुआ की एक किताब है– ‘गया और बुद्ध गया’ (पहला भाग 1931 व दूसरा भाग 1934)। इस दृष्टिकोण से यह बहुत महत्वपूर्ण किताब है। इसके मुताबिक, गयासुर महज एक परिकल्पना है। इसका कहीं उल्लेख नहीं है कि यह भारतीय इतिहास में कब आई। बेनीमाधब बरुआ का मानना है कि बल्लभाचार्य के समय में बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में गयासुर की परिकल्पना आई। आप देखिए कि गयासुर एक असुर था। वह तो राक्षस था। बाद में उसका विचार परिवर्तित किया गया। मतलब कि उसे यज्ञ की तरफ मोड़ा गया। तो बहुत सारे लोगों का यह भी ओपिनियन है कि गयासुर वस्तुतः दलित है। लेकिन संस्कृत साहित्य के हिसाब से गया असुर थे। गया असुर के नाम पर नाम गया रखा गया। इसमें भी अगर बिहार सरकार ‘जी’ शब्द लगाती है तो यह अच्छी बात है। तो यह कहना चाहिए कि एक परंपरा चल पड़ी है।

क्या राज्य सरकार का यह फैसला राजनीति से प्रेरित है? सियासी गलियारे में कहा जा रहा है कि ऐसा राज्य सरकार ने आरएसएस के दबाव में किया है।
संभावना हो सकती है। अब तो मैं कह रहा हूं कि गया को अगर आप ‘गया जी’ बनाते हैं तो बोधगया का भी नाम या तो सम्राट अशोक के शिलालेख पर जो साक्ष्य है, उसके आधार पर संबोधि रखिए या इसका पुराना नाम उरुवेला। लेकिन वहां पर तो कोई बदलाव नहीं किया गया। जबकि गया शहर का जो पुराना इतिहास है और जिसके सबूत मिलते हैं, वह तो महाबोधि मंदिर से ही मिलता है। इसका नाम बदलने में राजनीति हो सकती है। इसे नकारा नहीं जा सकता है।
मुझे स्मरण है कि आपने एक बार कहा था कि बोधगया का नामकरण गलत है। यहां बुद्ध को ज्ञान मिला था, बोध की प्राप्ति हुई थी। लेकिन इसे बोधगया कहकर विद्रूपित कर दिया गया। कृपया इस बारे में विस्तार से बताएं।
हां, यह मैंने कहा है। अभी आपको दोहावली का जो संदर्भ दिया, उसी संदर्भ के हवाले से कह रहा हूं कि गया का मतलब गया-बीता या गया-गुजरा बताया गया है। यह तुलसीदास के शब्दों में है। वहां तो ‘गया’ क्रिया है। गयासुर का संदर्भ तो तुलसीदास अपनी दोहावली में नहीं दे रहे हैं। तो बोधगया का मतलब जब ‘गया’ क्रिया है तो बोध जाने की ही न बात हुई। बोध आने की तो बात नहीं हुई। इसी आधार पर मैंने कहा था बोधगया का मतलब जहां, बोध चला जाए। इसमें बोध आया कहां?
महाबोधि मंदिर परिसर के अलावा गया में विष्णुपद मंदिर है। कहा जाता है कि यह भी एक बुद्धकालीन मंदिर है। इसके बारे में कृपया बताएं?
हमलोग जब बौद्ध इतिहास का मुआयना करते हैं तो पाते यह हैं कि जिस समय में बुद्ध की मूर्ति की पूजा नहीं होती थी, उस समय प्रतीक के रूप में तथागत बुद्ध के चरण चिह्न, खाली सिंहासन या स्तूप आदि की पूजा की जाती थी। इस तरह से श्रद्धा भाव संप्रेषित किया जाता था। बुद्ध के चरण चिह्न के पूजे जाने के जो पुरातात्विक सबूत मिलते हैं उस तरह के सबूत हिंदू देवी-देवताओं के नहीं मिलते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है। विष्णुपद मंदिर में जो चरण चिह्न है, वह विष्णु का है या बुद्ध का, यह मैं नहीं कह सकता, क्योंकि यह जांच का विषय है। लेकिन तथागत बुद्ध के पद चिह्न को पूजे जाने की परंपरा बहुत पुरानी है। ये सांची (मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में) और भरहुत (मध्य प्रदेश के सतना जिले में) के स्तूपों में बहुत सारे ऐसे सिंहासन बने हुए हैं। उनमें तथागत बुद्ध के चरण चिह्नों को पूजते हुए दिखाया गया है। यह श्रीलंका में भी है और तमाम अन्य बौद्ध धर्मावलंबी देशों में भी है।
गया जिला, जो कि बुद्ध की ज्ञानस्थली रही, वहां हिंदू कर्मकांड को स्थापित करने के लिए पितृदान स्थल बना दिया गया। इसके पीछे क्या इतिहास है?
देखिए, जैसे बोध गया में तथागत बुद्ध को ज्ञान मिला तो वहां से लगभग पंद्रह-बीस किलोमीटर की दूरी पर गया एक हिंदू तीर्थ स्थल भी बसा है। जैसे सारनाथ में आप देखिएगा कि सारनाथ में जहां बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया था। सारनाथ से ठीक उतनी ही दूरी पर काशी नगरी बसी हुई है। यह भी हिंदुओं का तीर्थ स्थल है। तो अब यह भी एक जांच का विषय है कि यह कब की घटना है। तथागत बुद्ध के समय की है या बाद की। इतना तो तय है कि सम्राट अशोक या उनके पुरखों ने जो सड़क बनाई, अंग्रेजी काल में उसे ग्रैंड ट्रंक रोड कहा गया, और अफगान बादशाह शेरशाह सूरी ने जिस सड़क की मरम्मत कराई थी, वह सड़क बोधगया से सारनाथ होते हुए, इलाहाबाद के रास्ते दिल्ली होते हुए आगे काबुल तक जाती है। इस प्रकार से यह सड़क बौद्धकाल की है जो सात बौद्ध स्थलों को जोड़ती है।
गया जिले को ‘गया जी’ कहे जाने से बौद्ध धर्म से इसके अंतर्संबंध पर क्या असर पड़ेगा?
मेरे कहने का मतलब यह है कि वहीं पर तथागत बुद्ध का ज्ञान स्थल है। गया में जो पर्यटक आते हैं और उन पर्यटकों से सरकार को विदेशी मुद्रा सबसे ज्यादा प्राप्त होती है और वहां आप एयरपोर्ट पर जाइएगा तो एयरपोर्ट की जो जहाजें परिचालित होती हैं, बौद्धों के कारण परिचालित होती हैं। किन्हीं और दूसरे कारणों से नहीं। मैं ताे जब उस एयरपोर्ट पर गया तो वहां थाईलैंड की दो-तीन जहाजें लगी थीं। थाईलैंड से लोग आ-जा रहे थे। गया को लेकर जो दुनिया में आकर्षण है, वह तथागत बुद्ध के कारण है। इसके कारण वहां विदेश के लोग आते हैं। यूनेस्को ने भी जो गया को महत्व दिया है, वह बोधगया के कारण ही दिया। तो सरकार को ज्यादा से ज्यादा फोकस बोधगया पर देनी चाहिए। अभी जो गया को ‘गया जी’ किया गया, पक्षपात पूर्ण लग रहा है।
एक सवाल महाबोधि मंदिर आंदोलन से जुड़ा है। यह आंदोलन अभी तक प्रभावी रूप धारण नहीं कर सका है। आपके हिसाब से इसमें कहां कमियां रह जा रही हैं और क्या कुछ किया जाना चाहिए?
यह तो सरकार की नाकामी है। आज (17 मई, 2025 को) सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के बैंगलोर स्थित एक मंदिर को लेकर निर्णय दिया है कि यह किस कौम को मिलना चाहिए। कोर्ट ने मंदिर का मालिकाना हक इस्कॉन को दे दिया है। इस तरह आप देखिए कि तमाम सारे फैसले आ रहे हैं। महाबोधि मंदिर के प्रबंधन के लिए जो कमिटी है, उसमें भी सभी बौद्ध होने चाहिए। इस पर सरकार की जो पॉलिसी है, वह बिल्कुल क्लीयर होनी चाहिए। बौद्धों की यह जो मांग है, बिल्कुल जायज मांग है। हर धर्म से संबंधित स्थलों को हम देखते हैं। जैसे काशी विश्वनाथ से लेकर जितने भी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या अभी सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, सब का मतलब एक ही है कि प्रबंधन में उसी धर्म के लोग हों। महाबोधि मंदिर को लेकर भी बौद्ध लोग आंदोलन कर रहे हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि बोधगया मंदिर को बौद्धों को सौंप दे।
सवाल तो यही है कि आखिर इस आंदोलन में कमी कहां रह जा रही है?
इसमें कमी सत्ता की है। इसलिए कि बौद्ध लोग तो मांग कर रहे हैं। और वे मांग ही कर सकते हैं। बदल तो नहीं सकते हैं। और न ही वे पार्लियामेंट में कानून बना सकते हैं। कानून सरकार को बनाना है, जो वह बना नहीं रही है। हिंसा करना या हिंसक आंदोलन करना यह तो बौद्धों के विचारों के खिलाफ है। बौद्ध अगर कह रहे हैं तो उनकी बात को उसी संवेदनशीलता के साथ सरकार को सुननी चाहिए। आंदोलन का मतलब तोड़-फोड़ थोड़े होता है कि आदमी तोड़-फोड़ करेगा तभी सरकार जागेगी। हम तो अभी गए थे वहां बौद्ध मंदिर में। साथ में कुछ विद्यार्थी लोग गए थे। वहां विद्यार्थियों में जब फुसफुसाहट हुई तो एक बौद्ध भिक्षु ने कहा कि यहां पर शांति बनाए रखिए। देखिए, बौद्ध धर्मावलंबी शांति में विश्वास करता है। उस मंदिर में आप जाइएगा तो बहुत अशांति महसूस नहीं होगी। वहां लाउडस्पीकर आदि चीजें नहीं हैं। दूसरी जगहों पर जाइएगा तो इतना कोलाहल होता है कि लगता है दिमाग पागल हो जाएगा, काम नहीं करेगा। अगर बौद्ध धर्मावलंबी शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांग रख रहे हैं तो सरकार को संवेदनशील होकर उनकी बातों को सुननी चाहिए। और उनकी जायज मांगों को मान लेनी चाहिए।
(संपादन : समीक्षा साहनी/राजन/अनिल)
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