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बिहार के गांवों में पति का प्रभुत्‍व और जाति की दबंगता दरकी, लेकिन खत्‍म नहीं हुई

रोहतास और औरंगाबाद जिले में सर्वेक्षण के मुताबिक, पिछले 35 वर्षों में ग्रामीण सत्‍ता में सवर्णों के आधिपत्‍य को यादव जाति ने चुनौती दी है। उनके प्रभाव को पीछे धकेला है, लेकिन खुद नए प्रभुत्‍व वाले वर्ग में शामिल हो गया है। जातीय जड़ता टूटी नहीं है, बस स्‍वरूप बदल लिया है। बता रहे हैं वीरेंद्र यादव

पूरे भारत की तरह बिहार में भी सत्ता की पहली इकाई है ग्राम पंचायत। सूबे में इस स्‍तर पर दो तरह की सत्ता संरचनाएं हैं। पहली है ग्राम सभा और दूसरी पैक्‍स यानी प्राथमिक कृषि ऋण सहयोग समिति। ग्राम सभा पंचायती राज विभाग के तहत काम करती है, जबकि पैक्‍स सहकारिता विभाग के तहत काम करती है। पंचायती राज अधिनियम के तहत ग्राम पंचायतों में प्रमुख यानी मुखिया के पद के साथ ही अन्य सभी पदों पर आरक्षण लागू है। एक जातीय कोटा है और दूसरा इसी कोटा के अंदर महिला कोटा। मतलब यह कि मुखिया पद के लिए बिहार में अनुसू‍चित जाति, जनजाति और अतिपिछड़ा वर्ग का कोटा निर्धारित है। यह आरक्षण राज्‍य सरकार के आरक्षण नियम के तहत तय है। अन्‍य सीटों को सामान्‍य श्रेणी का माना जाता है। इसमें सभी जाति समूह में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। इसके विपरीत पैक्‍स की समितियों में आरक्षण का कोटा तय है। लेकिन पैक्‍स अध्‍यक्ष पद अनारक्षित है। इस पद पर किसी जाति समूह के लिए आरक्षण नहीं है।

वीरेंद्र यादव फाउंडेशन समय-समय पर सामाजिक सरोकारों के विषयों पर अध्‍ययन करता रहता है। इस बार ट्रस्‍ट ने ग्रामीण सत्ता में आरक्षण के प्रभाव का अध्‍ययन किया। इसके लिए पंचायत स्‍तरीय इकाई ग्राम सभा और पैक्‍स को चुना गया। नमूने के संकलन के लिए ट्रस्‍ट ने औरंगाबाद और रोहतास जिले का चयन किया। यह दोनों जिले दक्षिणी बिहार का हिस्‍सा हैं और दोनों जिलों में यादव और राजपूत जाति का प्रभाव माना जाता है। कुछ-कुछ प्रखंडों के हिसाब से अन्‍य जातियों का प्रभाव भी देखा जा सकता है।

औरंगाबाद जिले में 202 पंचायतें और 204 पैक्‍स हैं। इसी तरह रोहतास जिले में 229 पंचायत और 247 पैक्‍स हैं। पंचायत और पैक्‍स की संख्‍या में कुछ अंतर की वजह यह है कि कुछ पंचायत को नगर पंचायत बना दिया है, लेकिन उनकी पैक्‍स पूर्ववत कायम हैं। इसलिए पंचायत की तुलना में पैक्‍सों की संख्‍या कुछ अधिक है।

बिहार के एक गांव में दलित टोले की स्थिति

फाउंडेशन ने अपने अध्‍ययन के दौरान दोनों जिलों के सभी पैक्‍स अध्‍यक्ष और मुखिया का प्रखंड एवं पंचायतवार जाति सर्वेक्षण किया। जाति के हिसाब से पंचायतवार सूची भी बनाई। इस दौरान लोगों की राय, सामाजिक बनावट और जातिगत बसावट को लेकर कई रोचक जानकारी भी हासिल हुई। जैसे कि औरंगबाद जिले में गया-डिहरी रेलवे लाईन के दक्षिण दिशा में राजपूतों का प्रभाव दिखता है तो उत्तर दिशा में यादवों का प्रभाव दिखता है। औरंगाबाद जिले में भूमिहारों की सापेक्षिक बहुलता है तो रोहतास जिले में ब्राह्मणों की। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर चमार और पासवान प्रभावी दिखे तो अतिपिछड़ी जाति के लिए आरक्षित सीटों पर बनियों का दबदबा दिखा। सामान्‍य सीटों पर दोनों जिलों में राजपूत और यादवों का प्रभुत्‍व दिखता है। हालांकि कोईरी, कुर्मी, भूमिहार, ब्राह्मण भी हैं, लेकिन तुलनात्‍मक रूप से कम हैं।

पैक्स अध्यक्षों की जातिगत हिस्सेदारी

क्रमजाति औरंगाबाद रोहतास
1. राजपूत 84 71
2. यादव 59 49
3. भूमिहार 22 9
4. कोइरी 14 28
5. ब्राह्मण 34
6.कुर्मी 32
7. बनिया 15
8. मुसलमान 4
9. अन्य 5
कुल204247

फाउंडेशन ने अपने अध्‍ययन में पाया कि बड़ी आबादी वाली जाति मुखिया और पैक्‍स अध्‍यक्ष दोनों पदों पर बढ़त बनाये हुए हैं। पैक्‍स अध्‍यक्ष के पद अनारक्षित होने के कारण दलित और अतिपिछड़ी जाति की संख्‍या लगभग नहीं के बराबर है। औरंगाबाद और रोहतास दोनों जिलों को मिलाकर पैक्‍स अध्‍यक्ष की 58 फीसदी सीटों पर यादव और राजपूतों ने कब्‍जा कर रखा है। (इसके अलावा, राजपूतों की संख्या यादवों से कम होने के बावजूद, उनका प्रतिनिधित्व यादवों से लगभग 30 प्रतिशत अधिक है।) अन्‍य पदों पर भूमिहार समेत अन्‍य पांच-छह जातियों ने कब्‍जा कर रखा है। इसमें आरक्षित वर्ग समूह के एकाध लोग ही हैं। लेकिन आरक्षण का व्‍यापक असर ग्रामीण सत्ता पर देखने को मिलता है।

मुखिया पद पर आरक्षण का असर साफ-साफ दिखता है। मुखिया पद के सामान्‍य कोटि की सीटों पर उन्‍हीं 7-8 जातियों का ही कब्‍जा है, जिनका आधिपत्‍य पैक्‍स अध्‍यक्ष पद पर है।

मुखिया पद पर आरक्षण का ही असर है कि आरक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्‍व निर्धारित हुआ है। कुछ सामान्‍य सीटों पर भी आरक्षित वर्ग के लोग निर्वाचित हुए हैं, हालांकि इनकी संख्‍या बहुत कम है। आरक्षण तीन श्रेणी में है। अनुसूचित जाति, जनजाति और अतिपिछड़ा वर्ग। आदिवासी का आरक्षण रोहतास जिले के पहाड़ी इलाकों में है। उनके लिए 2-3 सीटें ही आरक्षित हैं। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर बड़ी संख्‍या में चमार और पासवान जाति के लोग निर्वाचित हुए हैं। इसकी वजह है कि इनकी आबादी काफी ज्‍यादा है और ये अन्‍य अनुसूचित जातियों की तुलना में आर्थिक रूप से भी संपन्‍न हैं। इस कारण इनकी जीत आसान हो जाती है। हालांकि इक्के-दुक्के दूसरी जाति के भी दलित जीतते रहे हैं।

मुखिया पद पर जातिगत हिस्सेदारी

क्रमजाति औरंगाबाद रोहतास
1. यादव 37 27
2. राजपूत 32 45
3.भूमिहार 11 3
4. ब्राह्मण 17
5. मुसलमान 16 11
6. कोइरी 13
7. कुर्मी 14
8. चमार 14 11
9. पासवान 24 19
10. बनिया 15 26
11.अन्य 39 43
कुल202229

अतिपिछड़ा यानी ईबीसी के नाम पर बनियों (अधिकतर तेली व हलवाई) की बहार है। बनियों की आबादी ईबीसी की अन्‍य जातियों की तुलना में अधिक होने के साथ ही वे आर्थिक रूप से साधन संपन्‍न हैं। इसका लाभ भी चुनाव में मिलता है।

फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया है कि आरक्षण के कारण ग्रामीण सत्ता में महिलाओं का प्रतिनिधित्‍व बढ़ा है, लेकिन निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी नहीं के बराबर होता है। हर निर्णय के लिए वे पति या परिजन पर निर्भर रहती हैं। अध्ययन के दौरान फोन पर बातचीत के दौरान महिला मुखिया को जब भी फोन लगाया तो अधिकांश बार उनके पति या परिजन ने ही फोन उठाया। महिला मुखिया के नाम सरकारी डाटा में दर्ज मोबाइल नंबर में उनके पति की तस्‍वीर दिखती है। एकाध महिला ने फोन उठा भी लिया तो बात करने लिए फोन पति को बढ़ा दिया।

बिहार के संदर्भ में बात करें तो पिछले 35 वर्षों से पिछड़ों का राज है। पिछले 20 वर्षों से महिलाओं को आरक्षण मिल रहा है। यह किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए बड़ा अवसर और समय है। लेकिन पति का प्रभुत्‍व और जाति की दबंगता दरकी जरूर है, लेकिन खत्‍म नहीं हुई है। पति का प्रभुत्‍व हर जाति समूह में बराबर रूप से व्‍याप्‍त है, लेकिन जाति की दबंगता जाति विशेष की आबादी से प्रभावित है।

पिछले 35 वर्षों में ग्रामीण सत्‍ता में सवर्णों के आधिपत्‍य को यादव जाति ने चुनौती दी है। उनके प्रभाव को पीछे धकेला है, लेकिन खुद नए प्रभुत्‍व वाले वर्ग में शामिल हो गया है। जातीय जड़ता टूटी नहीं है, बस स्‍वरूप बदल लिया है। अनुसूचित जाति में चमार-पासवान पहले से प्रभुत्‍व वाला समूह रहा है और उस समूह में उसकी प्रभुता कायम है।

अध्ययन बताते हैं कि जाति की आबादी और/या आर्थिक संसाधन आज भी सामाजिक और राजनीतिक सत्ता को व्‍यापक स्‍तर पर प्रभावित कर रहा है। इसमें बदलाव के लिए राजनीतिक पहल से अधिक सामाजिक पहल की आवश्‍यकता है। जातीय उग्रता या जातीय कुंठा से बंधा समाज आज भी अपने दायरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। शिक्षा ने डिग्री का बोझ बढ़ाया है, लेकिन जातीय आग्रहों से बंधी जड़ता को चुनौती देने को तैयार नहीं है। व्‍यक्ति जातीय दायरे में ही सत्ता की राह तलाश रहा है। यह राह एक व्‍यक्ति के लिए सरल हो सकती है, लेकिन समूह के व्‍यापक सरोकार के लिए राह को अभी और सुगम बनाना है। त्रासदी यह है कि इसके लिए कोई पहल होती नहीं दिख रही है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

वीरेंद्र यादव

फारवर्ड प्रेस, हिंदुस्‍तान, प्रभात खबर समेत कई दैनिक पत्रों में जिम्मेवार पदों पर काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र यादव इन दिनों अपना एक साप्ताहिक अखबार 'वीरेंद्र यादव न्यूज़' प्रकाशित करते हैं, जो पटना के राजनीतिक गलियारों में खासा चर्चित है

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