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‘धर्मनिरपेक्ष’ व ‘समाजवादी’ शब्द सांप्रदायिक और सवर्णवादी एजेंडे के सबसे बड़े बाधक

1975 में आपातकाल के दौरान आरएसएस पर प्रतिबंध लगा था, और तब से वे आपातकाल को अपने राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन यह विडंबना है कि जिस आपातकाल की वे आलोचना करते हैं, उसी दौरान ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े गए, जो भारत के समावेशी और कल्याणकारी चरित्र को मजबूत करते हैं। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

भारत का संविधान सिर्फ कागज का एक दस्तावेज भर नहीं है। यह उस सपने का प्रतीक है, जिसे बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनके साथी संविधान निर्माताओं ने देखा था। एक ऐसा भारत, जहां समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय हर नागरिक का हक हो। संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है और इसमें 42वें संशोधन में शामिल ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द भारत के बहुलतावादी और समावेशी चरित्र को परिभाषित करते हैं। लेकिन हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयानों ने भारत के संविधान की इस आत्मा पर सीधा हमला बोला है। इन नेताओं ने संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की वकालत की है, जिसके खिलाफ देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। यह बयान न केवल संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि आरएसएस और भाजपा के संविधान-विरोधी चरित्र को भी उजागर करता है।

वैसे तो यह कोई नई बात नहीं है। आरएसएस और भाजपा का इतिहास संविधान को कमजोर करने की साजिशों से भरा पड़ा है, क्योंकि संविधान उनके मनुस्मृति से प्रेरित सवर्णवादी और सांप्रदायिक एजेंडे के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है। आपातकाल के विरोध के नाम पर आयोजित विभिन्न आयोजनों में संघ-भाजपा नेताओं का असली चेहरा उनके बयानों से सामने आ गया है।

विदित है कि गत 26 जून को दिल्ली में आयोजित ‘इमरजेंसी के 50 साल’ कार्यक्रम में आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द आपातकाल के दौरान जब जोड़े गए थे, तब संसद और न्यायपालिका पंगु थी। उन्होंने दावा किया कि ये शब्द डॉ. आंबेडकर के मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे और अब इनकी प्रासंगिकता पर बहस होनी चाहिए। यह बयान कोई साधारण टिप्पणी नहीं है। यह आरएसएस के उस पुराने एजेंडे का हिस्सा है, जो संविधान को मनुस्मृति पर आधारित व्यवस्था से बदलने की कोशिशें करता रहा है।

आरएसएस नेता होसबाले का यह कहना कि ये शब्द थोपे गए थे, ऐतिहासिक तथ्यों का सरासर मखौल उड़ाना है। 42वें संविधान संशोधन (1976) के जरिए इन शब्दों को शामिल किया गया था, जब इंदिरा गांधी की सरकार पूर्ण बहुमत में थी। यह संशोधन संसद में व्यापक चर्चा के बाद पारित हुआ था और नवंबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे वैध ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द 1978 में 45वें (बाद में 44वें) संविधान संशोधन विधेयक पर विचार-विमर्श के दौरान जांच के दायरे में आए थे (जब भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ सत्ता में थी) और इन शब्दों को बरकरार रखा गया था। इसलिए होसबाले का दावा न केवल संविधान की प्रस्तावना की गरिमा पर प्रहार करता है, बल्कि बाबासाहेब के सुविचारित वैचारिक दृष्टिकोण को भी गलत तरीके से पेश करता है। बाबासाहेब ने संविधान सभा में कहा था कि भारत का संविधान सामाजिक और आर्थिक समानता पर आधारित होगा। ‘धर्मनिरपेक्ष’ व ‘समाजवादी’ शब्द उनकी सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता की भावना को और स्पष्ट करते हैं।

42वें संविधान संशोधन में जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द

होसबाले के बोलने भर की देर थी कि संघ-भाजपा के नेताओं में बयान देने को होड़ मच गई है। केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने होसबाले के बयान का समर्थन करते हुए वाराणसी में एक कार्यक्रम में कहा कि “सर्वधर्म समभाव भारतीय संस्कृति का मूल है, न कि धर्मनिरपेक्षता।” उन्होंने कहा कि ये दोनों शब्द आपातकाल में जोड़े गए थे और इन्हें हटाने पर विचार करना चाहिए। चौहान ने यह भी कहा कि भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसे विचार पहले से मौजूद हैं, इसलिए इन शब्दों की जरूरत नहीं है।

चौहान का यह बयान न केवल भ्रामक है, बल्कि खतरनाक भी है। ‘सर्वधर्म समभाव’ का नारा, जिसे अकसर आरएसएस-भाजपा के नेता बार-बार दोहराते हैं, वास्तव में उनकी सांप्रदायिक और घनघोर जातिवादी विचारधारा को छिपाने का हथियार मात्र है। अन्यथा उन्हें धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे उद्दात्त शब्दों से क्या दिक़्क़त है? धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि राज्य किसी भी धर्म को विशेष तरजीह नहीं देगा और सभी नागरिकों को समान अधिकार देगा, चाहे उनकी जाति, धर्म या वर्ग कुछ भी हो। लेकिन ‘सर्वधर्म समभाव’ का इस्तेमाल अक्सर हिंदू-केंद्रित विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों को हिंदू संस्कृति के दायरे में समाहित करने की कोशिश होती है। यह भारत के बहुलतावादी चरित्र के खिलाफ है, जो संविधान की आत्मा है।

आख़िर यह ‘सर्वधर्म समभाव’ क्या है और किसके प्रति समभाव रखते हैं सवर्ण जातिवादी हिंदुत्व के झंडाबरदार? हकीकत तो यह है कि ये अपने ही समधर्मी लोगों के प्रति अच्छा भाव नहीं रख पाते हैं। आम तौर पर इनकी नफ़रत दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ तो ज़ाहिर होती ही रहती है। मौक़ा मिलते ही पिछड़े वर्गों के प्रति भी उजागर होती है। जैसे हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश के इटावा में ओबीसी कथावाचकों के साथ किया गया व्यवहार है, जिसमें उनके द्वारा की गई भागवत कथा के बाद मारपीट, सिर के बाल काटने और पैर पकड़ कर नाक रगड़ने और पेशाब छिड़क कर सज़ा दिए जाने का कुकृत्य किया गया। हद तो यह हुई कि पीड़ितों के ख़िलाफ़ भी मुक़दमा क़ायम किया गया। इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि जब स्वयं के धर्म के दलित-पिछड़े लोगों के प्रति समभाव की भावना विकसित नहीं हो सकी तो अन्य धर्म के लोगों के प्रति समभाव ये रख पाएंगे?

संविधान के मूल ढांचे की संवैधानिक अवधारणा को नकारने वाले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ इस बहस से दूर कैसे रह सकते थे। वे भी इसमें शामिल हो गए। उन्होंने कहा कि आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में बदलाव हुआ, जो लोकतंत्र का काला अध्याय था। उनके मुताबिक़ इंदिरा गांधी द्वारा जबरन जोड़े गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द अब नासूर बन चुके हैं, यह सनातन का अपमान है। अब इन्हें हटा देना चाहिए। साथ ही, उन्होंने कहा कि प्रस्तावना संविधान की आत्मा है और इसे बदलना संविधान निर्माताओं के साथ विश्वासघात था। यह बयान अपनेआप में विरोधाभासी है। एक तरफ तो वे संविधान को गलत ठहराते हैं और दूसरी ओर प्रस्तावना की पवित्रता की बात करते हैं। यह आरएसएस भाजपा के दोहरे चरित्र को उजागर करता है।

हालांकि होसबाले, चौहान और धनखड़ के बयान अंतिम बयान नहीं हैं। यह शुरुआत भर है। अभी इनका संविधान पर हमला और बढ़ेगा। यह सुनियोजित षड्यंत्र है, जिसके तहत जानबूझकर इस तरह के बयान दिए जाते हैं, ताकि संविधान के ख़िलाफ़ विमर्श को मुख्यधारा का विमर्श बनाया जा सके। संघियों और भाजपाइयों के इन बयानों के खिलाफ देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। विपक्षी दलों, सामाजिक संगठनों और आम जनता ने इसे संविधान पर हमला बताया है।

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि “आरएसएस और भाजपा को संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहिए। यह दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के अधिकार छीनने की साजिश है।” राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने ट्वीट किया है कि “आरएसएस का संविधान-विरोधी चेहरा फिर बेनकाब हुआ। वे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, लेकिन जनता इसे कभी बर्दाश्त नहीं करेगी।” राष्ट्रवादी कांग्रेस की सांसद सुप्रिया सुले ने कहा है कि “संविधान में हर शब्द चर्चा और सहमति से जोड़ा गया है। इसे बदलने की कोशिश लोकतंत्र पर हमला है।” विभिन्न सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने भी इस मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद की है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे शहरों में विरोध प्रदर्शन भी हुए। लोगों ने ‘संविधान बचाओ’ के नारे के साथ सड़क पर आ रहे हैं। दलित और अल्पसंख्यक संगठनों ने इसे अपने अधिकारों पर हमला बताया। इस दौर के प्रखर बहुजन चिंतक और लेखक कांचा आइलैय्या ने कहा है कि “आरएसएस का सपना मनुस्मृति का भारत है, जहां दलित और शूद्र गुलाम हों। लेकिन हम बाबासाहेब के संविधान को बचाने के लिए हर कुर्बानी देंगे।”

आरएसएस का संविधान के प्रति विरोध कोई नई बात नहीं है। सन् 1949 में जब संविधान को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तभी आरएसएस ने इसे खारिज कर दिया था। उनके मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने 30 नवंबर, 1949 को ही लिख दिया था कि संविधान में भारतीयता का अभाव है और यह मनुस्मृति से प्रेरित नहीं है, जिसे वे विश्व का सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कानून मानते हैं। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ़ था‍ॅट्स’ में संविधान को पश्चिमी देशों की नकल बताया था और हिंदू राष्ट्र की खुलकर वकालत की थी। 1975 में आपातकाल के दौरान आरएसएस पर प्रतिबंध लगा था, और तब से वे आपातकाल को अपने राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन यह विडंबना है कि जिस आपातकाल की वे आलोचना करते हैं, उसी दौरान ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े गए, जो भारत के समावेशी और कल्याणकारी चरित्र को मजबूत करते हैं। अब इन शब्दों को हटाने की मांग करके आरएसएस यह साबित कर रहा है कि उसका असली निशाना संविधान की आत्मा है।

सर्वविदित है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द केवल शब्द नहीं हैं, ये भारत के सामाजिक ताने-बाने की रीढ़ हैं। धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों के लोग समान अधिकारों के हकदार होंगे। यह वह सिद्धांत है, जो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और अन्य समुदायों को एक साथ जोड़ता है। समाजवाद का मतलब है सामाजिक और आर्थिक समानता, जहां गरीबों, दलितों और वंचितों को उनके हक मिलें। डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि नीति-निर्देशक तत्वों में समाजवादी सिद्धांत पहले से मौजूद हैं। ये शब्द केवल उस भावना को और स्पष्ट करते हैं। इसलिए इन शब्दों को हटाने की मांग का मतलब है भारत को एक सांप्रदायिक और असमान समाज की ओर ले जाना। आरएसएस का हिंदू राष्ट्र का सपना, जो उनकी विचारधारा का मूल है, धर्मनिरपेक्षता के रहते संभव नहीं हो सकता है। इसलिए इसका व्यापक विरोध फिर से शुरू किया गया है। आरएसएस की स्थापना के शताब्दी वर्ष से ठीक पहले संविधान पर हमला अचानक नहीं है। यह सुनियोजित हमला है। इससे देश के बहुजनों को सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को हटाना भारत की आत्मा को कुचल देना है और ‘समाजवादी’ शब्द को हटाने की मांग देश के दलित वंचित समुदायों के खिलाफ है, जो शैक्षणिक और सामाजिक न्याय के लिए संविधान पर निर्भर हैं।

यह सही है कि आपातकाल के दौरान कई गलतियां हुईं। लेकिन ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ना कोई गलती नहीं थी। ये शब्द उस समय के सामाजिक और राजनीतिक माहौल में भारत के चरित्र को और मजबूत करने के लिए जोड़े गए थे।

बहरहाल, भारत की जनता ने बार-बार दिखाया है कि वह संविधान के साथ खड़ी है। 2024 के लोकसभा चुनावों में जनता ने भाजपा को 400 सीटों का सपना पूरा नहीं होने दिया, क्योंकि लोग जानते हैं कि संविधान उनकी आजादी और सम्मान का रक्षक है। समय आ चुका है जब देश भर के दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और सभी प्रगतिशील भारतीयों को इस साजिश के खिलाफ एकजुट होना होगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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